वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 159
From जैनकोष
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो ।
कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादव्वं ।।159।।
सम्यक्चारित्र का साक्षात् बाधक कषायपरिणाम―जिस प्रकार वस्त्र में रहने वाली सफेदी को मल का सद्भाव नष्ट कर देता है इसी प्रकार चारित्र को कषायरूपी मल उच्छिन्न कर देता है । वस्त्र स्वभावत: सफेद है और महीने भर तक पहिने रहे, धोयें नहीं तो मैला हो जाता है । तो वस्त्र की सफेदी का साक्षात् बाधक कौन है? उस पर लगा हुआ मल । इसी प्रकार आत्मा के सम्यक्चारित्र का बाधक कौन है? आत्मा में लगा हुआ कषाय परिणाम । कषाय परिणाम चारित्र का साक्षात् बाधक है क्योंकि कषाय परिणाम भी आत्मा की परिणति है और सम्यक्चारित्र भी आत्मा की परिणति है । और कषाय परिणति सम्यक्चारित्र से विरुद्ध परिणति है । ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते । सो सम्यक्चारित्र का नाश करने वाला विरोधी कषाय परिणमन है ।
एक प्रासंगिक प्रश्नोत्तर―यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि जब सम्यक्चारित्र हो जाये तब क्या कह दोगे कि कषाय का तिरोधान करने वाला सम्यक्चारित्र है? जैसे अभी कहा जा रहा है कि सम्यक्चारित्र का तिरोधान करने वाला कषाय है और जब सम्यक्चारित्र उत्पन्न हो जायेगा तब क्या यह कहोगे कि कषाय का तिरोधान करने वाला सम्यक्चारित्र है? सो भैया ! कषाय का नाश करने वाला सम्यक्चारित्र है―यह तो कह दोगे पर कषाय का तिरोधान करने वाला सम्यक्चारित्र है, यह नहीं कह सकते । इन दोनों में अंतर है । तिरोधान का अर्थ है दबा देना । जैसे मटका में दीपक धर दिया और ऊपर से थाली धर दिया तो उसका तिरोधान कर दिया । इसका सीधा भाव यह है कि सम्यक्चारित्र तो आत्मा का स्वभाव है और वह बढ़ने के लिए स्वरसत: तैयार बैठा है और स्वभाव भाव है शक्तिस्वरूप, सो उसका तो तिरोधान कहलाता है पर आत्मा का कषायभाव स्वभाव भाव नहीं है । स्वरसत: होता नहीं है, अपने आप बढ़ने के लिए तैयार बैठा नहीं है, इस कारण कषाय का तिरोभाव सम्यक्चारित्र के द्वारा कैसे कह सकें? सम्यक्चारित्र का तिरोभाव होता है कषाय के द्वारा ।
चारित्र का प्रकाश―वह चारित्र भी क्या है? ज्ञान का चारित्र है । ज्ञान का सम्यक्त्व होना सम्यग्दर्शन, ज्ञान का ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान और ज्ञान का चारित्र होना सम्यक्चारित्र । आत्मा ज्ञानलक्षणात्मक है और लक्षण और लक्ष्य का भेद चलने से आत्मा और ज्ञान ये दो बातें कही जाती हैं, पर आत्मा ही ज्ञान है व ज्ञान ही आत्मा है, कोई भेद नहीं है । यह ज्ञान उपाधि का निमित्त पाकर मलिन बन रहा है । विपरीत अभिप्राय को मिथ्यात्व कहते हैं । वह अभिप्राय क्या है? ज्ञान की ही तो करतूत है, ज्ञान का ही तो अभिप्राय बनता है । तो मिथ्यात्व का जो विरोधी अभिप्राय बनता है वह ज्ञान की मलिनता है । यह मलिनता दूर हो जाये, ज्ञान की समीचीनता आ जाये, इसका नाम है सम्यक्त्व और ज्ञान में ज्ञान का ज्ञान हो जाये, इसका नाम है सम्यग्ज्ञान, और ज्ञान ज्ञानरूप ही वर्तता रहे, इसका नाम है सम्यक्चारित्र । तो ये तीनों ही चीजें ज्ञानरूप पड़ती हैं । ज्ञान का ऐसा आचरण मोक्ष का हेतु है और वह स्वभाव है ।
