वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 75
From जैनकोष
हाणादाण-वियार-विहीणादो बाहिर क्ख सोक्खं हि।
किं तजियं किं भजियं किं मोक्खं दिट्ठं जिणुद्दि ट्ठं।।75।।
हेयोपादेयविवेकरहित जीवों की बाह्याक्ष सुख भोग में प्रवृत्ति―जिसमें हेय उपादेय का विवेक नहीं हैं अर्थात् क्या तो छोड़ने-योग्य है और क्या ग्रहण करने योग्य है, यह विवेक जिसके नहीं है तो उस ज्ञान के बिना निश्चय से इंद्रिय के सुखों में सुख मानने वाले क्या कुछ समझ सकते हैं कि त्याज्य क्या है, बाह्य क्या है, मोक्ष क्या है, वे यह कुछ भी नहीं समझ सकते, ऐसा जिनेंद्र देव ने कहा है कि हेय और उपादेय का विवेक तो अवश्य होना चाहिए। युक्ति से समझें, अनुभव से समझें, आगम ज्ञान से समे, गुरुओं के उपदेशों से समझें कि हेय क्या है और उपादेय क्या है। बाहर में कुछ भी पदार्थ क्या इस जीव के लिए हितकारी है। आत्मा तो अमर है, इस शरीर को छोड़कर आगे जायेगा। इस आत्मा का ये बाह्य पदार्थ कुछ हित कर सकेंगे क्या? ये तो सब छूट ही जायेंगे और जब तक ये समागम में है तब तक भी ये आकुलता के ही आश्रय बनते हैं, शांति के आश्रय नहीं बनते क्योंकि यह नियम है कि शांति मिलेगी तो अविकार ज्ञानानंद घन आत्म स्वरूप के आश्रय से ही मिलेगी। शांति का दूसरा उपाय नहीं है। दुःख की कमी में सुख शांति का विभ्रम―जिसको थोड़ी बहुत शांति इस समय मिल रही है उसको वास्तव में इस आत्मा के निरखने से ही मिल रही है और जो कुछ भी सुख माना जा रहा है वह तो दुःख कम रह गया, इसका सुख माना जा रहा है। जो चैन में मौज शांति समझी जा रही है वह दुःख की कमी में ही भ्रम बन रहा। जैसे किसी को 1॰5 बुखार था, घट कर 1॰2 रह गया, अब उससे कोई पूछो कि कैसी तबीयत है, तो वह उत्तर देता कि अब तबीयत अच्छी है। अरे कहाँ अच्छी है? अभी तो 1॰2 बुखार है, जिसका कष्ट उसके बना हुआ है मगर बड़े कष्ट के सामने उस छोटे कष्ट में भी उसे आराम जंचता है, ऐसे ही इस संसार में सुख भी दुःख है, सुख भोगने के समय भी आकुलता है किंतु जो बड़ा दुःख माना जा रहा था वह बड़ा दुःख न रहा तो इसमें वह शांति का भ्रम करता है, देखो बाहर के क्षेत्र में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं कि जिसके आश्रय से जीव को वास्तविक शांति मिल सकती। हो ही नहीं सकता। आत्मा स्वयं शांत स्वभावी सर्व पर द्रव्यों से निराला है। यह अपने में ही अपना परिणमन करता है। बाहर में तो कुछ कर ही नहीं सकता बाहर के समस्त पदार्थ वे अपने में परिणमन करते हैं, मुझमें तो कुछ कर ही नहीं सकते, इसलिए कोई बाह्य पदार्थ मुझे सुख शांत कर दे यह कोरा भ्रम है। अब रह गई अपनी बात। अपना है उपयोग। इस उपयोग को जहाँ लगाना चाहें वहीं लग जाता है। तो यह उपयोग यदि बाह्य पदार्थों में लग गया तो उसे तो शांति नहीं है और आत्मा के अविकार ज्ञान स्वरूप में उपयोग लग गया तो उसे शांति है। तो हेय क्या है? समस्त बाह्य पदार्थों का लगाव बताया गया है अपने सहज सिद्ध ज्ञानानंद स्वरूप का लगाव। यह विचार जिनके नहीं हैं वे बाहर में ही इंद्रिय सुखों को सर्वस्व समझते हैं। ये ही हितरूप हैं। किसी इंद्रिय की पूर्ति हुई तो बस यह बड़ा मौज मानने लगा। उसे अपने आपके स्वरूप के आनंद का परिचय नहीं तो बाह्य पदार्थों में ही यह सुख मानता है। आत्मसम सर्वात्म स्वरूप की समझ बिना सम्यक् दया की असंभवता―आत्म परिचय बिना यह कुछ सुध नहीं रहती कि छोड़ने योग्य क्या और ग्रहण करने योग्य क्या? जैसे प्रायः सभी को मालूम है कि गोभी के फूल में कीड़े हुआ करते हैं। सुन