वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 154
From जैनकोष
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति ।
संसारगमणहेदुं पि मोक्खहेदुं अजाणंता ।।154।।
पुण्य की चाह का मूल अज्ञान―जो परमार्थ से सूने हैं वे अज्ञान से पुण्य की इच्छा करते हैं । पुण्य की चाह करना भली बात नहीं है । पुण्यकार्य में लगना तो कथंचित् उपादेय है । पर पुण्यकर्म को चाहकर लक्ष्य बनाना यह किसी भी प्रकार उपादेय नहीं है । पुण्यकर्म में लगना, यह अज्ञानी का काम है । उस अज्ञानी की ऐसी प्रवृत्ति है कि पुण्य ही मेरा स्वरूप है, यह पुण्य ही मोक्ष का कारण है, ऐसी रुचिपूर्वक पुण्यकर्म को चाहे तो यह भाव हेय है । जो परमार्थ से बाह्य हैं ऐसे अज्ञानीजन पुण्य की चाह करते हैं । कारण कि उन्हें भ्रम हो गया है कि यह पुण्य ही मोक्ष का कारण है । सो यद्यपि यह पुण्य संसार में घुमाने का हेतु है फिर भी इसकी चाह करते हैं ।
ज्ञान की उपयोगशीलता―भैया ! सबसे बड़ा वैभव है यथार्थ बात समझ में आ जाना । अभी चले जा रहे हैं, रास्ते में कोई विचित्र घटना हो रही हो, या साधारण बातें हो रही हों, कुछ दिखने में आ जाये तो उसके संबंध में ऐसा जानने की इच्छा होती है कि आखिर मामला है क्या? अरे उससे तुम्हारा संबंध भी कुछ नही, और जान जावोगे तो क्या मिल जायेगा? कुछ भी तो न मिलेगा । पर इस आत्मा की ऐसी आदत है, प्रकृति है यह सही जानने के लिए उत्सुक रहा करता है । सही ज्ञान का न आना भी इसके लिए एक दुःख है । अभी ऐसे ही किसी बच्चे से पूछ दें कि बतलावों तेरह नम्मा (139) कितने होते हैं? तो किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ । अब सही जानने की व्यग्रता हो रही है । किसी ने बता दिया कि तेरह नम्मा एक सौ सत्रह । अब तो बताने वाला हंसने लगा और कुछ-कुछ सब हँसने लगे । अरे क्यों हँसे, क्या मजा आया? कुछ खाने को तो नहीं दिया, पर सही जानकारी कर लेने का विचित्र आनंद है । लेन-देन से कुछ नहीं आनंद मिलता, लाभ से कुछ आनंद नहीं मिलता है, पर यथार्थ ज्ञान से आनंद मिलता है । सारे विश्व के संबंध में यथार्थ ज्ञान हो तो अनंत आनंद मिलता है ।
आत्मोपलब्धि का उपाय सर्व कर्मपक्षत्याग―आज प्रकरण यह चल रहा है कि जो जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को तो जानते नहीं हैं जो कि मोक्ष का कारण है और अज्ञान से बाहरी क्रियाकांडों में ही अपनी तीव्रता रखते हैं ऐसे जन ही पुण्य की इच्छा करते हैं । उन जीवों ने मोक्ष की चाह तो की थी, चाहे वह देखादेखी की हो, चाहे मन में बात आई हो, पर उन्होंने मोक्ष की अभिलाषा तो जरूर की है किंतु मोक्ष कैसा है? यह स्वरूप उन्हें विदित नहीं है । मोक्ष का स्वरूप है कि समस्त कर्मों के पक्ष के त्याग में आत्मलाभ की जिसके दृष्टि हुई है उन्हें मोक्ष स्वरूपी आत्मा की प्राप्ति सर्व प्रकार के कर्मों के पक्ष छोड़ने से होता है । बड़े ध्यान से सुनने लायक बात है, चित्त विशुद्ध करके सुनने में बात समझ में आ जाती है । इस जगत में कोई हम आपका शरण नहीं है । पुत्र, मित्र, स्त्री ये कोई भी आपके शरण नहीं हैं । शरण है तो एक अपने आपका धर्म है । उस ही की बात यहाँ चल रही है धर्म की सिद्धि तब कहलाती है कि जैसा अपने आपका शुद्ध स्वरूप है तैसा प्रसिद्ध हो जाये, प्राप्त हो जाये इसे कहते हैं धर्मलाभ ।