चारित्र के तिरोधान का हेतु―यह ज्ञानचर्यारूप स्वभावकषाय नामक परभावों से कर्म मलिनता से अवच्छन्न होने से, रुद्ध होने से यह तिरोहित होता है, दब जाता है । जैसे कि वस्त्र की सफेदी किसके द्वारा मिटेगी? किसी परभाव के द्वारा । वस्त्र के ही द्वारा वस्त्र की सफेदी न मिटेगी । किसी परवस्तु के द्वारा वस्त्र की सफेदी तिरोहित होगी । इसी तरह आत्मा का सम्यक्चारित्र तो स्वभाव है वह स्वभाव कषायमलरूपी परभाव से ढका हुआ है । तब कषाय करना, अज्ञान करना मिथ्या अभिप्राय रखना ये चीजें हेय हैं कि उपादेय हैं? हेय हैं, आत्मा के अकल्याण स्वरूप हैं । और कषाय क्या है? कर्म । ज्ञानावरणादिक को यहाँ कर्म नहीं कह रहे हैं, किंतु आत्मा के द्वारा जो किया जाये उसको कर्म कहते हैं । आत्मा के द्वारा क्या किया जाता है? ये मिथ्यात्व, अज्ञान, और कषाय ।
कर्म की उद्भूति का करण―क्या आत्मा के द्वारा पुदगल कर्म नहीं किए जाते हैं? नहीं । तो फिर ये लग कैसे गए? आत्मा के द्वारा किए गए विभाव कर्मों का निमित्त पाकर ऐसी ही कार्माणवर्गणावों में योग्यता है कि वे अपनी परिणति से कर्मरूप बनकर आत्मा के साथ स्थित रहते हैं । कर्म किसे कहते हैं? जो आत्मा के द्वारा किए जाएं । आत्मा के द्वारा पुण्यभाव और पापभाव किए जाते हैं, ऐसे पुण्य के परिणाम और पाप के परिणाम ये दोनों कर्म हैं और कर्म रत्नत्रय के बाधक हैं । चाहे पुण्यकर्म हो और चाहे पापकर्म हो, वह आत्मा के शुद्धभावों का बाधक है । इस कारण ज्ञान के उद्योग में दोनों ही प्रकार के कर्म प्रतिषेध के योग्य होते हैं । कर्म नाम वास्तव में विभावों का है और पुद्गल वर्गणावों का कर्म नाम उपचार से है । जैसे सिंह नाम जंगल में रहने वाले उस पशु का साक्षात् है और यहाँ किसी पुरुष का सिंह नाम रख दिया जाये तो वह उपचार से है । इसी प्रकार कर्म नाम आत्मा के विकार भावों का है, उस विकार भाव का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणावों में जो उसके अनुकूल स्थिति बनती है उसका नाम कर्म है । यह उपचार से है ।
आत्मविकार को कर्म कहने का कारण―आत्मा के विकार को कर्म क्यों कहते हैं? क्रियते इति कर्म: । जो किया जाये उसे कर्म कहते हैं । तो ज्ञान नहीं किया जाता क्या? नहीं । श्रद्धान नहीं किया जाता क्या? नहीं । ज्ञान किया नहीं जाता है, ज्ञान होता है । श्रद्धान किया नहीं जाता, श्रद्धान होता है और रागादिक विभाव किए जाते हैं । किया जाने में और होने में किस कारण से अंतर है? जो पर की अपेक्षा रखकर होता है उसे तो करना कहते हैं और जो पर की अपेक्षा नहीं करके होता है उसे होना कहते हैं । होने और करने की ये दो व्याख्याएँ है । ज्ञान दर्शन आदिक पर की अपेक्षा से नहीं होते हैं, पर रागादिक विकार ये पर-उपाधि निमित्त की अपेक्षा करके होते हैं । इसलिए इन रागादि विभावों का नाम कर्म है । तो ये सर्व प्रकार के कर्म मोक्ष के हेतु को तिरोहित करते हैं, इसलिए ये प्रतिषेध के योग्य हैं ।
