वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 158
From जैनकोष
आत्मा का पर में कुछ कर सकने का असामर्थ्य―कोई चाहे कि मैं दूसरे का बुरा कर दूँ तो उसमें सामर्थ्य नहीं है कि वह दूसरे का बुरा कर सके । किसी का बुरा कर देने की इस आत्मा में सामर्थ्य है क्या? नहीं है । मैं दूसरे का नाश कर दूँ―ऐसे परिणाम बनाने की सामर्थ्य तो इस जीव में है, पर दूसरे जीवों का बुरा कर दे ऐसी सामर्थ्य किसी जीव में नहीं है । तो बुरा तो हम किसी का कर नहीं सकते । अब रह गया यह कि बुरा करने का परिणाम तो कर लेते हैं । तो बुरा करने का परिणाम कर लेने में आपको मुनाफा मिलता हो तो करते रहिए । मुनाफा चाहिए । बुरा तो कर नहीं सकते किसी का । रह गयी बुरा करने का परिणाम बनने की बात। तो ऐसा परिणाम निकालने में आपको कोई मुनाफा मालूम पड़ता हो तो करो और हमें मालूम नहीं है । सो वह मुनाफा हमें भी बता दो तो हम भी जान जायेंगे । है नहीं मुनाफा, सब नुकसान है । बुरा करने का परिणाम करने से बुरे कर्म बनते हैं और वे जो सूक्ष्म मेटर बनते हैं ना, वे भी पाप नाम के मेटर बनते हैं जिनके फल में क्लेश ही भोग पड़ता है और पाप के परिणामों के समय भी यह क्लेशों में जलता रहता है ।
मिथ्या आशय त्यागने का उपदेश―इस कारण दूसरे के बुरा करने का परिणाम, परद्रव्यों में अपने को मालिक मानने का परिणाम, बच्चों का पालन पोषण करता हूँ, सुखी करता हूँ ऐसा मानने का परिणाम ये सब मिथ्यात्व हैं, खोटे परिणाम हैं । इन खोटे परिणामों के कारण आत्मविश्वास न होने से सही बात तिरोभूत हो जाती है । फिर हमें संसार के संकटों से छूटने का उपाय नहीं मिल सकता । अपने को संसार संकटों से मुक्त होने के लिए चाहिए कि हम वस्तुस्वरूप का यथार्थ विश्वास करें । आत्मा के सही स्वरूप के विश्वास में इस जीव को संकट नहीं रह सकते हैं ।
सम्यक्त्व का तिरोधायी भाव―मोक्ष के हेतु तीन भाव हैं―सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । यह सम्यक्त्व मिथ्यात्वरूपी मैल से ढका है । मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्यापरिणाम । आत्मा का स्वरूप जैसा है उससे उल्टा आशय बने इसका नाम मिथ्यात्व है । तो जैसे वस्त्र का श्वेतभाव मल के संसर्ग से नष्ट हो जाता है इसी प्रकार सम्यक्त्वभाव मिथ्यात्व मल से ढक जाता है और नष्ट हो जाता है । जैसे सफेद वस्त्र है और 10-20 दिन में वह मैला हो जाता है तो वस्त्र की सफेदी नहीं वस्त्र से बाहर कहीं चली गई । वह सफेदी तो वस्त्र में ही है पर इस पर जो मैल का संसर्ग होता है उस संसर्ग के कारण वस्त्र की सफेदी ढक गई है । साबुन या सोडा लगा कर वस्त्र को सफेद कर सकते हैं । वह तो वस्त्र के ऊपर लगे हुए मल से सफेदी ढक गई है । सफेदी तो उस वस्त्र में थी ही, जैसी सफेदी थी वैसी ही सफेदी उस वस्त्र में प्रकट हो जाती है । इसी प्रकार सम्यक्त्व को उत्पन्न नहीं किया जाता । सम्यक्त्व स्वभाव रूप तो यह आत्मा स्वयं है । पर उसको ढकने वाला जो मिथ्या अभिप्राय है वह मिथ्या अभिप्राय दूर किया जाता है । और इस प्रकार मिथ्या अभिप्राय दूर होने पर आत्मा का सम्यक्त्व प्रकट होता है और मिथ्यात्व मल के रहने पर आत्मा का सम्यक्त्व भाव तिरोहित हो जाता है । अब सम्यक्त्व विषय का तिरोभाव बताकर अब ज्ञान का तिरोभाव क्यों होता है? इसका वर्णन करते हैं ।
