वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 15
From जैनकोष
दाणं भोयणमेत्तं दिण्णइ धण्णो हवेइ सायारो।
पत्तापत्तविसेसं संदंसणे किं वियारेण।।15।।
आहारदान की श्लाध्यता―गृहस्थ पात्रदान करता है तो पात्रदान में उसने दिया क्या? भोजन ही तो दिया। तो भोजन मात्र देने में उस श्रावक को पात्र अपात्र का बहुत वितर्क नहीं करना होता है। एक जगह लिखा भी है कि ‘‘भूक्तिमात्र-प्रदानेतु का परीक्षा तपस्विनाम्’’ केवल भोजनमात्र देने में तपस्वी साधुवों की क्या परीक्षा करना? याने कोई ऐसा सोचे कि मैं यह देखूँ कि यह तपस्वी सही सम्यग्दृष्टि है या नहीं है? यह शुद्धोपयोग में रमा करता है या नहीं रमा करता है। बड़ी तेज परीक्षा कर रहे और यह सोचे कि हमारी परीक्षा में अगर उत्तीर्ण हुए तो हम इन्हें आहारदान दें। तो कहते हैं कि भाई ऐसी बारीक परीक्षा का अवकाश न रखना चाहिए श्रावक गृहस्थ को। अगर कोई एकदम ही स्पष्ट ही भ्रष्ट हो, कुछ हो तो उसके प्रति क्या कर्तव्य हो जाता? यदि उसका महत्त्व बढ़ाया गया तो दर्शन पाहुड़ में बताया है कि वह तो पाप की अनुमोदना करता है, पर साधारणतया सदाचार से साधुजन चलते हों। अपने आवश्यक कार्यों को करते हों तो अब उनमें क्या गहरी परीक्षा करना? तीर्थ प्रवृत्ति में होना यह संदेश देता है कि ‘भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्?’ वही बात इस गाथा में कही जा रही है कि जो आहार मात्र देता है याने आहारदान करता है तो वह धन्य हो जाता है। समंतभद्राचार्य ने बताया है कि ............. गृहकार्यों से, आरंभ से जो पाप कर्म बाँधा है, संग्रहीत किया है, वह पाप कर्म कौन धोवेगा? कैसे दूर होता है? तो बताया है कि जो गृहविमुक्त साधु संतजन हैं, अतिथि हैं उनके प्रति पूजा उन पापों को धो देती है। जैसे कि जल खून के दाग को धो देता है उसी प्रकार साधु संतजनों की प्रति पूजा उन पापों को धो देती है। अब कोई साधु महाराज की खूब तो पूजा करे, बहुत-बहुत हाथ जोड़े, खूब विनय करे और दो शब्द भी कह जाय―इनको धन्य है और आहारदान कोई करे नहीं तो क्या यह हो जायगी प्रतिपूजा? आहारदान में मुनिराज की मुख्य सेवा―कभी-कभी कुछ महिलायें कहने लगती हैं कि महाराज जी हम तो महिलायें हैं, आप लोगों की हम क्या सेवा कर सकें? आए लोगों की सेवा तो पुरुष लोग ही कर पाते हैं। तो बताओ--एक तुलनात्मक दृष्टि से देखो अगर पुरुष लोग शारीरिक सेवा बहुत-बहुत करें पर महिलायें आहार बनाकर न दें तो क्या उनकी उस सेवा से काम चल जायगा अरे पुरुषों की सेवा से भी बढ़कर है यह महिलावों की आहारदान की सेवा। यहाँ कोई यह भेद नहीं डाला जा रहा कि आहारदान―महिलायें ही देती है पुरुष नहीं देते। आहारदान देने में पुरुष लोगों का भी तो बहुत बड़ा हाथ है। पुरुष लोग आहारदान देने की अनुमोदना करते हैं, उन महिलावों को आहारदान देने की उमंग दिलाते हैं। वे पुरुष लोग ही कमाते हैं, सारी व्यवस्था बनाते हैं, तो वे भी आहारदान का लाभ लेते हैं, मगर एक प्रयोगात्मक (प्रेक्टिकल) बात कह रहे हैं कि मुनिदान के प्रसंग में, आहारदान की मुख्यता विशेष है। सो जो यथाशक्ति आहारदान, शास्त्रदान, औषधिदान और अभयदान, सभी प्रकार के दान करता है उस प्रसंग में आहारदान एक ऐसा मुख्य है कि न हो तो गाड़ी नहीं चल सकती। सो उस प्रसंग में पात्र अपात्र का विशेष तर्क वितर्क गृहस्थ नहीं करता।