वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 148-149
From जैनकोष
जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता ।
वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च ।।148।।
एमेव कम्मपयडी सीलसहावं हि कुच्छिदं णादुं ।
वज्जंति परिहरंति य तस्संसग्गं सहावरदा ।।149।।
मोह राग द्वेष का अथवा राग व संसर्ग का एक चित्रण―एक चित्रण खीचिए, जंगल है, हाथी को पकड़ने का षड़यंत्र रचा है तो वह शिकारी दो काम करता है―एक तो मंच बनाकर उसके ऊपर बढ़िया कागज की हथिनी तैयार करता है और उस करेणु कुट्टनी को अर्थात् झूठी हथिनी को देखकर आता हुआ एक हाथी जमीन पर बनाता है । अब जो उस जंगल का सजीव हाथी है, उसने देखा कि यह हथिनी खड़ी है और साथ ही यह देखा कि यह दूसरा हाथी दौड़कर हथिनी पर आना चाहता है तब वह जंगल का सुभट हाथी दौड़कर उस बांसों के बने हुए मंच पर आकर गिर जाता है।
दृष्टांत में राग, द्वेष, मोह का सद्भाव―इसमें तीन बातें कही गई हैं । ध्यान से सुनिए समझ में आयेगी । राग, द्वेष और मोह । उस जंगल के हाथी को राग किसका हुआ? उस झूठी हथिनी का और द्वेष किसका हुआ? दूसरे हाथी का । और मोह क्या हुआ? मोह हुआ उस गद᳭दे की मंच के दृश्य का । मोह कहते हैं अज्ञान को । मोह में बुद्धि व्यवस्थित नहीं रहती है । उसे यह ज्ञात नहीं रहा कि यह तो बांस की झूठी हथिनी है, सो उस पर दौड़कर आ जाता है, यही है मोह । करेणु कुट्टिनी पर आता हुआ दूसरा हाथी से हुआ द्वेष । इस तरह जंगल में हाथी राग द्वेष मोह के वश में होकर गड्ढे में गिर जाते हैं । जब 5-7 दिन में हाथी का शरीर भूख के मारे शिथिल हो जाता है तो शिकारी आता है, और उस गड्ढे को खोद-खोद कर एक गली बनाता है एक सपाट पथ-सा बनाता है और उस हाथी को निकाल लेता है और अंकुश मार-मार कर उसको अपने आधीन कर लेता है ।
संसारी प्राणियों की राग-द्वेष-मोहमय वृत्ति―यही दशा हम आप सब प्राणियों की है । मोह होना अज्ञान है । सब जीव न्यारे-न्यारे हैं । सारी संपदा पुद्गल की मात्र पर्याय है । यह मैं भी इस शरीर के रूप में क्षणिक हूँ । मैं तो वास्तव में एक शुद्ध ज्ञान ज्योतिस्वरूप हूं । ऐसी इसे श्रद्धा नहीं है क्योंकि मोह छाया हुआ है और राग है विषयों का । सुंदर स्पर्श, सुंदर गंध, सुंदर रूप मिलना चाहिए । बढ़िया राग सुनने का मिलना चाहिए । वहां राग है और द्वेष है किसका? जो संपदा में, भोग के विषयों में जी ललचावे, बाधा डाले वही दुश्मन बन गया । तो यों राग, द्वेष, मोह के आधीन होकर यह जीव संसार में रुल रहा है ।
सुंदर का अर्थ―सुंदर का अर्थ आप लोग जानते हैं क्या है? किसी ने कहा उत्तम, किसी ने कहा अच्छा, किसी ने कहा खूबसूरत । अच्छा अब हम तुम्हें सुंदर का अर्थ बतलाते हैं । सुंदर में सु तो उपसर्ग है, और उंदी धातु है और अरच् प्रत्यय है―अर्थात् सुंदर में तीन अंश है―(1) सु, (2) उंद् और (3) अर । इन तीनों से मिलाकर बनता है सुंदर । अर्थ क्या बनता है ? सु के मायने भली प्रकार से और उंद का अर्थ है तीव्र कष्ट देकर और अर शब्द कृदंत प्रत्यय का है जिससे अर्थ यह निकला है कि जो भली प्रकार से तड़फा-तड़फाकर धीरे-धीरे, जिसे कहते हैं खेदकर, पीटकर, धीरे-धीरे जो क्लेश पहुंचाए उसका नाम है सुंदर । उंद का अर्थ है क्लेश पहुंचाना, कष्ट पहुंचाना, तड़फाना । जो भली प्रकार से तड़फा दे, कष्ट पहुंचा दे, दुःखी कर दे उसका नाम है सुंदर । सो दुनिया में जो मनसुहावनी चीज मिले वही तो सुंदर है । वह भली प्रकार से कष्ट देने वाली चीज है । जो दुनिया को अच्छा लगता है वही तो सुंदर है, जो दुनिया को खूबसूरत लगता है वही तो कष्ट पहुंचाने वाला है । यह सुंदर शब्द का असली अर्थ बतलाया ।
