वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 305
From जैनकोष
जो पुण णिरवराहो चेया णिस्संकिओ उ सो होइ ।
आराहणाए णिच्चं वट्टेइ अहं तु जाणंतो ।।305।।
क्लेश का हेतु स्वापराध―जो पुरुष दुःखी होते हैं वे अपने अपराध से दु:खी होते हैं । दूसरे के अपराध से कोई दूसरा दु:खी नहीं होता है उसने ही कोई अपराध किया है इसलिए दु:खी है । अपने आपके बारे में एक यह निर्णय रखो कि हम जब दु:खी होते हैं तो अपने ही अपराध से दु:खी होते हैं । हम दूसरों के अपराध से दु:खी नहीं होते हैं । हम दु:खी होते अपने अपराध से । हमारी दृष्टि में जब यह आ गया कि अमुक ने मेरा यों किया, मुझे यों परेशान किया, तब दुःख होना प्राकृतिक बात है । दूसरे के अपराध से अपने को दुःखी मानना यह सबसे विकट अपराध है । यह निर्णय रखो कि हम जब-जब भी दुःखी होते हैं अपने ही अपराध से दु:खी होते हैं, दूसरे के अपराध से मुझे दुःख हो जाये, यह तीन काल में संभव नहीं है ।
स्व के अपराध से ही क्लेशों का उद्गमन―भैया ! मोह में दृष्टि जहाँ पर की ओर की, विकल्प किया कि मैं तो बड़ा पवित्र हूं, शुद्ध हूँ, बुद्धिमान् हूँ, ज्ञानी हूं और देखो मुझे दूसरे ने यों सताया और मुझे दुःखी कर दिया । अरे दूसरे के द्वारा सताये जाने से हम दु:खी कभी होते ही नहीं है । हम ही अपने प्रभु को सताते हैं और दुःखी होते रहते हैं । कोईसा भी दुःख ढूंढ़कर निकाल लो कि जिसमें आप यह पा सको कि मैं तो दूध का धोया जैसा स्वच्छ हूँ, कुछ अपराध ही नहीं करता हूँ, और दूसरे लोग मुझे व्यर्थ हैरान करते हैं । कोई एक घटना बता दो समस्त दु:खों की घटनावों में आपने अपना ही कोई अपराध किया इसलिए दु:खी हुए, और ज्यादा अपराध न देख सकें तो कम से कम इतना अपराध तो आपका है ही कि हम है अपने स्वरूपमात्र और असली स्वरूप को भूलकर हम अपने को नानारूप मान लेते हैं, बस लो, यही अपराध हुआ ।
परभाव में निजमान्यता की महाभूल―कल्पना करो कि कोई पुरुष अपनी बड़ी सदाचार वृत्ति से रहता है, किसी का कोई बिगाड़ नहीं करता है, फिर भी लोग उसके प्रति अपमान करने की चेष्टा करते हो, उसे लोक में गिराने की चेष्टा करते हों तो वहां तो यह कहा जा सकता है कि यह मनुष्य तो कुछ भी नहीं कर रहा है और इसे लोग यों ही हैरान करते हैं, तब तो हुई ना दूसरों के हैरान किए जाने से हैरानी । पर चित्त को समाधान में रखकर यह भी तो देखो कि दूसरों के हैरान किए जाने से हम हैरान नहीं होते, किंतु अपने आपके बारे में कुछ सन्मान रूप निर्णय कर रखा है, और वैसा होता नहीं तो हम दूसरे का अपराध जानकर दुःखी हो रहे हैं, मेरे खिलाफ ऐसे लोग है और वे मुझ निरपराध को व्यर्थ ही सताया करते हैं । अरे हम खुद ही अपने सहजस्वरूप को भूलकर रागादिक भावों को अपना रहे हैं इसलिए दु:खी हैं ।
