वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 181
From जैनकोष
अपना परिचय―अभी अभी ये भैया हमारा परिचय देने को खड़े हुए थे । इन्हें हमने रोक दिया । इनको दुःख तो हुआ होगा । लेकिन इनका काम हम किये देते हैं । सुन लो भैया हमारा परिचय तीन चीजों का पिंडोला है―(1) चेतन, (2) कर्म और (3) शरीर । आपको तीनों का परिचय चाहिए । तो लो शरीर का तो यह परिचय है ‘‘जुकाम, बुखार, खांसी । गले के अन्दर फांसी ।’’ अब कर्म का परिचय लो, जो ये नाना कर्मफल चल रहे हैं सो यह सब उन कर्मों का परिचय है । अब रही इस चेतन के परिचय की बात । सो आपको अपने चेतन का परिचय होगा तो मेरा भी परिचय हो जायेगा, क्योंकि हम आप सब एक स्वरूप है । देखो भैया ! कहा तो हम आपकी एक समानता है और हम आपमें से ही कोई-कोई क्रूराशयी पुरुष जीवों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं, सो उनकी करतूत सुनकर दिल काँप जाता है ।
क्रूराशयों द्वारा हिंसा की भीषण प्रवृत्ति―आज के हिंसा के रूप को देखो कि पशुओं के ऊपर निर्दयता से कैसा प्रहार किया जा रहा है? पशुओं के छोटे बच्चों का जो कोमल चमड़ा बनाया जाता है, सो पहिले उस बच्चे को पानी से भिगोते हैं और जब चमड़ा फूल जाता है तो उन पशुओं के छोटे-छोटे बच्चों पर डंडे बरसाकर उनकी खाल निकालते हैं । उन पशुओं के छोटे-छोटे बच्चों की खाल से ये सूटकेस घड़ी की चैन, मनीवेग आदि तमाम चीजें बनाया करते हैं । और-और भी कितनी ही हिंसाएँ करते हैं । सो उसके प्रतीकार में आपको सबसे छोटीसी एक बात हम यह कहेंगे कि आप सभी लोग चमड़े से बनी हुई चीजों का प्रयोग मत किया करें । चमड़े को बिल्कुल ही छोड़ दें । यदि पशुओं की रक्षा के लिए आप इतना भी नहीं कर सकते तो और क्या बताया जाये? पक्षियों की हिंसा का रूप देखिये । उसको तो आप सब लोग जानते ही है । औरों की तो बात छोड़ो, 10 रुपये के पीछे मनुष्य की जान ले लेते हैं । हिंसा का ऐसा नाच हो गया है । ऐसी स्थिति पर हम आपको, जितना बन सके, जितना अपने में बल और श्रद्धा हो उतनी पवित्रता अपने में बनानी चाहिए ।
हिंसा से होने वाली हानियां―आप देखिए कि हिंसा से कितनी ही हानियां हैं । घी दूध की कमियां हो गई और अनावश्यक वस्तुयें बन गईं । यह तो है हम आपके व्यवहार की बात । और देखिये जिस जीव को तलवार से मारा जाता है उसे उस समय क्लेश होता है, वह संक्लेश सहित ही प्राय: मरता है तो ऐसा मरण होने पर वह अभी जिस गति में है उससे नीची गति में जायेगा । तो जो हिंसा करते हैं―उन्होंने मिथ्या आशय करके अपने को मोक्षमार्ग से कितना दूर कर दिया? और उस पशु आदि को भी मोक्षमार्ग से कितना दूर कर दिया? आज यहाँ वे 5 इन्द्रिय और मन वाले हैं और मृत्यु के बाद उनकी क्या गति होगी? तो सोचो तो सही कि यदि कीड़े मकोड़े मरकर बन गए तो उनको कितना मोक्षमार्ग से दूर कर दिया? जहाँ यह बतलाते हैं कि जीव अनन्तकाल तक निगोद में रहा, वहाँ से मुश्किल से निकल पाया, पंचेन्द्रिय हो गए संज्ञी हो गए । वहाँ तो मोक्षमार्ग के निकट आ रहे थे और एकदम ही 5 मिनट के प्रसंग में वह जीव कितना दूर हो गया? उसकी परमार्थ से यह हिंसा हुई । और घातक ने परमार्थ से दूसरे की हिंसा नहीं की बल्कि अपनी ही हिंसा की । वह अपने स्वरूप को भूल गया और विषयकषायों में रत हो गया, तीव्र आसक्त हो गया तो उसने आपको मोक्षमार्ग से अत्यन्त दूर कर दिया । इस जीव ने हिंसा की तो उसका परिणाम क्या हो गया कि उसे संक्लेश हो गया, उसका मरण हो गया और वह मरण करके नीची गतियों में चला गया ।
हिंसा से स्वयं का ऐहिक बड़ा नुकसान―हिंसा करने से ऐहिक और दूसरा नुकसान यह होता है कि उसके प्रति लोगों का अविश्वास हो जाता है और वह भी कभी सुख चैन से नहीं रह पाता है । जहाँ परस्पर में अविश्वास हो गया वहाँ समझो जिन्दगी का बेड़ा पार होगा । चार चोर थे । वे कहीं से दो लाख का धन चुरा लाये । और वे नगर से बाहर निकलकर एक जंगल में चारों के चारों रुक गए । अब उन चारों चोरों ने सोचा कि पहिले भोजन कर लें और फिर इस धन का बंटवारा बाद में करें । सो उनमें से दो भोजन का सामान खरीदने नगर चले गए । इन दोनों ने सोचा कि कोई जहरीली चीज ले लें, भोजन में मिलाकर उन दोनों को खिला देंगे तो वे दोनों मर जायेंगे और हम दोनों एक-एक लाख का बँटवारा कर लेंगे । इधर तो इन दोनों ने यह सोचा और उसी समय उन दोनों ने क्या सोचा कि हम दोनों उन दोनों को बंदूक से मार दें, वे दोनों मर जायेंगे तो अपन दोनों आधा-आधा बांट लेंगे । अब वे दोनों अपनी तैयारी से नगर आए और इधर दोनों ने बंदूक से दोनों को मार दिया । अब विष से मिले हुए सामान को उन दोनों ने खाया तो वे दोनों भी मर गये । अब चारों चोर मर गए और सारा का सारा धन वहीं का वहीं पड़ा रह गया ।
