वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 186
From जैनकोष
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो ।
जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि ।।186।।
जो जीव शुद्ध आत्मतत्त्व को जानता है वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त होता है और जो अशुद्ध को ही जानता है वह अशुद्ध ही आत्मा को प्राप्त होता है ।
शुद्ध आत्मा की उपासना का परिणाम―जो महात्मा नित्य ही अविच्छिन्न धारावाही ज्ञान से अर्थात् ऐसे ज्ञान से जिस ज्ञान की धारा कभी न टूटे ऐसे ज्ञान से शुद्ध आत्मा को प्राप्त करते हुए रहता है तो ज्ञानभाव से ज्ञानमय ही भाव होता है, इस कारण भिन्न जो कर्मास्रवण का निमित्त है, रागद्वेष मोह की संतान हैं उनका निरोध होने से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है । जो अपने आपको ही परतत्त्व जानता है अन्य किसी को नहीं जानता, वह अपने आपके प्रदेशों को छोड़कर अन्यत्र नहीं रह सकता । अपने गुणों का प्रयोग अपने आपके द्रव्य में होता है, द्रव्य पर होता है, अपने द्रव्य के लिए होता है । इस कारण ज्ञान गुण एक जो क्रिया करता है वह आत्मा के प्रदेशों में करता है, अपने आप ही करता है, अपने को ही करता है । इस कारण वस्तुत: यह आत्मा अपने आपको ही जानता है, पर को नहीं जानता ।
दृष्टि के अनुसार सृष्टि―अब अपने आपको कैसा जाने यह आत्मा कि अपनी अशुद्ध सृष्टि कर ले या अपनी शुद्ध सृष्टि कर ले । यदि अपने को शुद्ध ज्ञानस्वभावमय जानता है तो इसकी सृष्टि शुद्ध ज्ञानमय होगी । यदि विकाररूप अपने को समझता है तो इसकी सृष्टि विकाररूप होगी । यद्यपि सम्यग्दृष्टि पुरुष सराग अवस्था में रागसहित परिणमता है, राग से दूर नहीं हुआ है, अवस्था राग की चल रही है, तिस पर भी ज्ञानी पुरुष में ऐसी ज्ञानकला है कि जिस ज्ञानकला के द्वारा यह अपने आपको विकाररहित शुद्ध स्वभावरूप में देखता है । बस इसका समस्त पुरुषार्थ यथार्थ जानन में है । यथार्थ जान लेने वाले के प्रतिपक्ष में कोई शक्ति ऐसी नहीं है कि इस आत्मा को दुःखी कर सके । यथार्थ नहीं जानता और दुःखी हो रहा है । निज को निज पर को पर जान, यही यथार्थ ज्ञान का चिन्ह है । स्वयं यह जैसा है जितना है उतना यह अपने को माने, शेष समस्त परद्रव्य जितने हैं जैसे हैं उनको वैसा मानें तो यह कहलाता है यथार्थ ज्ञान ।
उपयोग के अनुसार परिणति का गुजरना―जिस प्रकार का उपयोग होता है उस प्रकार की ही बात गुजरती है । यह जीव जब अपने को परिवार वाला हूँ, घर वाला हूँ, मैं अमुक हूँ, अमुक कुल का हूँ, इस प्रकार से मानता है उसे आकुलताएँ नियम से आयेंगी क्योंकि उसने अपने को यथार्थरूप माना । उपयोग का आश्रय जब परद्रव्य होता है तब चूँकि वे समस्त परद्रव्य भिन्न हैं और पर्याय रूप में आए हैं इस कारण अध्रुव हैं । सो उन परद्रव्यों के मिट जाने के कारण यह क्लेश करेगा ही । सो जिसकी दृष्टि अपने आप पर ऐसी उपयोगरूप है जिस उपयोग के कारण पर से संबंध करना पड़ता है वह उपयोग इसकी आकुलताओं का जनक है किंतु जहाँ यह ज्ञानी आत्मा अपने सहज अशरण भावरूप अपने को मानता है उस समय कोई क्लेश नहीं होता ।