निजश्रद्धा का प्रताप―भैया ! ज्ञानी पुरुष की ऐसी स्थिति होती है कि गृहस्थ की परिस्थिति में उसे बाहर में राग झंझट वैसे ही करने पड़ते हैं जैसे कि एक अज्ञानी गृहस्थ करता है । परंतु सर्व क्रियावों के करते हुए भी उसे अपने आपके बारे में यह ध्यान है कि मैं तो आकाशवत् अमूर्त निर्लेप अन्य सबसे विविक्त केवल चैतन्यमात्र पदार्थ हूँ । तो इस श्रद्धान में ऐसा प्रभाव पड़ा हुआ है कि वह अंतर में दुःखी नहीं है । बाहर में कार्य सब करने पड़ते हैं । जिसको अपने आपका यथार्थ श्रद्धान् होगा उसकी ऐसी ही निराकुलता दशा होगी । उसकी पहिचान यह है कि यह लोगों के द्वारा किसी प्रकार का अपना नाम न चाहेगा । इस मायामयी असमानजातीय द्रव्यपर्यायरूप विनाशीक इन जीवों को वह अपने आपके बारे में महत्त्व की इच्छा नहीं रखेगा ।
परचेष्टा से मेरा सुधार बिगाड़ असंभव―इस लोक में यदि 10-20 हजार पुरुषों ने कुछ मेरा नाम लेकर बड़प्पन बता दिया तो उन पुरुषों की चेष्टा से इस मुक्त आत्मा में कौनसा सुधार हो गया? बल्कि उस चेष्टा को निरखकर हम उसमें मोह कर सकते हैं और अपने आपको दुःखी कर डालते हैं, कर्मबंध कर डालते हैं । सारा जहान भी यदि नाम लेकर मेरा अपयश करे, उन सबकी चेष्टा के बावजूद भी इस अमूर्त मुझ आत्मा का कौनसा बिगाड़ होता है ? यह ज्ञान जिनका सही रूप में टिका हआ है उनके विपत्ति नहीं आती है । जब अपने इस शुद्ध ज्ञान से चिग जाता है तो स्वयं दु:खी होता है । अत: दुःख मिटाने के लिए यथार्थ ज्ञान का यत्न करना चाहिए, न कि बाह्य पदार्थों के संचय की धुनि बनानी चाहिए । चीज असल में यों है, पर मोही मानव अपने यथार्थ उपाय को तो करता नहीं और एकदम धनसंचय, लोगों को प्रसन्न रखने की चेष्टावों में ही अपना समय गुजारता है, वही अपराध है ।
अपराध का अर्थ―अपराध शब्द का अर्थ क्या है―राध या राधा से जो अपगत है, मायने बाहर हो गया है । राधा कहिए, आत्मसिद्धि कहिए―राध् धातु का आत्मसाधन अर्थ है । जो अपने राधा से विमुख हो गया वह पुरुष अपराधी है । अपगत: राध: अस्मात् स अपराध: । जिस आत्मा में आनंद सिद्धि नहीं है, आत्मा की दृष्टि नहीं है उस पुरुष को अपराधी कहते हैं । राधा का अर्थ है परद्रव्य का परिहार करके शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना इसे कहते हैं राधा । और ऐसी राधा जब नहीं रहती है तो उसे कहते हैं अपराधी । जब-जब अपने यथार्थस्वरूप की दृष्टि नहीं है तब तक हम अपराधी है और ऐसा अपराध जब तक रहेगा तब तक हम दुःखी ही रहेंगे । यह अवस्था परिग्रह और आरंभ वाले में शोचनीय है । यहाँ तो बार-बार सर्व प्रकार की दृष्टियां हुआ करती है । लोक में अपनी कुछ इज्जत बनी रहे तो गृहस्थी चलती है, न इज्जत रहे तो गृहस्थी नहीं चलती व्यापार नहीं चलता । लोगों को गृहस्थी के ऊपर कुछ विश्वास बना रहता है तो उसका काम चलता है । सो यद्यपि इस गृहस्थावस्था में इज्जत को कायम रखना भी बहुत आवश्यक है, पर यह भी अत्यंत आवश्यक है कि रात दिन के समयों में किसी भी एक मिनट के समय तो हम अपने को सारे जगत से न्यारा केवल चैतन्यस्वरूप मात्र अनुभव करें, यह की बहुत आवश्यक है ।
