वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 236
From जैनकोष
विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा ।
सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।236।।
ज्ञानप्रभावकता व विद्याओं में विद्या―जो जीव विद्यारथ पर आरूढ़ है वही मनुष्य जिनज्ञान का प्रभावक हो सकता है । प्रभावना करने के लिए लौकिक पद्धति भी ऐसी है जैसी कि कोई घोषणा करना हो, ऐलान करना हो तो रिक्शा में बैठकर, तांगा में बैठकर, रथ में बैठकर उसकी घोषणा करते हैं, ऐलान करते हैं । तो इसी तरह यह देखिए कि कोई जीव यदि निश्चय ज्ञान की प्रभावना करने को इच्छुक है तो उसकी पहिली प्रवृत्ति यह है कि वह विद्यारथ पर आरूढ़ हो अर्थात् विद्यावान बने । सर्व विद्याओं की विद्या है निज शुद्ध-आत्मतत्त्व की उपलब्धि रूप । लोक में अनेक विद्याएं हैं, रेडियो का आविष्कार किया है, उपग्रह छोड़े जा रहे हैं, और अनेक प्रकार के नवीन-नवीन आविष्कार बनते चले जा रहे हैं । इन आविष्कारों में क्या कम बुद्धि की आवश्यकता है? बुद्धि बहुत लगती है । उनका भी बहुत तीव्र विज्ञान होता है पर इतना बड़ा तीव्र विज्ञान कर लेने के बाद भी उनकी परिस्थिति को देखा जाये तो वे शांत नजर नहीं आते, क्योंकि उनकी दृष्टि परद्रव्यों की ओर है । वे पर जब तक व्यासंग में रहते हैं तब तक उस पर प्रायोगिक उपयोग है । पर की परिणति अपने आधीन तो है नहीं । पर का संयोग वियोग अपने आश्रय तो है नहीं, सो उसका वियोग हो, किसी भी प्रकार का परिणमन हो तो उसको देखकर यह जीव दुःखी होता है । सो सब विद्याओं में उत्तम विद्या है शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धिरूप । उस ही विद्यारथ पर आरूढ़ होता हुआ जो पुरुष अपने मन की वेगों को दूर करता है वही पुरुष जिनज्ञान का प्रभावक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
निदान की कलुषता―ख्याति, पूजा, लाभ, भोग इनकी जो इच्छा है यही हुआ निदान बंध । निदान बंध को बहुत कुत्सित परिणाम बताया है । आर्तध्यान के चार भेद हैं―इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदनाप्रभव और निदान । इन चारों में मुनिराज के तीन आर्तध्यान हो सकते हैं पर निदान नाम का आर्तध्यान नहीं होता है । तो समझो कि उन तीनों की वेदना से निदान की कितनी बड़ी वेदना है? कितना बड़ा निदान है?
निदान के नानारूप―निदान के अनेकरूप हैं । सबसे बड़ा रूप तो यह बताया गया है कि धर्मकार्य करके संयम, तप नियम करके परभव में इंद्र का पद, राजा महाराजा चक्रवर्ती का पद, बड़े आराम के साधन मिलें, ऐसी इच्छा बनाना सबसे विकट निदान बंध है । और साधारणतया ऐसा भाव बनाना कि परलोक में मुझे आराम मिले, आनंद की स्थिति मिले, सो यह भी निदान बंध है और इस भव में भी भविष्य की आगे की बात सोचना―बुढ़ापे में मुझे आराम के साधन मिलें, कुछ वर्षों बाद मेरी ऐसी बढ़िया स्थिति बन जाये कि ब्याज और किराये से ही सारा काम चलता रहे तो ऐसी इच्छा को भी निदान कहते हैं । और व्यवहारधर्म के बाह्य प्रसंगों की चाह करना, परभव में मेरा धर्मात्माओं का समागम रहे आदिक बातें सोचना यह भी तो निदान है, किंतु इसे शुभ निदान में शामिल किया है । बंध तो है ही । शुभ निदान की अपेक्षा चौथे गुणस्थानवर्ती जीव को भी निदान नाम का आर्तध्यान कह दिया गया है, पर मुनिराज के शुभ अशुभ किसी भी प्रकार का निदान बंध नहीं चलता है ।
निदान के अभाव में ही उन्नति व शांति―साधुजनों की कैसी उत्कृष्ट साधना है? उनकी केवल शुद्ध निज ज्ञायक स्वरूप में ही रुचि है । उनके यह निर्णय है कि इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप का श्रद्धान, आश्रय, आलंबन यही आत्मा का सर्व वैभव है । आनंद ही इस स्वभाव के आश्रय में बसा हुआ है । किसी भी परपदार्थ के अथवा परभाव के आश्रय से आत्मा में आनंद परिणमन नहीं होता । वे सब आकुलताओं के ही कारण हैं । कोई मनुष्य किसी भी परपदार्थविषयक किसी भी व्यवस्था की दृष्टि बनाए और आशा रखे कि बाह्य में ऐसी व्यवस्था बन चुकने पर फिर तो मेरा शेष जीवन आराम में और धर्म में व्यतीत होगा, यह सोचना व्यर्थ है । परपदार्थों पर दृष्टि दें और उनसे शांति की आशा रखें, यह त्रिकाल नहीं हो सकता है ।
निदान व मनोकामना की लहरों में संकटों का नाच―ज्ञानी पुरुष शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि रूप विद्यारथ में सवार होने के कारण दुःख के कारणभूत मनोरथ के वेगों को दूर करता है, नष्ट करता है । ये चित्त में जो कल्लोलें उठती हैं उन कल्लोलों से इस जीव को बड़े कष्ट हैं । सबसे बड़ा दुःख है इस मन वाले जीव को तो मानसिक दुःख है । भूख का तो दुःख थोड़ा सह भी लिया जा सकता है, कुछ साधारण भोजन पान मिले तो उसमें भी संतोष किया जा सकता है पर यह व्यर्थ का जो मानसिक रोग है―लोग मुझे बुरा न समझ लें, मेरी प्रशंसा और नामवरी रहे, ऐसा जो भयंकर विष लगा हुआ है जिस विषपान की प्रेरणा से यह जीव विनाशीक मलिन मायामय लोगों के बीच पर्याय का नाम स्थापित करना चाहता है । यह मनोरथ का वेग बहुत भयंकर दुश्मन है ।
मनोरथों के विजयी―इस चित्त की कल्लोलों को इस ज्ञानी ने बड़े मजबूत ध्यानरूपी शस्त्र से नष्ट किया । ध्यान कहलाता है शुद्ध ज्ञान को स्थिर बनाना । चित्त को एक ओर रोकने का नाम ध्यान है । उस चित्त का अर्थ है ज्ञान । जो भी ज्ञान किया जा रहा है एक पदार्थ-विषयक उस ज्ञान को स्थिर बनाए रहना इसका नाम है ध्यान । इस ध्यानरूपी शस्त्र से इन मनोरथ वेगों को ज्ञानी पुरुष नष्ट कर देता है । सो जिसने शुद्ध आत्मा का ज्ञान किया और सर्व प्रकार की इच्छाओं को जो कि भ्रमाने के कारण हैं उनको दूर किया, अपने मन की वेगों से राग-द्वेष की कल्लोलें उठ रही हैं उनको अपने ही ध्यानरूपी खड्ग से नष्ट किया वे ही पुरुष जन ज्ञान के प्रभावक सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं ।
