वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 17
From जैनकोष
रागो करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेइ ।
दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।17।।
(37) महिलावर्ग में राग करने वाले पर को दूषण लगाने वाले मुनिवेषियों की अश्रमणता―जो मुनिभेष धारण कर स्त्री समूह के प्रति निरंतर राग और प्रीति करता है और दूसरे जो निर्दोष हों कोई उनको दूषण देता है तो ऐसा पुरुष दर्शन ज्ञान से हीन है और वह तिर्यंचयोनि है, पशु समान है श्रमण नहीं है, स्त्रीजनों से वार्ता में अधिक समय गुजारना स्त्रियों के बीच बैठकर बात करना, अपने को अच्छा मानना सुखी मानना ये सब मुनिमार्ग में दूषण हैं ꠰ कोई महिला दर्शन करे उसका निषेध नहीं, पर मुनि स्वयं प्रीति का परिणाम रखे और उनमें रहकर संतुष्ट रहे तो यह मुनिमार्ग में दूषण है । तो जो मुनिभेषी महिलावर्ग में राग करता है और उस राग करते हुए वह दूसरों को दूषण भी देता है, क्योंकि राग और द्वेष का संबंध है । किसी से राग किया तो किसी अन्य से द्वेष की वृत्ति भी बनती है ꠰ तो ऐसा रागविरोध करने वाला मुनिभेषी श्रमण नहीं है, किंतु तिर्यंच योनि वाला है । उसके सम्यग्दर्शन और ज्ञान नहीं है । यदि अविकारस्वभावी निज चैतन्यस्वरूप का भान होता, यह ही मैं हूँ, ऐसी प्रतीति होती तो वह रागद्वेष में क्यों चलता ? परवस्तु में रागद्वेष होता है उसको जिसको अपने आत्मस्वरूप की सुध नहीं है । मैं स्वयं महान हूँ अपने लिए, जो भगवान बनकर बात प्रकट होती है यही बात मेरे में मौजूद है शक्तिरूप से । हां उसकी कोई प्रकट अवस्था यहाँ नहीं बता सकते, तो ऐसा जीव जो राग करता है और दूसरे को दूषण देता है वह दर्शन ज्ञान से रहित है और तिर्यंचयोनि वाला है ।
(38) दर्शनज्ञानविहीन साधुवों की अश्रमणता―तिर्यंचों का केवल विषयसाधन ही चौबीसों घंटे का प्रोग्राम रहता है । वे कहीं शास्त्र तो पढ़ते नहीं, जाप लेकर तो बैठते नहीं, पूजा पाठ वे कहां करें? उनकी तो प्राय: विषयों में, खाने पीने में ही चौबीसों घंटे धुन रहा करती है और रागद्वेष के अनेक अवसर आते रहते हैं, तो जो मुनिभेषी उन तिर्यंचों की तरह रागद्वेष करने की प्रवृत्ति करे तो वह दर्शन ज्ञान से रहित है और मनुष्य नहीं, किंतु तिर्यंचयोनि वाला है । तिर्यंच उसे कहते हैं जो नीच स्थान में रहे, मायाचार की बहुलता से प्रवृत्ति करे । तिर्यंचों में माया कषाय की मुख्यता पायी जाती है और उस मायाकषाय में बढ़ते रहने का फल है नारकादि खोटी गति में उत्पन्न होना ꠰ सो मुख्य बात यह है कि अपने आत्मस्वरूप पर दया अवश्य रखना चाहिए । जो आत्मस्वरूप से परिचित नहीं हैं उनके ये सारी विडंबनायें चलती हैं । सो मुनिमार्ग का भेष रखकर ऐसा मायाचारी रूप प्रवृत्ति करना उचित नहीं है, ऐसे मुनिभेषियों को शिक्षा दी जा रही है कि वे किसी अकर्तव्य में शामिल न होवें । सो जो पुरुष स्त्रीसमूह में राग रखते हों, जो मुनिभेषी दूसरों को दूषण लगाकर द्वेष करते हों, जिनका कामी जनों जैसा, व्यभिचारी जनों जैसा स्वभाव हो गया हो उन पुरुषों के दर्शन और ज्ञान कहां से हो सकता है, और चारित्र भी कहाँ से हो सकता? मुनिभेष धारण कर जो कार्य न किए जाना चाहिए उनकी ओर से उपेक्षा है उसकी सुध भी नहीं करता तो वह स्वयं ही मिथ्यादृष्टि है । और जो लोग उसकी सेवा में रहेंगे उनको भी मिथ्या दृष्टि बनाने वाला है । सो इस प्रकरण में कुंदकुंदाचार्य देव सर्व संघ को यह उपदेश कर रहे हैं कि मुनिलिंग का उपहास मत करो । साधु तो द्विज कहलाता है याने दूसरी बार जन्म हुआ । जैसे मनुष्य मरे और दूसरी जगह जन्म ले तो उसका पहले भव से कोई संबंध नहीं रहता । पहले भव में जो चीज पायी उसकी ममता भी नहीं चलती । द्विज हो गया, तो ऐसे ही मुनि में मुनि अवस्था लेने पर पहले के संस्कार रंच भी न रहने चाहिएँ । आत्मध्यान और प्रभु के गुणों का ध्यान, इनमें ही समय गुजरे तो यह भव्य आत्मा मोक्षमार्ग के निकट है, ऐसा समझना चाहिए ।