वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 73
From जैनकोष
‘‘रज्जं पहाणहीणं पति हीणं देसगामरट्ठ बलं।
गुरू भक्ति हीण सिस्साणुट्ठाणं णस्सदे सव्वं।।73।।
प्रधानहीन राज्य की तरह एवं सेनापति के बिना देश की तरह गुरू भक्ति बिना शिष्यों के अनुष्ठान का विनाश―जैसे राजा के बिना राज्य निष्फल है, कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकती। घर में भी देख लो, यदि कोई एक मुखिया नहीं तो घर की व्यवस्था ही नहीं बन सकती और ऐसा कोई घर होता नहीं। हर एक घर में कोई न कोई मुखिया अवश्य होता है। चाहे कितना ही कुटुंब हो पर एक प्राकृतिक बात है ऐसी कि उनमें से किसी न किसी को अपना मुख्य मान लेते हैं। और जब मुख्य होता है कोई तब सब लोग उसके नियंत्रण में रहते हैं, सारी व्यवस्था अच्छी बनती है, ऐसे ही आत्मा को नियंत्रण में रखना है तो वह गुरू भक्ति से सहित होनी चाहिए। सेनापति के बिना देश सुरक्षित नहीं रह सकता। ये तो अपने पुण्य पाप के उदय हैं। मगर देश का सबसे ऊंचा पुरुष सेनापति है। भले ही माना जाता है कि राजा है, मंत्री है बड़ा और उदय पुण्य के ऐसे हैं कि उनकी मान्यता चलती है मगर बताओ देश की जान किसके हाथ में है? एक उस सेनापति के हाथ है। सेनापति न हो तो देश की रक्षा नहीं हो सकती, ग्राम की रक्षा नहीं हो सकती। ग्राम का पति न हो तो ग्राम कैसे बचे। राष्ट्र का मालिक न हो तो राष्ट्र भी सुरक्षित नहीं रह सकता। तो जैसे एक मालिक के बिना देशादिक सुरक्षित नहीं रह सकते इसी प्रकार गुरू भक्ति के बिना शिष्यों के अनुष्ठान व्रत तप आचरण आदिक ये सफल नहीं हो सकते। एक बार किसी गुरू ने कुछ लड़कों को लाठी चलाना सिखाया, अब लाठी चलाने के जितने भी हाथ है―सीधी बेल, उल्टी बेल, जंघ मुखी आदिक वे सब गुरू ने सिखा दिए। अब उनमें से एक शिष्य को हो गया अहंकार सो गुरू से बोला गुरूजी अब हम आप से लाठी चलाना चाहते हैं तो गुरू को यह बात सुनकर कुछ दुःख हुआ कि कहाँ तो मैं वृद्ध और यह नवयुवक, फिर भी सोचा कि चलो ठीक है देखा जायगा, सो कोई 15 दिन बाद का दिन निश्चित कर दिया लाठी चलाने का। अब गुरू ने क्या किया कि कोई एक 1॰-15 हाथ का लंबा बाँस ऊपर रख दिया और प्रतिदिन उसमें तेल की मालिश करता रहा। शिष्य इस ताक में बराबर रहा कि देखें तो सही कि यह गुरू किस तरह की तैयारी कर रहा है। जब देखा कि गुरू जी तो कोई 15 हाथ का बाँस लाये हैं और उसकी सेवा कर रहे हैं तो उसने अपने घर कोई 3॰ हाथ का लंबा बाँस मंगाया और उसकी तेल मालिश करके सेवा करना शुरू कर दिया। जब 15वाँ दिन आया तो वह शिष्य तो अपना 3॰ हाथ का लंबा बाँस लेकर लड़ने आया और गुरू वहीं 3 या 3 1/2 हाथ की छड़ी लेकर आया। अब बताओं वह शिष्य उतना लंबा बाँस कैसे चला सके और परिणाम यह हुआ कि गुरू ने उस शिष्य के उस छोटी छड़ी के द्वारा शीघ्र ही हाथ पैर बाँध लिया गुरू जीत गया। तो वहाँ वह शिष्य बोला गुरू जी आप जीत तो गए पर आप यह तो बताओ कि इस प्रकार की चतुराई वाली कला हम लोगों को क्यों नहीं सिखाया था कि तैयारी तो करना कोई 15 हाथ लंबे बाँस को लेकर और लड़ने आना वही 3-3 1/2 हाथ ही छड़ी लेकर? तो वह गुरू जी मुस्कराकर बोले- बेटा यह चतुराई वाली कला भी अगर हम सिखा देते तुम सबको तब तो मैं आज पिट गया होता (हँसी)। तो जैसे गुरू के आगे मुंहजोरी करने के फल में उसने यों हार खाया। विनय भक्ति का महत्त्व―भैया धर्म के कामों में जो जितनी विनय रखेगा उसको उतनी ही जीत अथवा हार ज्ञान लाभ के संबंध में होगी। स्वानुभव का लाभ तो होता है नम्रता में। कठोर हृदय में या मायाचार रखते हुए में स्वानुभव नहीं बनता। ज्ञानी जानता है कि जिसमें अपना नुकसान हो, ऐसा कार्य क्यों करें? अपने को गर्व में रखें, यहाँ वहाँ की बातों के लिए छल कपट करें तो यह किसलिए किया जाय? कोई प्रयोजन ही नहीं, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का अधिकारी नहीं और कर्ता नहीं। मेरे को तो कुछ करने को रहा ही नहीं, फिर किसके लिए गर्व करना। एक नीति है कि एक कि साधे सब सधे सब साधे सब जाय’’ माने एक को ही सम्हाले रहे तो सब सिद्ध हो जायेंगे और अगर सबकी सम्हाल करेंगे तो एक भी हाथ न लगेंगे। तो एक है अपना परमात्मस्वरूप। जो अपने आत्मा में अंतः प्रकाशमान है वह है एक परमात्मतत्त्व। उसकी सेवा हो, विनय हो, भावना हो तो सब कुछ प्राप्त होगा। जब तक संसार में हैं तब तक संसार के पुण्यफल प्राप्त होंगे और अंत में पुण्य पाप को सर्व विकारों को नष्ट कर के मोक्ष प्राप्त कर लेगा। एक को साधना। अपने जीवन की कोई कुँजी, कोई नुक्ता, कोई दृष्टि ऐसी प्राप्त कर लें अंतः कि जिसके कारण जीवन धन्य हो जाय, व्यग्रता न रहे। तो अपने आपके स्वरूप की भावना, दृष्टि प्रतीति, रूचि, स्वभाव में ही लीन होने का पौरुष यह तो जीवन को सफल बनाता है और विषय भोगों से जिये और उसी के कारण परस्पर लड़ाई मोह बनाकर जिंदगी गुजारे तो इसका साथ कोई न निभायगा। अकेला ही जायगा। तो ऐसा जानकर सबको नम्रता से रहना चाहिए। जो अपने में बड़ी निधि है उसकी जब दृष्टि आ गई तो फिर गर्व किया हीं नहीं जा सकता। तो जो पुरुष गर्व करता हो समझो कि वह अज्ञानी है। जहाँ गर्व है वहाँ गुरू भक्ति नहीं रह सकती। जो अपने आप को बड़ा, प्रधान, सर्वस्व समझ लेगा और गुरू का अपवाद सा रखे तो ऐसे हृदय वाले चित्त में मोक्ष का मार्ग नहीं आता। तो यहाँ भक्ति संबंधित उपदेश किया जा रहा है। हाँ तो गुरू भक्ति के बिना शिष्यों का समस्त अनुष्ठान निष्फल है।