वास्तविक प्रभावना―सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायक भाव स्वरूप है उसने अपने ज्ञान से समस्त शक्तियों को लगाकर, जगाकर अपनी पर्याय के अनुरूप अपने को विकसित किया, इसलिए वह प्रभावनाकारी जीव है । जैनधर्म की अथवा वस्तु विज्ञान की, मोक्षमार्ग की प्रभावना यह जीव रत्नत्रय तेज से ही कर सकता है । कहते हैं धर्म की प्रभावना करो । किसकी प्रभावना करना है? धर्म की । तो धर्म का जो स्वरूप है वह जीवों की समझ में आए, यही प्रभावना कहलायेगी । समारोह होना, उत्सव मानना, ये सब इस प्रभावना के सहकारी कारण हैं । ये स्वयं प्रभावना नहीं हैं । जिसकी प्रभावना करना है वह लोगों के चित्त में बैठे तो प्रभावना कहलाती है । प्रभावना करना है धर्म की । धर्म कहते हैं वस्तु के स्वभाव को । उपदेश के द्वारा अथवा साधु पुरुषों की मुद्रा के द्वारा जो जीवों पर यह छाप पड़ी, प्रभावना पड़ी कि अहो ! सब विकल्पों से पृथक् ऐसे साधु हैं, ऐसा ज्ञान और आनंद रह जाना ही धर्म का पालन है । यह बात जिन उपायों से प्रसिद्ध हो सके, बस उन ही उपायों के करने का नाम प्रभावना है ।
परमार्थप्रभावना वस्तुविज्ञान―जब तक जीव का यह वस्तुस्वरूप परिज्ञान में न आयेगा कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र अपनी सत्ता लिए हुए हैं और उन सबमें परिणमते रहने का स्वभाव पड़ा हुआ है, वे अपनी इस परिणमनशीलता के कारण निरंतर परिणमते रहते हैं । भले ही किसी पदार्थ के विकाररूप परिणमन में अन्य पदार्थ कुछ भी निमित्त हों और यह बात सच है कि किसी परपदार्थ का निमित्त पाये बिना विकारपरिणमन नहीं होता है । इतना संबंध होने पर भी वस्तु के चतुष्टय को देखो तो निमित्तभूत पदार्थों का न द्रव्य, न गुण, न पर्याय कुछ भी उसके प्रदेश से बाहर नहीं निकलता । किंतु ऐसा ही अद्भुत निमित्त-नैमित्तिक संबंध है कि योग्य उपादान अनुकूल निमित्त को पाकर स्वयं ही अपनी परिणति से विकाररूप परिणम जाते हैं । ऐसी वस्तु में रहने वाली स्वतंत्रता का उद्घोष जब तक अपने आपके हृदय में नहीं होता है तब तक समझो कि इन जीवों की दृष्टि में धर्म की प्रभावना नहीं उतरी ।
प्रभावना की अज्ञानविनाशपूर्वकता―अज्ञान अंधकार को दूर हटाकर जिनशासन की महिमा को प्रकट करना सो प्रभावना है । प्रभावना में सबसे मुख्य काम है अज्ञान अंधकार मिटाना । यह न मिटे तो प्रभावना क्या हुई? बड़ा समारोह किया, बड़ा शृंगार किया, सजावट की, जलूस निकाला तो इससे तो केवल यह प्रभावना होगी कि लोग यह जान जायेंगे कि समाज में पैसा बहुत है और ये खर्च भी दिल से करते हैं । उनको जो बात समझ में आयेगी उसकी ही तो उनके हृदय में प्रभावना कही जायेगी । हमें करना है यदि धर्म की प्रभावना ज्ञान की प्रभावना तो धर्म क्या है, ज्ञान का स्वरूप क्या है―ये बातें उतारने का प्रयत्न किया जाये ।
प्रभावनीय तत्त्वज्ञान―यह तो लोगों को एकत्रित करने का और किसी मूर्ति मुद्रा का दृश्य दिखाने का अवसर जोड़ता हुआ । यह भी ठीक है । इस अवसर में प्रभावना तब हो जब दर्शकों के चित्त में यह बात उतरे कि वस्तुओं का स्वरूप स्वतंत्र है । जीव और अजीव ये दो तत्त्व हैं । जब यह जीव ज्ञानस्वभाव में नहीं रहता है, किसी बाह्य पदार्थ को रुचिपूर्वक ग्रहण करता है तो वहाँ यह विह्वल हो जाता है, दुःखी होता है, संसार में घूमता है, उससे उपाधियों का कर्मों का आस्रव होता है, बंध होता है, और यह जीव इन सब परदृष्टियों से हटकर केवल ज्ञान प्रकाशमात्र अपने स्वभाव में अपने उपयोग को जोड़ता है तो इसके कर्म छूटते हैं, शांति मिलती है, परमविकास होता है । सारे विश्व को जान जाये, ऐसी जो ज्ञान में शक्ति पड़ी हुई है उस शक्ति का वहाँ विकास हो जाता है, इत्यादिक हित की बातें दर्शकों के चित्त में घर न कर पायें तो बड़ा समारोह करके भी धर्म की प्रभावना तो नहीं की, किंतु समाज की प्रभावना की । इस समाज के लोग बड़े पैसे वाले हैं, अपने मजहब के पीछे ये दिल जान से खर्च करते हैं । जो बात दर्शकों के चित्त में आयी प्रभावना उसकी कही जायेगी । दर्शकों के चित्त में धर्म ही उतरे तो धर्म की प्रभावना है, और उनके चित्त में केवल सजावट, शृंगार और खर्च ही उतरे तो इनकी ही प्रभावना है ।
ज्ञान की कला पर हमारे भविष्य की निर्भरता―प्रभावना के विषय में समंतभद्रस्वामी ने यह बताया है कि अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके फिर यथायोग्य जिनशासन का माहात्म्य प्रकट करना उसको ही प्रभावना कहते हैं । हम आपका अलौकिक वैभव ज्ञान है । सारे सुख दुःख आनंद इस ज्ञान की कला पर ही निर्भर हैं । हम इस ज्ञान से कैसा जानें कि सुख होने लगे और इस ही ज्ञान से कैसा जानें कि दुःख होने लगे । और इस ही ज्ञान से कैसा जानें कि सुख दुःख के विकल्पों से रहित होकर शुद्ध आत्मीय आनंद का अनुभवन करें? ये समस्त बातें अपने ज्ञान पर निर्भर हैं । कहाँ है यह ज्ञान? अपने में ही तो है और अपने ही आधीन है। हम उस प्रकार के जानने में तुल जाएँ जिस प्रकार के जानने से मोक्षमार्ग मिलता है तो क्यों न मिलेगा मोक्षमार्ग? हम ऐसे ज्ञान पर तुल जाएँ कि जिससे शांति ही मिलती है तो क्यों शाँति न मिलेगी? पर हम ही स्वच्छंद होकर पुण्य के उदय से पाया है ना अच्छा शरीर, पुण्य के उदय से पाया है ना धन और इज्जत, तो उसको पाकर हम अपने आपके स्वरूप को भूल जाएं और परपदार्थों में ही कुछ से कुछ विकल्प बनाकर वहाँ ही कुछ का कुछ परिणमन चाहने की धुन रखें तो उसमें शाँति नहीं प्राप्त होती । इस संबंध में यदि और अधिक न बन सके तो कम से कम इतना तो ध्यान रखते रहें कि ये सब मेरी त्रुटियाँ हैं, और अधिक न बन सके तो इतना चित्त से न भुलावें, हम गृहव्यवस्था करते हैं तो आत्मा के नाते, यह भी मेरी त्रुटि है । हम धनार्जन करते हैं तो यह भी आत्मा के नाते से त्रुटि है । हम लोगों में एक पोजीशन से या शान से रहते हैं यह भी आत्मा के नाते से त्रुटि है । हमारी बाहर की जितनी भी चेष्टाएँ हैं वे सब चेष्टाएं आत्मा के नाते से त्रुटियां हैं । इतनी बात ध्यान में बनी रहती है तो हम सुधार के मार्ग पर हैं । हम भूले हुए तो नहीं कहलाये ।