आत्मविमुखता से बिगाड़―भैया ! यदि सबसे विविक्त चैतन्यमात्र अपने को नहीं देख सकते हैं आधा मिनट भी तो सारे दिन रात आकुलता में ही व्यतीत होंगे । सो वह जीवोद्धार वाली बात इस जीव को प्रधान होनी चाहिए । व्यवहार में यदि कुछ करके आ गया तो उसके बिगाड़ न होगा, किंतु अपने आत्मदर्शन से विमुखता हो गयी तो उसमें बिगाड़ स्पष्ट भरा हुआ है । 72 कलावों में दो ही कलाएं मुख्य हैं―एक आजीविका करना और दूसरे अपना कल्याण करना । आजीविका करना और दूसरे अपना कल्याण करना । आजीविका या धनसंचय में हमारा आपका वश नहीं । उदय अनुकूल ही तो होता है, न अनुकूल हो तो कितना ही श्रम करने के बाद नहीं होता है । धनसंचय करना हमारे हाथ की बात नहीं है, यह पूर्वोपार्जित कर्म के उदय का फल है तो उसमें हम अपनी बुद्धि क्यों फंसाये ? बजाय इसके कुछ यों दृष्टि दें कि उदय के अनुकूल जो कुछ भी मिले, उसके अंदर अपना विभाग बनाकर गुजारा कर सकते हैं, इसमें हमारी क्षमता है ।
धर्मसाधना की स्वाधीनता―यह धर्मसाधन हमारे वश की बात है, उपयोग के आधीन बात है । सो अपने उपयोग द्वारा अपने आपको केवल ज्ञातादृष्टारूप मानें, देखें तो वहाँ चिंता और व्याकुलता फिर नहीं रहती है । बस, अपने स्वरूप से चिगे यही अपराध है । यह अपराध जिस जीव के होता है, वह स्वयं दुःखी होता है, क्योंकि उसके उपयोग में परद्रव्यों को ग्रहण करने का परिणाम बना हुआ है―जैसे कि मेरी इज्जत हो आदि । यह इज्जत मेरा भाव नहीं है, परभाव है । उस परभाव को हम अपनाते हैं तो दुःखी होते हैं । मैं बड़ा धनिक बनूँ―ऐसा परिणाम परभाव है । इस परभाव को हम अपनाते हैं तो कष्ट में पड़ना प्राकृतिक बात है ।
धर्माराधना की प्रमुखता―यह धर्म का प्रकरण है । आजीविका की बात को तो एक ही बात में गर्भित करना, उदय होगा तो होगा । उदय अनुकूल है तो बुद्धि भी चलती है, श्रम भी सफल होता है और उदय अनुकूल नहीं है तो सब चीज बेकार हो जाती है । न बुद्धि चलती है, न श्रम होता है । ये सब संसार की घटनाएं है । संसार की घटनाओं में कर्म में विपाक प्रधान है, किंतु मोक्षमार्ग के चलने में मेरे आत्मा का पुरुषार्थ प्रधान है । इसी से शाश्वत् स्वाधीन सुख मिलेगा और यह संसारमार्ग मुझे आकुलताओं में फंसाकर केवल जन्म मरण के चक्कर में फंसायेगा । ऐसा जानकर ज्ञानीपुरुष अपराध नहीं करता है, अपने आपकी ओर अपने आपको बनाए रहता है । मैं तो केवल शुद्ध ज्ञातादृष्टा हूँ, भाव ही मैं बना लूँ इतना ही मात्र मैं कर्ता हूँ, इतने ही मात्र मैं भोक्ता हूं, मैं पर का करने भोगने वाला नहीं हूं―ऐसा जो निरपराध रहता है, उसको संकट और बंधन नहीं आते हैं ।
मूल अपराध सहजस्वरूप की आराधना का अभाव―जो आराधना करता है वह बंधन में नहीं पड़ता है । वह जीव कर्मों के विकट बंधन में पड़ा है, इसका कारण है कि यह जीव अपराध कर रहा है । क्या अपराध कर रहा है? आत्मा के शुद्धस्वरूप की आराधना नहीं कर रहा है । जो अपने आपको जाननभाव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मानता है, वह उसका मूल से ही विशाल अपराध है । मैं मनुष्य हूं, मैं स्त्री हूं, मैं धनिक हूँ, मैं दुर्बल हूं, मैं मोटा हूँ, मैं तगड़ा हूँ, इतने परिवार वाला हूँ, अमुक-अमुक संस्था का मेंबर हूँ, अमुक प्रबंधक हूँ, मिनिस्टर हूँ, देश की रक्षा करने वाला हूँ इत्यादि किसी भी प्रकार से अपने आपको मानता है तो वह अपराधी है और इस अपराध के फल में उसे बंधना पड़ता है । सुनने में ऐसा लगता होगा कि यह क्या अपराध है हम किसी कमेटी के मेंबर हैं―ऐसा मानते हैं तो इसमें अपराध क्या हो गया ? अपराध ये हैं कि तुम कमेटी के मेंबर नहीं हो, तुम देश के रक्षक नहीं हो, तुम परिवार वाले नहीं हो, तुम धनी नहीं हो और मानते हो कि मैं यह-यह हूं―यहीं तो अपराध है।
