वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 96
From जैनकोष
संघविरोहकुसीला सच्छंदा रहिय गुरुकुला मूढा।
रायाइसेवया ते जिणधम्मविराहिया साहू।।96।।’’
आरंभ कारक साधुवों की स्वपराहितकारिता―जो साधु जैन धर्म के विराधक होते हैं वे आत्मशासन के मुक्ति मार्ग के वे अपने कल्याण के विराधक होते हैं, और चूँकि उनको जनता साधु कहती है सो वे जनता के पतन के भी कारण बनते हैं। जान रहें हैं सब और आनंद से उस भेष में रहते हैं, उसे छोड़ते नहीं या सच्चाई का पता नहीं पाते कि सच्चाई है भी कहाँ, तो ऐसे साधुजन धर्म के विराधक कहे गए हैं। कैसे साधु? जो आरंभ में प्रवृत्ति चाहते हैं। खुद काम कर लेते, आरंभ कर लेते, बाह्य आरंभ तो खेती दुकान आदिक वे तो शर्म के मारे नहीं कर सकते, क्योंकि करेंगे तो एक दम विपरीत जंचेगी, मगर आरंभ के प्रिय हैं वे उनके मन में रहती हैं। आरंभ करने की बात सो कोई बाहरी धर्म के नाम पर बाहरी क्रियाकांड जैसे गृहस्थजन विधान में, पूजन में क्रियाकांड में या हवन आदिक में इनमें अभिलाषा रखते हैं, तो इस ओर जिनकी दृष्टि गई है उनको आत्मा की सुध नहीं, आत्मा निष्क्रिय है, ज्ञानशील है, चिदानंद मात्र है, उसकी जिसको रुचि हो उसकी जिसको लगन हो वह ही तो साधु हो सकेगा, और जिसको इस ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में लगन है वह बाहरी गृहस्थोचित क्रियाकांडों में प्रवृत्ति कर कैसे सकेगा? उसकी तो यह ही हालत हो सकेगी कि ज्ञान दृष्टि की दृढ़ता के कारण मुनि के लिए बताये हुए कोई आवश्यक में से कोई आवश्यक न भी कर सके मगर आवश्यक न कर सके कोई और ज्ञानदृष्टि में दृढ़ता है तो आवश्यकता फल यह ही तो था, उसको किया यह तो महा आवश्यक है। आवश्यक कर्तव्य तो उसका है जो महान आवश्यक ज्ञानदृष्टि से रहित हो जाता हो। सहजज्ञानस्वभाव दर्शी के महावश्यकतत्त्व सिद्धि―बाहुबलि स्वामी एक वर्ष तक अडिग तप करते रहे, अब कोई कहे कि पास में मंदिर हैं, दर्शन करने नहीं जाते अथवा कुछ अगल बगल देखते भी नहीं हैं। कुछ भी बात देखने लगें। तो उनको अब दर्शन कहाँ आवश्यक, वंदना स्तवन कहाँ आवश्यक? बताया गया है ना मुनि को कि वंदना करें, स्तुति करें, प्रतिक्रमण करें, स्वाध्याय करें और कोई कहे कि बाहुबलि महाराज ने यह कुछ नहीं किया, अरे ये आवश्यक थे स्वाध्याय आदिक सो उस ज्ञानदृष्टि में दृढ़ रहने के लिये वह उन्होंने पा लिया तो वे तो आवश्यक से भी महान आवश्यक में पहुँचे। दूसरों के यहाँ एक घटना आयी कि कोई सन्यासी होने पर संध्या न करता था, वह ज्ञानी, ज्ञान की ओर ही उसकी धुन रहा करती थी। किसी ने पूछा कि आप समय पर संध्या क्यों नहीं करते? तो उसने उत्तर दिया। ‘मृतामोहमयी माता ज्ञानपुत्रोह्मजी जनत् सूतक द्वयसंपाते कथंसंध्यामुपाश्महे।।’ यह श्लोक एक अलंकार रूप में कहा गया है मेरी मोह रूपी माता मर गई। माँ मर जाय तो सूतक लगता कि नहीं सूतक में लोग कहते कि जाप न करे, पुस्तक न छुवे, मंदिर न जाय आदि तो वह बोला कि एक तो मेरे लगा मोह माता के मरण का सूतक और दूसरे ज्ञान पुत्र पैदा हो गया, इसका सूतक लगा, इस तरह तो डबल सूतक लग रहे तब फिर किस तरह से वे सब धार्मिक क्रिया कांड कर सकें। देखिये साधु के ज्ञान पुत्र पैदा हो गया इसका यही अर्थ है कि आत्मा का जो अविकार ज्ञान स्वरूप है उसकी दृष्टि होने से एक अद्भुत सहज अनुपम आनंद जग गया, निराकुलता की स्थिति बन गई, यही ज्ञानपुत्र का उत्पन्न होना कहलाया। अब जिसको इस प्रकार का ज्ञान जग गया उसको समय की खबर कहाँ से रहेगी। वह तो निरंतर अपने ज्ञान स्वभाव की धन में अनुरक्त रहता है। तो आवश्यक से भी महान आवश्यक तत्त्व जब पा लिया तो उनकी बात है यह कि जिससे साधुजनों से अन्य बातें नहीं हो पाती। मगर यह बात बहाने में न लाना चाहिए यह बात तो उन साधुजनों के लिए है। वैसा ही गृहस्थ जन अपने को समझ लें और उन धार्मिक क्रियाकांडों से दूर रहें तो वह उनके लिए योग्य बात नहीं। वह बात तो ज्ञानीजनों के लिए योग्य है क्योंकि वे तो अपने ज्ञानमयी स्वरूप का निरंतर भान किया करते हैं। गृहस्थ जन अपने को ऐसी स्थिति में कहाँ रख सकते? साधुजनों की देखा देखी अगर गृहस्थजन भी अपने आराम के लिए अनेक प्रकार के बहाने करें तो वह तो उनके लिए उन्मार्ग है। ज्ञान जागृति होने पर जीवों की हिताभिमुखता―ज्ञान जगने पर होता ही ऐसा है कि उसे बाहर की कुछ सुध नहीं रहती। एक ज्ञान प्रकाश अर्थात् सत्व के कारण अपने आत्मा की वृत्ति यह ही मेरा सर्वस्व है, इसके लिए ही हमारा सब कुछ है, ऐसा परा समर्पण, यह जिसके भाव जगा है उसे बाहर की सुध नहीं होती। मगर जिस को यह ज्ञानदृष्टि नहीं प्रात हुई वह साधु अपना समय गमाये कहाँ, सो वह तो आरंभ में प्रवृत्त होता है। तो ज्ञानस्वभाव का अपरिचय होने के कारण ये साधु जिन धर्म के विराधक हैं, देव, शास्त्र, गुरु इन तीन के प्रति तो यह नीति न चलेगी। ये तीनों तो अच्छे हैं, जो देव हैं वह पूर्णतया देव ही होना चाहिए, यदि किसी में कुछ थोड़ी सी अच्छाइयाँ देखने को मिल गई तो उसी को अपना देव मान बैठना यह सम्यक्त्व के अनुकूल बात नहीं है, ऐसे ही हर एक शास्त्र में, हर एक ग्रंथ में सदाचार के लिए थोड़ी बात तो लिखी ही रहती हैं, जैसे झूठ न बोलना, चोरी न करो, और उस-उस ग्रंथ की बड़ी अच्छी जिल्द भी बनी है, अच्छे कागज हैं, थोड़ा लौकिक बातों का उपदेश भी है मगर वह जिनागम नहीं हैं, अर्थात वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी के अनुकूल नहीं हैं। तो यह बात नहीं चल सकती कि चलो कुछ तो ठीक लिखा हैं, वह भी शास्त्र हैं। ऐसे ही साधु के प्रति कोई कहे कि घर छोड़ दिया बेचारे ने, हमसे तो अच्छे ही हैं इसलिए हमारे गुरु हैं तो ऐसी बात गुरुजनों के प्रति भी नहीं चलती। यह