सर्वोत्कृष्ट प्रवृत्तियों में भी अनात्मवृत्तिपने का साधु के विश्वास―साधुजन जो उच्च विकास के होते हैं वे साधुपद के योग्य क्रियाएं करके भी सामायिक किया, दर्शन किया, वंदन किया, समितियों का पालन किया, जो उनके और गुण हैं उन सब गुणों का निर्वाह किया, इतना करने पर भी अंतर में वे समझते हैं कि आत्मा के नाते से ये सब मेरी त्रुटियां हैं । कितना है उनके स्पष्ट ज्ञान? आगे खड़े होकर, हाथ चलाकर, पिछी सिर पर रखकर घुमाना क्या यह आत्मा का कोई गुण है? आत्मा का कोई स्वाभाविक परिणमन है? नहीं है । नहीं है तो क्या यह त्रुटि नहीं है? यह उच्च ज्ञानी साधुओं के ज्ञान की विशेषता की बात बतला रहे हैं । जिसको व्यवहार में साधु भी समझते हैं और करते हैं । करते हुए भी यह जानते हैं कि आत्मा के नाते से ये दर्शन, वंदन, स्तवन, समिति पालन, ये सारी प्रवृत्तियाँ आत्मा के नाते में नहीं बसी हुई हैं, किंतु इन प्रवृत्तियों से भी रहित आत्मतत्त्व की उपलब्धि करने के लिए इन प्रवृत्तियों को करते हैं ।
सम्यग्दृष्टि के आत्मशक्तियों का प्रबोध―वस्तुस्वरूप का यथार्थ निर्मल परिज्ञान होना और उसके अनुकूल भावना बनाकर निज शुद्ध ज्ञानस्वभाव में उन्मुख होना, यही है प्रभावना । ज्ञानी जीव चूंकि अपने को एक ज्ञायकस्वरूप निश्चल मानता है इसलिए समस्त शक्तियों को वह जगा देता है । अपनी आत्मशक्तियों का विकास एक ज्ञानस्वभावी आत्मतत्त्व को दृष्टि में लेने से स्वयमेव हो जाता है । धर्म के लिए हम बाह्यपदार्थों पर दृष्टि दे देकर धर्म का संचय करना चाहें तो यह न हो सकेगा किंतु धर्ममूर्ति एक निज शुद्ध ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करें और तन्मात्र अपना विश्वास बनाएँ तो इस शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना के प्रताप से परमार्थ में भी धर्म का पालन है और उसकी जो भी तन मन वचन की चेष्टाएँ होंगी वे इस धर्म के अनुकूल होंगी ।
ज्ञानस्वभावभावनारूप प्रभावना का उत्तम परिणाम―प्रभावना वास्तव में अपने अज्ञान अंधकार को दूर करना ही है । जो जीव ऐसे अपने ज्ञान की प्रभावना करता है उस जीव के इस जाति का बंध नहीं होता है । ज्ञान की जो प्रभावना नहीं कर रहे हैं ऐसे जो जगत के अनंत जीव हैं, वे जो बंध करते हैं वह बंध इस सम्यग्दृष्टि के नहीं होता, किंतु उसके उपयोग में ज्ञानस्वभाव की प्रभावना बनी हुई है इसलिए निर्जरा ही होती है । सीधा तात्पर्य यह है कि हम अपने को सेठ हूँ, मनुष्य हूँ, पंडित हूँ इत्यादि रूप न निरखकर केवल एक ज्ञान प्रतिभासमात्र हूँ ऐसी भावना बने तो अपने में ज्ञान की प्रभावना होती है और कर्मों की निर्जरा होती है ।
ज्ञानी जीव के निर्बंधता―यह प्रकरण निर्जरा का है । कर्म न आयें और कर्म खिरें ऐसी निर्जरा से मोक्ष का मार्ग मिलता है । और जो कर्म खिर रहे हैं उन्हीं के ही निमित्त से नवीन कर्म आ जायें तो उसे मोक्षमार्ग की निर्जरा नहीं कहते हैं । जो कर्म बंध गए हैं वे खिरेंगे तो अवश्य, पर अज्ञानी जीव के ऐसा उदय में आता है कि जिससे और नवीन कर्मों को बाँध लेता है । किंतु ज्ञानी जीव के उदय तो होता है पर उदयकाल में अज्ञानमयता का पुट न होने से वह नवीन कर्मों का सम्वरण नहीं करता । यह द्रव्यानुयोग का प्रधान कर्तव्य है । इसमें जो बंध हो भी रहा है उस बंध की गौणता की गई है । करणानुयोग में तो जहाँ थोड़ा भी बंध हुआ उसे बंधरूप स्वीकार करके कथन चलता है किंतु इस द्रव्यानुयोग ग्रंथ में जो संसार का प्रयोजक है, जो संसार की परंपरा बढ़ाने का कारणभूत है उसे बंध कहा है । वह बंध ज्ञानी जीव के नहीं होता है इसलिए निर्बंध है ।
निवृत्तिपरक प्रवृत्ति―जैसे कोई पुरुष तेज दौड़ लगा रहा हो, और दौड़ लगाते हुए में उसे यह ज्ञान आ जाये कि हम रास्ता भूल गए हैं । भूल गया वह रास्ता, और इस ज्ञान के होते ही कि हम भूल गए इसके बाद भी कुछ दूर तक शिथिल रूप में दौड़ता तो है पर दौड़ना हटने का अभिप्राय लगा हुआ है । इसी प्रकार ज्ञानी जीव के भी उदय भाव बंध ये चलते भी रहते हैं कुछ पदों तक किंतु वे सब हटने का भाव लिए हुए हैं ।
शुद्धात्मभावना भावनिर्जरा का उपादान कारण―ऐसी सम्वर प्रयोजक जो भावनिर्जरा है उसका उपादान कारण क्या है, उसका इन अंतिम गाथाओं में वर्णन है । यह जो 8 अंगों का वर्णन चला है यह निश्चय की मुख्यता से चला हुआ वर्णन है । अपने आत्मा के विशुद्ध परिणामों को जगाता हुआ, उन्हीं को लक्ष्य में लेता हुआ वर्णन है । तो भावनिर्जरा का उपादान कारण क्या है? शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना ।
आद्य चार अंगों का उपादान―नि:शंकित अंग में शंका नहीं रहती है । निर्भयता हो गयी उसका कारण क्या? शुद्ध आत्मतत्त्व की दृष्टि इस ज्ञानी जीव के जगी । मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, समस्त परपदार्थों के सत्त्व से अछूता केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ, ऐसी दृष्टि जगे तो नि:कांक्षित अंग प्रकट होता है । उसमें विभावपरिणामों की वांछा न रही तो इसका कारण क्या है कि उसे शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप का परिचय हुआ है । निर्विचिकित्सा अंग में अब वह इन्हीं विभावपरिणामों के कारण अंतर में म्लान नहीं होता । जैसे बुझा दिल सा । कुछ मार्ग न सूझे, कायर बन जाये, कर्तव्यविमूढ़ हो जाये, ऐसी स्थिति न उत्पन्न हो, उसका कारण है यही शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना । इसी प्रकार अमूढ़दृष्टि अंग में वह कुधर्मों में मोहित नहीं होता । उसका कारण है कि उसे अपने शुद्ध स्वभाव का परिचय मिल चुका है और दृढ़ निर्णय है कि हित का मार्ग है तो इस ही सहज ज्ञानस्वरूप का आश्रय है ।
उपगूहन अंग का उपादान―उपगूहन अंग में जो धर्मात्मा जनों से ईर्ष्या नहीं होती है उनके अवगुणों को मौजूद हो अथवा न हो, प्रसिद्ध नहीं करता है, और ऐसा यत्न करता है कि उन धर्मात्मा पुरुषों में भी ये अवगुण नहीं रहे, ये सब किसके प्रताप से हो रहे हैं? उसका कारण है कि उसे अपने आपके शुद्ध स्वरूप का परिचय मिला है । ईर्ष्या तो तब होती है जब स्वयं में पर्यायबुद्धि हो । ऐसी दृष्टि हो कि इससे मेरा बिगाड़ है, अथवा इसके बढ़ने से हमारा उत्कर्ष न रहेगा । तो पर्याय में जिसको आत्मबुद्धि है वह ही पर्याय को ‘यह मैं, यह मैं’ ऐसा लक्ष्य में लेकर ईर्ष्या किया करता है । ज्ञानी जीव के धर्मात्माजनों से ईर्ष्या नहीं होती है । तब वह दोषों को क्यों लोक में प्रकट करेगा और इस शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना के कारण ऐसा उत्साह जगा रहता है कि समस्त अपनी आत्मशक्तियों को जगाये बना रहता है ।