अपने आपको जैसा माने उस पर सुख दुःख की निर्भरता―भैया ! अपने को कैसा मानें―इस पर ही सुख दुःख निर्भर हैं । सुख दुःख होने की जड़ यही है । बाह्यपदार्थों में निग्रह अनुग्रह करने में सुख दुख की व्यवस्था नहीं है । सिर्फ इतने पर ही सुख दु:ख की व्यवस्था निर्भर है कि मैं कैसा हूँ इसे जैसा मानें । जहाँ यह माना गया कि मैं अमुक जाति का हूं, अमुक पोजीशन का हूँ, इस रूप से जब अपने को माना गया तो यह तो अयथार्थ बात हुई । क्या ये कुल, जाति, पोजीशन आदि आत्मा के स्वरूप हैं? नहीं । अस्वरूप रूप अपने को माने तो वहाँ क्षोभ होगा ही और कुछ क्षणों के लिए सब विकल्पों से हटकर बाहर में द्रव्य, क्षेत्र, काल सबका ध्यान भुलाकर केवल स्वयं यह अपने आप जैसा है ज्ञानज्योति ऐसा ही, उपयोग में लें । जो अमूर्त है किंतु आनंद का अविनाभावी है ऐसा जाननस्वरूपमात्र अपने को उपयोग में लें तो चूंकि वहाँ किसी पर का ख्याल ही नहीं है तो उसे क्षोभ किस बात पर हो?
परद्रव्य के अनाश्रय से क्लेशमुक्ति―जितने क्षोभ होते हैं उन क्षोभों का विषय परपदार्थ होते हैं । कोई परपदार्थ ख्याल में न रखे और क्षोभ या दु:ख हो जाये, ऐसा कभी नहीं हो सकता । इसी कारण जैनदर्शन में अशांति मेटने के लिए स्वद्रव्य का आश्रय कराया है, परद्रव्य का आश्रय छुड़ाया गया है । स्वद्रव्य का आश्रय कैसे हो, इसका उपाय है भेदविज्ञान । पर से हटना स्व में लगना यह बात भेदविज्ञान बिना नहीं होती । जब कि कोई लोग ईश्वर मर्जी पर ही अपना मोक्ष समझते हैं । भक्ति किए जाओ, जब भगवान के मन में आयेगा तब अपना मोक्ष हो जायेगा किंतु अपने आपमें परमात्मस्वरूप की श्रद्धा लेना और अन्य सबको भुला देना यही मुक्ति का उपाय है । ऐसा होने के लिए ही हम ऐसे स्वरूप वाले रूप का ध्यान करते हैं । भेदविज्ञान से ही पर से निवृत्ति और स्व में वृत्ति हो सकेगी ।
पदार्थों के यथार्थ ज्ञान पर कल्याण की निर्भरता―भैया ! भेदविज्ञान कब हो जब स्व व पर का भिन्न-भिन्न स्वरूप हमारे ध्यान में जमे । कब जमे? जब हम उनका भिन्न-भिन्न स्वरूप पहिचान लें, इस विषय का बहुत अधिक विवेचन जैनसिद्धांत में है । पदार्थों के यथार्थस्वरूप के ज्ञान पर हम आपका कल्याण निर्भर है । पदार्थों में 2 प्रकार के गुण हैं । एक तो ऐसा गुण जो सभी पदार्थों में मिल जाये । क्या ऐसे गुण नहीं होते जो सभी पदार्थों में मिलें? जैसे अस्तित्व है, सत्ता है, क्या जीव में ही है, पुदगल में नहीं है । इसी प्रकार सभी द्रव्यों में वस्तुत्व होता है