बात साधारणजनों के लिए तो चल जायेंगी मगर गुरुजनों के लिए न चलेंगी। जो सम्यक्त्व गुण के धारी हैं, सम्यक्त्व की ही बात बताते हैं अपने आपको ज्ञानस्वभाव की आराधना की ही बात बतायें वे साधु हैं वे गुरु की श्रेणी में हैं, साधु परमेष्ठी हैं। आरंभरत साधुओं की धर्मविराधकता की स्पष्ट घोषणा―यहाँ कुंदकुंदाचार्य कितना जोर दार शब्दों में बहुत गाथाओं में बतला रहे हैं। कि ऐसे साधु जिनधर्म के विराधक हैं आत्मा के विराधक हैं जो आरंभ परिग्रह में अपनी प्रवृत्ति करते हैं, ये देव के प्रति, देव की मूर्ति के प्रति कुछ मुद्रा ऐसी बनाते हैं कि हमको शांति मिली दर्शन करने से, अपने भाव भी जगते कि सार यही है जो प्रभु ने किया सर्व ओर के विकल्पों से हटकर अपने अविकार ज्ञानस्वरूप में मग्न हुए, यह ही मेरे को कर्तव्य है, ऐसी शिक्षा मिली ना मुद्रा से, तो देवों से भी शिक्षा मिलेगी, गुरु से भी शिक्षा मिलेगी। वे गुरु कैसे होते कैसे नहीं होते यह ही स्थान चल रहा है। जो आरंभ में प्रवृत्ति करते हैं वे गुरु सत्य धर्म के विराधक हैं, अथवा कोई भी
सन्यासी जन जिनको आरंभ प्यारा लग रहा, खेती हो रही, बगीचा भी बनाया है, और खुद इसमें गर्व करे कि मैं इस बगीचे को सींचता हूँ इसको हरा भरा बनाये रखता हूँ इस प्रकार का भीतर में गर्व करे तो यह बात साधुपद में रहकर उसके लिए योग्य नहीं। साधुजनों को तो निरंतर एक परम ब्रह्म स्वरूप अंतस्तत्त्व की आराधना करना चाहिए और इसी कारण आरंभ और परिग्रह से वे साधु मुक्त होते हैं। तो जो किसी प्रकार के आरंभ में आशक्त हैं वे साधु मोक्ष मार्ग की विराधना करने वाले कहे जाते हैं।
धर्म मार्ग में चलने व बढ़ने लिये देवशास्त्र गुरु की भक्ति प्रथम आवश्यकता―अपने धर्म में बढ़ने के लिए धर्म धारण के लिए प्रथम देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा, सेवा, भक्ति करना आवश्यक होता है कोई भी कार्य उस विषयक देव, शास्त्र, गुरु के बिना बन नहीं पाते, जैसे लौकिक कार्यों में कोई भी कार्य ले लौ एक भोजन बनाने का ही दृष्टांत ले लो जो बच्ची अभी भोजन बनाना नहीं जानती उसको किस तरह सिखाया जाता और उसकी कैसी वृत्ति होती है। उसको उत्सुकता है कि मैं भोजन बनाना सीखूँ और उसको ऐसे किसी पुरुष का ध्यान रहता है कि जो भोजन बहुत बढ़िया बना लेता है, और जैसे भोजन बनाने की विधियाँ पुस्तकों में भी लिखी रहती हैं और जो अपने घर में चाची बुआ मौसी आदि कोई हो सिखाने को तो उनसे वह बच्ची सीखती है। तो इस कार्य में उसे भोजन के देव, भोजन के शास्त्र और भोजन के गुरू से काम पड़ा। भोजन का देव कौन? जो ध्यान में है उसके कि वह बहुत अच्छा भोजन बनाने वाला है और शास्त्र कौन? वह पुस्तक जिसमें वे सब बातें लिखी होती और गुरू कौन? जो तत्काल उसे सिखा रही है तो हर एक घटना में देखते जाइये, ऐसी ही सहज व्यवस्था और योग