सर्वकर्मपक्षत्याग का संक्षिप्त संकेत―यह आत्मस्वरूप कैसे प्राप्त होता है, उसका उपाय यहाँ बताया है कि मोक्ष सर्वप्रकार की क्रियावों का पक्ष छोड़ने से होता है । मैं दुकान करता हूं, यह पक्ष संसार का कारण है । मैं जाता हूँ, आता हूँ, खाता हूँ, बोलता हूँ, इतने जीवों को पालता हूँ, पोषता हूँ यह सब कर्मों की बुद्धि जगजाल में रुलाने वाली होती है, कर्मों को बांधने वाली होती है और मैं पूजा करता हूँ, भक्ति करता हूँ, सत्संग में रहता हूँ, ज्ञान करता हूँ, स्वाध्याय करता हूँ, तप करता हूँ, व्रत पालता हूँ, उपवास करता हूँ ऐसी भी कर्म बुद्धि कर्मों का बंध करने वाली होती है । क्या मेरा स्वरूप ज्ञाता दृष्टामात्र रहने के अतिरिक्त और कुछ भी करने का नहीं? व्रत आदि करना आत्मा का स्वभाव होता तो सिद्ध भगवान को भी करते रहना चाहिए । क्यों वे विरागी हो गए?
शुभोपयोग का प्रयोजन―भाई जैसे किसी दुष्ट के संग में फंस गये हो तो भली-भली बातें करके दुष्टों के शिकंजे से निकलने का उपाय किया जाता है, इसी प्रकार दुष्ट कर्मों के, विभावों के बंध में फंस गए हैं तो जप, तप, पूजा, नियम भली-भली बातें करके इन दुष्टों के संग से निकलना है । जो दुष्टों के संग में फंस गए हैं उन दुष्टों से भली-भली बातें करते तो हैं पर दिल देकर नहीं करते । उन दुष्टों के शिकंजे से निकलना है । इसलिये ये सब क्रियायें करते हैं । इसी प्रकार ज्ञानी जीव जप, तप, नियम आदि भली-भली बातें तो करता है पर यह मेरा स्वरूप नहीं है―यह श्रद्धा रखता है, यह ही मेरा अंतिम काम है ऐसा दिल बनाकर नहीं करता है ।
मोक्ष के स्वरूप के ज्ञानपूर्वक आचरण का महत्त्व―सर्व कर्मों के विनाश से यह आत्म-लाभ उत्पन्न होता है । ऐसे मोक्ष की अभिलाषा भी इसने की । की तो है, पर मोक्ष पर की है । मोक्ष का ऐसा स्वरूप है ऐसा जानकर मोक्ष की अभिलाषा नहीं की । मोक्ष का स्वरूप जान जाये तो यह ज्ञानी हो गया । उस ज्ञानी की बात यहाँ नहीं कही जा रही है । ये अज्ञानीजन किसी कारण से मोक्ष की इच्छा भी करने लगते हैं और मोक्ष के कारणभूत जो समतापरिणाम है उसकी प्रतिज्ञा भी करते हैं, महाव्रत अंगीकार करते हैं, समस्त परिग्रहों का त्याग करते हैं और नाम से तो समता की भी प्रतिज्ञा करते हैं । कैसी है यह समता? परमार्थभूत जो ज्ञान है उस ज्ञानरूप ही बने रहना ऐसी एकाग्रता रूप है । ज्ञानरूप का बनाए रहना होता है सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र के अभेद परिणमन से ।
