वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 168
From जैनकोष
पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणोविंटे ।
जीवस्स कम्मभावे पडिए णपुणोदयमुवेइ ।।168।।
पुनर्बंधाभाव व एक दृष्टांत―जैसे पका हुआ फल गिर जाये तो वह फल फिर डंठल में नहीं लगता है, इसी प्रकार ज्ञानी जीव के कर्म उदय में आ जायें तो वे खिरते ही हैं, वे फिर बंध नहीं करते हैं और न आगे उदय में आ सकते हैं । पका हुआ फल जो पेड़ से गिर जाता है, क्या वह फल फिर डंठल में लग सकता है? नहीं । इसी प्रकार कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाला जो भाव है, वह जीव भावों से एक बार अलग हो तो अलग होकर क्या वह जीव भावों में आता है? नहीं । ज्ञानी जीव के जो कषाय भाव उत्पन्न होता है वह परंपरा को बढ़ाने के लिए नहीं होता है, वह कषायभाव होता है और खिर जाता है ।
ज्ञानी के रागादिक का विलगाव―रागादिक तो हुए, पर ज्ञानी जीव के कारण उपयोग में संकीर्ण नहीं हो सका अर्थात् उपयोग में रागादिक को रचापचा न सका तो जब रागादिक से रहित ज्ञानमात्र परिणति होती है तब यह जीव शिव आनंद का पात्र होता है । जो भावराग-द्वेष-मोह से रहित है वह तो ज्ञान से रचा हुआ भाव है, जो भाव ज्ञान से रचा हुआ है वह समस्त द्रव्य कर्मों के आस्रव को रोकता है । और इस प्रकार समस्त भावास्रवों का अभाव होजाता है । जैनसिद्धांत के अनुसार सर्वसर्जन भावों से हुआ करता है । भ्रम से यह जीव अपने को संकटों में डालता है, बंधन में डालता है । और परिणामों से ही यह जीव संकटों से मुक्त हो जाता है । यह आत्मा एक भावात्मक पदार्थ है । भाव ही इसका बंधन है, भाव ही इसकी मुक्ति है । जहाँ भेदविज्ञान और यथार्थ ज्ञानरूप परिणाम है वहाँ तो इसकी मुक्ति है और जहाँ स्व-पर का भेद ज्ञात न हो वहाँँ इसका बंधन है ।
ज्ञानी के आस्रवभाव का बंध का अभाव―ज्ञानी जीव के आस्रव भाव नहीं होता, अर्थात्रागादिक भाव मेरे हैं ऐसी पकड़ ज्ञानी के नहीं होती । अपने विभावों को अपना न माने तो वहाँ कर्मों का आस्रव बंध नहीं होता । जो होता है उसकी गिनती नहीं की गई । जैसे किसी पुरुष को 1 लाख का कर्जा किसी को देना है और 99 हजार 999 रुपये 99 न0 पै0 ऋण चुका दिया हो तो 1 नये पैसे को कर्जा भी कहते हैं क्या? नहीं । स्वरूप से तो कर्जाहै, पर उसे कर्जा नहीं कहा । इस प्रकार भेदविज्ञान हो जाने पर अनंत संसार तो कट गए । कुछ थोड़े भव शेष रह गए, तो इतने मात्र रह जाने को या छोटी स्थिति के कर्मबंधन को बंध में शामिल नहीं किया । जो बंध की परंपरा बढ़ाए उसे बंधन कहते हैं । यों ज्ञानी जीव के आस्रव
नहीं होता ।
अब कहते हैं कि ज्ञानी जीव के द्रव्यास्रव का भी अभाव है । आस्रव कहते हैं कर्मों का आना । कर्म होते हैं दो प्रकार के । एक जीव के विकार परिणाम और कार्माण वर्गणाओं का ज्ञानावरणादिक रूप बनना । विकार परिणाम का नाम है भावकर्म और ज्ञानावरणादिक कर्मों का नाम है द्रव्यकर्म । तो आस्रव भावरूप भावकर्म तो ज्ञानी जीव के होता नहीं, क्योंकि वह तो अलिप्त रहता है । अपने आपमें उत्पन्न होने वाले रागादिक विकारों को भी अपने से पृथक् ज्ञानी जीव समझता है । जैसे इस फर्श पर यह छाया पड़ रही है तो बतलाओ यह छाया फर्श की निजी चीज है या फर्श से अलग चीज है? फर्श का चूंकि परिणमन है इसलिए फर्श की चीज है, पर प्रकट समझ में यह भी आ रहा है कि फर्श इस छाया से अलग है । लो अभी जरासी देर में सिर हिलाया तो वहाँ की छाया अलग हो गई । जैसे फर्श की छाया फर्श से भी न्यारी है इसी प्रकार आत्मा के रागादिक विकार आत्मा से न्यारे हैं ।
ज्ञानी का ज्ञानमय जागरण―अज्ञानी जीव ही रागादिक विकारों से ही निज शुद्ध आत्मतत्त्व का बोध नहीं कर सकता किंतु ज्ञानी सदा जागरूक है । स्वप्न में भी अर्थात् किसी भी समय वह विह्वल नहीं होता कि लो रागादिक हुए तो अब मुझे कोई शरण नहीं है । रागादिक हो रहे हैं, हो, किंतु परमार्थ शरणभूत यह मैं परमात्मतत्त्व सबसे पृथक् हूँ । इस सावधानी के कारण जब ज्ञानी के भावास्रव नहीं होता तो भावास्रव का निमित्त पाकर ज्ञानावरणादिक कर्म आते थे, सो भावास्रव के न होने से द्रव्यकर्मों का आना भी रुक जाता है अर्थात् बद्धकर्म नवीन आस्रवण नहीं करते । इस ही बात को इस गाथा में कह रहे हैं ।