अपने कर्तव्य का दर्शन―इस अहिंसा के सम्बन्ध में हम लोग क्या करें? जो करना है सो तो आप लोग प्रेक्टिकल सब कुछ कर रहे हैं । फिर भी जितना हम आप और अधिक कर सकें उतना अहिंसा के प्रति करना चाहिए । सबका भला इस अहिंसा से ही है । देखिये स्वामी समन्तभद्राचार्य ने इस अहिंसा को परमब्रह्म कहा है, देवता कहा है । कल्पना करो कि अगर यहाँ सब देवता ही बस जायें याने अहिंसक हो जावें तो कितना अच्छा वातावरण बन जाये? सब शांतमय हो जायेंगे । पर यह होना असम्भव है । यह संसार तो इन्हीं सब बातों का घर है । जो अपने को उचित हो उस पर दृष्टि दें । सबको क्या देखें―इस संसार में बिरले ही जीव ऐसे होते हैं जो अपने को निर्मल बनाते हैं ।
अहिंसा के प्रति गृहस्थजनों का मौलिक कर्त्तव्य―अहिंसा के बारे में साधुजन क्या करते हैं कि चारों प्रकार की हिंसाओं से बिल्कुल दूर रहते हैं । गृहस्थजन क्या करें? एक चीज हमारी सूझ में आई है कि गृहस्थजनों को अहिंसा के प्रति अपना मौलिक क्या कदम उठाना चाहिए । यहाँ पर हम आपसे एक प्रश्न करते हैं कि घर में जो चार, छ:, दस, बीस आदमी हैं उनको प्रेम की तराजू के एक पलड़े में बैठाल लो और जगत के जितने भी जीव हैं उन सबको एक पलड़े में बैठाल लो तो किस तरफ का पलड़ा भारी रहना चाहिए? इसकी निगाह करलो । घर के जो दो चार जीव हैं, उनको ही समझ लिया कि ये मेरे सब कुछ हैं और जगत के अन्य जीव कुछ नहीं हैं । तो इससे अहिंसा में क्या कदम बढ़ेगा? जितना धन घर के उन चार आदमियों पर खर्च करते हो, उतना तो कम से कम जगत के अन्य सब जीवों पर खर्च किया करो । यदि आपको हजार रुपया खर्च करना है तो 500 रु0 खर्च करो अपने परिवार की रक्षा के लिए और 500 रु0 खर्च करो जगत के अन्य जीवों के लिए । इसी प्रकार तन मन उस वचन का भी प्रयोग सम-अनुपात पर करो । जब सब जीवों का स्वरूप अपने उपयोग में एक समान आ जायेगा तब जाकर प्रेक्टिकल अहिंसा बन सकेगी।
हिंसा का साधकतम अपना दुर्भाव―इस प्रसंग में एक बात मुख्यतया जानने योग्य है कि वास्तव में जो हिंसा हुआ करती है वह अपने भावों से हुआ करती है । जैसे कोई डाक्टर रोगियों की दवा करता है, आपरेशन करता है, उन रोगियों में से कदाचित् कोई रोगी गुजर जाये तो क्या कोई डाक्टर को हिंसक कहता है? नहीं कहता है । देखो―हिंसा होकर भी हिंसक नहीं होता है । और हिंसा न होकर भी कोई हिंसक हो जाता है । जैसे कोई शिकारी इरादे से किसी पशु पक्षी को मारने का यत्न करता है पर वह न मरे, वहाँ तो वह बच गया, नहीं मरा, पर यह हिंसक हो गया । इसी प्रकार जो अयत्नाचारी है वह बाह्य में जीव का हिंसक न होकर भी हिंसक हो जाया करता है।
भावों की विचित्रता का प्रभाव―भैया ! अब जरा भावों की विचित्रता देखियेगा । हिंसा करता है कोई एक और हिंसा लग जाती है अनेक लोगों को । किसीने सांप मार दिया देखने वाले लोग कहते हैं वाह-वाह कैसे मारा, खुश होते हैं । लो, उन दसों लोगों के हिंसा लग गई कि नहीं? लग गई । और देखिये हिंसा करते हैं अनेक और हिंसक केवल एक माना जाता है । सेना के अनेक लोग लड़ाई में मरते हैं, पर हिंसक केवल एक राजा माना जाता है । यह बात एक उद्देश्य व अपेक्षा से है । भावों की विचित्रता देखते जाइए । हिंसा करने के पहिले ही हिंसा का फल मिल जाता है । हिंसा करने का इरादा हुआ, लो पापबंध हो गया । उस पापकर्म का आबाधाकाल व्यतीत होने पर उदय आ गया, सो लो फल पहिले भोग लिया और पूर्व इरादे के अनुकूल हिंसा इसके बाद कर सका ।
अहिंसापालिका क्षमा―भैया ! जैसे पतंग है ना। पतंग तो बड़ी दूर उड़ जाती है। मगर डोर मेरे पास है तो सब कुछ सम्हाल है । इसी प्रकार इस जीव को अपनी सावधानी पहिले कर लेना है । अपने परिणामों को शांत बनाना है । परिणामों की निर्मलता ही हम आपकी विजय है । लोकव्यवहार में करो तो ऐसा । कोई कमजोर आपका कोई अपराध कर दे, तो उसे दुःखी कर देने दो, उसकी बात को अनसुनी कर दो । इस तरह से प्रेक्टिकल रूप में अपने परिणामों को शांत करो तो सही ।