है। तद्विषयक देवशास्त्र गुरू की सेवा चाहिए तो धर्म के मर्ग में भी सोचिये धर्म नाम है किसका? आत्मा के स्वभाव का। आत्मा का स्वभाव है ज्ञानमात्र केवल ज्ञाता दृष्टा रहना। सो इसकी सिद्धि अगर करना है तो जो पूर्ण ज्ञाता दृष्टा हैं, वीतराग हैं उन आत्मा का याने सर्वज्ञ परमात्मा की भक्ति सेवा करनी चाहिए। वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा तो देव हैं और शास्त्र-वह ग्रंथ, वह वचन, वह उपदेश जो विषय कषायों से बचाकर आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठित कराये ऐसी प्रेरणा दे वह शास्त्र हैं, और गुरु कौन हैं? जो उस धर्मपंथ पर चल रहे हैं और बनेंगे वे कभी मुक्तजीव। वे गुरु कहलाते हैं, तो देव, शास्त्र, गुरु इन तीन का यथार्थ बोध रखना मोक्षमार्ग चाहने वालों के लिए अत्यंत आवश्यक है। गुरु की निर्दोषता का परिचय―यह गुरु का ही प्रकरण चल रहा है कि गुरु कौन होना चाहिए। जब हमको गुरु सेवा करना आवश्यक है तो हम उसकी सही पहिचान तो कर लें अन्यथा गुरु के धोखे से किसी कुगुरु की सेवा में लगे तो उससे बजाय लाभ के हानि ही होगी, सो यहाँ गुरु का परिचय कराया जा रहा है। अभी यह बताया था कि जो आरंभ में लीन है वह साधु नहीं, वह तो धर्म का विराधक है। अब कह रहे हैं कि जो धन धान्य में इच्छा रखते हैं वे साधु धर्म के विराधक हैं, बाह्य पदार्थ ये सब अपने से भिन्न सत्त वाले हैं। ये मुझको नहीं करते, मैं इनमें कुछ नहीं करता। किसी भी बाह्य पदार्थ से मुझ आत्मा का लाभ नहीं है, बल्कि उनके संपर्क से हानि है, भले ही आज शरीर में फंसे हैं, क्षुधा तृषा आदिक लगते हैं, अन्य-अन्य कषाय वेदनायें जगती हैं सो आवश्यक लग रहा कि पर पदार्थ का संचय होवे नहीं तो गुजारा कैसे चलेगा। लेकिन यह तो सोचो कि ऐसे जन्म मिलते रहे, गुजारा चलता रहे, साधन मिलते रहे, क्या यह भावना है आपकी? यदि यह बात मन में है तो उसका भाव हुआ कि आपको संसार से रुचि है यह तो संसार है। तो क्या भावना होना चाहिए कि मैं जो स्वयं अपने आप हूँ वह पदार्थ रह जाऊं, मेरे को कोई संपर्क न चाहिए और अगर यह केवल रह जाय खालिस ज्ञानज्योतिमात्र संपर्क रहित यह आत्मा रह जाय तो भूख प्यास किसका नाम है? वेदना किसका नाम है, संकट किसे कहते हैं? वह तो ज्ञानानंदमय है, उसमें तो तरंग भी कुछ नहीं उठती। यदि सदा के लिए प्रसन्न पवित्र उत्कृष्ट रहना है तो समस्त पर पदार्थों से जुदा भावना से उपयोग से और संपर्क से जुदा होना ही पड़ेगा। उसका उपाय यह है कि यहाँ ही सर्व बाह्य पदार्थों को त्याग कर केवल मुनि होकर अपने में अपने एक स्वरूप की आराधना करें। धन धान्य व उपकरण में कांक्षा रखने वाले साधुओं की धर्मविराधकता―किसी ने मुनि का भेष तो बनाया और भीतर से धन धान्य की भी कामना रखे तो वह साधु धर्म का विराधक है। वह साधु नहीं। जो साधु बाहरी धन धान्य में तो