वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 146
From जैनकोष
पिच्छे संत्थरणे इच्छासु लोहेण कुणइ ममयारं।
यावच्च अट्टरुद्दं तावण मुंचेदिणहु सोक्खं।।146।।
इच्छा की आत्मनंद विघ्नरूपता―जब तक इस जीव को संसार के पदार्थों की इच्छा है तब तक वह मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। संसार में पदार्थ क्या? घर में रहता हो तो उसके लिए उसके ढंग की और घर त्याग दिया हो तो उसके लिए ढंग की। पर कोई भी बाह्य पदार्थ हो। बाह्य पदार्थ में उनकी अभिलाषा रखना यह मोक्ष सुख का बाधक है। अभिलाषा भी दो प्रकार की होती हैं एक मिथ्यात्व में होने वाली इच्छा और एक परिस्थितिवश की जाने वाली इच्छा और उनके भेद से फिर विपत्ति विडंबना, बंधन में भी फर्क आ जाता। जो मिथ्यात्व संबंधी इच्छा है वह तो होती है इस ढंग से कि यह चीज मुझे सदा मिलती रहे और जो परिस्थिति वश होती है वह इस ढंग से होती है कि मैं इससे कब छूटूँ। मेरी यह इच्छा कब टले और इच्छा भी करते जाते हैं याने वैराग्य होते हुए भी परिस्थितिवश कुछ चाह करनी पड़ती है और एक मोहवश पदार्थ में ही आशक्त होकर रमकर उसकी चाह की जाती है तो विशेषकर यह मिथ्यात्व वाली चाह है और मोक्ष सुख में बाधक तो सभी चाहें हैं। यहाँ तक बताया है कि ‘मोक्षोयस्य आकांक्षा न मोक्षऽपि गच्छति’ अर्थात् उस मोक्ष के विषय में जो भी इच्छा रख लेवे जिस समय जो भी भाव चल रहे हैं उस समय वह पुरुष मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। मुमुक्षु मुनियों के हृदय में समता व आत्ममग्नता का महत्त्व―मोक्ष प्राप्ति तो ज्ञान स्वरूप में ज्ञान के मग्न हो जाने में है। वहाँ इच्छा का कहाँ काम है? सो सभी इच्छाओं को लेना फिर भी मिथ्यात्व संबंधी इच्छाओं को तो महा विष समझना उससे संसार के सारे संकट बढ़ते हैं। यह मनुष्य जीवन तो बड़ी दुर्लभता से पाया है यह बिल्कुल बेकार हो जाता है तो बाह्य पदार्थ की इच्छा करना मोक्ष में बाधक है। वे क्या-क्या बाह्य पदार्थ हैं? वसतिका श्रावकों के, साधु संतों के ठहराने के लिए कोई वसतिका बनवाये। किसी ढंग का कमरा सा छायादार कोई स्थान तो साधुजन वहाँ ठहर कर उसमें रमें या ऐसी वसतिका की इच्छा बनाये तो उनको मोक्ष का बाधक है साधुवों को तो बताया है कि छोटे गाँव में एक दिन कस्बा जैसी जगह में 3 दिन और बड़े नगरों में 5 दिन रहे। यह किसलिए विधान है कि किसी बाह्य पदार्थ में उसका मोह न बस सके और कोई ऐसी अनुकूल बसतिकाओं की मन में वासना बनाये रहे तो वह मुनिपने से च्युत है उसे क्या है चाहे केवल हो चाहे श्मशान हो उसके लिए समान बल्कि उपयोगिता की दृष्टि से उनको महल से श्मशान अधिक ठीक है भाव विशुद्धि होना सुगम स्वाधीनता होना खैर मुनि की दृष्टि में सर्व पदार्थ समान हैं। वसतिका प्रतिमोपकरणगणगच्छविषयक ममकार के त्यागे बिना शांति की असंभवता― मुनिजन वसतिका में मोह नहीं करते। जो इनकी इच्छा करेगा वह मोक्ष को नहीं पा सकता और उपकरणों में जो अपनी वृत्ति को निभाने के लिए साधनभूत रखे गए हैं, कमंडल, पिछी, शास्त्र वगैरह। तो उन उपकरणों में जिनकी इच्छा है। जिनको मोह जगता है वे भी मोक्ष सुख को नहीं प्राप्त कर सकते। इस कारण को सुनकर साधुवों से तो अपने योग्य शिक्षा लेना और गृहस्थजन इतनी शिक्षा लें कि जो कुछ भी प्राप्त है मकान, कुटुंब