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो ।
अण्णाणमलोच्छण्णं तह णाणं होदि णादव्वं ।।158।।
सम्यग्ज्ञान का बाधक भाव―इसमें यह बता रहे हैं कि आत्मा का सम्यग्ज्ञान जो परिणाम है उसका घात करने वाला कौन है? जैसे पूछा जाये कि यह अंगुली सीधी है और टेढ़ी किए जाने पर बतलावो कि इस अंगुली के सीधेपन का घात किसने किया? यह तो सामने की बात है और सीधी बात है । इस अंगुली का सीधापन किसने मिटाया? इस अंगुली के सीधेपन को टेढ़ेपन ने मिटा दिया । तो आत्मा के सीधेपन को किसने मिटाया? आत्मा के टेढ़ेपन ने मिटा दिया । आत्मा के वैराग्य परिणाम को किसने मिटाया? विषय कषाय के परिणामों ने मिटाया । यह रूबरूह साक्षात् बात चल रही है । फिर निमित्त की बात लेना है । आत्मा का सब सही-सही जान जाना स्वभावपरिणमन की बात है । स्वरसत: आत्मा में ऐसी कला है कि वह पदार्थों को सही-सही जान लिया करें । इस सीधे और भोले काम में बाधा डालने वाला कौन है? अज्ञान । वस्तु की सही जानकारी न होना, यही है वस्तु की सही जानकारी का बाधक । जैसे वस्त्र का श्वेत परिणमन मल के द्वारा ढक जाता है तो सफेदी का घात हो जाता है । इसी प्रकार आत्मा का सम्यग्ज्ञान अज्ञानरूपी मैल से ढक जाता है तो सम्यग्ज्ञान प्रकट नहीं होता है । सम्यग्ज्ञान बनाना है तो वस्तुस्वरूप का सही-सही ज्ञान करने में लग जावो ।
संतोष की पद्धति―देखिए आत्मा में जब भी संतोष होता है तब अपने में झुकते हुए संतोष होता है । लौकिक बातों को भी देख लो? कोई आप बड़ा काम कर रहे हैं, बहुत दिनों की लिखा पढ़ी पड़ी है, निर्णय करना पड़ा है, बड़ा विवेचन का काम पड़ा है तो 2 घंटे खूब परेशान हुए। इसको यों किया, उसको यों किया, खूब बड़ा परिश्रम किया। दो घंटे में आपका सारा काम बन गया, काम साफ हो गया तो आप आराम लेते हैं विश्राम करते हैं । तो आप यह बतावो कि अपनी तरफ लिपटकर आप विश्राम करते हैं या कागज पत्रों से लिपटकर विश्राम करते हैं? तो उसकी शैली क्या है कि आप अपनी तरफ ही लिपटकर विश्राम लेते हैं? आप अपनी ओर ही झुककर विश्राम लिया करते हैं बाह्य पदार्थों की ओर झुककर विश्राम नहीं लिया करते हैं । इससे ही सिद्ध है कि आराम और विश्राम अपने को किसी भी बाह्य पदार्थ में न मिलेगा । वह अपने आपमें ही मिलेगा । विश्राम, परम आराम तब होता है जब कि यह राम अपने आपके उपयोग में आए । आ, राम तो आराम मिलता है । यह राम अपने आपमें आए तो आराम मिलता है ।
विश्व के परिज्ञान में प्रथम निर्णय―भैया ! वस्तुवों का सम्यग्ज्ञान करना है तो आप विधिपूर्वक क्रमश: सुनिए । हम किस तरह से इस विश्व को जानें कि हमारे ज्ञान में, हमारी आत्मा में हमारे उपयोग में सही ज्ञात हो जाये? क्या जानना है तुम्हें, समस्त पदार्थों का स्वरूप? समस्त पदार्थ कितने हैं यह जाने बिना उनका स्वरूप क्या समझोगे, इसलिए यह जानना आवश्यक है कि समस्त पदार्थ लोक में कितने हैं? बातें सुनते में एक भी बात सुनने से खाली न रह जाये, नहीं तो आगे की बातों का सिलसिला मिट जायेगा । पहिली बात यह कही जा रही है कि इस विश्व का स्वरूप तब समझ में आयेगा जब हम यह जान जायें कि यह सारा विश्व है कितना तो विश्व कोई अलग चीज नहीं है । पदार्थों के समूह का नाम विश्व है । विश्व जगत का नाम नहीं है किंतु विश्व समूह का नाम है । विश्व शब्द संस्कृत का है । और संस्कृत कोष में विश्व का अर्थ है समूह । यह विश्व पदार्थों का समूह है ।