अज्ञानभाव में मोक्षसिद्धि की अहेतुता―भैया ! अंतर में सामायिक की प्रतिज्ञा भी कर ली, मोक्ष की चाह भी कर ली, किंतु ये अज्ञानीजन मोक्षस्वरूप आत्मस्वरूप का बोध न होने से अपने क्रियाकांडों से उत्तीर्ण नहीं हो सकते । क्रियाकांड का विपाक अच्छा नहीं है । अर्थात् ज्ञानशून्य क्रियावों के कार्य से शांति का लाभ नहीं मिलता । वह इस कर्मचक्र से पार होने में क्लीब है, कायर है । सो परमार्थभूत जो ज्ञान का अनुभवन एतावन्मात्र जो सामान्य पारिणामिक आत्मा का स्वभाव है उसे नहीं प्राप्त करते हैं । यहाँ चर्चा चल रही है कि अज्ञानी जीव संसार के जन्म-मरणरूप संकटों से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि उन्हें आत्मा के स्वरूप का परिचय नहीं हुआ है किंतु देखादेखी या अपनी कुल परंपरा के कारण क्रियाकांडों से लगे चले जा रहे हैं ।
मंदकषाय का सीमित और अध्रुव लाभ―यद्यपि देखादेखी ही सही, कुलपरंपरा से ही सही, इस कार्य के करने में पुण्यबंध होता है, मंद कषाय होती है, एकदम दुर्गति नहीं मिलती है लेकिन संसार में धनी बनकर फायदा क्या उठा लोगे? देव और इंद्र बनकर भी लाभ क्या पा लोगे? लाभ तो आत्मा के विशुद्ध विकास में है । जहाँ समस्त विश्व का पूर्ण यथार्थ परिज्ञान हो रहा है, अनंत आनंद में मग्नता हो रही है, चाहिए तो वह पद, परंतु उस पद का ज्ञान न होने के कारण यह जीव क्रियाकांड और पुण्य भावों की इच्छा करता है । तो मंदकषाय में रहने से पूजा, दान, तप, व्रत, नियम इन कामों में रहने पर स्थूल संक्लेश परिणाम तो रहते नहीं, इतना तो लाभ है और स्थूल मोटे-मोटे विशुद्ध परिणाम रहते हैं, इतना ही लाभ है ।
क्रिया में ही मोक्षहेतुता की कल्पना का कारण―मंदकषाय के सीमित व अध्रुव लाभ के दरम्यान कर्मों का अनुभवन भी बहुत कम रह गया है । अर्थात् उसे असाता और दुःख नहीं सता रहे हैं । ऐसी स्थिति में अपने चित्त में संतोष धारण कर ले तो भिन्न-भिन्न लक्ष्य बनाकर समस्त क्रियाकांडों को न छोड़ते हुए यह अज्ञानी जीव स्वयं अज्ञान से ऐसा मानता है कि जो पाप का काम है यह ही बंध का कारण है और नियम, शील, व्रत, तप आदिक जो शुभ कर्म हैं ये बंध के कारण नहीं हैं । वे यह नहीं समझते हैं कि शुभकर्म भी बंध के कारण हैं और अशुभकर्म तो बंध के कारण हैं ही । ऐसा नहीं जानते हैं तो वे क्रियाकांडों को मोक्ष का हेतु मानते हैं ।
प्रवृत्ति में ही धर्म की धुन होने पर विडंबना का एक वर्तमान प्रदर्शन―शुद्ध नहा धोकर आ गए, पूजा करने खड़े हो गए या रास्ते में आ रहे हैं और किसी ने छू लिया तो एकदम क्रोध आ जाता है । क्या यह क्रोध आना चाहिए था ? नहीं । जो अपना शोध कर रहा है क्या उसे ऐसा गुस्सा आना चाहिए था? नहीं । मालूम होता है कि अंतर का उसने शोध नहीं किया था और बाहरी शोध में ही धर्म का आग्रह था और धर्म का उसे व्यामोह था, इस कारण गुस्सा आ गया । नहीं तो कर्तव्य क्या था कि अपने जान भर शुद्ध होकर आए, किसी ने छू लिया और आपको सुविधाएं हैं तो दूसरा कपड़ा बदल सकते हैं । आप फिर से कपड़े बदलकर आ जाइए और अगर आपको सुविधा नहीं है तो