अंतिम तीन अंगों का उपादान―इसी तरह स्थितिकरण अंग में यह अपने आपको रत्नत्रय मार्ग में लगाये रहता है । कदाचित् कर्मोदय से कुछ अपने मार्ग से च्युत भी हो रहा हो तो भी च्युत नहीं हो पाता । उस वातावरण में शीघ्र ही अपने ज्ञानबल का आश्रय लेता है और अपने को धर्ममार्ग में स्थापित करता है । यह किसका प्रताप है? शुद्ध आत्मतत्त्व के परिचय का प्रताप है । अपने गुणों में वात्सल्य होना; अपने शुद्ध ज्ञान चारित्र के विकास में रुचि जगना―ये बातें भी तो इस शुद्ध ज्ञायक स्वरूप के परिचय से बनी हैं । वह अपने को प्रभावित करता है, ज्ञानादिक के विकास से उन्नतिशील करता है, इसका भी कारण शुद्धज्ञायक स्वरूप का परिचय है । यों 8 अंगों का निश्चयदृष्टि से इसमें वर्णन किया है ।
सम्यग्दर्शन के व्यावहारिक अंग―एक बात और इन्हीं सब लक्षणों में साथ-साथ झलक जाती है कि इस निश्चय परिणाम का साधक व्यवहार परिणाम भी है । निश्चयरत्नत्रय का साधक व्यवहाररत्नत्रय है । उस व्यवहाररत्नत्रय में भी शुद्ध जो सराग सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनमें भी ये सब लक्षण घटित करते जाना चाहिए । सराग सम्यग्दृष्टि हो, वीतराग सम्यग्दृष्टि हो उसमें जो अपने मोक्षमार्ग को प्रेरणा मिलती है वह शुद्ध ज्ञानमय आत्मस्वरूप के परिचय से मिलती है । उस सम्यग्दृष्टि के राग है इसलिए उसे सराग सम्यग्दृष्टि कहते हैं । राग होने पर कुछ न कुछ विकल्प होना अवश्यंभावी है, क्योंकि राग का फल ही है कि कुछ विकल्प बनें । यदि सराग सम्यग्दृष्टि जीव के कोई धर्ममार्ग में चलते हुए विकल्प बनते हैं तो किस प्रकार के व्यवहाररूप 8 अंगों के विकल्प बनते हैं? सो सुनिये ।
सम्यग्दृष्टि का व्यवहार निःशंकित अंग―सम्यग्दृष्टि को यह दृढ़ निश्चय है कि जिनेंद्रदेव के परमागम में जो कुछ वर्णन किया गया है वह पूर्ण सत्य है । चाहे उन वर्णनों का वर्णन न जान सकें, मगर मूलभूत श्रद्धा उसके रहती है । इस श्रद्धा के होने का मोटे रूप में क्या कारण है? इस ज्ञानी जीव ने सर्वज्ञ स्वरूप का, 7 तत्त्वों के विषय में जिसमें कि युक्तियां चलती हैं, अनुभव काम देता है, पूर्ण निर्णय किया है कि 7 तत्त्वों का स्वरूप इस ही प्रकार है । अभी स्वर्गों का वर्णन किया जाये तो वह सही वर्णन है, इसके जानने का आपके पास क्या प्रमाण है? सिवाय आगम में लिखा है इतना ही प्रमाण है । प्रत्यक्ष नहीं दिखता कि स्वर्ग और नरक कहाँ हैं? युक्ति भी कोई समझ में नहीं आती है? कोई वहाँ गया हो और आया हो, वह बात करता हो तो उसका कुछ विशेष अनुमान बने । जैसे कि अभी रूस और अमेरिका नहीं गए, फिर भी निश्चय तो है कि वे हैं । क्या इस ढंग से स्वर्ग और नरक का भी निश्चय है ? नहीं । इस प्रकार का प्रमाण आगम के सिवाय और कुछ नहीं मिलता, लेकिन इस आगम की प्रमाणता से स्वर्ग और नरक का निर्णय करने का प्रमाण उसके पास दृढ़ है ।
स्वर्गादि परोक्षपदार्थों के कथन में सत्यता के विश्वास का कारण―इसकी दृढ़ता का कारण यह है कि सर्वज्ञ निरूपित 7 तत्त्वों के बारे में पूर्ण निर्णय किए है कि यह कथन सत्य है । जो चीज अनुभव में उतर सकती है, प्रयोजनभूत है वह कथन जब रंच भी असत्य नजर न आया और उनके अतिरिक्त चरणानुयोग या नाना प्रकार की पद्धतियां, जब उनमें असत्यपना नजर न आया तो सर्वज्ञदेव द्वारा निरूपित ऐसे पदार्थ जो हमारी दृष्टि से अत्यंत दूर हैं, जिनमें हमारी इंद्रियाँ काम नहीं देती, वे सब भी पूर्ण सत्य ही हैं, क्योंकि जिन ग्रंथों में प्रयोजनभूत तत्त्वों का ऐसा स्पष्ट सत्य वर्णन है उनका अन्य परोक्षविषयक कथन भी सत्य है । ऐसे सत्य के प्रणेता रागद्वेष रहित वीतराग ऋषिसंतों को, सर्वज्ञ देवों को ऐसी क्या पड़ी है जो झूठमूठ लिख दें । ऐसा नहीं हो सकता । इस कारण स्वर्ग नरक तीनों लोक इन सबकी रचना भी पूर्ण प्रमाण है । निःशंकित अंग में यह व्यावहारिक रूप से कथन किया जा रहा है कि ज्ञानी जीव को जिनेंद्र वचन में रंच शंका नहीं होती।
पर के अयोग्य वचन देखकर भी सर्वज्ञ कथन में शंका का अभाव―किन्हीं ग्रंथों में ऐसा भी लिखा मिल सकता है जो कि एक व्यर्थ जैसी बात हो क्योंकि ग्रंथ तो बाद में अनेकों ने लिखे हैं । जो विधि से खिलाफ हो, और अपने को झूठ जंच जाये तो उस ज्ञानी के मन में यह नहीं आता कि देखो सर्वज्ञदेव ने झूठ भी बता दिया, किंतु मन में यह आता है कि यह उनकी परंपरा का वचन नहीं है । यह किसी ने बीच में जोड़ दिया है, लिख दिया है; पर सर्वज्ञ के वचनों में रंच शंका हो जाये ऐसा ज्ञानी जीव का भाव नहीं है ।
भोगों में इच्छा का अभावरूप नि:कांक्षित अंग―नि:कांक्षित अंग में भोग विषयों की वांछा नहीं है । ठीक है, किंतु वांछा 2 तरह से होती है । एक तो होती है लगकर, सोचकर, अंतर में अनुराग करके, और एक वांछा होती है उदयवश, परिस्थितिवश । सो ऐसे ज्ञानी को सोचिये जो गृहस्थी में रह रहा है, क्या उस गृहस्थ ज्ञानी के कोई इच्छा ही नहीं पैदा होती? व्यापार चल रहा है, लेन-देन हो रहा है, इतनी बड़ी व्यवस्था बन रही है, भोजन बना रहा है, दूसरों को जिमा रहा है, खुद जीम रहा है, दूसरों को जीमने के लिए बुला रहा है, कितनी तरह की सुरक्षा की बातें कर रहा है, क्या ये सब बिना इच्छा के हो रही हैं? इच्छा तो है उस गृहस्थ ज्ञानी में, पर एक भी ऐसी इच्छा अंतरंग में नहीं है कि मैं ऐसा कर लूं तो सदा के लिए सुरक्षित हो जाऊँगा, इसके बाद फिर मुझे कोई झंझट नहीं रहेगी इत्यादिक भाव उसके नहीं है, उसके तो ऐसा भाव है कि मुझे यह करना पड़ता है, मेरे करने योग्य काम तो अपने आत्मा को निर्विकल्प समता रस से परिपूर्ण आत्मीय आनंद से तृप्त होने का था, पर उदय और परिस्थिति ऐसी है कि ये सब कार्य करने पड़ते हैं । सो एक तो अंतर में से इच्छा नहीं जगती ।
धर्म के फल में भोग की इच्छा का अभाव―दूसरी बात यह है जैसे कि छहढाला में लिखा है वृष धारि भवसुख वांछा भाने । धर्म को धारण करके संसार के सुखों को न चाहना । जिसको संसार के सुखों में आसक्ति है वह इंद्रिय सुख की ओर ही दृष्टि लगाता है । धर्म भी करता है तो उससे सांसारिक सुख मिलता है ऐसी श्रद्धा से करता है । मंत्र जपे, तंत्र करे, पूजन करे, विधान करे, त्याग करे, दान करे और-और भी बड़े-बड़े धार्मिक कार्य करे, जो भी कार्य वह करता है, इस आशा से करता है कि इससे हमें पुण्य मिलेगा, सांसारिक सुखों का समागम मिलेगा । ऐसी बात ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होती है ।
