वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 60
From जैनकोष
ण हु दंडइ कोहाइं देहं दंडेइ कहं खवइ कंभं।
सप्पो किं मुवइ तहा बम्मीए मारिए लोए।।60।।
अविकार चैतन्य स्वभाव के परिचय बिना विकारक्षय की असंभवता―मिथ्यात्व बसा हो और लोकरीति से धर्ममार्ग में चलता हो तो जैसी इस लोक में रूढ़ि है। प्रवृत्ति है उस तरह के ही तो भेष या वृत्ति धारण करेगा। सो भले ही करे लेकिन वह तो केवल शरीर को दंड देता है, कषायों का मर्दन नहीं कर पाता। जिसने कषाय रहित आत्मा का स्वरूप नहीं समझा वह कषायों का कैसे मर्दन कर सकता है? अपने आपकी ही सत्ता के कारण अपना जो स्वरूप हो सकता है उस स्वरूप में अपनी आराधना करना चाहिए तो अज्ञानी मोही प्राणी क्रोधादिक को तो दंड देता नहीं किंतु शरीर को दंड देता है। एक पर्याय बुद्धि, लौकिक बुद्धि, दिल बहलाना, अनेक रीतियाँ होती हैं। कोई विषय भोग के प्रसंग से दिल बहलाता है तो कोई धर्म का नाम लेकर लोकरूढ़ि के अनुसार आचरण करके दिल बहलाता, पर कर्मों का क्षय कैसे हो, किस भाव से कर्म का क्षय होता है, उस भाव का उस दृष्टि का परिचय नहीं है तो वह धर्म के नाम पर शरीर को दंड ही दे सकता है, पर क्रोधादिक कषायों को दंड नहीं दे सकता। ऐसा पुरुष कर्मों का क्षय कैसे कर सकता। देहदंडन से कषाय दंडन का असंबंध―जैसे किसी बामी को पीटने से कही साँप नहीं पिट जाता ऐसे ही कोई उस आत्मा का घर वर्तमान में थोड़े समय का जो यह देह है, वामी है, उसको मारने से क्या क्रोधादिक दूर हो सकते हैं? नहीं दूर हो सकते। ये क्रोधादिक जीव के उस समय के परिणाम हैं। ये तो हुए मानो सर्प की तरह और यह रह रहा है जहाँ जीव है वहाँ, मायने शरीर में, तो शरीर रूपी बामी को पीटने से क्या क्रोधादिक सर्प पीटे जा सकते हैं? अपने को अकषाय, अविकार, चित्प्रकाशमात्र समझे बिना कषायों पर विजय नहीं हो सकती। देह पर आत्मबुद्धि रखते हुए कोई कहाँ तक गम खायगा, कहाँ तक समता लायगा? वह तो कषाय से आविष्ट ही रहेगा, पर जिसने अपने अविकार चैतन्य स्वभाव की परख की है वह पुरुष सहज अपने आपके स्वरूप में रुचि करके कषायों को दूर कर देगा। जिसने देह को अपना स्वरूप नहीं माना वह बाहर के देहों को भी उन जीवों का स्वरूप नहीं मानता। देखने वाला कौन? जो देखता है वह मुझे देखता नहीं, जो मुझे देखता, वह मुझे पहचानता नहीं। आत्मस्वरूप की दृष्टि करने वाला पुरुष किसी भी परिस्थिति में उपसर्ग हों, वह अपने आपमें अपने अविकार स्वरूप को निरखकर प्रसन्न रहता है। कर्मक्षय का कारण अविकार स्वभावाश्रय और तपश्चरण अविकार स्वभावाश्रयण का वातावरण―कर्मक्षय का कारण बाह्य तप नहीं, किंतु अविकार ज्ञानस्वभाव की आराधना है। बाह्य तप तो एक अभ्यास है। जैसा कि इष्टोपदेश में पूज्यपाद उमास्वामी ने कहा है कि यह पाया हुआ ज्ञान जो बिना कष्ट के पाया गया वह किसी कष्ट के आने पर छूट सकता है। इस कारण से ज्ञानी पुरुष को तप आदिक कष्टों में अपने को लगाना चाहिए, मायने कायक्लेश तपश्चरण ये करता रहेगा तो उसमें इतनी क्षमता रहेगी कि कर्मोदयवश कोई कदाचित कष्ट आ जाय तो वह उस कष्ट से घबड़ायगा नहीं। तो मुख्य तत्त्व है अपने आप में अपने अविकार स्वरूप में लगाव लगाना। दूसरी बात चित्त में न सोचना। हाँ रहते हैं जनता के बीच में, घर में तो वहाँ उचित कार्य तो करें पर श्रद्धा गलत न होने पावे। अपनी श्रद्धा के अनुसार यदि कार्य न बन सके तो आगे बनेगा मगर श्रद्धा से भ्रष्ट हो जाने में तो फिर तिरने का कोई साधन नहीं रह सकता। तो जैसे लोगों को अपने नाम में एक लगाव रहता है कि मैं यह हूँ तो यह लगाव न रहे किंतु मैं चैतन्यमात्र हूँ ऐसा स्वरूप में लगाव रहे तो वह पुरुष कष्ट से विकल्प से अब भी छूटा है और कष्ट विकल्प की मूल (जड़) नष्ट हो