हिंसाभाव से स्वयं का अहित―देखिए भैया ! जो हिंसा करता है, किसी दूसरे जीव को दुःखी करने का परिणाम करता है उसका बिगाड़ पहिले होगा, दूसरों का बिगाड़ हो अथवा न हो । यह जीव किसी दूसरे जीव का बिगाड़ नहीं कर सकता है । प्रत्येक जीव अपनी ही हिंसा और अहिंसा कर सकते हैं । अभी आप यहाँ बैठे हैं और किसी चीज का रागद्वेष हो जाये, लो हिंसा हो गई । सब पापों का आधार हिंसा है । रागद्वेष की उत्पत्ति ही हिंसा है । तो हम अपनी वृत्ति में ऐसा चलें कि हमारे निमित्त से किसी को क्लेश न पहुंचे । और ऐसा भी न करें कि किसी को क्लेश तो नहीं पहुंचाते, मगर घर में एक इकलौता लड़का है, तो उससे राग करते रहें । कोई कहे कि हम द्वेष तो नहीं करते, और कुछ करें तो क्या यह अहिंसा है? नहीं, रागद्वेष मोह भाव ही हिंसा है ।
चैतन्यभाव हमारा शृङ्गार या अभिशाप―और देखिए हम और आपका स्वभाव एक चैतन्यभाव है । किन्तु वर्तमान स्थिति को देखकर बताओ कि यह जो चैतन्यभाव है वह अपना शृङ्गार है या अभिशाप? जरा इस पर विचार तो करो । शृंगार भी है और अभिशाप भी । इन जड़ पदार्थों में चेतना नहीं है पर कम से कम दु:ख से तो रहित हैं, रागद्वेष के विकारों से तो रहित हैं । इन चेतनों में तो रागद्वेष ही झलकते हैं । ये चेतन जीव तो खोटे अभिप्राय रखते हैं इसलिए ये सारे जीव दु:खी हैं । इन चेतनों को अपने द्रव्यस्वरूप का पता नहीं है । इनका स्वरूप तो ज्ञानानन्द घन, अनन्त आनन्दमय है । इसके ज्ञान में लोक और अलोक का ज्ञान आ जाता है । जो ज्ञान का भूखा हो और उस ज्ञान में रमता हो तो लोकालोक इसके जानन में आ सकता है । ऐसा परम शृङ्गार रखने वाले हम और आप अपनी हिंसा करते चले जा रहे हैं, विषयकषायों में ही लीन होते चले जा रहे है । इस प्रकार से हम आप अपने इस स्वर्णमय मानवजीवन को प्राप्त करके उसे यों ही मोह रागद्वेषों में ही खोते चले जा रहे हैं । इस मानवजीवन को सफल करने के लिए ज्ञानार्जन करना चाहिए ।
आदत की गतिशीलता―भैया चाहे हमसे जो चाहे विषय कहवा लो, हम तो कह पावेंगे अपने ही ढंग से । जैसे एक रंगरेज था । वह आसमानी रंग की पगड़ी रंगना जानता था । कोई आए, कहे लाल रंग की पगड़ी रंगना है, बोले ठीक है, कोई कहे पीली रँगना है, बोले ठीक है, कोई कहे हरी रँगना है, बोले ठीक है। इस तरह से सब पगड़ी धरा ले, और फिर कहे कि चाहे जिस रंग की रंगाओ पर अच्छी लगेगी आसमानी ही । हम तो वही रंगेंगे । इसी प्रकार हमसे भी चाहे जो कहलवाओ, आखिर यहीं उतर जाना पड़ता है ।
ज्ञेय की त्रितयरूपता―अच्छा देखो एक बात और कहेंगे कि किसी मी पदार्थ को जानें, हम तीन रूपो में जानते हैं―(1) शब्द, (2) अर्थ और (3) ज्ञान । जैसे आपका पुत्र है, तो वह आपका पुत्र भी तीन प्रकार का है―(1) शब्दपुत्र, (2) अर्थपुत्र और (3) ज्ञानपुत्र । शब्दपुत्र क्या है? पु और त्र जो लिखा हुआ है या बोला गया है तो उसका नाम है शब्दपुत्र और अर्थपुत्र कौन है? वह दो हाथ और दौ पैरों वाला है वही है अर्थपुत्र । और ज्ञानपुत्र क्या है? उस पुत्र के सम्बन्ध में जो आप अपनी जानकारी बनाते हैं वह है ज्ञानपुत्र । ऐसे ही चौकी । शब्दचौकी, अर्थचौकी और ज्ञानचौकी । चौ और की ये शब्द है शब्द―चौकी और यह जो चौकी दिखती है वह है अर्थचौकी । और इस चौकी के विषय में जो ज्ञान बना वह है ज्ञानचौकी ।
प्रेम का आश्रयभूत ज्ञानपुत्र―अब यह बतलाओ कि आप शब्दपुत्र से प्रेम करते हैं या अर्थपुत्र से प्रेम करते हैं या ज्ञानपुत्र से प्रेम करते हैं? तो यह तो जल्दी समझ में आ जायेगा कि हम शब्दपुत्र से प्रेम नहीं करते । अरे कहीं लिखा है पु और त्र, तो ले लो उसे गोद में खिला लो । तो शब्दपुत्र से प्रेम कोई नहीं करता । तो अर्थपुत्र से प्रेम करते होंगे, अरे अर्थपुत्र से प्रेम करने की आपमें ताकत ही नहीं है, क्योंकि आपका आत्मा एक परिपूर्ण अखण्ड द्रव्य है, और आपके आत्मा की जो हरकत होगी, जो क्रिया होगी, जो वृत्ति होगी वह आपके असंख्यात प्रदेशों में होगी । आपके बाहर आपकी वृत्ति नहीं जा सकती । तब आपके रागद्वेष आपके प्रदेशों के बाहर नहीं जा सकते । अर्थपुत्र आपसे इतना दूर है कि आप उससे प्रेम कर ही नहीं सकते तब आप किससे प्रेम करते हैं? ज्ञानपुत्र से । जो पुत्र-विषयक विकल्प है उससे आप प्रेम करते हैं ।
भक्ति का आश्रयभूत ज्ञानभगवान―भैया ! अब आप समझ लो कि भगवान भी तीन रूपों में है । शब्दभगवान, अर्थभगवान और ज्ञानभगवान । भ, ग, वा, न इन शब्दों से तो कोई प्रेम नहीं करता है याने शब्दभगवान से कोई प्रेम नहीं करता, अर्थभगवान को, वह सिद्ध क्षेत्र में विराजमान है, वहाँ पर जाने की यहाँ किसी में ताकत ही नहीं है । क्योंकि तुम्हारी जो वृत्ति है वह तुम्हारे प्रदेश में ही होगी । तुम्हारे प्रदेश से बाहर तुम रागद्वेष नहीं कर सकते । भगवान वीतराग सर्वज्ञदेव को विषय बनाकर, ज्ञेय बनाकर अपने में ज्ञानज्योति विकसित करके उसकी पूजा करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि हम इस निर्दोष आत्मा को पवित्र बना सकें तो भगवान से भेंट हो सकती है अन्यथा भगवान से भेंट नहीं हो सकती है ।