व्यवहार निर्विचिकित्सित अंग का पालन―इस प्रकार निर्विचिकित्सक अंग में सराग सम्यग्दृष्टि जीव का निर्विचिकित्सक अंग का पालन इस रूप होता है कि कोई धर्मात्मा जो रत्नत्रय का अनुरागी है, आत्मस्वरूप का रुचिया है, केवल एक आत्महित की ही धुनि जिसने बनायी है ऐसे पूज्य ज्ञानी संतों की सेवा करते हुए में कोई अपवित्रता मल आदिक की स्थिति हो जाये―जैसे कि कथा में प्रसिद्ध है कि एक देव ने परीक्षा की थी उद्दायन राजा की कि देखें तो सही कि इसके निर्विचिकित्सक अंग है या नहीं । सो उसने साधु का रूप धरकर वमन कर दिया, फिर भी उद्दायन राजा ने ग्लानि नहीं की । यह तो बहुत दूर की बात है, पर सेवा करते हुए में शरीर से कोई दुर्गंध आती हो, मल चलता हो, ऐसी भी शरीर की स्थिति हो तो भी ग्लानि न करना चाहिए । और तो जाने दो, शरीर की चमड़ी कड़ी हो जाती है, फट सी जाती है, ऐसे शरीर में सेवा करते हुए में हाथ फेरने में कोई लोग कष्ट का अनुभव करते हैं, पर कैसी भी स्थिति हो, धर्मात्मा पुरुषों की सेवा करते हुए में कष्ट नहीं मानना चाहिए, ग्लानि न करना चाहिए । यह रूप ज्ञानी पुरुष का व्यावहारिक निर्विचिकित्सा अंग के पालन में होता है ।
व्यवहार अमूढ़दृष्टि अंग का पालन―चौथा अंग है अमूढ़दृष्टि । इस अमूढदृष्टि अंग के पालन में सराग सम्यग्दृष्टि जीव का कैसा व्यावहारिक परिणमन है, लोक में अनेक तांत्रिक मांत्रिक संन्यासी बड़े-बड़े चमत्कार वाले पुरुष, जैसे कि आजकल इसकी प्रथा ज्यादा सुनी जाती है कि कोई 48 घंटे की समाधि लगाता, कोई 24 घंटे की समाधि लगाता, कोई 12 घंटे की समाधि लगाता और वे अपना प्रदर्शन भी करते हैं, लोग जुड़ते हैं, बड़े ऑफीसर उन्हें देखते हैं, उनकी प्रशंसा करते हैं । ऐसे चमत्कारों को देखकर भी इस ज्ञानी पुरुष का चित्त विचलित नहीं होता है कि मुझे भी यही चाहिये, सत्य बात यही है और तिरने का उपाय भी यही है, कल्याण का मार्ग भी यही है । ऐसा भाव ज्ञानी पुरुष के नहीं जगता है ।
अमूढ़दृष्टि के अंतर्विचार―जो कुछ है, देख लिया, जान लिया, सुन लिया, पर हित के संबंध में तो उसका यह निर्णय है कि आत्मस्वरूप का परिज्ञान होना, विश्वास होना और उस ही शुद्धस्वरूप में रमना, इन प्रक्रियाओं को छोड़कर मोक्ष का कल्याण का शुद्ध आनंद का कोई दूसरा उपाय नहीं है । ऐसे सराग सम्यग्दृष्टि जीव को इन प्रसंगों को देखकर भी दृढ़ निर्णय रहता है । वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव के तो ये सब पालन एक निश्चयमार्ग से अपने आपके शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना में चलता रहता है । व्यावहारिक रूप आता है तो अनुराग जगने पर आता है । वीतरागता के भाव में यह व्यावहारिक रूप नहीं आता है ।
व्यवहार उपगूहन अंग का पालन―उपगूहन अंग में इस सराग सम्यग्दृष्टि जीव का ऐसा व्यवहार है कि वह धर्मात्मा पुरुषों के दोषों को अर्थात् धर्म के दोषों को नहीं प्रकट करता है । धर्म और धर्मी कोई भिन्न-भिन्न जगह नहीं होती है । सो धर्मी के दोष को जनता में प्रसिद्ध नहीं करता है अर्थात् धर्म को लांछित नहीं करता है । और इसके उपाय में कितनी ही विधियाँ करनी पड़ती हैं उन्हें भी वह करता है । जैसे प्रथम तो यह है कि धर्मात्माजनों में कोई दोष हो, न हो उसे तो जानकर कहता ही नहीं है पर दोष हो भी, तो भी उसे जनता में प्रसिद्ध नहीं करता और उन्हीं साधुजनों को एकांत में कहता है, उन्हीं से निवेदन करता है ।
सर्वथा अयोग्य दोष होने पर समाज का कर्तव्य―किसी के दोष ऐसा प्रबल हो जाये कि व्यवहारधर्म भी बिगड़ रहा हो ऐसी परिस्थिति में, और अनेक बार समझाया जाने पर भी वह नहीं छोड़ता है अवगुण तो ऐसी परिस्थिति में वह सबके बीच सम्मति करके निर्णय करता है, एक अंतिम परिणाम घोषित कर देता है, यह मेरा साधु नहीं है ऐसा जनता को पता हो जाये और इसके बाद फिर उनकी निंदा चले या अटपट प्रवृत्ति चले तो उससे जनता में यह प्रभाव न हो सकेगा कि इनके धर्म में ऐसा ही देखा जाता है । हम उन्हें अपना साधु मानें, धर्मात्मा मानें ऐसा जनता समझे और फिर दोष हो तो जनता यह कह सकेगी कि इनके धर्म में ऐसा ही होता है । इसलिए धर्म के लांछन को दूर करने के लिए धर्मात्मा पुरुषों के कितने ही प्रकार से यत्न होते हैं पहिले छोटा यत्न फिर मध्यम यत्न । जब वश का ही नहीं रहा कुछ तो अंतिम यत्न यह है कि साधु की अयोग्य परिस्थिति हो जाये तो उन्हें अलग कर देना, बहिष्कार कर देना, किंतु इसे प्रकट देना । जैसे कहीं-कहीं सुना जाता है कि किन्हीं साधु को कपड़े पहिना दिया । ये विधियां भी कभी करनी पड़ें तो यह भी उपगूहन अंग में शामिल है । धर्म में दोष है ऐसा जनता न समझ सके ऐसे प्रयत्न को कहते हैं उपगूहन ।
वात्सल्य और प्रभावना का व्यावहारिक पालन―वात्सल्य में यह सम्यग्दृष्टि धर्मात्माजनों में निश्छल वात्सल्य रखता है, सेवा करता है और प्रभावना अंग में उत्सवों द्वारा, समारोहों द्वारा कितनी ही प्रकार से पाठशालाएँ खुलवा कर ज्ञान दान देकर जैन शासन की प्रगति करता है । सराग सम्यग्दृष्टि के अनुराग के फल, ऐसा व्यवहार होता है, सो ये समस्त व्यवहार रत्नत्रय है । यह व्यवहार अंग का प्रयोग निश्चय अंग का साधन है, बाधक नहीं । जितने भी निश्चयधर्म में प्रतिकूल भाव हैं वे व्यवहारधर्म नहीं हो सकते । और जो ऐसे हमारे व्यवहारधर्म हैं जो निश्चयधर्म की साधना का अवसर देते हैं वे सब व्यवहारधर्म हैं । यों अष्ट अंगों का इसमें वर्णन किया है । इस प्रसंग में अब व्यवहार और निश्चय के संबंध में प्रश्नोत्तर है, इसको फिर कहेंगे ।
निश्चयनय से तत्त्व की दृष्टि―यदि जैन मत के रहस्य को प्राप्त करना चाहते हो व्यवहारनय और निश्चयनय इन दोनों के मत को न छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनय छोड़ने से तो तीर्थ नष्ट हो जायेगा और निश्चयनय छोड़ने से तत्त्व ही नष्ट हो जायेगा । निश्चयनय वस्तु के सहज स्वरूप की दृष्टि कराता है और जैसा सहजस्वरूप मात्र अपने को रहने में कल्याण है, जिसका शुद्ध विकास अंतिम साध्य है उसको निश्चयनय लक्ष्य में कराता है तो निश्चयनय का विषय ही न ज्ञात हो, निश्चयनय को छोड़ दिया जाये तो तत्त्व ही क्या रहा?