एक पदार्थ कितना होता है?―अब तुम्हें यह जानना आवश्यक हो गया कि सर्वपदार्थ हैं कितने दुनिया में? यह जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि आखिर एक पदार्थ होता है कितना? एक पदार्थ का स्वरूप न मालूम हो तो पदार्थ कितने हैं, यह कैसे जाना जा सकता है? टोकरी में केले भरे पड़े हैं, 30, 35 केले होंगे । ये केले 35 हैं यह तभी जान सकते हैं जब कि यह मालूम हो कि एक केला इतना होता है । एक का स्वरूप जाने बिना हम गिनती ही नहीं समझ सकते हैं । तो यह जानना जरूरी है कि एक पदार्थ कितना होता है? एक पदार्थ उतना होता है जिसका कि तीन काल में भी कभी दूसरा टुकड़ा न हो सके । एक का टुकड़ा कभी नहीं होता है । टुकड़ा हो जाये तो समझो कि उसमें अनेक चीजें थी सो वे बिखर गई । रुपये का तो टुकड़ा हो जाता है क्योंकि 100 पैसे का नाम रुपया है और एक नये पैसे का टुकड़ा नहीं होता और मान लो टुकड़ा हो जाय तो उससे भी कम कीमत का कोई दाम है । जो कम से कम कीमत का दाम हो उसका टुकड़ा नहीं होता है । एक कहते ही उसे हैं जिसका अंश न हो । यह हम मोटी परिभाषा कह रहे हैं । बारीकी में जायें तो और ही ढंग से कहना पड़ेगा ।
एक का स्वरूप समझने के लिये एक दृष्टांत―दृष्टांत में पहिले इसी को ले लो । यह चौकी रखी है, यह एक चीज नहीं है क्योंकि इसके टुकड़े हो सकते हैं । यह अनेक चीजों से मिलकर बनी हुई है क्योंकि इसके टुकड़े हो जायेंगे । देखने में जो कुछ आ रहे हैं वे एक चीज नहीं हैं किंतु अनेक चीजों के मिले हुए पिंड हैं । इसलिए ये सब मायारूप है, वास्तविक चीज नहीं हैं । तो एक क्या होता है कि जिसका दूसरा अंश न हो सके । तब दिखने वाले पदार्थों में जो अविभागी अंश है, एक परमाणु है, ऐसा एक परमाणु ही वास्तविक चीज है । जो परमाणु मिलकर बने हों वे पिंड हैं, ये वास्तविक चीज नहीं हैं । अच्छा तो दिखने वाली बातों में चीजों का पता लग गया कि इनमें वास्तविक पदार्थ एक-एक परमाणु है । वह परमाणु कितना है? इस चौकी में कितने परमाणु होंगे ? कुछ अनुमान कीजिए । शायद 20 परमाणु होंगे । अरे 2॰ परमाणु तो सूई की नोक के बराबर जगह में हो सकते हैं । अनंत परमाणु हैं । उनमें जो एक-एक परमाणु है, स्वतंत्र सत् है । उन परमाणुवों का जो यह पिंड बन गया है यह स्कंध रूप है । यह परमार्थ वस्तु नहीं है । ऐसे इस लोक में अनंत परमाणु हैं ।
एक चेतन कितना है ?―अब चेतन तत्त्व पर आइए । एक चेतन कितना है जिसका दूसरा अंश न हो सके । आप हम सब एक-एक चेतन हैं, मुझ चेतन का कभी टुकड़ा नहीं हो सकता । ऐसा कहा जाये कि आप आधे तो वहां बैठे रहो और आधे आप मेरे पास आ जावो तो ऐसा कोई नहीं कर सकता । जो एक चेतन है वह अविभागी है । उसका अंश नहीं हो सकता । एक चीज निरंश होती है । अंश होने लगे तो समझो कि अनेक चीजें है ।