अर्थात् अपने स्वरूप से ही होना, पर के स्वरूप से नहीं होना, यह बात किसी एक में नहीं पाई जाती है । जितने सत् हैं उन सबसे यह बात पाई जाती है कि वे अपने स्वरूप से हैं और पर के स्वरूप से नहीं हैं? यदि ऐसा न हो तो अस्तित्व भी नहीं रह सकता । कोई द्रव्य अपने स्वरूप से भी हो और पर के स्वरूप से भी हो तो फिर वह वस्तु ही क्या रही? वस्तुत्व हो तो अस्तित्व संभव है अन्यथा सत्ता भी असंभव है । अपने स्वरूप से रहना क्या यह सब द्रव्यों में संभव नहीं है? तो वस्तुत्व भी सब द्रव्यों में पाया जाता है और प्रत्येक समय परिणमन चलता रहता है । ऐसे भी गुण पदार्थों में हैं कि नहीं हैं । इस कारण द्रव्यत्व गुण भी प्रत्येक पदार्थों में है । और वह अपने में ही परिणमता है, पर में नहीं, यह अगुरुलघुत्व गुण है । इन गुणों से वस्तु की स्वतंत्रता ज्ञात होती है ।
खुद के परिचय की कठिनता का कारण―भैया ! यह भेदविज्ञान का प्रकरण है । संवर भाव का अधिकार है । इस जीव ने अब तक सब कुछ काम भोग संबंधी कथा सुनी वही इन्हें रुचिकर हुई । इनका ही इन्हें परिचय हुआ, पर आत्महित करने वाली कथा, आत्मकथा, वस्तुस्वरूप की कथा अब तक सुनने में नहीं आई, परिचय में नहीं आई, अनुभव में नहीं आई, इस कारण संसारी जीव के अपने पते की बात अनहोनी सी मालूम होती है । पर अपना ही परिचय अपने को न मिल सके यह तो बड़े विषाद की बात है । खुद है और खुद को न जान सके, इसके जानने की तरकीब भी बहिर्मुख और अंतर्मुख दोनों प्रकार से है किंतु बहिर्मुख पद्धति से तो केवल स्वरूप को जान लेगा व अंतर्मुख पद्धति से आत्मा में उतारता हुआ जान सकेगा ।
असाधारणगुण के साथ पाये जाने वाले साधारण गुणों की चर्चा―यह सब पदार्थों की चर्चा है । पदार्थों का सही-सही स्वरूप जाने बिना भेदविज्ञान नहीं हो सकता । भेदविज्ञान हुए बिना आत्मा की प्रतीति नहीं हो सकती । आत्मा की प्रतीति हुए बिना शांति नहीं मिल सकती । समस्त पदार्थ कुछ ऐसा-गुणोंरूप हैं जो गुण सभी पदार्थों में पाये जाते हैं और सभी पदार्थ ऐसे असाधारण गुण रूप हैं जो केवल उस ही जाति में पाये जायें और अन्य जाति के द्रव्यों में न पाये जायें । अभी साधारण गुणों की चर्चा चल रही है । अस्तित्व वस्तुत्व और द्रव्यत्व ये गुण सभी पदार्थों में हैं । और आगे के तीन गुण ऐसे हैं जो सब पदार्थों में पाये जाते हैं । जैसे वस्तु के परिणमन का स्वभाव तो है किंतु क्या वस्तु अटपट रूप परिणम सकती है? क्या मैं शरीररूप परिणम जाऊं? नहीं परिणम सकते हैं ।