पुण्यकर्म की कुशलता―भैया ! समयसार में यह पुण्य पाप नामक अधिकार चल रहा है । जहाँ यह बताया है कि पाप को सभी लोग कुशील कहते हैं क्योंकि उसका फल पाप है, पर वह पुण्यकर्म भी सुशील कैसा जो संसार में प्रवेश कराता है । पुण्य का उदय हुआ, ठाठबाट, वैभव, चमत्कार मिला तो उन ठाठबाट, चमत्कारों का निमित्त पाकर इस जीव ने अपने आपमें मलिनता बढ़ायी, आसक्ति बढ़ायी, कषाय बढ़ायी, विषयेच्छा बढ़ायी, जिसके फल में इसकी दुर्गति होगी तो यह पुण्य का दोष नहीं है । यह है अज्ञान का दोष । मगर पुण्य का और पुण्यफल के अज्ञान का प्राय: संबंध ऐसा है कि जहाँ पुण्यफल विशेष मिले वहाँ अज्ञान रहता है, नियम नहीं है पर प्राय: ऐसी बात है ।
पुण्य की कुशीलता का प्रदर्शन―एक नीतिकार ने कहा है कि यौवनं धनसंपत्ति: प्रभुत्वमविवेकता । एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।। जवानी, धन संपदा और प्रभुता याने लोगों पर अपना असर दबाव और अज्ञान―ये चार ऐसे कुतत्त्व है कि इनमें एक भी हो तो अनर्थ होता है, फिर जिस मनुष्य में ये चारों ले जायें तो उसके अनर्थ को क्या कहना है । जवानी, धनसंपदा व प्रभुता ये पुण्य के ही तो फल हैं । जवानी अकेले अनर्थ करने के लिए है । धन-संपदा लोगों पर प्रभाव, अज्ञानभाव ये अकेले ही अकेले अनर्थ कर सकते हैं । पर जहाँ ये चारों मिल जायें वहाँ तो कहना ही क्या है?
समुदाय की अनर्थकारिता―चार पंडित थे । एक तो थे ज्योतिषी, एक वैद्य, एक व्याकरण के पंडित और एक दार्शनिक विद्वान । चारों पढ़े लिखे खूब थे, मगर मूर्खता में भी कम न थे । सो एक घोड़ा सबने लिया और वे चल दिये, एक जंगल में से निकले । सबने सोचा कि आज के दिन यहीं कहीं पिकनिक कर लें, अच्छी तरह भोजन कर लें, मौज मान लें । कहा यहीं बस जावो क्योंकि सुहावना जंगल है । बस गए । सोचा कि घोड़े को चरने के लिए कहा छोड़ा जाये ज्योतिषी से पूछा, उसने सोच विचारकर बताया कि पश्चिम दिशा में छोड़ दो । छोड़ दिया तो वह स्वतंत्र होकर भाग गया । खैर, कहा अच्छा रसोई बनावो । अब यह काम किसे दिया जाये? सबने कहा कि जो सबसे कमजोर सा हो व्यवहार की चतुराई में उसे यह काम दिया जाये? भाई वैद्य साहब की तो आजकल बड़ी पूछ है, वे तो फोकट में हैं नहीं, ज्योतिषियों की भी कम इज्जत नहीं है, उनको भी लोग बहुत पूछते हैं ।
वैयाकरणजी की करतूत―अब रह गए वैयाकरण महाराज । सोचा कि यह काम वैयाकरण महाराज को दिया जाये, सो खाना बनाने का काम वैयाकरण महाराज को दिया गया । अच्छा तो साग सब्जी कौन लाए ? विचार हुआ कि वैद्य जी अच्छी लायेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि कौनसी सब्जी कैसी है । सो वैद्य जी सब्जी लेने गए । विचार किया कि पालक भाजी लें तो यह जुकाम करेगी, मेथी लें तो यह भी नुक्सान करती है । इस तरह से उन्हें सबसे अच्छी जंची नीम की पत्ती । सो नीम की पत्ती लाकर धर दिया । अब उसे चक्कू से काटकर छौंक दिया । साग बन रहा है तो वह फुद्-फुद् बोले । सो वैयाकरण महाराज सोचते हैं कि फुद्-फुद् तो कोई शब्द ही नहीं है, पोथी में भी उलट पलट कर देखा कहीं फुद्-फुद् न था । फुद्-फुद् की शब्दसिद्धि व्याकरण में मिली नहीं । तब कहा यह पतेली झूठ बोलती है, यह फुद्-फुद् क्यों कहती है? यह पतेली झूठ बोलती है इसलिए झूठ बोलने वाले के मुख में मिट्टी झोंक दो । सोचा कि यह फुद्-फुद् तो कोई शब्द ही नहीं है तो उसने पतेली में मिट्टी झोंक दिया । क्योंकि शुद्ध संस्कृत जानने वाले को अशुद्ध शब्द सूई की तरह चुभता है । अभी कोई भक्तामरस्तोत्र पढ़ रहा हो और अशुद्ध पढ़ जाये तो संस्कृत पढ़े हुए व्यक्ति के वे शब्द सूई की तरह चुभेंगे ।