सम्यग्ज्ञान व अहिंसा का अभिनन्दन―भगवान से भेंट होना अर्थात् ज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के गुणों में उपयोग जाना, निज विशुद्ध परमात्मतत्त्व की उपासना करना, इन्द्रियसंयम व प्राणसंयम सहित पवित्र चर्या करना, न्यायपूर्वक अपना व्यवहार करना, किसी भी प्राणी को न सताना, स्वयं किसी विषय में अन्धा न होना, पंच पापों से दूर रहना आदि सब अहिंसा के साधन व अहिंसा के रूप हैं । इस अहिंसामय प्रवर्तन का मूल पोषक वस्तुस्वरूप का यथार्थ अवगमरूप सम्यग्ज्ञान है । सो भैया ! सम्यग्ज्ञान व अहिंसा के प्रयोग से अहिंसामय निज ज्ञानस्वरूप परमब्रह्म की उपासना करके अहिंसा के फलभूत स्वाधीन शाश्वत आनन्द को प्राप्त होओ ।
ज्ञानी के उपयोगरूपी रंग मंच पर से ये कर्म आस्रव का भेष छोड़ निकलकर भाग गये तब अब संवर के रूप में उसका यहाँ प्रवेश होता है । संवर का मूल बीज यह ज्ञान अब बड़े वेग से प्रकट हो रहा है ।
ज्ञान का अभ्युदय―आस्रव का विरोधी संवर तत्त्व है । आस्रव का और संवर का अनादिकाल से विरोध चला आ रहा है । यह आस्रव अनादिकाल से ही अपने विरोधी संवर पर विजय प्राप्त करके मदोन्मत्त हो रहा है, किन्तु अब ज्ञान ने उस आस्रव का भी तिरस्कार किया और एक अद्भुत विजय प्राप्त की । सो यह ज्ञान संवर का सम्पादन करता हुआ, अपने को अपने ही स्वरूप में नियमित करता हुआ अब यह ज्ञान जहाँ कि चेतन ज्योति स्फुरायमान हो रही है, जहाँ केवल चित् प्रकाश ही अनुभूत हो रहा है ऐसे उज्ज्वल अपने रस रहे प्राभार को बढ़ा रहा है अर्थात् यह ज्ञान, ज्ञान की वृत्ति को शुद्ध वृत्ति से बढ़ा रहा है । जैसे लोक में कहते हैं कि धन से धन बढ़ता है । धन हो तो उससे धन बढ़ने का मौका मिलता है । यहाँ परमार्थ से देखो, ज्ञान से ज्ञान मिलता है, बढ़ता है । ज्ञान हो तो उस ज्ञान की वृद्धि बढ़ती चली जाती है । यह ज्ञान संवर को सम्पादित करता हुआ अपने ही रस के प्राभार को, बहाव को, भण्डार को बढ़ाता है ।
संवर के उपाय का अभिनन्दन―इस प्रसंग में सर्वप्रथम ही समस्त कर्मों के संवरण करने का जो परम उपाय है, भेदविज्ञान है उसका अभिनन्दन करते हैं । अभिनन्दन करने में कितनी स्थितियां आती हैं? गुणगान करना, और गुणगान करने के साथ-साथ गुणगान करने वाले का अपने आपमें उछल-उछलकर प्रसन्न होना । और केवल दो ही बातें नहीं है कि गुणगान किया जा रहा हो और गुणगान करने वाला अपने अंतर में उछल रहा हो, प्रसन्न हो रहा हो, केवल ये दो ही बातें नहीं हैं, किन्तु तीसरी बात उसके साथ यह लगी रहती है कि उस गुण की वृद्धि के लिए वर्द्धनशील प्रगतिशील बना रहना । अभिनन्दन में तीन स्थितियाँ होती हैं―दूसरे का गुणगान करना, अपने आपमें आनन्दमग्न होना और उस गुण की वृद्धि के लिए प्रगतिशील होना । इन तीनों बातों सहित जो वर्णन किया जाता है उसे अभिनन्दन करना कहते हैं । यहाँ ज्ञानी पुरुष इस भेदविज्ञान का अभिनन्दन कर रहा है।
उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि कोवि उवओगो ।
कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो ।।181।।
संवर तत्त्व की शाश्वत उपयोगिता―यह संवर तत्त्व का प्रकरण है । सर्व तत्त्वों में श्रेष्ठ मूल और श्रेय इस संवर तत्त्व का है । कल्याण होने का प्रारंभ संवर से है । कल्याण हो चुकने पर भी संवर बना रहता है । निर्जरा तत्त्व पहले रहता है, पर कल्याण होने पर निर्जरा तत्त्व नहीं रहता है । कर्मों के छोड़ने का नाम निर्जरा है । जब कर्म छोड़े जा चुकते हैं तो फिर निर्जरा किसकी करें, और नवीन कर्म न आ सकें, ऐसे अपने शुद्ध परिणामों के होने का नाम संवर है । यह हुआ भावसंवर, और नवीन कर्म न आ सकें ऐसी स्थिति का नाम है द्रव्यसंवर । सो मोक्ष हो जाने पर भी ये दोनों प्रकार के संवर तत्त्व बने रहते हैं । इस संवरतत्त्व की महिमा कैसे गाई जा सकती है? सबसे उत्कृष्ट महिमागान तो यही है कि उस संवरतत्त्व में घुलमिल जाएं, संवररूप स्वयं बन जाये ।