भगवान से दूर-दूर ही खड़े होकर तो उनकी भक्ति करना है । मूर्ति तो नहीं छूना है दूर से ही पूजा करना, देवदर्शन करना यह तो सब किया जा सकता है न सुविधा हो और पूजा करने का आपका नियम है तो ऐसी हालत में थोड़े छींटे डालकर खड़े हो जाइए । कैसा भी कर लीजिए पर गुस्सा करना तो अत्यंत निषिद्ध है । किसलिए तुम पूजा कर रहे थे? इसलिए कि कर्म बंध न हो । और गुस्सा करके कर्म बंध कर लिया । क्या लाभ हुआ? अरे भैया ! आत्मा की पहुंच, प्रभु के दरबार की पहुंच बड़ी उदारता हो तो हो सकती है । अनुदार व्यक्ति महान् आत्मा के दरबार में नहीं पहुंच सकता है ।
ज्ञान बिना कठिन तप भी मोक्ष का अहेतु―अब जरा अज्ञानी साधु पुरुषों की बात देखो । उन्हीं का ही यह प्रकरण चल रहा है । इतना कठिन तप करते हैं कि यह शरीर सूख जाता है, हड्डियां निकल आती है पर अपनी बाबत ऐसी दृष्टि रखते हैं कि मैं मुनि हूँ और मैं तप कर रहा हूँ, ठीक कर रहा हूँ, इस भव से ही मोक्ष होगा । अरे उसने तो अपने आत्मा के शुद्ध तत्त्व के विकास को ढक दिया । पहिली प्रतीति तो यह होनी चाहिए कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, केवल ज्ञाता द्रष्टा रहने की स्थिति ही तो यह धर्म है । इससे मोक्ष मिलता है और इस स्थिति को बनाने के लिए ही ये व्रत तप आदि करना अंगीकार किया है । अपना लक्ष्य विशुद्ध रखना चाहिए था, किंतु लक्ष्य को तो छोड़ दिया और जो शरीर से, मन से, वचन से जो क्रियाएं करते हैं उन क्रियावों में ही रत हो गए । अब यह बतलावो कि मोक्ष कहाँ होता है? अज्ञानी जीव मोक्ष के रचने का काम नहीं कर सकता । इसी प्रकार ज्ञानी जीव संसार के रचने का काम नहीं कर सकता । कल्याण का उपाय बहुत सुगम है । जिस ओर को देख रहे हैं उस ओर से मुड़ना है और जिसको हम देख नहीं पा रहे हैं उस ओर आना है । बस यही तो मोक्ष का मार्ग है । प्रत्येक संभव उपाय द्वारा इस आत्मा की रुचि को उत्पन्न करो । धन वैभव को ही उपयोग में स्थान न दो । सहायक कोई न होगा ।
पर से पर की अशरणता―पूर्वकाल में वाल्मीकि ऋषि हुए हैं, उनके संबंध में एक कथा है कि वे पहिले जंगलों में रहते थे और डकैती का काम करते थे । जो उस रास्ते से निकलता था उसे लूट लेते थे । लुटने वाले ने कुछ गड़बड़ किया तो ठोक दें, यह उनका काम था । वर्षों यह काम चला । एक बार एक संन्यासी उस रास्ते से निकला । वाल्मीकि ने टोका, खड़े रहो । खड़ा हो गया । तुम्हारे पास क्या है? यह कंबल है और यह डंडा है और एक छोटी सी बाल्टी है । रख दो ये । रख दिया । क्यों रखा लिया? अरे तुझे पता नहीं है कि यहाँ वाल्मीकि रहता है उसका यही काम है । अच्छा ठीक है रखा लो पर एक काम करो कि सामान चाहे अपने पास ले लो चाहे यहीं रख दो, हम बैठे हैं, यहाँ से हम नहीं जायेंगे पर अपने घर जावो और घर वालों से सबसे पूछकर आवो कि हम तुम्हारे लिए जो पाप करते हैं, डाका डालते हैं, दूसरों को सताते हैं तो उसमें जो पाप बंधेंगे उनको तुम भी बाँट लोगे क्या?