चेतन द्रव्यों का परिमाण―जैसे एक आप चेतन हैं वैसे ही और कितने चेतन हैं । जरा अंदाज तो कीजिए । पहिले मनुष्य बतलावों । आज की मानी हुई आत्मा में मनुष्य तीन चार अरब तो होंगे ही । इन तीन चार अरब की बात देख लो, मगर एक दृष्टि तो कर लो कि आपकी दृष्टि कहाँ तक है? यह आज की परिचित दुनिया की बात कह रहे हैं । दुनिया तो इससे असंख्यात गुणी है । इतनी ही दुनिया नहीं है । बहुत बड़ी विस्तृत जमीन पर एक कोने में पूर्वी का एक मल उठ खड़ा हुआ है, जो आजकल के समय में खूब बढ़ा चढ़ा हुआ है और यह आठ हजार कोस तक का ऊंचा मलमा उठ जाता है और यह उठा है ठिगने हाथ की तरह और यह गोल उठा हुआ है जिसे लोग नारंगी की तरह गोल कहते हैं । और इसके चारों ओर बस्तियाँ बसी हुई हैं जिसे देश विदेश कहते हैं और यह एक स्थान से घूमकर उसी स्थान पर आ जाया करती है । इस तरह बहुत से आवागमन गोल रूप हो जाने से आज यह प्रसिद्ध हो गया कि दुनिया गोल है और इतनी ही है । इसके अतिरिक्त कितनी दुनिया है इसको कोई अपनी दृष्टि में नहीं ले सकता है । सब जगहों के भी मनुष्य जोड़ लीजिए तो मनुष्यों की ही गिनती कई शंख प्रमाण हो जाती है ।
मनुष्यातिरिक्त जीवों की बहुलता―फिर पशुवों को देखो कितने हैं? फिर पक्षियों को देखो कितने हैं? कीड़े मकोड़ों को देखो एक ही जगह निकल पड़े तो अरबों की संख्या हो जाती है । फिर जरा इस वनस्पति को देखो एक पेड़ में असंख्यात वनस्पति के जीव रहते हैं, फिर इस वनस्पति में और अन्य सूक्ष्म वनस्पति हैं जो इस पोल के अंदर ठसाठस भरे हुए हैं । उन वनस्पति जीवों का शरीर इतना सूक्ष्म है कि वे हाथ चलाने से भी नहीं हटते, अग्नि जलाने से भी नहीं हटते, किंतु अपनी ही मौत से एक सेकेंड में 23 बार जन्म मरण करते हैं । ऐसे जीवों से यह लोकाकाश ठसाठस भरा हुआ है । अनुमान के लिए कह चलते हैं कि इस लोक में जीव कितने हैं? जीव अनंतानंत हैं । और पुद्गल जीवों से भी अनंतानंतगुणे अनंतानंत हैं । धर्म, अधर्म, आकाश, काल की तो चर्चा ही छोड़ो । पर विशद जानने के लिए जीव और पुद्गल दोनों को लीजिए । अब समझ गए कि पदार्थ कितने होते हैं?
अनंतों में एक की पुन: व्याख्या―वस्तु की सही जानकारी का यह प्रकरण चल रहा है । अनंत जीव, अनंत अणु उनमें से एक पदार्थ का स्वरूप कितना है जितना कि वह अपने प्रदेश में है । जितने प्रदेश को वह अपने आपमें ही Occupy किए हुए है, व्याप रहा है उतना ही एक पदार्थ है । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नहीं है, वह अपनी-अपनी सत्ता से है । कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ के द्वारा अपने सत्त्व का निर्माण नहीं करता, किंतु यदि कोई पदार्थ है तो वह अनादि से ही अपने स्वरूप से है । उसकी कन्डीशन्स बदल जाये, पर्याय परिवर्तित हो जाय किंतु वह पदार्थ मूलत: सत् वही का वही है तो प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नहीं है । उन प्रत्येक पदार्थों में परिणमते रहने का स्वभाव पड़ा हुआ है और अपने उस परिणमन स्वभाव के कारण अपने आपमें निरंतर परिणमते रहते हैं । अब जैसी उनकी योग्यता है और जैसा उनको अनुकूल निमित्त मिलता है उस अनुकूल वह स्वयं परिणम जाता है ।