दार्शनिक की अकल―उनमें से दार्शनिक घी लेने के लिए गया । एक गिलास में पाव डेढ़ पाव घी लिया, और आते समय रास्ते में उसे एक शंका हुई कि घी पात्र के आधार पर है या पात्र घी के आधार पर है । सीधे शब्दों में यह कहो कि घी में पात्र है कि पात्र में घी है । उसके यह शंका हो गई कि पात्र के आधार में घी है या घी के आधार में पात्र है । सो वह डेढ़ पाव घी था, उससे गिलास भर गया था । उसके यह शंका हुई तो उस घी को औंधा दिया । सारा घी बह गया, गिलास की पेद में थोड़ासा घी बचा । और जब आगे गया तो उसे फिर शंका हो गई सो उसने सोचा कि दुबारा पक्की तरह से निर्णय कर लें, सो दुबारा फिर औंधा दिया । सारा का सारा घी बह गया । अब वहाँ सागभाजी की क्या दशा थी कि वह तो सारी की सारी खराब ही हो चुकी थी । अब खाना पीना सब खराब हो गया, पिकनिक का टाइम भी पूरा हो चुका । सबने सोचा कि अब चलना है । कहा―लावो घोड़ा । घोड़े को ढूँढने गए तो वह नदारद ।
दृष्टांत के उपसंहारपूर्वक पुण्यफल से अनर्थ की विवेचना―तो वहाँ चारों मूर्ख थे इसलिए इतनी विडंबना हुई, यदि एक ही मूर्ख होता तो इतनी विडंबना न होती । जब चारों ही मूर्ख हो गए तो हर तरह की विडंबना हो गई तो ये चारों कुतत्त्व, जवानी, संपत्ति, प्रभु और अज्ञान ये अकेले-अकेले हों तो कितनी विडंबना बन सकती, और चारों मिल जायें तो उसकी विडंबना का क्या ठिकाना? तो पुण्य के उदय में होता और क्या है कि इस विडंबना के ही साधन मिलते हैं । तो यह पुण्यकर्म सुशील कैसा जो संसार में प्रवेश कराता हो । पुण्यकर्म करना ठीक नहीं है । पुण्यकर्म हो जाये तो होने दो, मगर इस आशय से यदि पुण्यकर्म किया जाये कि मैं पुण्य कर्म करूँ तो इसके मायने है कि संसार की वांछा की, मुक्ति की वांछा नहीं की । शुद्ध आत्मतत्त्व का दर्शन करते हुए शुभ रागवश पुण्यकर्म बंधे तो वह सातिशय पुण्य बंधता है और उस पुण्य से जबरदस्त धोखा नहीं होता है । क्योंकि उसका लक्ष्य पुण्य का न था, उसका लक्ष्य मोक्ष का था ।
आत्मस्वभावविकास का बाधक आत्मविभाव―भैया ! जिसका लक्ष्य ही पुण्यकर्म के करने का हो उसको पुण्यकर्म धोखा ही देगा क्योंकि मूल में अभिप्राय ही उसका खोटा है । तो ये दोनों प्रकार के कर्म मोक्ष के हेतु का तिरोधान करते हैं इसलिए इन कर्मों का प्रतिषेध किया गया है । ये कर्म मुझे बांधते हैं ऐसा नहीं है किंतु कर्म ही स्वयं बंधन है । आत्मा के ये कर्म आत्मा से अलग नहीं है । कर्म शब्द कहने पर आप ज्ञानावरणादिक पुद्गल कर्मों का रंच ख्याल न करें और ऐसा सोचकर इस प्रकरण को सुनिए कि आत्मा है एक पदार्थ और उसमें जो विकार होते हैं वे हैं इसके कर्म । यद्यपि पुद्गल कर्म है और बंधते हैं, सर्व प्रकार की स्थिति है पर एक निश्चय की मुख्यता के प्रकरण में दूसरे पदार्थों का ख्याल नहीं किया जाता ।