वाल्मीकि ने कहा अच्छा । अपने घर गया, क्रमश: सबसे पूछा―माँ ने कहा कि बेटा जो तुम पाप करते हो, सैकड़ों को लूटते हो, दुःखी करते हो उससे जो पाप बंध होता है वे पाप तो आपको ही मिलेंगे, हम कैसे बाँट लेंगी । पाप का नाम बोलते ही डर लगता है क्योंकि ऐसा लगता है कि यदि कह दिया पाप तो समझो पाप लग जायेगा । सो माँ ने मना कर दिया, स्त्री ने भी मना कर दिया, जब सबने मना कर दिया तो उसका चित्त बिल्कुल पलट गया । अहो यह जीव अकेले ही पाप करता है और अकेले ही उसका फल भोगता है । कोई किसी का शरण नहीं है । वाल्मीकि के भक्ति जगी और साधु के पास आकर बोले―साधु महाराज, मुझे आपका कुछ नहीं लुटना है । मुझे तो आप अपने जैसा बना लें । मैं देख चुका हूँ इस जगत के सब रंग तरंग ।
अपने को पर से सशरण मत मानो―सो यहाँ अपने आपके बारे में समझो कि मेरा शरण कोई दूसरा जीव नहीं है । किसी का विश्वास न करो, कोई मुझे संकटों से नहीं बचा सकता, घर में बहुत आराम है और कदाचित घर के किसी पुरुष का दिमाग चलित हो जाये तो उसे आप आराम तो ऊपरी शरीर का दे देंगे पर वह शरीर के आराम से मौज में नहीं रहता, उसका दिमाग खोटा हो गया, अर्ध पागल हो गया । अब बतलावो मेरी शरण कौन हो सकता है? ज्यादह मुहब्बत बढ़ गई तो आप आगरा के पागल खाना में ले जाये जायेंगे । और आप करेंगे क्या? कदाचित उसे समझाते हुए में आपको ऐसा दिखने लगेगा कि इसका दिमाग पागल होने वाला है तो उसकी तरफ आप झांकेंगे भी नहीं । कौन किसका शरण है?
अपने परमशरण की दृष्टि―तब फिर अपना जो परमशरण है उस शरण की दृष्टि करिये । किसी भी समय तो उपयोग को सबके बंधन से सर्वथा निकाल दीजिए । मैं आकिंचन्य हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है । इन जीवों को अंतःस्वरूप में देख लीजिए और अपने आप में बसे हुए परमात्मस्वरूप के दर्शन कर लीजिए । यह ज्ञायकस्वभावी भगवान अनादि से है और अनंतकाल तक है, एक स्वरूप है । इसकी दृष्टि किए बिना यह संसार समस्त जीव-लोक नाना योनियों में, कुलों में भ्रमण करता जा रहा है । इसके संकट मिट सकते हैं तो स्वरूप में ही प्रवेश करने पर मिट सकते हैं ।
मेरे लिये भले बुरे की समीक्षा―मेरे लिए बड़ा कौन? मैं । और मेरे लिए बुरा कौन? मैं । सब जगह देखते जावें, पर मेरे लिए बुरा कोई दूसरा नहीं मिलेगा । दूसरे अटपट चलते हैं तो वे अपने लिए ही बुरे हैं, मेरे लिए बुरे नहीं हैं । मैं अटपट चलूं तो अपने लिए बुरा हूँ । मेरे लिए भला कोई भी दूसरा नहीं है । व्यवहारत: मेरे लिए यदि भले हैं तो वे अरहंत और सिद्ध ही भले हैं । अरहंत भगवान अपने लिए भले हैं क्योंकि उनके निर्दोष रहने से वे ही आनंदमग्न हैं और वे ही ज्ञान का आनंद लूट रहे हैं । उनका ध्यान करके अपना पुरुषार्थ बनाकर मैं उस मार्ग की ओर चलूँ तो मैं अपने लिए भला हो सकता हूँ । इसलिए अपने आपका समस्त भविष्य अपने आप पर निर्भर जानकर एक आत्मकल्याण के मार्ग में लगूँ ।
