वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 206
From जैनकोष
एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि ।
एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।।206।।
ज्ञान के शिवसाधकता की सिद्धि―इससे पहिले ज्ञानगुण की यथार्थ प्रशंसा की गई थी । जीव को मोक्षपद की प्राप्ति अथवा निरामय पद की प्राप्ति अर्थात् ज्ञानभाव की प्राप्ति ज्ञानगुण के बिना नहीं हो सकती । ज्ञानी पुरुष यद्यपि तन, मन, वचन के योग्य चेष्टा भी करते हैं पर यह भी जानते हैं कि यह जो चेष्टा है वह एक जड़ पदार्थ का परिणमन है । इन शुभ विकल्पों में लगाकर विषय कषाय और अशुभोपयोग इनका बचाव है, सो यह बचाव भी तन, मन, वचन की चेष्टा से नहीं हैं, किंतु तन, मन, वचन के योग्य चेष्टा का निमित्त पाकर जो अंतर में ज्ञान में शुभ विकल्प उत्पन्न होते हैं उसके कारण बचाव होता रहता है पर मोक्ष की प्राप्ति तो इस शुभ अशुभ योग और उपयोग से रहित ज्ञानस्वभाव के अनुभव से ही होती है, इसी बात को बताकर इस गाथा में एक अंतिम कर्तव्य की बात कह रहे हैं ।
ज्ञानभाव में रति―हे भव्य जनों ! तुम इस ज्ञानस्वभाव में ही नित्य रत होओ और इस ज्ञानस्वभाव में ही संतुष्ट होओ और इस ज्ञानस्वभाव के द्वारा ही तृप्त होओ । यदि ऐसा कर सके तो नियम से तुम को उत्तम सुख प्राप्त होगा । देखो इतना ही शुद्ध आत्मा है जितना कि यह ज्ञान है । एक ज्ञानभाव का लक्ष्य छोड़कर और कुछ-कुछ भी आत्मा में खोजा तो आत्मा का पता न पड़ेगा । इसलिए सत्य इतना ही है जितना कि यह ज्ञान है । इस कारण ऐसा निश्चय करके तुम ज्ञानमात्र भावों में ही सदा रति को प्राप्त होओ ।
आत्मा की ज्ञानघनता―ज्ञान ही आत्मा है, यह तो एक बताने का शब्द है कि ज्ञान का जो पिंड है वह आत्मा है, पर ज्ञान तो ऐसा है नहीं जो दरी की तरह लिपट जाये और पिंडोला बन जाये और फिर कहो कि यह ज्ञान का पिंड है ऐसा तो है नहीं । इसे कहते हैं ज्ञानघन । घन उसे कहते हैं कि जिसमें दूसरी जाति का प्रवेश नहीं होता । जैसे कहते हैं ना ठोस । तो ठोस का क्या मतलब है? यह लकड़ी ठोस है अर्थात् जहाँ दूसरी चीज न हो उसे कहते हैं ठोस । दूसरी चीज न हो इसका अर्थ है कि वही-वही हो । हम लकड़ी में और चीज संग न लगायें, केवल लकड़ी ही लकड़ी रहे तो वह घनरूप है । इसी प्रकार आत्मा ज्ञानघन है अर्थात् आत्मा में ज्ञान ही ज्ञान है । दूसरी चीज उसमें है ही नहीं ।