संवरतत्त्व का मूल साधन भेदविज्ञान―इस संवरतत्त्व का मूल साधन है भेदविज्ञान । लोक में कोई भ्रम से दूसरे को अपना मान ले । तो उस दूसरे के पालन के लिए, उसके प्रसन्न करने के लिए कितनी आकुलताएँ मचाता रहेगा? ये आकुलताएँ छूटें, इसका उपाय है भेदविज्ञान । ये संसार के समस्त संकट छूटें, इसका उपाय है भेदविज्ञान । कैसे भेदविज्ञान करें मकान जुदा है, मैं जुदा हूँ । यहाँ भेदविज्ञान के लिए श्रम करना है क्या? नहीं । यह शरीर जुदा है, यह मैं आत्मा जुदा हूँ, ऐसा ज्ञान करने के लिए तुम्हें भारी शक्ति लगानी है क्या? ये तो प्रकट समझ में आ रहे है । मकान जुदी जगह खड़ा है, तुम जुदे क्षेत्र में बैठे हो, शरीर जुदा स्वरूप में पड़ा है, आप जुदे स्वरूप में बैठे हैं । इसके लिए भेदविज्ञान का श्रम नहीं करना है । द्रव्यकर्म जुदा है और मेरा आत्मस्वरूप जुदा है । क्या इस बात के जानने में तुम्हें अपनी सारी शक्ति लगाना है? नहीं । अरे वे तो अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं । भेदविज्ञान के सकल से ही सही, यदि परवस्तुओं के भेद में ही सारी शक्ति लगा दिया तो उसको आगे बढ़ने का मौका ही न रहा ।
पर में भेदज्ञान की अपेक्षा निज में भेदज्ञान की श्रेयस्करता―सर्व परपदार्थों में घनिष्ठता कर्मों से है । यद्यपि ये द्रव्यकर्म आगमगम्य हैं तो भी जैसे वर्तमान दुनिया के नक्शों को लिखकर, पढ़कर, सुनकर स्पष्ट बोध रहता है, अमेरिका वहाँ है, रूस यहाँ है, इसी प्रकार आगमज्ञान के माध्यम से भी सुनकर, जानकर हमें स्पष्ट बोध है, सूक्ष्म कार्माणवर्गणाओं के रूप में अनंत कर्मस्कंध इस जीव के एक क्षेत्रावगाह में हैं और आगमगम्यता होना इतनी ही बात नहीं है किंतु युक्ति भी बतलाती है कि यदि किसी विजातीय परद्रव्य का संबंध न होता तो इस चैतन्य की आज स्थिति चिंतनीय न होती । यह जो विचित्र नाना प्रकार का परिणमन पाया जाता है इसका अनुमापक यह द्रव्यकर्म का संबंध है । इन द्रव्यकर्मों से मैं न्यारा हूँ ऐसी स्थिति के अवसर में ठौर रहने का, मग्न होने का ठिकाना फिट नहीं बैठ पाता, पर इन सब पर से भी, परद्रव्यों से भी आगे हटकर अपने आपके ही घर का भेदविज्ञान करने के लिए चलना चाहिए ।
निज में भेदविज्ञान और इस पद्धति के लिये एक दृष्टांत―यह मैं अमूर्त चैतन्य तत्त्व जिस किसी प्रकार भी वर्तमान में हूँ उसमें यह देखना है कि परमार्थभूत मैं क्या हूँ । और उपाधिरूप दंडरूप मुझमें क्या बात बस रही है? इन दोनों भावों में भेदविज्ञान करना सो भेदविज्ञान की पराकाष्ठा है । उपयोग में उपयोग है, क्रोधादिक में उपयोग नहीं है । यों देखा जा रहा है निज आत्मतत्त्व में । जैसे पानी का लक्षण क्या है? पानी का लक्षण है द्रवत्व, बहना । द्रवत्व का स्वभाव रहना पानी का लक्षण है । गर्म हो जाये तो बहाव को नहीं छोड़ता और ठंडा हो जाये तो भी बहाव को नहीं छोड़ता । पानी का ठंडा होना भी स्वभाव नहीं है क्योंकि तेज ठंडी बर्फ के संबंध से वह पानी अधिक ठंडा हो जाता है । पानी का स्वभाव द्रवत्व है किंतु जो पानी अग्नि का संबंध पाकर गर्म हो गया है उस पानी का भेदविज्ञान तो करिये, किस तरह करोगे? गर्मी में द्रवत्व नहीं, द्रवत्व में गर्मी नहीं । यही भेदविज्ञान हो गया । पानी द्रवत्व स्वभाव को लिए हुए है । और यह बहना कहीं गर्म होता है या कहीं ठंडा होता है? नहीं । बहने का बहना ही है, ठंड और गर्मी नहीं है । इसी प्रकार इस आत्मा को निरखिये―आत्मा का लक्षण उपयोग है, जानना देखना है । इस जानन-देखन में जानन-देखन ही है । क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं है ।
स्वभाव-विभाव के भेदविज्ञान के लिये अन्य दृष्टांत―प्रकृत में एक मोटा दृष्टांत लें । आपकी छाया जमीन पर पड़ रही हो तो वह जमीन छायारूप हो गई है । वहाँ जमीन का स्वरूप क्या है? क्या छाया है? नहीं । जीव का स्वरूप दृष्टांत में कह रहे हैं । जो रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है ऐसा मूलतत्त्व उस पृथ्वी का लक्षण है । अब देखो इस मूलतत्त्व में छाया नहीं, छाया में मूलतत्त्व नहीं । सफेदी में छाया नहीं, छाया में सफेदी नहीं । बल्कि सफेद फर्श है और आपकी छाया पड़ जाने से वह सफेदी तिरोहित हो गई है । सफेदी नहीं नजर आती है, कालापन नजर आता है । छाया हो जाने से कुछ अंधेरा आ जाता है । और अंधकार है कालेरूप में तो फर्श पर कालापन आकर भी फर्श का लक्षण काला है या सफेद? सफेद फर्श की सफेदी में छाया नही है, छाया में सफेदी नहीं है । यह स्वरूप और विभाव का भेदविज्ञान किया जा रहा है ।