इच्छा नहीं रखता किंतु जो उपकरण हैं उसके पास पिछी कमंडल शास्त्र वगैरह, यदि उनमें इच्छा वाला है, मोह वाला है, उनको अपना मानकर उनकी शोभा शृंगार, सजावट करता है और शोभा शृंगार निरखकर अपने में बड़ा खुश होता है तो वह उपकरण की इच्छावान हुआ साधु भी धर्म का विराधक है। उपकरण नाम किसका? जो अपनी धर्मसाधना में आवश्यक होता है वह कहलाता है, उपकरण, तो प्रयोजन तो पिछी से हिंसा टालना है, कमंडल से शुद्धि रखना है, शास्त्र से ज्ञान लेना है, अब यदि इसको कोई अपना ही धन मान कर इनमें व्यासक्त रहे तो वह पुरुष साधु नहीं है, उसने तो इस उपकरण को परिग्रह बना डाला, तो ऐसे उपकरणों को परिग्रह बना डालने वाला साधु धर्म का विराधक हैं। ईर्ष्यालु साधुवों की धर्मविराधकता―परस्पर में ईर्ष्या मात्सर्य रखने वाले साधु धर्म के विरोधी हैं कोई मान लो अधिक ज्ञानी है, अधिक उपदेशक है तो उसे देखकर चित्त में ईर्ष्या रखना और उनकी बात सहन न होना, जनता में उनके संबंध में कोई न कोई त्रुटि बताना, ऐसा ईर्ष्या का भाव रखने वाले साधु साधु नहीं किंतु वे धर्म के विराधक हैं ईर्ष्या कोई कब करता है, जब उसको पर्याय बुद्धि हो याने शरीर को मानता हो कि यह मैं हूँ और मेरी कदर नहीं बढ़ रही है और इस दूसरे की कदर बढ़ रही है, उस दूसरे ज्ञानी साधु को शरीररूप मान रहा है, अपने को भी शरीररूप मान रहा है। स्थूल रूप से चाहे यों नहीं कहता मगर भीतर में वासना संस्कार ऐसा ही बसा है, तो जिसको मोह है, शरीर को जो आत्मा मानता है वही पुरुष दूसरों से ईर्ष्या करता है अन्यथा ईर्ष्या की आवश्यकता क्या? जो बढ़ रहे हैं धर्म मार्ग में उनकी तो अनुमोदना करना चाहिए कि बढ़े चलो, कर्म कलंक से मुक्त होइये, मुक्ति की यह भी वांछा रख रहा तो जो ज्ञानी साधु संत है वे कभी दूसरों से ईर्ष्या नहीं रखते और जो दूसरों से ईर्ष्या रखते हैं वे साधु साधु नहीं, किंतु वे धर्म के विराधक हैं। व्रतगुणशील रहित साधुवों की धर्म विराधकता―साधु पुरुष व्रत, शील, गुण से शोभित होते हैं, किंतु जो व्रत, गुण, शील से रहित हैं वे साधु नहीं किंतु अपने आप की हिंसा करने वाले हैं। व्रत नाम हैं पापों से विरक्त होने का और गुण नाम है उन व्रतों को बढ़ाये ऐसी कोई क्रिया, मूलगुण उत्तर गुण कहलाता है गुण और शील कहलाता है अपने ब्रह्म स्वरूप की आराधना जो इन तीनों से रहित हैं वे साधु साधु नहीं किंतु धर्म के विराधक हैं। एक पुरुष गृहस्थी में रह रहा और साधारण आचरण से रह रहा और एक साधु बनकर मन में परिग्रह आरंभ की वासना लिए हुए रहता है तो गृहस्थ को तो गति मिल जायेगी सही, पर उस साधु को सही गति नहीं मिल सकती। तो जो व्रत गुण शील से रहित है वह धर्म विराधक पुरुष है। कषाय कलह प्रिय साधुवों की धर्म विराधकता―जो साधु कषाय और कलह से प्यार रखते हैं वे साधु साधु नहीं। कषाय करना कषाय की आदत बनाना, कषाय