आदि जो-जो कुछ भी है वे सब मेरे हित की चीज नहीं है। मिले हैं और गृहस्थी में उनसे काम पड़ता है, यह तो बात एक अलग है, मगर ये बाह्य पदार्थ मेरे आत्मा का भला कर दे, यह बात इन में नहीं है। तो यहाँ विशेषतया साधुवों को दृष्टि में रखकर कहा जा रहा है कि जो इन पदार्थों में आकांक्षा रखता है वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता और किस-किस में इच्छा करता? गणताक्ष में। मुनियों का संघ है तो उस संघ में इच्छा रखना कि मेरा संघ बढ़े। बढ़ा हुआ संघ होगा तो मेरे विषय में लोग प्रशंसा करेंगे कि इनका बहुत बड़ा संघ है अथवा उसमें जो आज्ञाकारी हैं या जो अपनी सेवा में विशेष लगे हैं उनके प्रति विशेष राग बनना, इच्छा बनाना यह भी गणताक्ष की इच्छा है। जब तक ऐसी वृत्ति है तब तक मोक्षसुख का लाभ नहीं है। श्रमणसंघ जाति कुल शिष्य प्रतिशिष्य विषयक ममकार त्यागे बिना शांति की असंभवता― इसी प्रकार शास्त्रसंघ में विद्यार्थी जनों में जो संघ में बढ़े हों या जो-जो भी वहाँ रहते हुए में संघ में इच्छा होवे, उनमें रागभाव होवे तो वहाँ मोक्ष सुख का लाभ नहीं हो सकता। मोक्ष सुख तो होगा ही, मगर उस काल में वह आत्मीय अनुभव का आनंद नहीं ले पाता, ऐसे ही जाति कुल में खुद की जाति अपनी जाति कुल को देखकर मैं ऐसे घर में पैदा हुआ मेरा उच्च कुल है और उस कुल में इच्छा बनाये, उसमें अपना महत्त्व माने, यह विकल्प जब तक है तब तक सत्य आनंद नहीं हो सकता। कुछ ऐसी प्रकृति है मनुष्यों की कि जो जिस कुल में पैदा हुआ है वह उस कुल को ही महान समझता है। अगर विशेष रूप से कोई कुल नीचा है और उसमें भी पैदा हो तो भी ऐसा ढंग सोचेगा कि जिससे यह जाहिर करेगा कि सबसे अच्छा कुल तो मेरा है। तो जो ममता का साधनभूत है उस जाति कुल की इच्छा रहे तो उसे भी मोक्ष सुख प्राप्त नहीं होता। तो शिष्य प्रति शिष्य छात्रों में खुद के पढ़ाये गए शिष्य और उन शिष्यों द्वारा पढ़ाये गए शिष्य वे प्रतिशिष्य, ऐसे छात्रजनों में इच्छा राग होना सो मोक्ष सुख में बाधक है, क्योंकि त्यागी व्रती साधुसंतजनों को एक ज्ञान का ही तो कार्य पड़ा है। वहाँ पढ़ने वाले भी होते। पढ़ने वाले शिष्यों के प्रति राग चलता हो तो वह मोक्ष सुख का बाधक है। पुत्र प्रपौत्रादि विषयक ममकार के त्यागे बिना शांति की असंभवता―इसी तरह पुत्र और पोते आदि में राग भाव हो तो वह आत्मा का विघात करने वाला भाव है। यहाँ इस प्रकरण में बहुत सी बातें साधुवों का लक्ष्य लेकर कही गई हैं। पुत्र पौत्र में गृहस्थों को मोह होता है, राग होता है, यह बात तो सब जानते हैं। मगर किसी साधु के भी तो पुत्र पौत्रादिक के प्रति राग बन सकता है। किसी ने पुत्र पौत्रादिक छोड़ दिया। अपना भेष दिगंबर मुद्रा का रख लिया, पर भीतर के मन को कोई क्या करे? अगर उस साधु को किसी पुत्र पर, पौत्र पर या पुत्री पर कोई स्नेह भाव हुआ, मानो साधु है और सोचे कि हमारी अमुक मुन्नी अमुक जगह है उसे देख आयें कि वह बीमार है या क्या है। उसकी जरा भी व्यवस्था बनाये, वहाँ ही दृष्टि गई तो वह एक राग है। वहाँ अगर धर्मात्मा के नाते से उसकी सेवा का भाव रहा तब तो बाधा नहीं पर प्रायः करके वहाँ धर्म के नाते मात्र से नहीं, किंतु यह अपनी-अपनी बात है, इन जीवों में राग जाता है। कभी कोई पुत्र दर्शन के लिए आये तो उसे देखकर