धर्मदृष्टि की प्रेरणा―चाहे पुण्यकर्म हो, चाहे पापकर्म हो, दोनों का ही फल, दोनों का ही उदय इस जीव के कष्ट का कारण होता है । और भी देखिए । किसान लोग गेहूँ उत्पन्न करने के लिए गेहूं के दाने बोते हैं या भूसा उत्पन्न करने के लिए बोते हैं? गेहूं उत्पन्न करने के लिए बोते हैं । गेहूं को उत्पन्न करने के लिए इतना कष्ट करते हैं किंतु भूसा अपने आप मिल जाता है । भूसा पाने के ध्यान से किसान खेती नहीं करते, किंतु अनाज उत्पन्न करने को वे खेती करते हैं । इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष धर्म करने का यत्न करते हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र―रत्नत्रय धर्म का उद्यम करते हैं । उस धर्म का उद्यम करते हुए भूसा अपने आप प्राप्त हो जाता है । भूसा क्या? पुण्य की संपदा । धन वैभव आ जाना, यह सब अपने आप प्राप्त हो जाता है । तो धर्म की दृष्टि बनावो, पुण्य से संपदा तो अपने आप प्राप्त हो जाती है । तो उस धर्म के फल के मुकाबले में पुण्यकर्म भी हेय है और पापकर्म भी हेय है । इन दोनों से राग और संसर्ग छोड़ना चाहिए ।
यहाँ एक दृष्टांत दिया जा रहा है कि कोई कुशल वन का हाथी जिसके कि बंधन के लिए बहुत सुंदर बढ़िया मुँह वाली बढ़िया ढांचे वाली हथिनी बनाई गई हो तो जो कुशल हाथी होता है जंगल में वह तो कुशील जानकर, आपत्ति समझकर उसको देखता भी नहीं है, वहाँ जाता ही नहीं है, राग और संसर्ग नहीं करता है । पर अज्ञानी हाथी, मोही हाथी धैर्य नहीं रख सकता, वह जाता है और गिर जाता है, पर ज्ञानी उससे सावधान रहता है । इसी प्रकार जो आत्मा ज्ञानी है, राग रहित है उसके चाहे पुण्यप्रकृति हो, चाहे पाप प्रकृति हो, दोनों को ही वह सबको कुशील जानता है, छोटे स्वभाव वाला जानता है । वह ज्ञानी समझता है कि मेरे आनंद को पुण्य भी मिटा देता है और पाप भी मेरा आनंद मिटा देता है । मेरा आनंद कर्मों के आधीन नहीं है । मेरा आनंद रत्नत्रय धर्म के अर्थात् स्वभाव के आधीन है । सो ज्ञानी संत पुरुष इन कर्मों को कुशील जानकर इन पर्यायों से राग और संसर्ग नहीं करता है ।
स्वभाव के रुचिया की स्वभावस्मरण की प्रकृति―जैसे किसी का कोई इष्ट पुरुष गुजर जाये तो उसे उस इष्ट का ही ख्याल रहता है । और इतना ख्याल रहता है कि कुछ दिमाग पागल-सा हो जाता है । रिश्तेदार घबड़ा जाते हैं, उसका दिल बहलाते हैं, यहाँ वहाँ घुमाते हैं, बहुत ही बढ़िया भोजन कराते हैं । ऐसा बढ़िया भोजन कराते हैं जैसा कभी न किया हो, वह खाता भी जाये और बोलता भी जाये, मगर उसके चित्त में किसका ध्यान है? उसही एक इष्ट का ध्यान है । इसी प्रकार इस ज्ञानी पुरुष को इस एक अंतर में बसे हुए ज्ञायकस्वभाव का ही ध्यान रहता है, उस ज्ञायक स्वभाव की ही धुनि में वह रहता है । वह दुकान भी करे, भोजन भी करे, परिवार से बातें भी करे, और और नियम के कार्य भी करे तिस पर भी उसकी दृष्टि एक निज शुद्ध ज्ञायक स्वभाव पर है । इसी कारण यह ज्ञानी पुण्य और पाप सब कर्म और सब समागमों से राग और संसर्ग नहीं करता है।
इस गाथा का तात्पर्य है कि जो जीव वस्तुस्वरूप का ज्ञानी है, श्रद्धा में रागरहित ज्ञानस्वभाव का लक्षण रखता है, वह समस्त कर्म प्रकृतियों को, चाहे वे पुण्यरूप हों, चाहे पापरूप हों, अपने बोध के लिए ही समर्पण करते हुए के रूप से देखता है । इन दोनों कर्मों को कुशील जानता है । इसलिए इन दोनों के साथ राग और संसर्ग का निषेध करता है । अब अगली गाथा में यह बतलाते हैं कि दोनों प्रकार के कर्म बंध के कारण हैं और टालने योग्य हैं, इसको आगम से सिद्ध करते हैं ।