जायगी तो सदा के लिए मुक्ति मिलेगी। कष्ट से छूटने का एकमात्र उपाय―भैया कष्ट से छूटने का उपाय बस एक यही है कि अपने सही स्वरूप का विश्वास रखना। सही स्वरूप के ज्ञाता पुरुष कषायों को दूर कर देते हैं और अपने ज्ञानरति से तृप्त हुआ करते हैं, किंतु अज्ञानीजन परलोक के सुख की इच्छा से नाना प्रकार के कष्ट तो सह लेंगे पर भीतर में अपने शांति के धाम सहज इस चित्प्रकाश का अनुभव न कर पायेंगे। मेरा कहीं कुछ नहीं है, इस बात को दृढ़ता से श्रद्धा करके चलें, जैसे गप्प से बात-बात से तो केवल पेट नहीं भरता। भोजन करने से ही पेट भरता है, यह बात सब लोग जानते हैं। ऐसे ही मात्र वचन से, कथन से वह भीतर में स्वच्छता नहीं आ पाती, किंतु वैसी भावना, वैसी दृष्टि अपने आप का निरखन होने से अपने में स्वच्छता जगती है। प्रयोग करें अपने आप में एक इस तरह निरखने का कि मुझ पर जो कुछ गुजर रहा है विकल्प, सुख दुःख रागद्वेष यह सब कर्मरस की छाया है। यह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं इनको न अपनाऊँ, इससे निराला जो चैतन्यप्रकाश है उस रूप ही मैं अपने को अनुभवूँगा, ऐसा कोई दृढ़ उत्साह बना ले तो वह पार हो जायगा, अन्यथा बताओ कि जैसे अनादि से अब तक जन्म संकट सहते चले आये ऐसे ही बने रहे तो क्या इसमें नफा है या जैसे सिद्ध भगवंत अपने शुद्ध धर्मास्तिकाय कम अपने स्वरूप में ही बस रहे हैं जहाँ न अब कोई तरंग है, न कभी तरंग उठ सकेगी, एक स्थिर विशुद्ध परमात्मतत्त्व हुआ है, तो ऐसा होने में लाभ है, थोड़े ही जीवन में मन को स्वच्छंद करके यथा तथा मन, वचन काय की चेष्टायें करके इस पाये हुए दुर्लभ अवसर को व्यर्थ खो देने में भलाई नहीं है। अज्ञानी द्वारा क्रोध चांडाल का आदर―ये अज्ञानी पुरुष क्रोधादिक कषायों को तो मारते नहीं हैं, और शरीर को दंड देते हैं याने सहज व्रत तप कायक्लेश, कष्ट इनको तो सहता है, शरीर को तो दंडित करता है, मगर भीतर बसी हुई कषायों को दंडित नहीं करता। एक कोई साधु किसी सड़क के किनारे बैठा हुआ था तो वहीं पर एक भंगिन झाडू दे रही थी। उसके झाडू देने से कुछ धूल साधु के ऊपर भी उड़ कर आ रही थी। तो वहाँ वह साधु क्रुद्ध होकर बोला―अरे तू यहाँ झाडू क्यों दे रही? तुझे दिखता नहीं कि यहाँ साधु जी बैठे हैं और उनके ऊपर धूल पड़ेगी...तो वहाँ वह स्त्री बोली कि आपने मेरे पति को अपने घर में रख छोड़ा है तो कैसे मानूँ। मैं तो यहाँ झाडू दूँगी। तो साधु आश्चर्य में आकर बोला―अरे कैसा मेरा घर और कैसे तेरे पति को अपने घर में रख छोड़ा, यह मेरी समझ में नहीं आता। तो वह स्त्री बोली―महाराज सुनो लोग मुझे चांडालिनी कहते हैं और इस तरह से मेरा पति हो गया चांडाल। वह चांडाल है क्रोध। इस क्रोध चांडाल को तुमने अपने घर में बिठा रखा है तब फिर कैसे मैं यहां रहकर सफाई न करू? तो मतलब यह है कि यह क्रोध तो इस साधु का दुश्मन है। इस संबंध में एक टूटा फूटा श्लोक लोग बोला करते हैं―‘‘पक्षीनां का चांडालः पशूनां गर्दभः। मुनीनां कोप चांडालः, सर्व चांडाल निंदकः।’’ याने पक्षियों में चांडाल कौवा, पशुओं में गधा, मुनियों में क्रोधी मुनि और सबसे अधिक चांडाल दूसरे की निंदा करने वाला। तो ये अज्ञ पुरुष जिनको देह में ही आत्मा का भान है वे जैसी चाहे चेष्टा कर लेते हैं, कभी शुभ चेष्टा भी करें तो भी अज्ञान से ही शुभ चेष्टा की तो उसका फल तो भीतर में अज्ञान का ही मिलेगा। बाहरी चेष्टा तो एक थोड़ी भीतरी भाव का फल है। तो अनेक साधु सन्यासीजन अपने अविकार आत्म-स्वरूप का परिचय तो नहीं करते, अपने भीतर पड़े हुए काम, क्रोधादिक कषायों को तो नहीं निकालते तो फिर उनकी इस वृत्ति से उन्हें मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता? अर्थात् नहीं प्राप्त हो सकेगा।