बाह्यसंबंध―तो यहाँ ज्ञानघन आत्मा एक पदार्थ हुआ, और पुद्गल पिंडरूप शरीर एक पदार्थ हुआ । वह अनेक पदार्थों का समूह है । इस जीव का और शरीर, पर-भावों का संबंध किम्वा कर्मों का संबंध यह अनादि से चला आ रहा है । इसमें परस्पर एक दूसरे का निमित्त तो है पर उनमें यह नहीं कहा जा सकता कि सबसे पहिले क्या था? जैसे बीज और वृक्ष । बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज होता है । इनमें कौनसी चीज पहिले थी सो नाम लो । आप कहेंगे बीज तो क्या वह वृक्ष बिना हो गया । आप कहेंगे वृक्ष तो क्या वह बीज बिना हो गया । जैसे पुत्र पिता की संतान है, प्रत्येक पुत्र पिता से उत्पन्न है । जो पिता है वह भी पिता से उत्पन्न है । कोई पिता बिना पिता का नहीं मिलेगा । तो जैसे यह संबंध अनादिसिद्ध है, बीज व वृक्ष का संबंध अनादिसिद्ध है इसी प्रकार जीव और कर्मों का परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध हो जाने का भी संबंध अनादि से है।
आत्मसत्य―आत्मा उतना ही सत्य समझो जितना कि यह ज्ञानरूप है । सति भवं सत्यम् । जो सत् में हो वह सत्य है, जो ध्रुव सत्य हो वह परमार्थ सत्य है । जब यह जीव अपने को सत्यस्वरूप ज्ञानमात्र नहीं पहिचानता, और और रूप पहिचानता है, जैसे कि मैं मनुष्य हूँ, मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक पोजीशन का हूं, अमुक कारोबारी हूँ, इतने बेटों वाला हूँ, नाना प्रकार जब अनुभव करता है तो वह अपने को शुद्ध अनुभव न करेगा । वे सब जो अध्रुव हैं, परिणतियां हैं उन रूप यह अनुभव करेगा, मायारूप अनुभव करेगा । जब यह ज्ञानमात्र ही अपने को अनुभवेगा तो यह शुद्ध अनुभवेगा । तो उतना ही शुद्ध आत्मा है जितना कि यह ज्ञान है । अर्थात् तुम मात्र ज्ञानरूप अपने को अनुभव करो । जो जानन है, ज्ञानस्वरूप है बस यही मैं हूँ । ज्ञानमात्रमेवाहम् । तुम ज्ञानमात्र में ही नित्य रत होओ ।
ज्ञानभाव में संतोष―इतना ही आशीष है, सत् है, कल्याण है जितना कि यह ज्ञान है । ऐसा समझ करके तुम ज्ञानमात्र भावों के द्वारा ही नित्य संतुष्ट होने का प्रयत्न करो। आशीष कहते हैं कल्याण को । कहते हैं ना कि उसने आशीर्वाद दिया अर्थात् उसने ‘कल्याण हो’ ऐसा वचन बोला । तो कल्याण भी उतना ही है जितना कि यह ज्ञानमात्र भाव है । केवल ज्ञानमात्र की अनुभूति होने पर कोई संकट नहीं ठहरता है । यद्यपि यहाँ सब काम करने पड़ते हैं क्योंकि पूर्वभव में अपराध बहुत किए थे । उसके फल में ये नाना विकल्प पैदा होते हैं । उन पिंडों से हटने के लिए अनेक भाव अपने उपयोग में आते हैं, पर ज्ञानी संतपुरुष उन सबको करते हुए भी उनसे अलग अनुभव करते हैं । जब शुभ अशुभ राग की वेदना होती है तो कुछ विषयों की चेष्टा करते हैं । जब शुभ राग की वेदना होती है तो दान, पूजा आदिक शुभ भावों की चेष्टा करते हैं । पर उन सब चेष्टाओं में उनकी श्रद्धा यही है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान ही इसका सर्वस्व है, अन्य सब आपत्ति है ।