उपयोग व क्रोध में परस्पर अभाव―उपयोग में उपयोग है, क्रोध में कोई भी उपयोग नहीं है । क्रोध में तो क्रोध ही है, उपयोग में कोई क्रोध नहीं है । यहाँ एक उपयोग आधार बताया और उस ही उपयोग को आधेय बताया, ऐसी स्थिति में ज्ञान दर्शन उपयोग होने से, लक्षण होने से अभेद को ही, आत्मा का उपयोग कह दिया । उस शुद्ध आत्मतत्त्व में उपयोग ही ठहरता है, ज्ञान में ज्ञान ही है, यों कहिए या यों कहिए, ज्ञानी में ज्ञान ही है । ज्ञानी में ज्ञानी है यों कहिए, ज्ञानी तो ज्ञानी ही है यों कहिए । स्वभाव के स्पर्श करने की ये भेदाभेद की ओर ले जाने वाली चार श्रेणियां हैं । उपयोग में उपयोग ही है । क्रोधादिक में कोई भी उपयोग नहीं है । एक का दूसरा कुछ नहीं लगता । फर्श पर छाया पड़ रही है तो सफेदी में छाया नहीं है और छाया में सफेदी नहीं है । हो रही बात एक ही जगह दोनों, पर बिल्कुल स्पष्ट समझ में आ रहा है कि सफेदी में छाया का कुछ नहीं लगता और छाया में सफेदी का कुछ नहीं लगता । जल में द्रवत्व और उष्णता दोनों एक साथ है पर द्रवत्व में उष्णता का कुछ नहीं लगता और उष्णता का द्रवत्व में कुछ नहीं लगता क्योंकि इन दोनों का भिन्न स्वरूप है।
उपयोग और कषाय की भिन्नता बताने के लिये व्यक्तिरूप में प्रयोग―भैया ! परसानीफिकेशन एक अलंकार होता है जहाँ किसी भी भाव को किसी पुरुष का रूपक दे दिया जाता, जैसे यह कहा जाये कि बुढ़ापा दुनिया से यह कह रही है कि मैं अपनी पहिली जवानी को ढूंढ़ रहा हूँ । यह है परसानीफिकेशन । बुढापा कोई आदमी है क्या? नहीं । पर ऐसा बोला जाता है कि नहीं? बोला जाता है । कोई बूढ़ा आदमी कमर झुकाए मानों जमीन को निरखता हुआ नीचे झुककर जा रहा है तो कवि कहता है कि यह बूढ़ा कर क्या रहा है? यह अपनी जवानी को ढूंढ़ता जा रहा है कि मेरी जवानी गिर कहाँ गई? लो अब वह बुढापा अपनी जवानी को ढूँढ रहा है । यही है परसानीफिकेशन अलंकार । इसी प्रकार यहाँ उपयोग को और क्रोधादिक भाव को इसी अलंकार में देखिए तो ये दोनों व्यक्ति बन गए । जब यह आत्मा व्यक्ति बन गया तो यह प्रदेशी हो गया, अपनी जगह बनाने वाला हो गया । यह सब भावों के आशय में चल रहा है । उस समय यह कहा जायेगा कि इस उपयोग के प्रदेश जुदे हैं और क्रोध के प्रदेश जुदे हैं ।
यहाँ पर आत्मा के प्रदेशों से मतलब नहीं है, कर्मों के प्रदेशों से मतलब नहीं है किंतु आत्मीय और औपाधिक इन दोनों भावों को व्यक्तिरूप से उपस्थित किया है जिस भावों से इन्हें व्यक्ति का रूप दिया है कि वे ही भाव यहाँ प्रदेशी की शकल में निरखे जा रहे हैं । उपयोग के प्रदेश न्यारे हैं, क्रोध के प्रदेश न्यारे हैं । ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं? दो मित्रों में थोड़ी गुंजाइश तो निकले अलग-अलग होने की, बेमेल बनने की, दिल हटने की, फिर वह हटाव बढ़ते-बढ़ते इतना बड़ा हो जाता है कि पूर्णरूप से हटाव हो जाता है । यहाँ एक आत्मा में अभिन्न प्रदेशों में बर्त रहे साधु और दुष्ट, स्वभाव और विभाव, सहज और असहज इन भावों से थोड़ा दिल तो फटे, थोड़ी गुंजाइश तो मिले, थोड़ी गुंजाइश के बाद इतना बड़ा भेद सामने आयेगा कि लो अब व्यक्तिरूप देकर उपयोग के प्रदेश जुदा कह रहे हैं और क्रोध के प्रदेश जुदा कह रहे हैं ।
अंतर्भेदज्ञान के सम्यक्त्व की साधकता―जब उपयोग में और क्रोधादिक में भिन्नप्रदेशत्व है तो इनका सत्त्व एक नहीं हो सकता, ये दोनों एक नहीं हो सकते । यह सब उस भेदविज्ञान की बात चल रही है जो भेदविज्ञान अनुभव में आ जाये तो नियम से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व उत्पन्न होना चाहिए फिर संसार में कोई शंका नहीं रहती । फिर इस जीव का भविष्य ज्ञानप्रकाश में ही रहता है ।
उपयोग और कषाय का भिन्नप्रदेशित्व―अब तीसरी बात निरखिये । उपयोग और क्रोध जुदे-जुदे हैं इस बात को समझने के लिए उपयोग आत्मा में से बल को ग्रहण करके प्रकट होता है और क्रोधादिक पर उपाधि के सन्निधि से बल को प्रकट करते हुए उत्पन्न होते हैं । इस कारण उपयोग का रक्षक है आत्मा और कषायों का रक्षक है द्रव्यकर्म । ये सब दृष्टियां है और उसका जिस दृष्टि से वर्णन हो उस दृष्टि से देखना चाहिए । नहीं तो पहिचानते तो सब हैं, कोई किसी दृष्टि की बात को अन्य दृष्टि की बात में घुसेड़ देता है तब तो वहाँ विवाद ही रहेगा । रास्ता नहीं कट सकता । ये दो मालिक बराबर के बिगड़े हैं आत्मा और द्रव्यकर्म । और दो भाव भी बराबर के बिगड़े हुए हैं उपयोग और कषाय । कभी कुछ ऐसी परिस्थिति हो जाये कि इन दोनों में मनमुटाव हो ले तो उपयोग आत्मा की गोद में बैठेगा और कषाय कर्मों का मुँह ताकेगा । तब जो जिसके बल पर डटा है उसको उसके निकट ले जाइए उपयोग को आत्मा में सम्मिलित कर दीजिए और कषाय को कर्मों में सम्मिलित कर दीजिए । अब यों उपयोग है जुदा प्रदेशवान, भिन्नप्रदेशी और कषाय है भिन्नप्रदेशी । जब उपयोग का क्रोधादिक कुछ नहीं है, दोनों का भिन्न स्वरूप है, भिन्न व्यक्तित्व है, परस्पर में भिन्न प्रदेशियों अभाव हैं, तब उपयोग में क्रोधादिक कैसे ठहरते बताया जाये?