समस्त अविनाशी पदार्थों में अपने आपमें अपने आपका परिणमन―सब पदार्थ अपने आपमें ही परिणमते हैं । ये प्रत्येक पदार्थ दूसरे पदार्थों का परिणमन लेकर नहीं परिणमते । अपने प्रदेश में है और किसी न किसी के द्वारा प्रमेय हैं । ऐसे प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप के दृढ़ किले में सुरक्षित है । कोई किसी पदार्थ का विनाश नहीं कर सकता । किसी ने अपराध किया, राजा ने फांसी दिया । तो फांसी होने में किसी पदार्थ का विनाश होता है क्या? नहीं । शरीर के परमाणु भी बिखर जाएँ तो भी वे परमाणु अपने स्वरूप से परमाणुरूप रहते ही हैं । इस शरीर से जीव विदा हो गया तो वह जीव परिपूर्ण अखंड वही का वही रहता हुआ आगे किसी और शरीर में पहुंच गया । किसी लकड़ी को जला दिया, राख हो गई, कुछ उड़ भी गई, उससे किसी पदार्थ का नाश होता है क्या? नहीं । जितने परमाणु थे लकड़ी में और वे पिंडरूप होने से वजनदार भी थे । अब जल जाने पर कुछ धुवां के रूप में एक-एक अणु ही नहीं किंतु अनंत अणुवों के स्कंध धुवां के रूप में बिखर जाते हैं, कुछ राख के रूप में प्रकट हो जाते हैं, कुछ हवा चल जाने से सर्वत्र व्याप जाते हैं । फैल गए, सब कुछ हो गया, मगर एक भी परमाणु का नाश हुआ क्या? नहीं ।
निजस्वरूप―जगत में जितने पदार्थ हैं वे सब अविनाशी हैं सुरक्षित हैं । उनका विनाश तीन काल में भी नहीं हो सकता । तो आत्म पदार्थ जो इस देह-रूपी मंदिर में विराजमान हुआ भीतर ही बना-बना सारा लोक जानता रहता है, व्यवस्था करता है और खुद अमूर्त है पिंडरूप नहीं है । इसमें कोई रूप नहीं कि आंखों देख लिया जाये, कोई रस नहीं कि जिह्वा से चख लिया जाये, कोई गंध नहीं कि नाक से सूंघ लिया जाये, कोई स्पर्श नहीं जो पकड़कर समझ लिया जाये, इसमें कोई शब्द नहीं कि कानों से सुन लिया जाये कि यह आत्मा है । यह तो ज्ञानज्योति स्वरूप सद्भूत पदार्थ है । यह ज्ञानज्योति स्वरूप सद्भूत पदार्थ निरंतर ज्ञान करता रहता है, इसका जानन देखन ही कार्य है । इसके अतिरिक्त बाह्य पदार्थों में यह आत्मा कुछ नहीं करता है ।
अनुभवात्मक ज्ञान से आत्मा का यथार्थ परिचय―भैया ! सर्व पदार्थों से भिन्न अपने आपके स्वरूप में तन्मय यह मैं सद्भूत आत्मा हूँ, ऐसा निर्णय करो । इस आत्मा को अनुभवात्मक ज्ञान से मोक्ष के निकट पहुंचना है । सर्व संकटों के विनाश का कारण बनना है । अनुभवात्मक ज्ञान किसे कहते हैं? जैसे मिश्री का स्वाद हम बताना चाहें तो मुख से कहकर हम आपके अनुभवात्मक ज्ञान के कारण नहीं बन सकते । हम आपके सामने मिश्री के स्वाद का वर्णन करें इससे तो यह अच्छा है कि 2 आने की मिश्री लाकर आपके मुख में धर दें । 2 घंटे भी बोलकर हम मिश्री का स्वाद आपको बताएं तो आपको उसका ज्ञान न हो सकेगा । वह ज्ञान आप मिश्री की डली मुख में रखकर कर लेंगे । वह है आपका अनुभवात्मक ज्ञान । यह मिश्री ऐसी है कि वचनों से इसका ज्ञान नहीं हो सकता । इसी प्रकार आत्मा के संबंध में वचनों से हम कितना ही कहे उसका असर न होगा, किंतु स्वयं निर्विकल्प होकर अनुभव कर लो ।