बिना चैन न पड़ना ये सब कषाय के प्रेम ही तो कहलाते हैं। पहले समय में हजार-हजार साधुवों का समूह एक आचार्य के साथ रहता था और वहाँ न आचार्य को कोई चिंता न उन मुनियों को कोई अव्यवस्था थी, उसका कारण था कि प्रत्येक मुनि की यह भावना होती थी कि मैं विकारों से हटकर अपने ज्ञानस्वभाव में उपयुक्त रहूँ। सबकी एक समान भावना थी। उनको परस्पर किसी से न ईर्ष्या होती थी न कोई व्रत भंग करने के भाव होते थे। मोक्षमार्ग में बढ़े चलने का उनका पुरुषार्थ चलता था। उनके सहवास से आचार्यों को कोई दिक्कत न थी, और आचार्य के संग में रहने से वे साधु समझते थे कि मैं किसी गुरु की छत्र छाया में रहता हूँ। इस ढंग से रहूँ, प्रवृत्ति सही करू तो मेरे आत्मा का लाभ हो, कभी कषाय और कलह करने के अवसर न आते थे। अब भी अनेक साधु ऐसे हैं कि जिनको कषाय और कलह प्रिय नहीं होती, लेकिन जो अज्ञानी साधु हैं, जिनका मन ब्रह्म स्वरूप में रम ही नहीं सकता है तो वे क्या करें और? कषाय कलह ही उनको शरण जंचता है, तो जो कषाय और कलह से प्यार करते हैं, वे साधु साधु नहीं हैं, किंतु वे अपने धर्म के विघातक हैं और दूसरों को धर्म से हटाने वाले हैं। यदि कोई गृहस्थ लड़ते हुए साधुवों को देख ले तो वह गृहस्थ खुद धर्म से हट जाएगा। यह तो ऐसा ही चला करता, यहाँ धर्म क्या है, इससे तो हम ही भले हैं आदि सोचकर अन्य पुरुष धर्म मार्ग में नहीं बढ़ पाता। तो कषाय और कलह जिनको प्रिय है ऐसे साधु धर्म के विघातक हैं और दूसरों का अपकार करने वाले हैं। मुखर साधुवों की धर्म विराधकता―मुखर साधु धर्म के विमुख हैं। मुखर कहते हैं उसे जो अधिक वार्तालाप (बातचीत) करे, दूसरे सुनने वाले ऊब जायें पर खुद बोलते ही चले जायें, यो अधिक बोलने वाले साधु धर्म के विघातक हैं इसका कारण यह है कि जो अधिक बोलते हैं उसकी दृष्टि बाहर में ज्यादह पड़ती रहती है, नहीं तो अधिक बोलने का मतलब क्या है? तो बाहर में दृष्टि अधिक होने से वह पुरुष शुद्ध ज्ञानस्वभाव में कहाँ रहा? परभाव में ही वह अनुरक्त रहा। उसको कर्म बंध विशेष होता है न स्वयं का उद्धार कर पाता और न दूसरों के उद्धार में निमित्त बन पाता। तो जो साधु मुखर हैं अधिक वार्तालाप करने वाले, अपनी-अपनी प्रशंसा हाँकने वाले और यहाँ वहाँ की गप्प सप्प की बात करने वाले साधु कहीं साधु कहलाते हैं? अरे वह तो अपने धर्म से विमुख हैं। संघ विरोधकुशील साधुवों की धर्म विराधकता―ऐसे साधु जो संघ में विरोध करने का खोटा स्वभाव रखते हैं वे साधु अपना अकल्याण करते और दूसरों का भी। गुरुआज्ञा में चलना तो दूर रहा, पर गुरुआज्ञा से विमुख हैं, उनका विरोध करते हैं। संघ में रहना पसंद नहीं करते हैं, संघ का विरोध करते हैं, स्वच्छंदता से रहने की प्रकृति बन गई हैं। तो ऐसे कोई मुनि भेष में रहे तो वे मुनि नहीं किंतु अपने धर्म के विराधक हैं और दूसरों