सम्यग्ज्ञान की विशेषता―भैया ! जैनसिद्धांत में सबसे बड़ी विशेषता है तो वस्तु का यथार्थस्वरूप वर्णन करने की विशेषता है । पाप को तो सभी कहते हैं कि छोड़ना चाहिये । पुण्य और परोपकार को तो सभी कहते हैं कि करना चाहिये, तुम भी कहते हो कि करना चाहिये । घर का त्याग करके संन्यासी बनने को तो सभी कहते हैं, तुम सब भी कहते हो कि बनना चाहिए । पर वह कौनसा ज्ञान है, जिस ज्ञान के होने पर संसार के संकट टलते हैं, प्रेक्टिकल अपने आपमें शांति मिलती है? कौनसा ज्ञान है वह ? वह ज्ञान वस्तुस्वरूप का यथार्थ वर्णन करने वाला सम्यग्ज्ञान है । तुम क्या हो ? इसका जरा निश्चय तो करो ।
परभाव में अहम्मन्यता का अनर्थ―धनिक तो तुम हो नहीं, क्योंकि धन विनाशक वस्तु है, आता है और चला जाता है, प्रकट पर है । धन के कारण ही तो दूसरों के द्वारा सताये जाते हैं । डाकू ले जायें आपको जंगल में, तो देखकर परिवार वालों को दुःख होगा ही । चोर चोरी की धुन लगाये रहते हैं, सरकार की तिरछी निगाह बनी रहती है, विरोधी भी ईर्ष्या से मेरा बिगाड़ करने का यत्न किया करते हैं । धन कौनसी सुखद और आपकी वस्तु है? धनिक आप नहीं है, यह तो बाह्यपुद्गलों का समागम है । शरीर भी आप नहीं है, शरीर आप होते तो यह आपके साथ जाता । शरीर यहीं रहता है, आप छोड़कर चले जाते हैं । जब शरीर आप नहीं रहे तो आप पुरुष कैसे ? पुरुषाकार तो शरीर में ही है । जब शरीर ही तुम नहीं हो तो पुरुष और स्त्री कहां रहे ?
प्रत्येक वस्तु की पर में कर्तृत्व की अयोग्यता―भैया ! तुम तो सबसे न्यारे केवल चैतन्यमात्र हो । अब रही करने की बात । तो करने की बात भी विचार लो । तुम क्या करते हो ? कोई कहता है कि हम दूकान करते हैं, सेवा करते हैं, देश की रक्षा करते हैं । दूकान और रक्षा तो बाहर जाने दो, तुम तो यह हाथ भी नहीं उठा सकते हो, जो तुम्हारे देह में लगा हुआ हाथ है । आप कहेंगे कि वाह, उठ तो रहा है । यह भ्रम है आपको । आप आत्मा एक ज्ञानपुंज हो । अंतर में देखो तो तुम ज्ञान के पिंड हो । जो ज्ञान है, ज्ञानघन है, यही तुम आत्मा हो । मेरा स्वरूप आकाश की तरह है । अंतर यह है कि आकाश के चेतना नहीं है, आपमें चेतना है । आकाश निस्सीम पड़ा हुआ है ओर आप निज देहबंधन के कारण अपने देहमात्र में हो―इन दो बातों में अंतर है, बाकी तो अमूर्त में जैसा आकाश है तैसे आप है । न आकाश में रूप, रस, गंध, स्पर्श है और न हम आपमें रूप, रस, गंध, स्पर्श है ।
आत्मा में मात्र स्वपरिणाम का कर्तृत्व―भैया ! तुम तो केवल जाननहार हो और उपाधिभाव में विकारभाव आता है, सो वर्तमान में इच्छा के भी करने वाले हो । इतनी ही मात्र हम और आपकी करतूत है कि जान जायें और चाह करने लगें । इससे आगे हमारा वश नहीं है । अब इससे आगे अपने आप निमित्तनैमित्तिक भाव के कारण पुद्गल में अपने आप काम होता है । लोग कहते हैं कि यह मशीन ओटोमेटिक है, अपने आप छापती है और अपने आप छापे हुए कागजों को एक जगह रखती है । ऐसा सर्वथा ओटोमेटिक नहीं है, उसमें निमित्तनैमित्तिक संबंध लगा हुआ है । इस पुर्जे के जोड़ का निमित्त पाकर वह पुर्जा भी चला, उसका निमित्त पाकर वह पुर्जा यो चला, उसके प्रसंग में कागज आया तो उसका यह कार्य हुआ । निमित्तनैमित्तिक संबंध न लगा हो और कोई अकेले ऐसा करले―ऐसा वहाँ नहीं है ।