आत्मा की ज्ञानमयता―आत्माज्ञान स्वयंज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । आत्मा ज्ञान है और ज्ञानमात्र स्वयं है, ज्ञान आत्मा से अलग नहीं है । इस ज्ञान की ही तन्मयता से यह आत्मा ज्ञानमय है । आत्मा स्वयं ज्ञानमय है, पदार्थ स्वयं ऐसा है, स्वभाव में युक्ति नहीं चलती । यह आत्मा ज्ञान की परिणति के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता है? हो रहा है यहाँ सब ।
आत्मा का पर में अकर्तृत्व―जैसे हाथ हिल रहा है । यह हाथ हिल कैसे गया, आत्मा तो आकाशवत् अमूर्त है । विशेषता इतनी है कि आकाश ज्ञानरहित है और यह ज्ञानमय है । यह ज्ञानमय अमूर्त आत्मा हाथ को कैसे हिला लेता है? यह एक शंका सामने आती है । तो यह उत्तर यहाँ है कि सब निमित्तनैमित्तिक संबंध का फल है । आत्मा में अपनी योग्यता के अनुसार, न जब ज्यादा ज्ञान हो, न कम ज्ञान हो, ऐसी स्थिति में इसके कुछ इच्छा भाव होता है । सो ज्ञान तो है ज्ञानगुण का परिणमन और इच्छा है चारित्रगुण का विकृत परिणमन । पर हुआ आत्मा में । इस आत्मा में इच्छा हुई कि मैं यों बताऊँ, यों बोलूं, यों हाथ हिलाकर समझाऊं, ऐसी भावमय इच्छा हुई जो स्पष्ट है, शब्दों में तो नहीं उतरी, पर हाँ हुई इच्छा । उस इच्छा का निमित्त पाकर आत्मा में जो योग शक्ति है प्रदेश के हिलने और कंपने की, सो उस इच्छा का निमित्त पाकर योग हुआ और उस योग का निमित्त पाकर एकक्षेत्रावगाह में रहने वाले शरीर में वायु में संचरण हुआ । जैसी इच्छा की उस माफिक योग हुआ, उस माफिक वात चला और जिस प्रकार वायु चली उस प्रकार से अंग हिला । तो इस तरह निमित्तनैमित्तिक परंपरागत ये सब बातें होती है ।
ज्ञान की ही अनुभवनीयता―इन होती हुई बातों में तो एक-एक परिणतियों पर शुद्ध दृष्टि दें तो यह दिखेगा कि आत्मपदार्थ अपने आपमें अपनी परिणति से परिणमता चला जा रहा है । इन ज्ञानमात्र भावों से परिणमते हुए इस आत्मा को देखने वाले ज्ञानी पुरुष ज्ञानमात्र अनुभव से अपने में शांति को प्राप्त करते हैं । देखिए इतना ही सत्य अनुभवन करने के योग्य है जितना कि यह ज्ञान है । ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्र भाव के ही द्वारा नित्यमेव तृप्त होओ । पहिले आत्मा में रति करो, फिर संतोष करो, फिर तृप्त होओ ।
रति, संतोष और तृप्ति―सबसे पहिले किसी काम में झुकाव होता है और उसमें परिणाम अच्छा समझ में आये तो संतोष होता है, और पूरा-पूरा काम बन जाने पर फिर तृप्ति होती है । तृप्ति का दर्जा ऊँचा है संतोष से । संतोष के पूर्ण पा लेने का फल है तृप्ति होना । सो इस प्रकार जब हम नित्य ही आत्मा में रत होंगे, आत्मा में संतुष्ट होंगे, आत्मा में तृप्त होंगे तो इससे अद्भुत सुख प्राप्त होगा, जो वचनों द्वारा भी नहीं कहा जा सकता । हम बड़े-बड़े साधुओं को और परमात्मा को क्यों पूजते हैं कि उन्होंने ये सब बातें प्राप्त कर ली हैं । संतुष्ट हुए, तृप्त हुए और इसके फल में उन्होंने वचन के गोचर उत्तम सुख को प्राप्त किया । यदि वैसा ही हम करें तो अद्भुत अलौकिक स्वाधीन आनंद हमें प्राप्त होगा ।