आत्मपरिचय―जिसे आत्मा का परिचय है वह तो उन सबका अर्थ जानकर अपने आपके अनुभव में लग जायेगा किंतु जिसे आत्मतत्त्व का परिचय नहीं है वह इस आत्मा की चर्चा को सुनकर ऊब जायेगा । क्या रोज-रोज वही चर्चा लगा रखी है, कुछ चटपटी बातें नहीं सुनाते तो मन कैसे लगेगा, ऊब जायेगा । और जिसे आत्मा का थोड़ा बहुत परिचय है वह अनुभव के समीपवर्ती ढंग में लगता जायेगा और आत्मा का अनुभवात्मक ज्ञान तो तब होगा जब कि आप सबको भूल जायें, बात सुनना भी समाप्त कर दें, किसी को अपने उपयोग में न लें, बड़े परम विश्रामसहित अपने उपयोग को बना लें तो अपने आप ही इस आत्मा के सहजस्वरूप का ज्ञान उमड़ आयेगा, तब अनुभवात्मक ज्ञान होता है । अनुभवात्मक ज्ञान में क्या चाहिए? यह चाहिए कि यह ज्ञान में आ जाय कि ज्ञान का स्वरूप ऐसा है । ज्ञान का ज्ञान हो जाने का नाम ही आत्मानुभव है ।
जानन का जानन―जैसे हम बहुत से पदार्थों का ज्ञान किया करते हैं, दरवाजा जान लिया, खंभा जान लिया, घड़ी जान लिया, ठीक है, मगर घड़ी का जो जानन है उस जानन को भी जाना कि नहीं । घड़ी को तो जाना, पर घड़ी के जानन को भी जाना कि नहीं? वह जानन क्रियात्मक होता है । बस वह जानन, वह प्रतिभास इसके जानने में आ जाये, इसी का नाम है आत्मा का अनुभवात्मक बोध होना । जिसका जो लक्षण है उस लक्षण द्वारा समझो वह समझ में आयेगा नहीं तो न आयेगा ।
अनुपायों से आत्मस्वरूप जानना टेढ़ी खीर―एक बालक था, सो एक सूरदास से बोला सूरदास जी खीर खावोगे? सूरदास बोले खीर कैसी होती है? कहा खीर सफेद होती है । उस बेचारे ने कभी देखा नहीं कि सफेद कैसा होता है । सो पूछा―सफेद कैसा? बालक बोला―बगुला जैसा सफेद । बगुला कैसा होता है? वह बालक हाथ टेढ़ा करके बताता है कि बगुला ऐसा होता है । उसने उस हाथ को टटोला तो वह टेढ़ा था । तो वह कहता है अरे ऐसी खीर टेढ़ी मेढ़ी मैं नहीं खाऊँगा जो कि पेट में भी गड़े । अरे भाई उस बालक ने क्या अपराध किया? खीर सफेद होती है, बगुला जैसी होती है, बगुला टेढ़ा मेला होता है । बतावो बच्चे से चूक क्या हो गई जो कि वह सूरदास ठीक-ठीक समझ न सका । चूक यह हो गई कि अव्वल तो खीर का स्वाद बताना था । जैसे उसने पूछा था कि खीर कैसी होती है तो उसे यह बताना था कि खीर मीठी-मीठी होती है । अरे खीर के रूप को हम क्या करें? बढ़िया खीर भी आप बना दें और कहें कि देखो यह खीर है । अरे तो देखने से पेट भरेगा क्या? मुंह के पास लावो तब तो उस खीर के स्वाद को समझें । उसका रस मुख से वर्णन करना था । खैर, रूप का वर्णन किया तो रूप का ही वर्णन करें पर वह तो आकार में पहुँच गया । तो यह आकार खाना है कि रूप खाना है । खाने की तो बात कह रहे हैं और जो खाया नहीं जा सकता है उसके सामने धर दो । इसी लिए तो लोग कहते हैं कि यह काम बड़ा टेढ़ी खीर जैसा है । ऐसा लोकव्यवहार में कहते हैं । वह टेढ़ी खीर यही तो है जहाँ बात समझ में न आए और सारे काम में टेढ़ापन रहे । तो इसी प्रकार हम आत्मा को समझने तो बैठे और आत्मा के लक्षण की बात न कहें और कहें तो आत्मा तो देह के बराबर का होता है । अब देखते जावो देह को । इतना लंबा चौड़ा है, इससे आत्मा का क्या कुछ पता पड़ेगा? नहीं । वह तो टेढ़ी खीर बन गया ।
