वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 64
From जैनकोष
‘‘अण्णाणी विसय विरतादो जो होइ सयसहस्सगुणो।
णाणी कसाय विरदो विसयासत्तो जिणुद्दिट्ंठ।।64।।
ज्ञान की ही उत्कृष्टता―एक ऐसा अज्ञानी है जो सर्व परिग्रहों को तो छोड़ देता है कुछ भी साथ नहीं रखता। विषय साधनों को छोड़ दिया नग्न दिगंबर भेष तक आ गया वह चूँकि अज्ञानी है, अतः उससे तो विषयरत कषायविरत ज्ञानी सहस्रगुणा अविकार है अज्ञानी सांसारिक सुखों का लोभी है, आशक्त है तो वह पुरुष ज्ञानी गृहस्थ से अच्छा नहीं किंतु बुरा है। कषायों से विरक्त किंतु विषयों में आशक्त हुआ, ऐसा ज्ञानी पुरुष अज्ञानी पुरुष से अच्छा है। उस ज्ञानी पुरुष ने तो ज्ञान की महिमा जानी। ज्ञान से ही सर्व पदार्थों को स्वतंत्र सत्व में देखा। उससे लाभ क्या है? मोह नहीं रहता, और सभी लोग कहते हैं कि यह मोह दुःख की खान है, और यह मोह न रहे बिल्कुल तो इससे बढ़कर और धर्म लाभ क्या? मोह का नाश करने के लिए अनेक तरकीबें लोग लड़ाते, प्रभुभक्ति करते, अनेक प्रकार के विधिविधान समारोह करते, सब कुछ करते किंतु वे ज्ञान का फल नहीं पा पाते। अज्ञान से ही तो पर का संबंध जुटा है और ज्ञान बढ़ जायगा जो संबंध को कौन जुटायेगा? कोई मनुष्य ऐसे व्यक्ति को ज्ञानी बोलते हैं जिसने अपने आपको बड़ा धर्मात्मा स्वीकार कराया। उसके वैसे धर्मात्मापन के वचन और धर्मात्मापन की चेष्टा देखकर लोग उसे ज्ञानी मानते, पर वैसा बोलने से वह उस प्रकार की चेष्टायें करने से उसे लाभ थोड़े ही मिल जाता, बल्कि अपने में कोई गुण प्रकट हो गया हो उसका यदि वह अपने मुख से बोल दे तो वह गुणहीन हो जाता है, उसका प्रभाव महत्त्व दूर हो जाता है, तो बोलने मात्र से ज्ञानी नहीं कहते, किंतु जो अपने आत्मस्वरूप को ज्ञान में अनुभव करे उसको ज्ञानी कहते हैं। सो ऐसा ज्ञानी पुरुष सहज वैराग्य में हैं। यद्यपि प्रायोगिक रूप से उस पर थोड़ा ही चल सकते, फिर भी सही ज्ञान हो जाने से वह अपने आप में परमात्मतत्त्व का अनुभव करता है। सो अज्ञानी पुरुष कितना ही देह को दंड दे तपश्चरण करे, व्रत करे, त्याग करे लेकिन वह ज्ञानी के मुकाबले नहीं हो सकता। ज्ञानी चाहे त्याग न कर सके मगर भीतर के ज्ञान से यह स्वभाव विभाव की संधि टूट गई तो उसको जो एक अलौकिक आनंद जगता है उस आनंद से कर्म झरा करते हैं। तो ज्ञान सहित वैराग्य हो। अगर वैराग्य नहीं है, कषाय निवृत्त नहीं होते तो समझो कि उसको ज्ञान नहीं जगा, किंतु एक ऊपरी ज्ञान की बात कर रहा। यथार्थ ज्ञानबल से उत्तरोत्तर विशुद्धि―भैया, सर्वप्रथम ज्ञान को पक्का बनायें श्रद्धा को सही बनायें। धर्म के लिए यह कार्य करना है मुख्यतया। देखो कितना सुगम कार्य है। ज्ञान के द्वारा सोचना है। ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, इस स्थिति के बनाने में संकट क्या? खुद है, खुद ऐसा चल दे। संकट तो मोह में आता है, ज्ञान में संकट नहीं जिसको मान लिया यह ‘मैं’ यदि वह पास है, अनाकुल है तो वहाँ यह शांति समझता है मगर वह सब मायारूप है अपने आत्मा का जो एक अविनाशी स्वरूप है वह कमी धोखा नहीं देता। वह सदा अपने साथ है, पर उस पर दृष्टि न दे कोई तो उसको शांति का लाभ नहीं मिलता तो एक तो सहज विरक्ति और एक बनावटी विरक्ति। बनावटी विरक्ति से संसार का सुख भी गया और भीतर मोक्ष की बात भी नहीं मिल पाती। सही ज्ञान हो, अंतः विरक्ति हो तो वह मोक्ष मार्ग में स्थित है। अब अपनी-अपनी सोच लो, कितना मोह में पड़े हैं, कितना मायाचार बना रखा है, किन-किन लोगों पर आशा लगाया है, अपने इस विशुद्ध अंतस्तत्त्व को जो परख लेता है वह ज्ञानी है, वह ज्ञानी है, चाहे पवित्र हो, चाहे अपवित्र हो, चाहे अच्छे आसन से बैठा हो चाहे खोंटे आसन से, पर उसके मन में यदि यह सहज ज्ञानस्वरूप समाया है तो वह पार हो जायगा और जो अपना ज्ञान स्वरूप ज्ञान में न आया तो बाहर में कितना ही व्यायाम कर लिया जाय, पर कर्म का क्षय रंच भी नहीं होता। जैसे महिमान का आदर करें तो वह रहेगा और न आदर करें तो वह न रहेगा, अपनी जगह चला जायगा ऐसे ही पहिले बाँधे हुए कर्मोदय महिमान बनकर आ रहे हैं। यदि इन कर्मोदयों को आदर दें तो ये बंधन में पड़ेंगे और इस कर्मोदय के केवल ज्ञात रहे, इन में आशक्त न हों तो बंधन से छूट जायेंगे। तो देह से भी निराले रागादिक दोषों से भी निराले केवल चैतन्य मान चिद̖ज्योतिमात्र यह मैं अंतस्तत्त्व हूँ। यह अनुभव परम औषधि है और अपने कर्तव्यों में से सारभूत रत्न यही है। अपने आप की सही श्रद्धा रखकर बाह्य पदार्थों के विकल्प छोड़ कर अपने में शांति का अनुभव करना चाहिए।