क्या नारकी तलवार बन जाते हैं―आप प्रश्न कर सकते हैं कि नारकी जीव जिनको अपृथक् विक्रिया है वे जब चाहें तब नारकी को तलवार से मारें तो वे तलवार वाले हो जाते हैं । उनको तलवार ढूंढ़नी नहीं पड़ती । तो वे नारकी तो तलवाररूप परिणमते? उत्तर―वहाँ ऐसी असाता है कि नारकी चाहे कि तलवार से मारूं तो जैसे ही उसने मारने के लिए हाथ उठाया और इच्छा की कि यह हाथ ही तलवाररूप परिणम जाता है । उनका यह शरीर ही तलवाररूप बनता है । कहीं बाहर से कोई चीज उठाकर तलवार नहीं बनाया वह तलवार देह का प्रसार है । जैसे यहाँ भी बहुत चीजें तो नहीं बन सकती हाथ से मगर कलछली भी बना सकें, चमीटा भी बना सकें, काँटा भी बना सके, और मुग्दर भी बना सकें । कितनी ही चीजें अपन भी यहाँ हाथ से थोड़ी-थोड़ी बना लेते हैं पर अपनी विक्रिया नहीं है इसलिए इस हाथ का ही तरेड़ बरेड़ करके किसी रूप बना लेते हैं, पर नारकी जीव के अपृथक् विक्रिया है । वह इच्छा करते ही अपने को सर्परूप बना लें, बिच्छूरूप बना ले यह सब उनके शरीर का विस्तार है ।
सिंहादिकरूप भी नारकशरीर की विक्रिया―जैसे कहते हैं कि इस जीव को सिंह खाता है, तो वहाँ सिंह कहां रहता है । जब वह नारकी यह ख्याल करता है कि मैं इसे सिंहरूप बनकर खाऊँ तो वह सिंहरूप बनकर उसको पीड़ित करता है । वह सिंहरूप भी नारकी जीव के शरीर का विस्तार है । यों अपने आपमें ही अपने को परिणमाता है, किसी दूसरी वस्तु को नहीं परिणमता है । वस्तुओं में परिणमन का स्वभाव पड़ा है, परिणमते रहते हैं पर अपनी जातिरूप परिणमेंगे, पर की जातिरूप न परिणमेंगे ।
तो यह भी गुण सब द्रव्यों में हैं कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही रूप परिणमेगा, दूसरे के रूप न परिणमेगा । इसको बोलते हैं अगुरुलघुत्व और प्रत्येक पदार्थ प्रदेश में है । कोई पदार्थ ऐसा नहीं है कि है और, आकार कुछ भी न हो । चाहे अमूर्त आकार हो या मूर्त आकार हो । यह प्रदेशत्व भी सभी पदार्थों में है और सभी पदार्थ किसी न किसी प्रकार के ज्ञान के द्वारा प्रमेय हैं । ऐसा प्रमेयत्व गुण भी है । यों समस्त द्रव्यों में चाहे अमूर्त द्रव्य हो, चाहे मूर्त द्रव्य हो, पर सभी द्रव्यों में 6 साधारण गुण होते हैं । यह तो साधारण गुणों की बात कही है ।
असाधारण गुण भेदविज्ञान का आधार―प्रत्येक पदार्थ में असाधारण गुण भी होते हैं, जो अपनी जाति में रह सकें किंतु दूसरे की जाति में न रह सकें । चेतन गुण जीव के ही मिलेगा, पुद्गल आदिक द्रव्यों में न मिलेगा । पुद्गलों में मूर्तिकता गुण मिलेगा, रूप, रस, गंध, स्पर्शमयता मिलेगी, अन्य द्रव्यों में न मिलेगी । तो यह जो भेदविज्ञान होता है वह सर्वगुणों से नहीं होता है किंतु असाधारण गुणों से होता है । साधारण गुणों से इसकी सुरक्षा रहती है । आत्मा में जो चैतन्य नामक असाधारण गुण है उसके कारण इसकी जो सृष्टि होती है वह चेतनात्मक होती है ।