को सन्मार्ग में बाधक हैं जो अधिक दूसरों की निंदा करता है, दूसरों के दोष देखता है दूसरों के दोष यत्र तत्र बखानता है वह पुरुष तो दोषप्रिय रहा, गुणप्रिय न रहा। यदि वह गुणप्रिय होता तो उसको हर जगह गुण ही सुहाते। वह गुणों को ही चर्चा करता और गुणों की ही दृष्टि में रखता पर जो संघ का मुनियों का विरोध करने में ही अपनी शान समझता है, बड़प्पन जानता है वे पुरुष न अपने आत्मा का उद्धार कर पाते और न दूसरों का। कभी कोई अकेला रह जाय तो कोई बात नहीं मगर संघ का उन सहवासियों का जिन के साथ रहता था उनसे विरोध करना, उनके दोष बताना, उनके अवगुण बखान इसमें ही जिनका स्वभाव बना है वे पुरुष जीवों को देखकर प्रमोद भाव रखना और कहा किसी संघ वाले गुरुजनों का विरोध करने का स्वभाव रखना, संघ विरोधी पुरुष साधु नहीं किंतु वे धर्म के ही विराधक हैं। स्वच्छंद साधुओं की धर्मविराधकता―जो स्वच्छंद मन वाले हैं, जिनका मन नियंत्रण में नहीं है, अपनी कीर्ति सुनने में अपने विषयों के साधनों में, सरस भोजन करने में या और और प्रकार के रहन सहन में एक बड़े लौकिक उच्चपन बताने में जो स्वच्छंद रहता है वह स्वच्छंद साधु साधु नहीं है स्वच्छंद रहना यद्यपि बुरा नहीं है, मगर कैसा स्वच्छंद रहना बुरा नहीं है? स्वय मायने अपने परमार्थ भूत आत्मा में ज्ञायक स्वभाव के आधीन ही रहना, अपने उपयोग को उसे स्वभाव की ओर लगाना जिससे स्वयं ही नियंत्रण बन जाता, स्वच्छंदता हट जाती। जैसे आत्मा विशुद्ध बने वैसी ही प्रवृत्ति बनती है वह स्वच्छंद भला है मगर सबको जो नहीं जानते और इस शरीर को ही आत्मा मानते हैं और फिर हो जाये स्वच्छंद तो यह स्वच्छंदता उनके विघात के लिए हैं। स्वच्छंद रहने से कोई आवश्यक काम कुछ नहीं किया। समिति ठीक बनी नहीं, सर्व प्रकार की एक शिथिलता आ जाया करती है। तो जो साधुजन स्वच्छंद हैं वे कर्म बंध करते हैं और अपने आपको धोखे में रखते हैं वे दीर्घ संसारी जीव हैं। उनका उद्धार निकट नहीं हैं। तो स्वच्छंद साधु स्वयं अपने धर्म के विराधक हैं और जो उनकी सेवा सत्संग में रहते हैं वे भी अपना कोई कल्याण नहीं पा सकते। गुरुकुल रहित साधुवों की धर्मविराधकता―गुरुकुल रहित साधु जहाँ गुरुजन हों उनके बीच रहकर धर्म साधना करें तो उसका मन हृदय उपयोग सुयोग्य बना रहता है और जहाँ गुरुकुल को त्यागा साधर्मीजनों को छोड़ा और अकेले ही रहकर अपने में बड़प्पन अनुभव करता है वह गुरुकुल रहित पुरुष है। वह साधु साधु नहीं हो सकता। पहले समय में गृहस्थजन अपने बालकों को पढ़ाने के लिये गुरुकुल में भेजा करते थे। गुरुकुल मायने संस्था नहीं किंतु योगी मुनियों का संघ। उनके पास बच्चों को छोड़ दिया और वहाँ वे क्षुल्लक भेष में रहकर अध्ययन भी करते क्योंकि खिलाये कौन? मुनिसंघ में कोई विद्याध्ययन के लिए रह रहा है तो वहाँ न कोई आरंभ है, न परिग्रह है तो वे