व्यवहारनय से तीर्थ की प्रवृत्ति―अब निश्चयनय के तत्त्व को ज्ञान से तो जान लिया, अब जो जाना गया तत्त्व है उस तत्त्व में स्थिर होना है अथवा यों कहो कि जैसा है वैसा ही जानते रहना है तो इस स्थिति को करने की जीव में वर्तमान पर्याय में सामर्थ्य है नहीं, अनादि से कषायों का संस्कार चला आ रहा है, उनकी वासनाएं इसको इस शुद्ध तत्त्व की दृष्टि से विचलित कर देती है, इस जीव का उपयोग विविध आश्रयों में घूमता रहता है । ऐसी स्थिति वाले ज्ञानी पुरुष को अब क्या करना चाहिए जिससे निश्चयनय से ज्ञात किए हुए तत्त्व पर इसकी स्थिरता हो सके । तो उसके लिए इन शब्दों में कर्तव्य कह लीजिए कि जो फंसाव इसके हो गए थे उन फंसावों से अलग होना चाहिए । फंसावों से अलग होना एकदम बन नहीं पाता है सो उन्हें कम करना चाहिए । फंसाव हैं विषय और कषाय के । विषय और कषायों से बचने के लिए जो अनुकूल कार्य किए जाते हैं उन्हीं का ही नाम व्रत और संयम है । यही व्यवहारधर्म है । इससे तीर्थ की प्रवृत्ति होती है ।
व्यवहारनय के त्याग से तीर्थ के उच्छेद की प्रसक्ति―यह पुरुष चले नहीं तो बड़ी अच्छी बात है, और अगर चले तो अपने को जीवों को सबको भूलकर क्या अटपट चलना चाहिए? नहीं । अपनी भी सावधानी, दूसरे जीवों की भी दृष्टि रखकर समितिपूर्वक चलना चाहिए । यह वृत्ति ज्ञानी के बनती है इस ही का नाम तो व्रत है, व्यवहारधर्म है । राग उठता है इस ज्ञानी जीव के; तो क्या उस राग से परिवार के, कुटुंब के विषयों के पोषण में ही लगना चाहिए? नहीं । राग उठता है तो ऐसी जगह राग लगाओ कि जहाँ अपने स्वरूप के दर्शन की अपात्रता न हो । जैसे जो सिद्ध हुए हैं और जो सिद्ध होने के प्रयत्न में लग रहे हैं ऐसे जो परमेष्ठी हैं उनका अनुराग आ जाये, उनकी भक्ति में लगें, यही तो काम करने में आ पड़ता है ज्ञानी को, यही व्यवहारधर्म है । तो व्यवहार धर्म को यदि छोड़ दें तो तीर्थ सब समाप्त हो जाएं अर्थात् तिरने का उपाय खत्म हो जाये । तत्त्व में स्थिर होने का मार्ग नष्ट हो जायेगा इसलिए व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म इन दोनों को न छोड़ना चाहिए ।
व्यवहारों की नानारूपता―जब तक जैसी बुद्धि है, योग्यता है तब तक उस प्रकार का व्यवहार है । व्यवहार भी पदों की अपेक्षा नाना प्रकार के चलते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि का व्यवहार प्रवर्तन और श्रावक का, मुनि का व्यवहार प्रवर्तन जुदा-जुदा है और जो श्रेणी में स्थित हैं ऐसे साधुजनों को जब तक कि रागभाव है उनका प्रवर्तन, व्यवहार और प्रकार का है । फिर जब रागभाव समाप्त हो जाता है, निष्कषाय परिणमन ले जाता है ऐसे प्रभुओं का व्यवहार प्रवर्तन शुद्ध विकास रूप ही है । तो इन दृष्टियों से देखा जाये तो जो द्रव्य हैं वे सब व्यवहार में हैं । जीवद्रव्य को देखा जाये तो यावत् जीव है, वे सब व्यवहार में है, परंतु व्यवहार पदवियों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार का है । और पहिले पद का व्यवहार छूटता जाता है, फिर आगे बढ़ने पर उस पद का भी व्यवहार छूट जाता है । इस तरह से यह व्यवहार छूटता जाता है, अंत में शुद्ध ज्ञाताद्रष्टामात्र व्यवहार रहता है ।
प्रभु का व्यवहार―प्रभु के व्यवहार के संबंध में हम ऐसी चर्चा किया करते हैं कि केवली भगवान निश्चय से तो स्व को जानता है और व्यवहार से पर को जानता है । ऐसा जानने के संबंध में निश्चय और व्यवहार वाली बातें केवली भगवान में ही नहीं है, हम भी, आप भी निश्चय से स्व को जानते हैं और व्यवहार से पर को जानते हैं । अंतर यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव तो जिस रूप में स्व को जानता है उस ही रूप में जानता है और प्रभु जैसा रूप प्रभु में है उस रूप में जानता है । परपदार्थों का जानना उपचार से ही कहा जाता है, अर्थात् इस दृष्टि से इन बातों को लेना है कि कोई भी जीव परपदार्थों में तन्मय होकर अर्थात् पर का परिणमन और अपने परिणमन को एक करके नहीं जानता है इसलिए पर का जानना व्यवहार से कहा है । तो जहाँ इससे भी और मोटे किंतु टेढ़े व्यवहार लगे हैं वहाँ उन सर्वजीवों के विषय में इस जानन संबंधी निश्चय-व्यवहार को न बताकर प्रभु के संबंध में जानन का निश्चय-व्यवहार बताया जाता है ।
सर्व पदार्थों में निश्चय-व्यवहारमयता―भैया ! व्यवहार तो जब तक द्रव्य है तब तक चलता है, पर ज्ञानी जीव की प्रवृत्ति ऐसी होती है कि वह परमार्थ से तो निश्चय का ही आश्रय लिए है, और उपाय में यथायोग्य व्यवहारधर्म का आलंबन लिए है, पर उससे ऊंची वृत्ति जगने पर उस व्यवहार से भी परे हो जाता है । इस प्रकरण में यह बताया जा रहा है कि दोनों को समझो और जहाँ जैसी पदवी है, जहां जैसी स्थिति है उसके अनुरूप निश्चयमार्ग में बढ़कर बाह्य और व्यवहारनय के आश्रय को तजिए । यह सब संवरपूर्वक निर्जरा बताई गयी है ।
निश्चयमार्ग में बढ़ने पर पूर्व-पूर्व व्यवहारमार्ग का त्याग―इस सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्धआत्मा का सम्यक् श्रद्धान करना, ज्ञान करना―अनुष्ठान करना इस रूप निश्चयरत्नत्रय के प्राप्त होने पर निश्चयरत्नत्रय का लाभ होता है और वीतराग जो धर्मध्यान, शुक्ल ध्यान है, जहाँ कि शुभ और अशुभ सर्व प्रकार की बाह्य वस्तुओं का आलंबन नहीं है, ऐसी निर्विकल्प समाधि होने पर निश्चयरत्नत्रय के मध्य परमसमाधि का लाभ होता है । जीव की ऐसी स्थिति में जहाँ किसी भी परजीव विषयक राग न हो, किसी परद्रव्यविषयक विकल्प न हो, केवल आत्मीय ज्ञानानंदरस से छका हुआ हो, जो समाधि होती है वह समाधि अत्यंत दुर्लभ है ।