खुश हो जाना, यह आया है, मिला है, ऐसी भीतर में वासना बनाना एक विष है। जहाँ पुत्र पौत्रादिक में लोभ जगे, इच्छा जगे, राग जगे वहाँ मोक्ष सुख का कोई अवकाश नहीं है। वस्त्र पुस्तकादि विषयकममकार त्यागे बिना शांति की असंभवता―ऐसे ही वस्त्रों में राग जगे तो वह भी मोक्षसुख में बाधक हैं नग्न मुद्रा है फिर भी ऐसा भाव बनावे कि अजी तौलिया से इस शरीर को पोछा ही तो है पर उसमें एक चित्त बस गया तो यह कोई विधि वाली बात बन गई। लोगों को भी एतराज नहीं है। इच्छा हो गई अथवा मैने यह मुद्रा क्यों ली? अच्छा तो इस भेष में था, अब मुझे ब्रह्मचारी बनकर रहना है। या अन्य कुछ बनकर रहना है। इस प्रकार एक परिग्रह संबंधी बात जगना यह इस जीव के लिए आत्मीय आनंद में बाधा देने वाली बात है। ऐसे ही वस्त्रादिक में यह वस्त्र बढ़िया सजाओ, देखने में अच्छा लगे...तो यह भाव भी आत्मीय आनंद में बाधक है। इसी तरह पिछी में आसन आदिक में इच्छा जगे, लोभ जगे, ममता बने तो जब तक ऐसे आर्त और रौद्र के परिणाम चलते हैं जीव के तब तक वह मोक्षसुख को नहीं पाता। जिसे विशुद्ध आत्मीय आनंद पाना है, सदा के लिए संसार के संकटों को मेटना है तो उसका बस एक ही कार्य है कि बाह्य पदार्थों को भिन्न जानकर उनसे ममता त्यागे और अपने आप के स्वरूप में मग्न होने का उपाय बनावे पौरुष करे वह उपाय और पौरुष है सम्यक्त्व। ‘सम्यक्त्व नहीं’ है तो अटपट वृत्तियाँ जगती हैं। सो अपने हित में सम्यक्त्व का एक प्रधान अवलंबन है, सो ज्ञान ध्यान अध्ययन द्वारा सम्यग्दर्शन के भावों को प्राप्त करना चाहिए। आर्तरौद्रध्यान के त्यागी के ही शांति की संभवता―जब तक यह जीव आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान को नहीं छोड़ता है तब तक शांति को नहीं प्राप्त कर सकता। आर्त्तध्यान में कष्ट होता है। रौद्रध्यान में मौज होता है किंतु रौद्रध्यान का मौज आर्त्तध्यान से भी खतरनाक है मुनियों के कोई आर्त्तध्यान हो सकता है पर रौद्रध्यान संभव नहीं है। ये दोनों ही ध्यान संसार के कारण हैं। आर्त्तध्यान चार प्रकार के होते हैं―(1) इष्ट का वियोग होने से होता है। दुःखमयी ध्यान, अनिष्ट का संयोग होने से होता है दुःखमयी ध्यान। इन दोनों में दुःख कब होता है। जब कि इष्ट का वियोग होने पर उस इष्ट के संयोग की मन में आशा रहती है अनिष्ट संयोग होने पर दुःख का रूप कैसे बनता है कि उसके अनिष्ट का वियोग होने की मन में वासना रहती है। तो ऐसे ये दोनों दुःख उत्पन्न करने वाले ध्यान हैं। वेदना प्रभाव में शारीरिक वेदना रहती है, निदान में आशा और इच्छाकृत पीड़ा रहती है। ऐसे आर्त्तध्यान में शांति संभव नहीं। रौद्र ध्यान में भी शांति संभव नहीं। हिंसा करके करा कर अनुमोदना में मौज मानना, चोरी करके कराकर अथवा चोरी का समर्थन करके मौज मनाना, ऐसे ही परिग्रह का संचय करके कराकर अथवा करने वाले का समर्थन करके मौज मानना ये सब रौद्र ध्यान है इस दुर्ध्यान में रहते हुए शांति कभी संभव नहीं है इस कारण मुनिजनों के रौद्र ध्यान तो होता ही नहीं है। कदाचित निदान को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान संभव हैं सो वह भी बड़ी सम्हाल करता हुआ निकल जाता है, तो इन दो गाथाओं में यह बताया गया है कि जब तक कोई इच्छा है, प्रसंग है तब तक इस जीव को सुख शांति नहीं हो सकती।