सोपाधिदशा में ज्ञान के करण―उपाधिसंबंध से ज्ञान की उत्पत्ति के करण 5 इंद्रियां और एक मन है । इस प्रकार 6 उत्पन्न होते हैं । इन 6 करणों के द्वारा यह जीव जानता है । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये तो स्पष्ट हैं पर एक अंतःकरण है जो लोगों को दिख नहीं सकता । भीतर ही है । उसका नाम है मन, और यही अंतःकरण आज के बताने में दिल और मस्तिष्क दो रूपों में माना गया है । शास्त्रों में मन को अनवस्थित कहा है । यह मन अनवस्थित है । भावमन तो अनवस्थित है ही और द्रव्यमन भी अनवस्थित है । ये कुछ इस प्रकार के रंग तरंग वाले हैं कि ये अपना आकार भी कुछ हद तक भिन्न-भिन्न स्थानों में करते हैं और इनका भाव तो अत्यंत ही अनवस्थित है । जैसे कि लोग कहा करते हैं कि यह मन थोड़ी क्षणों में किधर है और हजारों मील जाने में इसे एक सेकेंड भी नहीं लगता । भीतर में विकल्पों के भी नाना परिणमन हैं ।
मन की अनवस्थितता का एक उदाहरण―एक श्रावक ने अपने मित्र साधु के संबंध में समवशरण में पूछा―प्रभो ! अमुक साधु का इस समय कैसा परिणाम है? उत्तर मिला कि इससे एक ही सेकेंड पहिले ऐसा परिणाम था कि यह मरकर 7 वें नर्क में जाता किंतु इस समय उसके अंदर ऐसा परिणाम है कि वह 7 वें स्वर्ग में उच्च देव होगा । तो मन की अवस्थितता को हम आप सब जानते हैं । क्षण में क्रूर परिणाम हो जायें और कुछ क्षण में ही विशुद्ध परिणाम हो जायें । पर क्रूरता छोड़कर विशुद्ध परिणाम में आ जाना यह ज्ञानी पुरुष से ही बनता है । अज्ञानी पुरुष में यह साहस नहीं है कि क्रूरता शीघ्र छोड़ सके । बड़ा समय लगेगा । उसका मन क्षण-क्षण में डोलता रहता है ।
मन की द्विप्रकारीय गति―यही मन दो प्रकार के कामों का कारण बनता है । एक तो जानन का कारण और एक प्रीति अप्रीति करने का कारण । इस मन में ही ये दो प्रकार के काम हैं । जिस प्रकारता में यह मन जानने का कारण है उस प्रकार को कहते हैं मस्तिष्क और जिस प्रकारता में यह प्रेम करता है, द्वेष करता है उसे कहते हैं दिल । दिल और दिमाग ये दोनों जैनसिद्धांत में पृथक् करण नहीं बताये गए हैं किंतु एक ही अंतःकरण है । इस मनमें ही दो प्रकार की कारणता है―एक जानने का कारण बनना और एक रागद्वेष का कारण बनना ।
व्यावहारिक अनुभव और उसका कारण―व्यवहारिक अनुभव में ऐसा देखा जाता है कि जानने की उत्सुकता करता है तब सिर पर या इस मस्तिष्क पर जोर डालता है । और जब प्रेम की बात है राग अनुराग और भक्ति की बात है तब दिल पर जोर पहुंचता है । सो इससे कहीं दो जगह करण नहीं बन गया कि मस्तिष्क सिर में पहुंचा और दिल वक्षस्थल में पहुंचा । किंतु एक ही जगह रचना की प्राप्ति मन की अनवस्थितता के कारण वह अपनी-2 प्रकारता में दो प्रकार के मूड बनाता है । जैसे अपना उपयोग एक है पर इस उपयोग को बाहर की ओर करके भी हम पदार्थों को जानते हैं तो बहिर्मुखता होकर पदार्थों को जानना नए ढंग से होता है और इस उपयोग को ही अंतर्मुख करके हम कुछ जानते हैं तो अंतर्मुख करके जानने का ढंग और दूसरी किस्म का है । इसी प्रकार यह मन जब जानन का साधन होता है तो वह सिर की ओर उन्मुख होकर कारण बनता है । और यह मन जब रागद्वेष का साधन बनता है तब यह अपने आपमें केंद्रित होकर, विलीन होकर कारण बनता है ।