वस्तुस्वरूप के परिचय का उपाय―खीर का पता कब पड़े उसे? जब यह समझाया जाये कि सूरदास जी ! तुमने दूध तो पिया ही होगा, शकर खाया ही होगा, चावल खाया ही होगा । कैसे चावल जो बिना माँड़ निकला हो । अब वे सब मिलाकर जो स्वाद बनेगा वह खीर का स्वाद होगा । तो कुछ-कुछ समझ में आयेगा । इसी तरह आत्मा के संबंध में जब ज्ञान मुखेन वर्णन किया जायेगा, देखो जो जानते हैं वह आत्मा है । जानन का किसे परिचय नहीं है? उस ज्ञान का ज्ञान करने की दिशा में उसे लगाया जाय तो वह समझ जायेगा कि आत्मा इसका नाम है । पर आत्मा का लक्षण जो ज्ञान है उस ज्ञान लक्षण को तो छोड़ दें और द्रव्य, पिंड, प्रदेश परिणति इनकी दृष्टि से वर्णन करने लगें तो आत्मा टेढ़ी खीर बन गई ।
आत्मा के परिचय का उपाय ज्ञानपरिज्ञान―इस कारण आत्मा को ज्ञानी संत पुरुष ज्ञानमुखेन वर्णन करते हैं । जो ज्ञानस्वरूप है वह आत्मा है । तो अपने आपको केवल जानन रूप में निरखो । जो जानन है वह मैं हूँ । यह पिंड की दृष्टि छोड़ दो । हाथ, पैर, नाक आदि सबको भूल जावो । केवल एक ज्ञान उजाला प्रतिभासमात्र उस ज्ञान उजालेरूप में ही अपने को मानने लगो । यह एतावन्मात्र मैं हूँ तो इस ज्ञान के ज्ञानात्मक अनुभव द्वारा इस ज्ञानमय आत्मा का प्रत्यय हो जायेगा । तो यह मैं नवाब साहब केवल ज्ञानमय निकला, और यह केवल जानन का काम करता है । जानन के अतिरिक्त हमारा कोई काम नहीं है, ऐसे ज्ञानमय अनुभव से सम्यग्ज्ञान जागृत होता है ।
रत्नत्रय का साक्षात बाधक विकारभाव―यहां प्रकरण चल रहा है कि मोक्ष के हेतु का तिरोधान कौन करता है ? मोक्ष के हेतु हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । इनका बाधक कौन है? यहाँ बताया गया है कि सम्यक्त्व का बाधक है अज्ञान परिणाम और सम्यक्चारित्र का बाधक है कषाय भाव । रत्नत्रय के बाधक कर्म नहीं हैं । कर्म तो परद्रव्य हैं, कर्मों का आत्मा में अत्यंताभाव है । रत्नत्रय का साक्षात् बाधक बताया कि आत्मा का विकार भाव है और आत्मा के विकारभाव के उत्पन्न होने में कर्मों का उदय निमित्त है । कर्मोदय निमित्त के बिना विकारभाव उत्पन्न नहीं हो सकता, यह बात एक अलग है पर रत्नत्रय का तिरोधान करने वाले कर्म नहीं हो सकते हैं ।
साक्षात् बाधक के स्पष्टीकरण के लिये एक दृष्टांत―जैसे पूछा जाये कि यह सीधी अंगुली है, इसके टेढ़ेपन का तिरोधान हो गया तो इसके टेढ़ेपन का तिरोधान करने वाला क्या है ? क्या यह मंदिर है? मंदिर ने इस अंगुली को दबा दिया क्या? क्या इस चौकी, पुस्तक, श्रोतावों आदि ने इस अंगुली को सीधा कर दिया है? कोई कहेगा कि श्रोतावों को समझाने के लिए सीधी किया तो श्रोता हो गए टेढ़ी अंगुली के बाधक, तो श्रोता नहीं हैं इस टेढ़ी अंगुली बाधक, किंतु यह सीधी पर्याय वे इस टेढ़ी पर्याय का साक्षात् बाधक । साक्षात् वह कहलाता है जिसके अंतरंग में दूसरे की अपेक्षा न पड़े । यहाँ तक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बाधक की चर्चा तो हो चुकी, आज सम्यक्चारित्र का बाधक क्या है इसका प्रकरण है ।