उपयोग और कषाय में आधार-आधेय भाव का अभाव―उपयोग के साथ क्रोधादिक का आधार-आधेय संबंध भी नहीं है । यह सर्वोत्कृष्ट भेदविज्ञान की बात चल रही है । पानी का स्वभाव है बहना और पानी में औपाधिक भाव आया है गर्मी से, किंतु गर्मी के आधार पर बहना ठहरता है या पानी के आधार पर गर्मी रहती है? कुछ निर्णय क्या दिया जा सकता है? नहीं दिया जा सकता है । बहने के आधार में गर्मी नहीं है, गर्मी के आधार में बहना नहीं है । दोनों बातें बहुत घुल-मिलकर हैं, फिर भी कितनी अत्यंत जुदा मालूम हो रही हैं? इतने ऊँचे चट्टान पर बैठकर देखा जा रहा है । बस यहाँ ऊँचे बैठे हुए सब मामलों को निरखते जाइए । उपयोग में और कषाय में आधार-आधेय संबंध भी नहीं है । जो अपना हो उसे अपनाओ । जो अपना नहीं है उससे मुख मोड़ लो । बस यही तो काम शांति के लिए किया जाता है । उपयोग अपना है, कषाय अपने नहीं हैं ।
अपने को अपनाना―जो अपना है उसे जब चाहे अपना बना लो रुकावट न आयेगी । जो अपना नहीं है अनेक प्रयत्न करने पर भी उसे अपना नहीं बनाया जा सकता है । उपयोग निज सहज स्वभाव है और कषाय औपाधिक भाव है, तो चूंकि भिन्न प्रदेशपना है, भिन्न स्वरूप है, भिन्न व्यक्तित्व है इसलिए एक की सत्ता दूसरे में नहीं जा सकती । और इसी कारण आधार-आधेय संबंध भी नहीं है । अब यह दर्शक इस प्रकार के भेदविज्ञान का प्रयोग करता है ।
परमार्थत: स्वभाव का स्वभाव में आधार-आधेय भाव―उपयोग और कषाय का परस्पर में आधार आधेय संबंध भी नहीं है―यह बात सुनकर जिज्ञासु यहाँ यह प्रश्न करता है कि फिर इनका आधार-आधेय संबंध किसके साथ है? अर्थात् उपयोग का आधार कौन है और कषाय का आधार कौन है? उत्तर बताया है कि उपयोग का आधार उपयोग है और कषाय का आधार कषाय है । अपने-अपने स्वरूप में ही प्रतिष्ठित रहने का नाम आधार-आधेय संबंध है । जिस स्वरूप में प्रतिष्ठित है वह है आधार और जो प्रतिष्ठित है वह है आधेय । यह ज्ञान कषाय में प्रतिष्ठित नहीं है और कषाय ज्ञान में प्रतिष्ठित नहीं है । क्रोधादिक अपने क्रोध होने रूप स्वरूप में ही प्रतिष्ठित है और ज्ञान जाननस्वरूप में प्रतिष्ठित है । जाननपन ज्ञान से भिन्न चीज नहीं है । वह ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादिक या गुस्सा करना आदिक भाव क्रोध से भिन्न चीज नहीं है, इसलिए क्रोधादिक का आधार क्रोधादिक है और जानन का आधार जाननस्वरूप है ।
ऋजुसूत्रनय की दृष्टि―यहां कुछ ऋजुसूत्रनय के उपदेश का वातावरण समझाया है । ऋजुसूत्रनय द्रव्यभेद, क्षेत्रभेद, कालभेद व भावभेद से भिन्न अखंड अंश को ग्रहण करता है अथवा किसी भी प्रकरण के सूक्ष्म भिन्न अंश को प्रकट करता है । इस आत्मा में दो प्रकार के भाव हो रहे हैं, एक ज्ञानभाव और एक कषायभाव । दोनों भावों का स्वरूप जुदा-जुदा है । इस कारण ज्ञान का कषाय से मेल नहीं है । कषाय का ज्ञान से मेल नहीं है । कषाय और ज्ञान इनका अधिकरण एक को नहीं बताया जा सकता है । वही तो हो ज्ञान का आधार और वही हो कषाय का आधार तो इसमें समानाधिकरण होने से अटपट व्यवस्था चलेगी और कदाचित् ज्ञान के बजाय कषाय होने लगे, कदाचित् कषाय के बजाय ज्ञान होने लगे ऐसा उनमें विपरीत क्रम बन जायेगा । अत: ज्ञानभाव और कषायभाव का आधार किसी एक को नहीं कहा जा सकता । ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में अभिन्न अंश ही दृष्ट होता है जिसका पुन: भेद नहीं किया जा सकता । इसकी दृष्टि से पर्याय में पर्याय है । पर्याय किस द्रव्य से प्रकट होता है, ऐसा यहाँ नहीं देखना।
ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में अद्वैत―ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से तो इतना भी नहीं कहा जा सकता कि कौवा काला होता है । यदि कौवा काला हुआ करे तो । जितना कौवा है वह सब काला होना चाहिए । किंतु उसके भीतर खून लाल है, मांस लाल सफेद है, हड᳭डी सफेद है, वहाँ तो भिन्न-भिन्न रंग पाये जाते हैं । इसलिए कौवा काला नहीं होता । अथवा जो-जो काले हों वे सब कौवा कहाने लगें । फिर तो बड़ी विडंबना हो जायेगी । इस कारण कौवा काला है यह कहना अशुद्ध है । यह ऋजुसूत्रनय की दृष्टि कही जा रही है ।