निगोद से निकलकर दुर्लभ देह पाकर अंत में मनुष्यभव की दुर्लभता―देखिए इस जीव ने कैसी-कैसी श्रेष्ठ बातें पाते-पाते आज यह स्थिति पायी है । प्रथम तो निगोद से निकलना कठिन है । यह निगोद एकेंद्रिय जीव का एक भेद है । वह निगोद से निकला तो बाकी स्थावर जीवों के भव से निकलना कठिन है । निकला तो दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय इनमें आना कठिन है, फिर पंचेंद्रिय होना कठिन है । पंचेंद्रिय में संज्ञी बनना और बड़ी चीज है, संज्ञियों में पर्याप्त बन जाना और कठिन बात है । पर्याप्त संज्ञी होने पर भी मनुष्य बनना और कठिन बात है, मनुष्य भी बन गए तो देश में कितने मनुष्य हैं । और लोग यह शंका करते हैं कि हमने तो यह सुना है कि मनुष्य होना बड़े पुण्य का काम है और आजकल जनसंख्या बढ़ती चली जा रही है तो पुण्यवान बहुत उत्पन्न हो रहे हैं क्या? तो ऐसे मनुष्यों की बात नहीं कही जा रही है, इसे तो यों समझो कि जिन जीवों ने पुण्य किया और अच्छे मनुष्य बनना था, वे विदेह में या अन्य जगह उत्पन्न होने थे, उनसे कोई दुराचार पाप बन गया तो ऐसे पापी जीव यहाँ पैदा होने के लिए मानो भेजे जा रहे हैं । ऐसे मनुष्य बन गए तो क्या, न बन गए तो क्या?
मनुष्यभव में भी दुर्लभ दुर्लभ स्थिति पाकर भी धर्म ग्रहण की दुर्लभता―मनुष्यों में भी अच्छे देश वाले होना दुर्लभ है, अच्छे कुल वाले होना दुर्लभ है, अच्छे रूप वाला होना दुर्लभ है, फिर इंद्रियों की सावधानी होना दुर्लभ है, फिर निरोग होना दुर्लभ है, फिर उत्तम आचरण मिलना दुर्लभ है । देखो निगोद से लेकर कैसी-कैसी दुर्लभ चीजें पाते हुए आज अपन ऐसी स्थिति पर आ गए, इतने पर भी धर्म का श्रवण मिलना कठिन है । धर्म का श्रवण करने वाले पुरुषों की संख्या देखो । अभी कोई सिनीमा होने लगे चाहे बाहुबलि का ही क्यों न हो तो कितनी बड़ी संख्या जुड़ जायेगी, और बाहुबलि का वृतांत जो कि शास्त्रों में है उसके सुनने वाले लोगों की संख्या देखो कितनी है? बिल्कुल ही कम संख्या हो जाती है । धर्म का श्रवण कर सके यह दुर्लभ चीज है । धर्म भी सुनने पर धर्म का ग्रहण कर लेना, बुद्धि में उस बात का समा जाना यह दुर्लभ चीज है ।
धर्मग्रहण करने के बाद भी दुर्लभ दुर्लभ साधना पाकर अंत में समाधि की दुर्लभता―भैया ! धर्म को ग्रहण भी कर लिया तो अब उस चीज की धारणा बनाए रहना, भूलना नहीं, यह तो और दुर्लभ बात है । मान लो वैसा ज्ञान भी कर लिया जाये तो उसका श्रद्धान होना कठिन है । यह ऐसा ही है, अन्य प्रकार नहीं है ऐसा विश्वास भी हो जाये, श्रद्धान भी हो जाये तो उस पर चलना याने संयम का पालन करना कठिन है । संयम में भी लग जाये तो विषय सुखों से बिल्कुल मुख मोड़ लेना यह कठिन है । विषय सुखों से मुख मोड़ भी लिया तो क्रोधादि कषाय न आए यह बात कठिन है । जैसे मान लो साधु हो गए, विषयसुखों से मुख भी मुड़ चुका, ये सारी बातें आ गईं पर क्रोध कषाय रंच भी न हो यह और कठिन है । इतनी भी बात हो और ऐसी ही धारणा बनी रहे यह और कठिन है और फिर सबसे अत्यंत कठिन है समाधिमरण । सब कुछ हो गया पर समाधिपूर्वक अंत में मरण न हो सका, क्लेश, संक्लेश ही बने रहे तो ऐसे समय में चित्त चलित हो जाता है, और चाहे जो क्लेश हों पर चित्त चलित न हो, समाधिमरण हो यह कितनी कठिन बात है?
दुर्लभ सिद्धि के बाधकों में मूल बाधक मिथ्यात्व भाव―परंपरा से बड़ी दुर्लभ-दुर्लभ बात पाकर अंत में समाधि पाना बड़ी कठिन बात है । क्यों दुर्लभ हो गया कि विभाव परिणाम प्रबल हो गया, पहिले तो मिथ्यात्व देखो कितना प्रबल है? सबको देखो तो कोई किसी धुन में है, कोई किसी धुन में है । ये अच्छा फैशन बनाकर सुंदर कपड़ों से सजकर, केश सजाकर तिस पर भी मन को संतोष नहीं होता तो मुख पर पाउडर लगाकर, ओठों में लाल-लाल लिपिस्टिक लगाकर निकलती है । उन बेचारों को क्या यह पता नहीं है कि देखने वाले तो आखिर यह सोचते होंगे कि देखो कैसी मूर्खता है, इस प्राकृतिक शरीर को भूलकर राख और रंग लपेटना, इनकी कैसी दृष्टि है? इस अज्ञानता को क्या देखने वाले न जानते होंगे? दूसरे मन में हमारी मूर्खता पर हँसते होंगे ऐसी बात शायद वे जानती भी होंगी, मगर फिर भी सुंदरता इसी में समझती हैं । तो इन जीवों में पहिले तो यह मिथ्यात्व भाव ही प्रबल है ।
दुर्लभ सिद्धि के बाधक विषय, कषाय व निदान―फिर विषय कषायों का भाव प्रबल है, फिर ख्याति का, पूजा का, वैभव लाभ का, भोगों की इच्छा का, निदान बंध का―ये समस्त विभाव प्रबल हैं, तब अत्यंत दुर्लभ जो धर्म का धारण है, संयम का पालन है, तपस्या की भावना है, समाधिमरण की भावना है, वे कहां से जगे । सो दुर्लभ से दुर्लभ इस स्थिति को प्राप्त करके भी न चेते तो यह जानना चाहिए कि बहुत ऊँचे चढ़ा हुआ व्यक्ति गिरे तो जैसे उसके चोट लगती है इसी प्रकार से ऐसे मन, ऐसे कुल, ऐसी संपदा को पाकर भी यदि विषयों से पतित हुए, कषायों से पतित हुए तो समझो कि हमारी उतनी निम्नदशा हो जायेगी जितनी कि निम्न दशा असंज्ञी को भी मरने के बाद नहीं मिलती है ।
मरकर मनुष्य का सर्वत्र गमन संभव―असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव पहिले नरक से नीचे जाकर उत्पन्न नहीं होते हैं, और ये कर्मभूमिया मनुष्य मरकर 7वें नरक चले जायें, निगोद चले जाएँ और सिद्ध बन जाएँ, इनकी समस्त गतियां खुली हुई हैं । मनुष्य की तरह किसी जीव को सब जगह पैदा होने का अवसर नहीं है । देव मरकर देव नहीं होगा, नारकी नहीं बनेगा, भोगभूमिया न बनेगा, वह कर्मभूमिया में ही आयगा । कुछ देव मरकर एकेंद्रिय भी हो सकते हैं । इसी प्रकार सभी जीवों को कैद है कि मरकर वे कुछ ही भवो में पैदा हो सकते हैं, पर मनुष्य भव के लिए कैद नहीं है । कौन-सा ऐसा पद है, कौन-सा ऐसा स्थान है जहाँ मनुष्य उत्पन्न न हो सके?