आनंद की उद्भूति के साथ ही ज्ञान की जागृति―ज्ञानानुभव के समय जो आनंद प्राप्त होगा उसको तत्क्षण ही हम स्वयमेव देख लेंगे । दूसरों से पूछने की जरूरत नहीं है । वेदांत की जागदीशी टीका में एक दृष्टांत दिया है कि एक नई बहू जिसके गर्भ रह गया सो जब नौ महीने के करीब हो गए तो सास से कहती है कि सासूजी जब मेरे बच्चा हो तो मुझे जगा लेना । ऐसा न हो कि सोते में ही बच्चा हो जाये, हमें पता ही न पड़े । तो सास कहती है बेटा घबड़ाओ नहीं, बच्चा जब पैदा होगा तो तुझे जगाता हुआ ही पैदा होगा । तो यों ही जब आत्मा के शुद्ध ज्ञानस्वरूप का अनुभव होता है तो वह आनंद को प्रकट करता हुआ ही होता है । ज्ञान का अनुभवन कर लेने के बाद फिर यहाँ वहाँ पूछने की जरूरत नहीं रहती कि हमें आनंद मिला या नहीं । हम स्वयं ही यह देख लेंगे कि मैं आनंदमय हूँ और ज्ञानस्वरूप हूँ ।
चिन्मात्र चिंतामणि―देखो भैया ! यह आत्मदेव स्वयं ही अचिंत्य शक्ति वाला है । यह चिन्मात्र चिंतामणि है । जैसे लोक में प्रसिद्ध है कि चिंतामणि रत्न मिल जाये तो जो चाहो सो मिल जायेगा । अच्छा आप यह बतलाओ कि किसी ने पाया है चिंतामणि रत्न? यह चिंतामणि रत्न कैसा होता है? काला होता है कि लाल होता है कि नीला होता है? और मान लो कि कोई पथरा ऐसा मिल भी जाये कि लो चिंतामणि है, तो क्या ऐसा हो जायेगा कि जो सोचो सो हाजिर हो जाये? कोई भी पुद्गल ऐसा नहीं है जो हमारे हाथ में आए और जो चाहें सो मिल जाये, ऐसा कोई पुद्गल है क्या? नहीं है । पर यह चिन्मात्र चिंतामणि ऐसा है । चैतन्यमात्र जो आत्मा का स्वरूप है यह ही चिंतामणि है । यदि यह आत्मस्वरूप हस्तगत हो जाये तो हम जो चाहेंगे सो मिल जायेगा । यह चिंतामणि मिल जाये तो बतलाओं क्या कुछ वह चाहेगा? किसी ने कहा धन । अरे वह धन न चाहेगा । चैतन्यमात्रस्वरूप का चिंतामणिरत्न मिल जाये तो उसे अलौकिक आनंद मिल गया । उसे तो श्रद्धा ही नहीं है कि धन से आनंद की किरण निकलती है, वह तो ज्ञान से शांत होना चाहता है।
इच्छा के अभाव में ही इच्छा की पूर्ति―-भैया ! इच्छा की पूर्ति उसको ही कहते हैं कि इच्छा का नाश हो जाये । जैसे बोरी में गेहूं भरते हैं और बोरी भर गई, बोरी की पूर्ति हो गई, इस तरह से इच्छा की पूर्ति नहीं होती कि एक इच्छा दो इच्छा 100 इच्छा भर दें । बोरा में गेहूं की तरह खूब इच्छा हो गई और फिर कहो कि इच्छा की पूर्ति हो गई तो उसे इच्छा की पूर्ति नहीं कहते हैं । इच्छा के मिटने का नाम इच्छा की पूर्ति है । यह विलक्षण पूर्ति है । जैसे आशा का गड्ढा एक विलक्षण गड्ढा है जितनी आशा करते जाओ, उस आशा में जितनी संपत्ति भरो उतना ही आशा का गड्ढा लंबा चौड़ा होता जायेगा । दुनिया में कोई गड्ढा ऐसा नहीं देखा होगा कि उसमें कुछ भरो तो वह गड्ढा और बढ़ता जाये । आशा का गड्ढा ऐसा है कि इसे जितना ही भरोगे उतना ही बड़ा होता जायेगा । इसी प्रकार पूर्ति भी ऐसी विलक्षण न देखी होगी कि मिटने का नाम पूर्ति है ।