रख, देख रखा, जानते हैं और फिर भी उसका त्याग नहीं हो पाता तो इसका कारण क्या है? जीवों के प्रति दयाभाव नहीं है। दयाभाव न होने का कारण क्या है? अपने आत्मा के स्वरूप की भाँति सब जीवों का स्वरूप है, यह हृदय में नहीं बैठ पाता। जब कभी किसी पुरुष को, घर के लोगों को, अपने घर के लोगों पर बड़ी दया आ जाती कोई बीमार हो गया कोई तड़फ रहा तो बड़ी दया आती है। उस समय भारी तेज स्वानुभव बन जाता और कोई कहीं पड़ोस का बीमार हो तो व्यवहार के नाते कुछ जीभ हिला देंगे च चा बोलने की मगर दया की तुलना करें कि अपने घर के लोगों पर तो तन, मन, धन, वचन, प्राण सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहते और दूसरों के लिए तो कुछ भी लगाने का भाव नहीं होता। दुनिया यह जानती है कि अपने ही घर के पास अन्य भी लोग हैं, मगर अन्य किसी के प्रति दया का भाव नहीं रख पाते और अपने घर में रहने वाले दो चार प्राणियों के प्रति ममता करके हैरान होते रहते। अरे अपने घर वालों के प्रति दया रखना कोई दया नहीं, दया तो तब समझी जाय जब कि अन्य लोगों के प्रति रहे। अपने घर के प्रति की जाने वाली दया तो मोह के प्रसंग की है। अपने स्वरूप की भाँति जब तक अन्य जीवों का स्वरूप न समझ में आये तब तक वास्तविक हार्दिक करूणा नहीं जग सकती और जब तक यह दया न जगे तब तक अभक्ष्य का त्याग नहीं बन पाता और वैसे विचारों तो खाने के लिए बहुत सी चीजें हैं मान लो मद्य, मांस, मधु वगैरह गंदी चीजों का सेवन न किया जा इससे जिंदगी में कुछ फर्क आता क्या? गोभी का फूल भी मांस तुल्य है क्यों कि उसमें कीड़े मिलते हैं। यहाँ भक्ष्य अभक्ष्य की चर्चा नहीं कर रहे किंतु क्या त्याग है क्या ग्राह्य है यह बात चित्त में नहीं बैठती जिसको अपने स्वरूप का बोध नहीं है उसका संसार तो बना हुआ ही है। संसार में रहते हुए जिसे हेय उपादेय का विवेक नहीं है, जो इंद्रिय सुखों में आसक्त है उसके चित्त में कमी मोक्ष मार्ग की बात आ ही नहीं पाती। सम्यक्त्व के बिना हेयोपादेय के सम्यक् विवेक की अशक्यता―हेय उपादेय का विवेक करने के लिए आत्मबोध चाहिए और वह मिलता है सम्यक्त्व से। अतः सर्व श्रेयों का आधार सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व कहो या आत्मा कहो, भेद विवक्षा से सम्यक्त्व है अभेद विवक्षा से सम्यक्त्व ही आत्मा है, आत्मा ही सम्यक्त्व है। तब ही तो कहा है कि सर्व श्रेयों में नित श्रेय तू है। जितने श्रेय हैं, कल्याण हैं उन सब में श्रेय, प्रधान, मुख्य तू ही है। तेरे अनंत आनंद का धाम तू ही स्वयं है पर कैसा विचित्र एक गजब आश्चर्य हो गया कि खुद ही शांति का धाम है और दूसरी जगह शांति ढूंढ़ता फिर रहा। जैसे किसी माँ की गोदी में खुद का बालक बैठा हुआ है और उसे यों ख्याल आ जाये कि मेरा बालक कही गुम गया और उसे यों पास पड़ोस में ढूंढ़ती फिरे तो ऐसा पागलपन हमने तो कभी देखा नहीं मगर एक अहाना तो चल रहा कि ‘‘काँख में बालक बगल में टेर’’ बालक अपनी गोद में और पुरा पड़ोस में टेर रहीं तो ऐसी बात देखकर जैसे लोग पागलपन कहते ऐसे ही शांति का धाम तो स्वयं है पर अपने में न आकर बाह्य पदार्थों से आशा लगाकर बाहर-बाहर डोलता है तो ऐसा सभी बोल रहे इसलिए कोई किसी को पागल कहने वाला नहीं मिलता। जहाँ सब पागल वहाँ कौन कहेगा कि यह पागल है/संसार की हालत ही यह है। तो जिसका होनहार भला है उसमें यह कला आती है अपने आप कि वह शांति धाम स्वरूप अपने रूप में अनुभव हो जाता है। तो जिसके सम्यक्त्व हो उसके ही वस्तुतः हेय उपादेय का विवेक बनता है।