स्वरूप की समझ बिना धर्म की दिशा का भी अपरिचय―आत्मा में इच्छा और ज्ञान उत्पन्न होता है, उसका निमित्त पाकर आत्मप्रदेश में हलन-चलन होता है । उस प्रदेश में परिस्पंद का निमित्त पाकर शरीर में जो वायु भरी है उस वायु में लहर चलती है और वायु के चलने से शरीर के अंग उठते है? । तो यों हाथ निमित्तनैमित्तिक संबंध से उठ गया, पर इसका उठाने वाला साक्षात् आत्मा नहीं है । आत्मा तो सिर्फ ज्ञान करता है और चाह करता है । इसके आगे आत्मा की करतूत नहीं है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है और पर का अकर्ता है―ये दो बातें समझने की है । धर्मपालन करने के लिये हैं । ये दो बातें समझ में न आएँ तो खेद के साथ कहना होगा कि धर्मपालन करने के लिए इतना बड़ा परिश्रम भी किया जाता है―नहाना, धोना, समारोह करना, बड़ा प्रबंध करना, बड़े-बड़े श्रम भी कर लिए जायें तो भी मोक्ष में जाने के नाते, मोक्षमार्ग के नाते उसने रंच भी धर्म नहीं किया ।
धर्म में मूल दो परिज्ञान―भैया ! इन दो बातों को खुद समझ लो कि इतनी बात है और सारभूत बात है। एक तो यह जान लो कि मैं तो केवल ज्ञान का पिटारा हूं, चैतन्यमात्र हूं, इसके अतिरिक्त और मैं कुछ नहीं हूं। मेरा स्वरूप ही मेरा है, मेरे चैतन्यस्वरूप से अतिरिक्त अन्य कुछ परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। एक बात तो यह प्रतीति में रख लो। क्या हर्ज है यदि सही बात जानने लगें? घर नहीं कोई दूसरा छुड़ा रहा है, कोई धन-वैभव नहीं छुड़ाया जा रहा है, वह तो जैसा है सो होगा। जो परिणमन होना होगा वह होगा, पर यथार्थ बात विश्वास में लेने से मोक्षमार्ग मिलेगा, कर्म कटेंगे, बंध रुकेगा, दृष्टि मिलेगी, इस कारण एक सही बात मानने में कौनसी अटक अनुभव में की जा रही है। बीच के सर्व पर्दों को तोड़कर एक अपने यथार्थस्वरूप के ज्ञान में आवो। दूसरी बात―इसका निर्णय कर लें कि वास्तव में करता क्या हूं? मैं केवल जानना और चाहना―इन दो बातों को किया करता हूं। चाहने के उपलक्षण में सर्वविकल्प गर्भित हैं।
सम्यग्ज्ञान की आराधना से प्रभुभक्ति की सफलता―विकल्प करना और जानना―ये दो बातें वर्तमान में किया करता हूं। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं करता हूं। ऐसा यदि विश्वास में मान सकते हो तो समझो कि हमने प्रभुभक्ति में कुछ पाया, अन्यथा प्रभु के गुण गाते रहें और भीतर में यह ज्ञान बना रहे कि में तो जो चाहूं, सो कर सकता हूं। मैं भींत उठा लूं, दूसरे को बरबाद कर दूं, दूसरे को सुखी-दु:खी कर दूं, यह विश्वास बना रहा तो समझो मैं प्रभु का एक रत्ती भी भक्त नहीं हूं। प्रभु के गुण समझ में न आयें और प्रभु के हम भक्त कहला सकें, यह तो हो ही नहीं सकता। प्रभु का गुण क्या है? वह कृतकृत्य है, सर्वपदार्थों से विविक्त है, अपने स्वरूपमात्र है, जिसने अपने उपयोग को केवल अपने स्वरूप में रमाया और यह सारभूत कार्य किया, वही तो प्रभु हे और जैसा प्रभु का स्वरूप है तैसा ही हमारा स्वभाव है, जब तब यह विश्वास नहीं है तो प्रभु का और भक्त का संबंध ही नहीं है। तो ये दो बातें बहुत दृढ़ता से निर्णय में रहें तो हम अपराधी नहीं है।