मन की वृत्तियां―मन की बहिर्मुखवृत्ति ज्ञान का साधन है और मन की अंतर्मुखवृत्ति रागद्वेष का कारण है और ऐसा अब अनुभव में भी आ सकता है कि जब हम किसी से राग करते हैं तो हम अपने आपके दिल में केंद्रित हो जाते हैं, बैठ जाते हैं, घुस जाते हैं, विलीन हो जाते हैं और आत्मानुभव करते हैं किंतु जब इस मन को जानन के साधनरूप से बनाते हैं तब यह मन अपने मूल स्थान से बहिर्मुख तरंग लेकर अपनी वृत्ति करता है इसलिए दिल और दिमाग दोनों ही मन की अवस्थाएं हैं, कोई 7 वाँ करण नहीं है कि जैसे 5 करण बाहरी हुए ऐसे ही अंतःकरण हुआ मन याने दिल अथवा दिमाग ।
असाधारण गुण से व्यवस्था―चर्चा प्रकृत में यह चल रही थी कि पदार्थों के असाधारण गुण के द्वारा परवस्तुओं का भेदविज्ञान हो सकता है । साधारण गुणों से वस्तु का भेद नहीं होता है । अस्तित्व से क्या भेद करें? सभी पदार्थ अस्तित्वमय हैं, इसी प्रकार शेष 5 साधारण गुणों से हम पदार्थों का क्या भेद करें? सभी पदार्थ 6 साधारण गुणों से तन्मय हैं । तब भेदविज्ञान के लिए हम पदार्थों में असाधारण गुणों को जाना करते हैं । यहाँ आत्मा का असाधारण गुण बताया है चैतन्यस्वरूप । जो मात्र चैतन्यस्वरूप को अविच्छिन्न ज्ञानधारा के द्वारा जानता हुआ शुद्ध स्थित रहता है, ज्ञानघन भावों से युक्त हो रहा है, इस कारण वह ज्ञानमय ही होता है और फिर ज्ञानमय भाव हो जाने के कारण रागद्वेष मोह की सत्ता रुक जाती है और वह शुद्ध चैतन्यमात्र निराकुल सहज आनंदमय अनुभव को प्राप्त होता है ।
ज्ञानमय भाव से अज्ञानमयभाव का निरोध―शुद्ध तत्त्व की दृष्टि में यह जीव शुद्ध ज्ञानमय होता है । आगे यह कहेंगे कि जब ही यह जीव अपने को अशुद्ध स्वरूप में जानता है उस समय यह जीव अशुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है । इस कारण सर्वपदार्थों से पृथक् केवल निज असाधारण गुणमय आत्मस्वरूप की पहिचान कर लेना आत्महित के लिए तो आवश्यक है । जो जीव निरंतर धारावाही ज्ञान के द्वारा शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता हुआ ठहरता है उसका ज्ञानमय भाव होता है । सो ज्ञानमय भाव से अज्ञानमय भाव रुक जाता है । रागद्वेषमोह अज्ञानमय भाव है । यह अज्ञानमय भाव रुके तो सही फिर ज्ञान का अनुभव होता है ।
क्लेश का कारण अज्ञानमयी कल्पनायें―जगत के जीवों को क्लेश और कुछ नहीं है । अपने आपके प्रदेश में अपनी कल्पना और ख्याल बनाकर अज्ञानमय भाव उत्पन्न करता है और दु:खी हो रहा है । शांति होने के लिए बाहर में कुछ नहीं करना है, अपने आपके अंतर में कुछ करना है । किंतु जो ज्ञानमय भाव से अशुद्ध आत्मा को ही देखता रहता है अर्थात् मैं क्रोधी हूँ, मैं चतुर हूँ, मैं धनी हूँ, अमुक जाति का हूँ, अमुक कुल का हूं―इस प्रकार अपने शुद्ध आत्मा को देखता है उसका अशुद्ध अज्ञानमय भाव है । अज्ञानमय भाव से रागद्वेषभाव नहीं रुक सकते । अज्ञानमय भाव तो रागद्वेष मोह के आस्रवण के ही कारण हैं । अज्ञानमय अपने आपको जानता हुआ वह अशुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है ।