इच्छावों के संचय में इच्छाओं की पूर्ति असंभव―अच्छा और सोचो इच्छा के मिटने का नाम पूर्ति है या जोड़-जोड़कर उसको भरा जाने का नाम पूर्ति है । इस गड्ढे की पूर्ति करो मायने इस गड्ढे को खूब भर दो । चाहे यह कह लो कि गड्ढे को मिटा दो, चाहे यह कह लो कि गड्ढे की पूर्ति कर दो । जैसे भोजन किया और भोजन में अच्छी चीज खाई, बढ़िया रसगुल्ले वगैरह और अच्छी बढ़िया डकार आये तो कहते हैं कि बस आज तो हमारी इच्छा की पूर्ति हो गई । उसके मायने यह हैं कि जो खाने की इच्छा थी वह मिट गई । इच्छा मिटने का नाम ही इच्छा की पूर्ति है । इच्छा हो और इसको भर दें तो पूर्ति नहीं कहलाई बल्कि और दीन हो गए । और खाने के बाद तत्काल इच्छा नहीं होती, थोड़ी देर बाद होगी । किसी-किसी के तत्काल भी हो जाती है । कभी खाया पिया और बढ़िया सिके चना आ जाये तो एक आने के लेकर खाने की जगह पेट में निकल ही आयेगी तो इच्छा तत्काल में भी हो सकती है, थोड़ी देर में भी हो सकती है, पर जो इच्छा मिटी है उस इच्छा की पूर्ति हो गई है ।
चिन्मात्र चिंतामणि से सर्वसिद्धि―इच्छा की पूर्ति इस चिन्मात्र चिंतामणि रत्न के उपयोग में आने पर होती है क्योंकि चिन्मात्र, चैतन्यमात्र आत्मस्वरूप अनुभव में आ गया तो सर्व अर्थ की सिद्धि रूप आत्मा को बना लिया । सबसे बड़ी विभूति आने पर फिर छोटी विभूति को कौन चाहता है? चैतन्य रस का निराकुल रूप स्वाद आने पर फिर यह ज्ञानी जीव अपने को सर्वार्थसिद्धि बना लेते हैं अर्थात् सर्व अर्थों की सिद्धि उनके हो चुकती है ।
रूढ़ और यथार्थ सर्वार्थसिद्धि―सर्वार्थसिद्धि है सबसे अपार और उससे पहिले है अनुदिशविमान और उससे पहिले है नवग्रैवेयकविमान । नक्शा देखने से यह स्पष्ट हो जाता है । इस ग्रैवेयक को वैष्णव जन बैकुंठ बोलते हैं कि बैकुंठ पहुंच गए । सो एक बार बैकुंठ में पहुंचे कि बहुत काल तक वहाँ बने रहते हैं और जब ईश्वर की मर्जी होती है, संसार को खाली देखता है तो वह बैकुंठ से पटक देता है । ऐसा अन्य लोग कहते हैं । होता क्या है कि जो ग्रैवेयक बना है लोक के नक्शा में कंठ की जगह पर बना है वह है वही अब, सो बैकुंठ बोलो, चाहे ग्रैवेयक बोलो । और बैकुंठ तक पहुँचने के बाद फिर जीव गिरता है । तो बैकुंठ में द्रव्यलिंगी मुनि भी उत्पन्न हो जाते हैं । तो वे 31 सागर तक वहाँं रह सकते हैं । 