रत्नत्रय की उत्पत्ति और वृद्धि―भैया ! दुर्लभ से दुर्लभ ऐसे साधनों का अवसर पाया है तो इस अवसर को पाकर अब ऐसा यत्न करना चाहिए कि हित हो, समाधिमरण हो और अपने स्वरूप में स्थिति हो । इस बात के करने में साधक संयम है । आचरण बिना कुछ बात नहीं हो सकती । जहाँ सम्यग्दर्शन शुरू होता है आचरण भी उसी समय से शुरू हो जाता है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र―इन तीनों की उत्पत्ति किसी न किसी रूप में एक साथ होती है । फिर अणुव्रत है, महाव्रत है, ये विशेषताएं चलती है पर अंकुर तीनों का एक साथ होता है । सम्यग्दर्शन में सम्यग्दर्शन तो है ही, और सम्यग्ज्ञान हो गया, ज्ञान तो था ही, सम्यक्त्व होते ही वह ज्ञान सम्यक् कहलाने लगा और सम्यग्दर्शन होते ही स्वरूप की दृष्टि हुई, प्रतीति हुई, इस प्रकार का स्वरूपाचरण भी हुआ । कुछ तो तत्त्व पर दृष्टि गई । तत्त्व पर दृष्टि के लगने का नाम आचरण है । अब चारित्र यह बढ़ाना है कि वहाँ स्थिर रह सकें ।
ज्ञातृत्व की स्थिरतारूप सम्यक् चारित्र―स्वरूप संबोधन में जहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र का लक्षण कहा है वहाँ बताया है सम्यक्चारित्र के लक्षण में कि ज्ञाता द्रष्टा बने रहने की स्थिति का नाम सम्यक्चारित्र है । तो वास्तव में चारित्र देह की क्रिया नहीं है, क्योंकि वह तो आत्मा का धर्म है । चारित्र तो जो आत्मा का शुद्ध स्वरूप है उस शुद्धस्वरूप में ही उपयोग की स्थिरता के हो जाने का नाम चारित्र है, चारित्र का आधार आत्मा है, देह नहीं है क्योंकि चारित्र गुण है आत्मा का, इसलिए चारित्र का विकास आत्मा में होगा, चारित्र का विकास आत्मा की परिणति से होगा ।
व्यवहारचारित्र धारण करने का कारण―प्रश्न―व्यवहारचारित्र क्यों करना होता है? उत्तर―व्यवहारचारित्र धारण करने का कारण यह है कि हम विषयकषायों से मलिन हैं तो जब हमारे संस्कार विषय-कषायरूप बने हुए हैं तो राग तो बराबर चल रहा है ना, तो उस राग का कहां उपयोग हो? उपयोग तो करना ही होगा, ऐसी स्थिति में राग का उपयोग विषय-कषायों में न हो किंतु ऐसे परद्रव्यों में हो जो शुद्ध हो, जिनमें किया हुआ अनुराग हमें भुलावे में न डाले, जो वास्तविक चारित्र है उसके धारण करने की पात्रता बनी रहे, वहाँ राग करना चाहिए । इसी के फल में दया में, अहिंसा में, गुरुभक्ति में, देवभक्ति में राग होता है तो यह राग उस अशुभ भाव के काटने के लिए हुआ, इसलिए यह व्यवहार धर्म किया जाता है ।
व्यवहारचारित्र की स्थिति में भी लक्ष्य की सावधानी की प्रधानता―इस व्यवहार धर्म को करते हुए प्रत्येक ज्ञानी को, प्रत्येक व्रती को यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा व्यवहारधर्म करने का लक्ष्य है निश्चयतत्त्व में उपयोग को स्थिर बना लेना । इस लक्ष्य का यदि पता न हो तो व्यवहार धर्म विडंबना बन जाता है । और इस लक्ष्य का पता हो तो व्यवहारधर्म हमारे चारित्र में साधक हो जाता है । इस प्रकार परंपरा से दुर्लभ से दुर्लभ ऐसी स्थिति में आए हैं । इस स्थिति में आकर हमें समाधि में प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
सम्यग्दृष्टि का निर्मल ज्ञानप्रकाश और प्रताप―अब इस अधिकार के अंत में अमृतचंद्रजी सूरि एक कलश में कह रहे हैं―रुंधं बंधं नवमिति निजै: संगतोऽष्टाभिरंगै:, प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृंभणेन । सम्यग्दृष्टि: स्वयमतिरसादादिमध्यांतमुक्तं, ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगं विगाह्य । सम्यग्दृष्टि जीव स्वयमेव अपने निजी रस में मग्न होता हुआ आदि, मध्य, अंत कर रहित सर्वव्यापक एक प्रवाहरूप धारावाही ज्ञान होकर आकाशवत् निर्मल, निर्लेप शुद्ध ज्ञानप्रकाश के निःसीम भूमि में प्रवेश करके अपने सहज स्वाभाविक विलास से विलास करता है । ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव नवीन बंध को तो इस ज्ञान और वैराग्य के बल से रोकता है और पहिले के उन बंधनों को निश्चय अष्ट अंगों की वृत्ति द्वारा नष्ट करता है ।
धर्माश्रय में प्रमादी न होने का कर्तव्य―सो भैया ! अत्यंत दुर्लभ रूप इन धर्मों को प्राप्त करके अर्थात् सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र को प्राप्त करके यदि यह जीव प्रमादी होता है तो संसाररूपी भयावह वन में फिरता है, वह जीव बेचारा असहाय वराक बनकर चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है । अत: इस उच्चतर स्थिति में हम सबको धर्माश्रय करने में रंच भी प्रमादी नहीं होना चाहिये ।
कर्मों का भेषपरित्याग―इस प्रकार इस निर्जराधिकार में ये जो कर्म अपना भेष लेकर आये थे सो अब ज्ञान की दृष्टि में वह आ गया कि वास्तविक पदार्थ तो यहाँ यह है। इसका तो यह भेष और यह रूप यों बन गया है ऐसी तत्त्व के मर्म की बात इस प्रभु ने जान ली । तो जानने के कारण ये पार्ट अदा करने वाले अपना काम छोड़कर, अपना पार्ट छोड़कर, नीरस बनकर निकल जाते हैं और वहां पर उपयोगभूमि शांत रस के वातावरण में शांत हो जाती है।
इस निर्जराधिकार के इस प्रकरण से हमें मुख्यतया क्या-क्या बातें जाननी चाहिये, वे बातें इन्हीं ग्रंथों में संकेत रूप में यथा तथा प्रकरण दिए गए हैं । उन कर्मों को करने से, वैसा ज्ञान बनाने से, दृष्टि बनाने से यह जो कर्मों का ऊधम है, जिनसे हम दु:खी होते हैं वे सब संकट शांत हो सकते हैं और हम इस मोक्षमार्ग में आगे बढ़ सकते हैं ।
।। इति नवम भाग समाप्त ।।