संवर का कारण―इससे यह सिद्ध है कि शुद्ध आत्मा की उपलब्धि से ही संवर होता है । और संवरतत्त्व अद्भुत अद्वितीय है । मित्र कहो, पिता कहो, ईश्वर कहो, रक्षक कहो, यह एक संवर परिणाम है । स्वामी समंतभद्राचार्य ने कहां है कि पाप रुक गया है तो और संपदा से क्या प्रयोजन है? सबसे अतुल महिनीय संपदा है तो पापनिरोध है । पर यदि पाप नहीं रुकता है, आता है तो अन्य संपदा से क्या प्रयोजन, क्योंकि पाप तो कर रहे हैं । उसके फल में तो आकुलता ही होगी । और कर्म विपाक के समय में भी आकुलताएँ होंगी, सो भैया ! अपने आपको इस प्रकार देखना चाहिए कि मैं अकेला हूँ, घर रहित हूँ, शरीर-रहित हूँ । और की तो बात क्या, अपने आपमें जो ममता रागद्वेष विभाव परिणाम होते हैं उन परिणामों से भी रहित हूँ । मेरे सहज सत्त्व के कारण इस सहजस्वरूप में केवल चैतन्यचमत्कार का स्वरूप विलसित होता है । मैं शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानानंदघन हूं । इसे योगींद्र ही समझ सकते हैं, ज्ञानी पुरुष ही जान सकते हैं । ये सब संयोगजन्य भाव विभाव ये बाह्य चीजें हैं । वे वस्तुयें मुझसे सर्वथा भिन्न हैं । ये तो चेतन अचेतन प्रत्येक द्रव्य प्रदेशों से भी भिन्न हैं और ये रागादिक भाव यद्यपि आत्मप्रदेशों में होते हैं किंतु कुछ समय के लिए होते हैं, निमित्त पाकर होते हैं, अंतर में स्वरसत: उत्पन्न नहीं होते; इस कारण वे भी बाह्य भाव हैं । वे मुझ से भिन्न हैं । इस प्रकार भेदविज्ञान करने से जो अनात्मा है उससे उपेक्षा हो जाती है । और जो आत्मतत्त्व है उसमें प्रवेश होता है । इस प्रकार शुद्ध आत्मा का उपयोग द्वारा यदि आलंबन है तो कर्मों का संवर होता है ।
धारावाही शुद्धावलोकन का फल―पूज्य श्री अमृतचंद्रजी सूरि एक कलश में कह रहे हैं―यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमान: शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा परपरिणति रोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति । यदि धारावाही ज्ञान के द्वारा इस ही प्रकार ध्रुव आत्मतत्त्व को प्राप्त करता हुआ शुद्ध आत्मा को पाता है, शुद्ध आत्मरूप उपयोग में ठहरता है तो यह आत्मा उदय होता हुआ अपने आत्मा के प्रदेशों से, रागद्वेष भावों से दूर करके शुद्धतत्त्व को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार शुद्ध आत्मा की प्राप्ति से संवर होता है । क्या करना है? कर्म नहीं आने देना है । इन कर्मों के आने के निमित्तभूत जो रागादिकविकार हैं उन रागादिक विकारों में उपयोग न लगाओ । कर्मों का उदय आता है, ये होते हैं, पर तुम्हारे ज्ञान में तो वह बल है कि न उपयोग उसमें लगावें । जब रागादिक विकारों का उपयोग द्वारा ग्रहण न करेंगे तो ये रागादिक विकार स्वयमेव छूट जायेंगे।