31 सागर बहुत बड़ा समय होता है । कितने ही कोड़ाकोड़ी साल उसमें आ जाते हैं । तो इतने वर्षों तक वे आनंद लूटते रहते हैं, और जब बहुत काल के बाद उनकी आयु का क्षय होता है तो फिर वे यहीं संसार में नीचे गिर जाते हैं । क्योंकि देव लोग जो हैं वे मरकर नीचे ही आते हैं और उससे ऊपर नहीं जाते हैं । और उससे ऊपर है अनुदिश और उससे ऊपर है सर्वार्थसिद्धि । तो वहाँ सर्वार्थसिद्धि नाम रूढ़ि से है । सर्वार्थसिद्धि यहाँ होती है कि जहां ज्ञानमात्र का अनुभव होता है ।
चिन्मात्र के उपयोग में सर्वसिद्धि की पद्धति―यह अचिंत्य शक्ति वाला आत्मदेव चिन्मात्र चिंतामणि है और वह जिसके उपयोग में आ जाता है वह सर्वार्थसिद्धि रूप बन जाता है । सर्वार्थसिद्धि का अर्थ है कि किसी भी प्रकार की इच्छा न रहना । जब चिन्मात्र आनंद समृद्ध अनुभूत हो गया, फिर अन्य पदार्थों के परिग्रह से क्या प्रयोजन रहा? बाह्यपदार्थों में किसी प्रयोजन से दौड़ लगाने से न ज्ञान मिलेगा और न आनंद मिलेगा । यदि ज्ञान मिल गया, स्वानुभव भी मिल गया, आनंद भी मिल गया तब और परिग्रह क्या चाहिए? किसकी जरूरत है? जिसको इस विशाल आत्मस्वरूप का परिचय नहीं हो पाता, उसको ही बाहरी पदार्थों में लगने की आकांक्षा रहती है । जिसको चिन्मात्र चिंतामणि अनुभूत हो गई उसे सर्वसिद्धि प्राप्त हो चुकी । अब अन्य परिग्रहों से उसे क्या प्रयोजन रहा? चिंतामणि अर्थात् चित्स्वभाव चैतन्य के विभिन्न अनेक परिणतियों का स्रोतभूत जो सहज आत्मस्वभाव है उसे कहते हैं चित्स्वभाव ।
आत्मा की ज्ञानपरिणति का अन्यत्र अभाव―भैया ! व्यर्थ कहते हो, हमने सब कुछ देखा, बाहर में सब कुछ देखा, क्या-क्या देखा, भींत, ईंट, पत्थर ये ना? इन्हें भी नहीं देखा । हम सदा काल अपने ज्ञेयाकार परिणमन को ही परमार्थत: जानते रहते हैं । चाहे किसी गति में हों, चाहे किसी स्थिति में हों, पर उस ज्ञेयाकार परिणमन का जो विषय बना सो विषयों के लोभ के कारण मोही पर को जानने व अपना मानने की कल्पना कर लेते हैं । अपने परिणमन को ही मैं जान पाता हूँ, ऐसे आत्मपरिचय से तो मोही जन चूक गये और जिसका लोभ लगा है उस पदार्थ में यह झुक गया, यह बड़े खेद की बात है । हम सदा अपने को ही जाना करते हैं ।
सर्वत्र निज के जानन की सिद्धि में दर्पण का दृष्टांत―जैसे दर्पण को देखकर हम पीठ पीछे के लोगों की हरकतों को बताते रहते हैं, अब यह आदमी उठा, अब उसने टांग उठाई, अब उसने हाथ उठाया । हम उस आदमी को नहीं देख रहे हैं, हम सिर्फ ऐना को देख रहे हैं पर यह ऐना उन आदमियों का सन्निधान पाकर उस-उस रूप से छायारूप परिणम रहा है, प्रतिबिंबरूप परिणम रहा है । हम उस प्रतिबिंब को ही देख रहे हैं और बखान कर रहे हैं उस पुरुष का । इसी प्रकार जगत के ज्ञेय पदार्थों को विषय करके हम जान रहे हैं, केवल इस आत्मपरिणमन को, ज्ञेयाकार अवस्था को । हम उस निज को, ज्ञेयाकार परिणमन को जानकर सर्व विश्व का बखान किया करते हैं, सो हमने और-और तो सब जाना पर जिस ज्ञानस्वभाव की व्यक्तिरूप यह ज्ञेयाकार बनता है और ये पदार्थ सब विषयभूत होते हैं, उस ज्ञानस्वभाव को हमने नहीं जाना । उस ज्ञानस्वभाव की अनुभूति होने पर फिर यह जीव सर्व अर्थों की सिद्धि कर लेता है ।