बच्चे भी आहार चर्या के ढंग से आहार ढूंढ़ते थे, आहार लेते थे और मुनिसंघ में रहकर विद्याभ्यास करने की प्रथा थी पहले। और इस प्रथा के सबूत आज भी मिल रहें हैं क्योंकि गुरुकुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की पढ़ाई पूरी होने पर उनके माता-पिता उन्हें लिवाने जाते थे। और वहाँ गुरु पूछते थे उस विद्यार्थी से कि तुम गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हो या यती धर्म? तो जो विद्यार्थी जिस योग्य होता उस धर्म को स्वीकार करता था। अब मान लो किसी विद्यार्थी ने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया तो उसका वह क्षुल्लक भेष छुड़वा दिया जाता था, वह विद्यार्थी उस समय अपना क्षुल्लक भेष छोड़ देता था, वह जब घर पहुँचता, उसके शादी विवाह की तैयारी होती तो जो कई वर्षों में उसके बदन पर मैल चढ़ गया था उसको खूब नहला धुलाकर साफ किया जाता था। आजकल भी तो विवाह शादी के अवसर पर तैल उबटन लगाकर शरीर का मैल साफ करने की प्रथा है। उसे नेग दस्तूर बोलते हैं। आजकल तो वह एक खेल सा बन गया। रोज-रोज तैल साबुन से नहाने वाले लड़कों को विवाह के अवसर पर तैल साबुन से साफ करने की प्रथा खेल नहीं तो और है क्या? अरे वह तो पहले समय में गुरुकुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए बात थी। जब वे गृहस्थ धर्म स्वीकार करके विवाह करवाते तो कई वर्षों का लगा हुआ मैल छुड़ाने की प्रथा थी। वह तो ठीक थी, पर आजकल तो वह प्रथा एक ढोंग बाजी की बन गई। वे विद्यार्थी उस गुरुकुल में दीक्षित भी रहते थे और विद्यार्थी भी रहते थे। यहाँ बात दीक्षितों की चल रही है कि जो गुरुकुल से रहित हो गए वे साधु अपने धर्म के विराधक हैं। मूढ़ रागादि सेवक साधुवों की धर्म विराधकता―मूढ़ अज्ञानी साधु जिनको अपना कुछ पता नहीं जो आत्मा का स्वरूप कुछ जानते नहीं और यहाँ तक कि पढ़े लिखे भी नहीं क्रिया कांड भी ठीक प्रकार से नहीं कर सकते, स्तवन भी नहीं बोल सकते भक्ति प्रतिक्रमण भी नहीं बोल पाते, बिल्कुल अबोध जो एक अपने विकारभावों में आसक्त अज्ञानी साधु अपने धर्म की विराधना करते हैं और ऐसे अज्ञानी साधुजनों की भक्ति में जो रहते हैं वे भी अपना जीवन बरबाद करते हैं। यहाँ दो गाथाओं में दोष रूप में वर्णन चल रहा ताकि यह पहचान जायें कि ऐसे-ऐसे दोष जहाँ नहीं होते हैं वे साधु साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। अनेक गाथाओं में गुणों की विधि से वर्णन किया है। गुणों की विधि से वर्णन करना प्रतिबोध के लिए सहायक हैं और निषेध मुख से वर्णन करना भी गुरुपरिचय के लिए सहायक है, तो मूढ़ साधु आत्मधर्म के विराधक हैं और इसी प्रकार राजा आदिक की सेवा करने वाले साधु भी मूढ़ हैं। ये दोष जहाँ नहीं हैं वे ही गुरु वास्तव में गुरु हैं और उनकी सेवा संग से ही शांति का मार्ग मिलता है।