ऋजुसूत्रनय से सूक्ष्म विश्लेषण―इस दृष्टि में यह भी नहीं कहा जा सकता कि रुई जल रही है । जलती हुई रुई को रुई जल रही है ऐसा नहीं बताया जा सकता है, क्योंकि जब जल नहीं रही है तब तो उसका नाम रुई है । और जब जल रही है तब रुई कहाँ रही? अग्नि रुई को जलाती है―यह बात तो और अटपट है । इस नय की दृष्टि में कोई लोकव्यवहार की व्यवस्था नहीं बनती, किंतु विषय बताया गया है । इसी दृष्टि में प्रकृत बात देखिये―आत्मा में 2 प्रकार के भाव हैं: (1) ज्ञानभाव और (2) कषायभाव । ज्ञान का आधार ज्ञान है और कषाय का आधार कषाय है । ज्ञान आत्मा नहीं है, ज्ञान कषाय नहीं है, कषाय आत्मा में नहीं है, कषाय ज्ञान में नहीं है । यदि ज्ञान आत्मा होता तो जानन आत्मा केवल ज्ञान गुणमात्र रह जायेगा । फिर उसमें दर्शन श्रद्धा आदि ये सब कुछ नहीं कहे जा सकते । ज्ञान कषाय में तो है ही नहीं । यदि कषाय आत्मा में होता, आत्मा का होता तो आत्मा कषाय मात्र रह जायेगा । उसमें फिर न गुण होंगे, न स्वभाव होगा । इस कारण ज्ञान का आधार ज्ञान ही है और कषाय का आधार कषाय ही है ।
ज्ञान व पर ज्ञेय को ज्ञान से चबाकर मोही के व्यवहार की वृत्ति―भैया ! अपने स्वरूप में ही प्रतिष्ठित हुआ करता है प्रत्येक भाव, इस कारण उपयोग में ही उपयोग है, कषाय में ही कषाय है । उपयोग में कषाय नहीं, कषाय में उपयोग नहीं । यह तो अज्ञानियों का काम है कि उपयोग और कषाय को मिलाकर चबाकर अनुभव किया करें । जैसे हाथी के सामने हलुवा भी रख दिया, घास भी रख दिया तो वह मूढ़ हाथी यह नहीं कर पाता कि केवल हलुवा को खाये । वह तो हलुवा घास में लपेटकर ही खाता है । वह केवल मिठाई का स्वाद नहीं ले सकता । ऐसे ही संसार के मोही जन केवलज्ञान का ही स्वाद नहीं ले सकते । वे ज्ञान और कषाय दोनों को मिलाकर अपने अनुभव में लिया करते हैं । जैसे कि इन बाहरी पदार्थों को हम जानते हैं तो खाली जानने तक नहीं रह पाते, किंतु इस ज्ञेय पदार्थ को और ज्ञान को मिला जुलाकर अनुभव किया करते हैं ।
ज्ञानज्ञेय को मिश्रित कर अनुभवने का एक दृष्टांत―भोजन किया तो उस समय स्वाद में बड़े प्रसन्न हो रहे हैं । हमने अमुक फल का स्वाद चख लिया, रस ले लिया । क्या किसी आत्मा में ऐसी सामर्थ्य है कि किसी फल का रस ग्रहण करे? फल का रस फल में ही रहता है, आत्मा में नहीं पहुंचता है । आत्मा फलों के रस को ग्रहण नहीं कर सकता । और रस ग्रहण करने की बात तो दूर रहो, परमार्थत: फल के रस की वह आत्मा जान भी नहीं सकता, किंतु फल के रस का विषय बनाकर आत्मा ने जो अपने आपमें विकल्प किया, अर्थग्रहण किया, ज्ञेयाकार परिणमन किया उसको जानता है । जब आत्मा का पुद्गल के साथ जानने तक का भी संबंध नहीं है तो ग्रहण करने और भोगने की तो कथा ही क्या कही जाये? ऐसा अत्यंत पार्थक्य है इस ज्ञाता में और ज्ञेय में, किंतु इस पार्थक्य को अपने उपयोग से हटाकर ज्ञेय को ज्ञान को मिलाजुलाकर एकमेक करके यह मोही जीव अनुभव किया करता है ।
ज्ञान और कषाय को एक रसरूप करके अनुभवने की अज्ञानी की प्रकृति―यह अज्ञानी जीव ज्ञान को और कषाय को मिलाजुलाकर एक रस मानकर अनुभव किया करता है । कषाय को जानने की सामर्थ्य कषाय में नहीं है । कषाय, कषाय को समझ नहीं सकता । यह समझने वाला तो ज्ञान है और समझ में आ रहा कषाय सो कषाय तो ज्ञेय है और ज्ञाता ज्ञान है । मूढ़ जीव ज्ञान करे केवल ज्ञानरूप में ग्रहण नहीं करता? कषाय और ज्ञान इन दोनों को मिलाजुलाकर ग्रहण किया करता है, मिलता तो कुछ नहीं है, किंतु कल्पना की बात बनती । जैसे गाय भैंसों को सानी बनाया करते हैं ग्वाला लोग । भुस में आटा पानी को मिलाकर तिड़ीबिड़ी कर दिया, अब उस सानी को पशु खाते हैं । तो जैसे मिलाजुलाकर सानी बनाकर पशुओं को खिलाया जाता है इसी प्रकार मिला-जुलाकर ज्ञान-ज्ञेय की सानी बनाकर ये संसारी मोही जीव भोगा करते हैं ।
ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि―वस्तुत: ज्ञान में ज्ञेय नहीं है, ज्ञेय में ज्ञान नहीं है । ऐसा अलौकिक भेदविज्ञान जिन धर्मात्मा जनों के ज्ञान में उतर गया है वे निकट भव्य हैं । अल्पकाल में ही मुक्ति को प्राप्त होंगे । शेष जीव तो विकल्पों में ही अपनी शांति मानते हैं और अपनी बुद्धिमानी समझते हैं । उनकी दृष्टि में सारी दुनिया में केवल डेढ़ अक्ल है । एक अक्ल तो वे अपने में मानते हैं और आधी अक्ल सारी दुनिया के जीवों में मानते हैं । किसी दूसरे की कुछ भी सामर्थ्य अपने विश्वास में नहीं रखता ।
यों इस संवर के प्रकरण में प्रथम गाथा में ही वह सब सार बता दिया गया है जो संवर तत्त्व का एक मर्म है । अब जिस प्रकार उपयोग में कषाय नहीं है, कषाय में उपयोग नहीं है, यह मूल के भेद की बात कही गई है, इसी प्रकार परपदार्थों की बात यहाँ कही जा रही है कि कर्मों में और नोकर्मों में उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म नोकर्म नहीं हैं ।