साक्षात् और निमित्तरूप कारण―दूसरे पदार्थ हैं, उनका निषेध नहीं है । जब वैज्ञानिक बात कहने में उतरेंगे तो सब बातें कही जायेंगी कि मिथ्यात्व नामक प्रक्रियावों के उदय का निमित्त पाकर मिथ्यादर्शन होता है और मिथ्यादर्शन होने से मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता । इसलिए मोक्ष का बाधक मिथ्यात्व नामक प्रक्रियावों का उदय है । वहाँ तीसरे को बताया गया है । स्वयं तो है सम्यग्दर्शन और उसका बाधक है दूसरा, मिथ्यादर्शन और मिथ्यादर्शन का उदय है निमित्त प्रक्रिया, इसलिए साक्षात् में दूसरे के निमित्त में तीसरे को बताया गया है ।
परंपरा निमित्त का उदाहरण―जैसे एक ट्रेन में दस-बीस डिब्बे लगे हैं, ईंजन चलाता है सबको ऐसा व्यवहार में कथन है । निकट व्यवहार की बात देखो तो ईंजन केवल अपने पीछे लगे हुए डिब्बे को खींच रहा है और उसके पीछे लगे हुए डिब्बों को नहीं खींच रहा है । ईंजन अपने पीछे वाले डिब्बे को खींच रहा है, तीसरे डिब्बे को दूसरा डिब्बा खींच रहा है और चौथे डिब्बे को तीसरा डिब्बा खींच रहा है । ईंजन तो केवल अपने पास के लगे हुए पहिले डिब्बे को खींच रहा है । यह साक्षात व्यवहार की बात कह रहे हैं । और निश्चय से देखा जाये तो ईंजन पहिले डिब्बे को भी नहीं खींच रहा है । ईंजन में तुम किसको देखोगे? पहियों में लगे हुए उस डंडे को देखोगे । तो डंडा किसको क्या कर रहा है निश्चय से बतलावो? वह डंडा अपने में अपनी क्रिया कर रहा है । उसका निमित्त पाकर चूँकि पहिया चिपका हुआ है ना, इसलिए वह भी चल रहा है । एक-एक पुर्जा अपने-अपने में अपनी-अपनी क्रिया कर रहा है । कोई पुर्जा, कोई स्कंध किसी दूसरे स्कंध का परिणमन नहीं करता है । ये तो सब निमित्तनैमित्तिक संबंध के कारण चलते हैं ।
श्रोता व वक्ता की क्रिया में उपचार कारणता―श्रोतावों का निमित्त पाकर वक्ता हाथ भी हिलाता, वचन भी बोलता, मन में विकल्प भी करता तो इन तीनों चेष्टावों का करनेवाला श्रोता नहीं है, कराने वाले श्रोता नहीं हैं व समर्थन करने वाले भी श्रोता नहीं हैं और कारण भी नहीं है । हाँँ निमित्त कारण है और श्रोताजन जो कुछ अपने आपमें सोचते हैं, ज्ञान का विकास होता है उनका करने वाला वक्ता नहीं है, उसका कराने वाले वक्ता नहीं हैं, उसका समर्थन करने वाले वक्ता नहीं है । हां निमित्त कारण है । तो इसी प्रकार आत्मा में जो मिथ्यादर्शन होता है, मिथ्याज्ञान होता है, मिथ्याचारित्र होता है उसका करने वाला कर्म नहीं, कराने वाला भी कर्म नहीं, समर्थन करने वाला भी कर्म नहीं, उपादान कारण भी कर्म नहीं, हाँ निमित्त कारण है । तो यह समझो कि हमारे कल्याण का, मोक्ष का साक्षात् बाधक विकारपरिणाम ही है । कोई अन्य द्रव्य नहीं हो सकते ।
विकारों के परित्याग का कर्तव्य―भैया ! किसी भी उपाय से हम विकारों को छोड़ सकें तो हम कल्याण कर सकते हैं । विकार छोड़ने के लिए दूसरों से मिन्नत करना काम न देगा, किंतु अपने सहज स्वभाव का दर्शन, सहज स्वभाव का ज्ञान और सहजस्वभाव में ही रत होना यह प्रक्रिया काम देगी । सो पुण्य पाप दोनों कर्मों का आग्रह छोड़कर हमें आत्म-स्वभाव के दर्शन में लगना चाहिए ।