वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 134
From जैनकोष
जंजा इजरामरणं दुहदुट्ठविसाहिविसविणासयरं।
सिवसुहलाहं सम्मं संभावइ सुणइ साइए साहू।।134।।
सम्यक्त्वाराधना का उपदेश―अंतरात्मा का वर्णन करके अब आदेश उपदेश रूप में कहा जा रहा है कि आत्महित चाहने वाले भव्य पुरुष आत्महित के लिए सम्यक्त्व का चिंतन, मनन, श्रवण और साधना करना चाहिए। यह सम्यक्त्व जन्म बुढ़ापा मृत्यु दुःख रूपी दुष्ट सर्पों के विष का नाश करने वाला है। यह सम्यक्त्व अष्टांग सहित निर्दोष और जन्म बुढ़ापा आदिक सर्व विडंबनाओं को नष्ट करने वाला है। देखिये नष्ट तो होते हैं चारित्र के प्रताप से किंतु चारित्र बनता है सम्यक्त्व के होने पर। इस कारण मौलिक बात तो सम्यक्त्व की रही। सम्यग्दर्शन का ही यह सब माहात्म्य है कि जो यह जीव आत्मविकास में प्रगति करता हुआ कर्मों का नाश कर लेता है। यह अष्ट कर्म ही जीव के लिए कलंक हैं। इन कर्मों का जब तक बंधन संबंध रहता है तब तक यह जीव संसार दशा में रहता है। कर्मों से रहित हुआ कि अनंत काल के लिए पवित्र शुद्ध अवस्था प्राप्त हुई। संसार की गतियाँ, जन्म मरण करते रहना यह तो इस जीव के लिए कष्ट ही कष्ट है। सर्व कष्टों से बचने का कितना सुगम उपाय है कि अपने स्वरूप को जाने और अपने स्वरूप मात्र को ही अपना सर्वस्व माने और इस ही को निरख कर संतुष्ट होवें। सुगम बात है। स्वाधीन बात है और इतनी सुगम महान बात के लिए इस जीव को उमंग नहीं आती है तो यह सब मोह विषधर का डसा हुआ जीव है, नहीं तो अपनी बात स्वाभाविक बात तो तुरंत समझ में आना चाहिए। अनादि से लेकर अब तक इस जीव ने अपने स्वरूप की सम्हाल नहीं की। अब मनुष्य हुए, श्रेष्ठ मन पाया, विवेक जगा तो अब अपने विवेक से ऐसा दृढ़ निश्चय वाला बनना है कि मुझे तो मेरे स्वरूप की उपासना के सिवाय और कुछ न चाहिए। बाकी बाहर सब धोखा ही धोखा है जहाँ सम्यक्त्व का प्रकाश हुआ वहाँ इसको सद्बुद्धि बनती संयम होता, आत्मा चरित्र बनता और सर्व कर्मों से मुक्ति मिलती है। इस कारण हे भव्य जीव इस सम्यक्त्व का चिंतन कर मनन कर सम्यक्त्व का जो विषय है आत्मश्रद्धान, पदार्थों का सही श्रद्धान, उस पर दृढ़ता लाइये, उस सम्यक्त्व की वार्ता का श्रवण कीजिए और सम्यक्त्व की साधना बनाइये―