आत्मविकास से आत्मा का महत्त्व―देखिए जैनदर्शन में जो 5 परमपद कहे गए हैं अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु, इसमें कोई पक्षपात नहीं है । किसी व्यक्ति को हमने बड़ा बना दिया हो और उनकी भक्ति किया करते हों ऐसा यहाँ नहीं है । जो भी आत्मा समस्त आरंभ परिग्रह का त्याग करके अपने आत्मतत्त्व की भावना के बल से कर्मों का विनाश कर लेता है उसे कहते हैं आचार्य उपाध्याय और साधु । वहाँ किसी भी पुरुष का कोई पक्ष नहीं है । जो भी आत्मा, आत्मा की साधना कर सके उसे साधु कहते हैं । उन साधुवों में जो मुख्य हो, दूसरों को शिक्षा दीक्षा देकर पर-कल्याण भी कर सके उसे आचार्य कहते हैं ꠰ जो ज्ञान में बहुत बढ़ा-चढ़ा हो और साधुवों को भी ज्ञान की बात सिखा सके उसे उपाध्याय कहते हैं । कोई पक्ष की बात है क्या यह?
परमात्मपद―ये तीनों परमेष्ठी आचार्य, उपाध्याय व साधु अपने ज्ञान, तपस्या के बल से जब चार घातिया कर्मों को नष्ट कर देते हैं अर्थात् वीतराग, निर्दोष विश्व के ज्ञाता बन जाते हैं तो उनका नाम है अरहंत । यहाँ किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया गया । जो भी वीतराग निर्दोष पूज्य बन गया है उसे कहते हैं अरहंत । और यह अरहंत जब शेष अघातिया कर्मों का भी क्षय कर देता है, संसार से भी पृथक् हो जाता है, सर्वथा सिद्ध हो जाता है तो उसे कहते हैं सिद्ध । तो किसी को ऐसा शुद्ध निर्दोष परिपूर्ण बनना है तो वह पदों का आचरण करे । इस आत्मा की पवित्र स्थितियों की पूजा करे । यह णमोकार मंत्र का मर्म है । यहाँ कुछ भी पक्ष नहीं और इसी कारण यह मंत्र प्रत्येक कल्याणार्थी का मंत्र है । जो इन परम पदों की आराधना करेगा वह आत्मस्वभाव को पहिचानेगा ।
उक्त उपाय से वह आत्मलक्ष्य के समीप पहुंचेगा । इसके विपरीत यदि कोई मोही शरीरासक्त भोगलंपटी पुरुष के साथ संगति करेगा वह संसार में रुलेगा । चाहे अपना नाम गुरु प्रसिद्ध करा रखा हो । यदि यह आरंभ में परिग्रह में विषयों में आसक्ति रखता है, लौकिक स्वार्थ साधना ही जिसका लक्ष्य है उसकी संगति में इसकी उपासना में भक्तजनों को लाभ नहीं हो सकता । चाहिए हमें आत्मकल्याण । तो जो आत्मकल्याण में लगे हुए हैं, आत्मकल्याण कर लेते हैं ऐसे आत्मावों की हमें उपासना करना है । और वे आत्मा हैं 5 । सिद्ध, अरहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनमें मोक्षस्वरूप का संबंध है, इसलिए इनकी श्रद्धा करके हमें अपने आपकी उपासना करना चाहिए । पुण्यकर्म मोक्ष का हेतु नहीं है । इस वर्णन के बाद यह प्रश्न होना स्वाभाविक है तब फिर परमार्थ से मोक्ष का हेतु क्या है इसही के उत्तर में रत्नत्रय ही मोक्ष का मार्ग है यह बात दिखलाते हैं ।