आत्मशरण ही परमार्थरक्षा―इन जीवों का शरण केवल संवरभाव है । विषयकषायों में जो अनुरक्ति करते हैं उनके ये रक्षक न होंगे । रक्षक मात्र अपना परिणाम होगा । जिस परिणाम में शुद्ध ज्ञानस्वरूप दृष्ट हो रहा हो, यह एक ध्रुव शुद्ध है । इस आत्मस्वभाव भगवान के ज्ञान बिना यह जीव अब तक रुलता चला आया है और जिस-जिस भव में जिन-जिन मोही जीवों का संग मिलता है उन-उन असहाय मोही जीवों को यह अपना लेता है, किंतु इस अपनाने का परिणाम तो उत्तम नहीं निकलता । जैन शासन पाने का तो फल यह है कि अपने आपमें अपने आपको ज्ञानमात्र निरख लेवें । यह बात जैसे बने तैसे कर लो ।
आत्महितैषी की आत्महित में प्रगति―आत्मकल्याण के लिए भव्य जीव ने न किसी का संकोच किया, न चिंता की किंतु जैसे ही यह आत्मदेव आनंदमय अनुभूत हुआ तैसे ही उनका सारा ढांचा बदल गया । 6 खंड की विभूति में रहने वाले हजारों राजाओं के बीच अपनी प्रतिष्ठा पाने वाले चक्रवर्ती भी जिस क्षण ज्ञान प्राप्त करते हैं और अपने आत्मा के शांत आनंदमयस्वरूप का स्पर्श करते हैं, उनका एकदम सर्व ढांचा बदल जाता है । मकान वह ही है, रानियां वे ही हैं, राजा लोग वही हैं किंतु उनका झुकाव उन बाह्य की ओर नहीं रहता है । अपने आत्मतत्त्व की ओर झुकाव रहता है, और ऐसा झुकाव सारे जीवनभर बना रहा तो कोई अवसर पाकर कदाचित विरक्त हो जाये तो पूर्व जो पुरुषार्थ किया गया है उसके फल में अंतर्मुहूर्त में थोड़े ही दिनों में कैवल्य की प्राप्ति होती है । कोई आग ऐसी होती है कि मालूम नहीं पड़ती । बहुत से कोयले में आग सुलगा दी तो कुछ कोयलों में यह मालूम नहीं पड़ता कि जल रहे हैं किंतु भीतर ही भीतर वे दहक रहे हैं, जल रहे हैं । एकदम स्पष्ट फिर वह आग हो जाती है । गृहस्थावस्था में यह भेदविज्ञान की आग यदि जल रही है तो लोगों को पता नहीं पड़ता है उसकी ज्ञान की महिमा का, किंतु कोई क्षण पाकर एकदम उसका प्रताप विकसित हो जाता है ।
शांति का उपाय ज्ञानस्वरूपानुभव―भैया ! शांति का उपाय कितना ही यत्न करके देख लो अन्यत्र न मिलेगा । जब शुद्ध ज्ञानस्वरूप मैं हूँ, सबसे जुदा हूँ, आकाशवत् अमूर्त हूँ सो इस रूप में जो कि यथार्थस्वरूप है, अनुभव करने पर शांति मिलेगी । चाहे यह अनुभव अभी शीघ्र बना लिया जाये, चाहे यह अनुभव कभी भी बना लिया जाये पर इस यथार्थ अनुभव के बिना आत्मशांति नहीं प्राप्त कर सकते । अब संवर की महिमा सुनकर जिज्ञासु शिष्य प्रश्न करता है कि वह संवर किस प्रकार से होता है? उत्तर में श्री कुंदकुंद प्रभु कहते हैं:―