कृतकृत्यता का अर्थ―भगवान सिद्ध को कृतकृत्य कहते हैं । कृतकृत्य का अर्थ है कि कर लिया है करने योग्य काम जिसने अर्थात् जिसने सब काम कर लिया है उसको कहते हैं कृतकृत्य । तो उन्होंने आपकी दुकान भी चला लिया है क्या? नहीं चलाया । फिर वे कृतकृत्य कैसे? अरे कृतकृत्य तो उसे कहते हैं कि जिसने सब कुछ कर लिया । तो सब कर लेने का अर्थ यह नहीं है कि आपकी दुकान सम्हाल लिया, आपका आफिस सम्हाल लिया और सबका काम सम्हाल दिया उसे कहते हैं कृतकृत्य, यह नहीं है । कृतकृत्य का अर्थ है कि जिसे अब करने को कुछ रहा ही नहीं।
करने का विकल्प न होने का संतोष―भैया ! कर चुकने का यहाँ भी अर्थ यह है कि अब करने को कुछ रहा नहीं । आप मकान बना चुके और बना चुकने पर आप दो काम करते हैं―एक तो आप यह धारणा बनाते हैं कि मैं कर चुका । मैं काम पूर्ण कर चुका और दूसरे एक बड़े संतोष का अनुभव करते हैं । इन दोनों का रहस्य तो देखो कर चुकने का तो अर्थ यह है कि अब कुछ करने को नहीं रहा । आप मकान बना चुके इसका अर्थ यह है कि आपको मकान बनाने का काम अब नहीं रहा और काम अब नहीं रहा, इससे ही शांति का अनुभव रहता है । कुछ ईंटों से संतोष नहीं आ रहा है ।
चिन्मात्र चिंतामणि से सर्व अर्थ की सिद्धि―कोई ज्ञानी संत शुद्ध ज्ञान द्वारा कुछ बाह्य कार्य किए बगैर अपने आपमें शांति पैदा कर ले तो यह नहीं हो सकता है क्या? हो सकता है । अपने में यथार्थ ज्ञान प्रकट करो और उस यथार्थ ज्ञान से अपने को संतुष्ट बनाओ । उस ज्ञान से ही अपनी तृप्ति करो । यदि ऐसा कर सके तो इससे अलौकिक सुख प्रकट होगा । स्वयं ही अनुभव करोगे दूसरों से पूछने की जरूरत नहीं है । यह आत्मदेव अचिंत्य शक्तिवान् है, चैतन्यमात्र है । यही वास्तविक चिंतामणि है । यह प्राप्त हो गई तो सर्व कामों की सिद्धि हो चुकी । अब अन्य तुच्छ परिग्रह के संचय से कुछ लाभ नहीं होता है । ऐसे सर्व वैभवसंपन्न ज्ञानमात्र का अनुभवी ज्ञाता द्रष्टा ज्ञानी जिनेश्वर का लघुनंदन है और वही सर्व शाँति का पात्र है ।
ज्ञानी पुरुष परपदार्थों का ग्रहण नहीं करते अर्थात् किसी भी परपदार्थ को अपना नहीं मानते और न उन्हें रतिपूर्वक उपयोग में ग्रहण करते हैं । इस संबंध में यहाँ यह प्रश्न हो रहा है कि ज्ञानी पुरुष परपदार्थों का ग्रहण क्यों नहीं करते? तो उसका समाधान श्री कुंदकुंदाचार्य प्रभु करते हैं ।