स्वभावविमुखतारूप महा अपराध―भैया ! कोई पुरुष अच्छे धन वाला है, स्त्री-पुरुष दोनों हैं, अपने घर में रहते हैं, किसी को सताते नहीं, किसी से लेन-देन नहीं ब्याज और किराये से ही सब काम चलता है, बड़े प्रेम से रहते हैं। इस प्रकार रहने वाले गृहस्थ यह सोचें कि मैं तो किसी का कोइ्र अपराध नहीं कर रहा, न किसी आदमी को सताता हूं, न किसी की बुराई करता हूं, मिया बीबी घर में रहते हैं, मौज करते हैं, तीसरा कोई झगड़ा नहीं, न बच्चों का और न किसी का। मैं तो बेकसूर हूं―ऐसा कोई गृहस्थ माने तो बतलावो क्या वह बेकसूर है? वह अपराधी है, क्योंकि उसने ये दोनों ही बातें नहीं मानी । मैं तो स्त्री वाला हूँ, इतने वैभव वाला हूँ, जो यह भोगता है, आराम पाता है, यह मैं हूँ, अच्छी स्थिति में हूं―ऐसा अज्ञान अंधकार में पड़ा हुआ है । घर की अच्छी व्यवस्था बना रहा हूं, सब खर्च और आजीविका ठीक निभ रही है―ऐसी कर्तृत्वबुद्धि लगाए है, उसे निरपराध कोई कह सकता है क्या ?
परपरिहारी के निरपराधता―निरपराध पुरुष वह है जो अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप की आराधना कर रहा हो। ऐसा पुरुष शुद्ध आत्मा के प्रति दृष्टि होने से बंधभाव से रहित हैं और वह शांति का पात्र है, किंतु जो परद्रव्यों को अपनाने में लगा है, उसके केवल चैतन्यस्वरूपमात्र आकाशवत् निर्लेप ज्ञानानंदघन आत्मतत्त्व पर दृष्टि नहीं है सो ओटोमेटिक निमित्तनैमित्तिक भाव वश संसार में पड़े हुए कामार्ण वर्गणाएं कर्मरूप हो जाती हैं और देह का बंधन, कर्म का बंधन और रागद्वेष भावों का बंधन―ये सब बंधन चलते रहते हैं । हां, जो निरपराध पुरुष है, जो समस्त द्रव्यों का परिहार करता है अपने उपयोग द्वारा समस्त परद्रव्यों से न्यारा अपने आपको लखता है, उसके शुद्ध आत्मा की सिद्धि है । उपयोग द्वारा निज शुद्ध तत्त्व पर उसकी पहुंच है, सो बंध की शंका नहीं हई ।
शुद्धात्मतत्त्वप्रसिद्धि―भैया ! वह ऐसी स्थिति क्या होती है ? मैं एक उपयोगमात्र चैतन्यमात्र, जानन देखन की वृत्तिमात्र स्वतंत्र आत्मा हूं, ऐसा वहाँ निश्चय है, इस कारण सदा ही उसके शुद्ध आत्मा की सिद्धि है अर्थात् शुद्ध आत्मा की आराधना चल रही है । सो जो शुद्ध आत्मा की राधा के साथ निरंतर चल रहा हो, वह ज्ञानी आत्मा आराधक ही है, अपराधी नहीं।
आत्मानाराधकता―अपराधी कहो या अनाराधक कहो―दोनों का एक अर्थ है । जो अपने सच्चे ज्ञानस्वभाव की दृष्टि नहीं रखता वह अपराधी है । जो अपराधी है वह अवश्य बंधेगा । वर्तमान में कोई मौज में है, इसका गर्व करना व्यर्थ है । क्या मौज है संसार में? एक घंटा भी कोई सुखी नहीं रह सकता―किसी भी पुरुष को बता दो । आधा घंटा भी कोई सुखी नहीं रह सकता । उसके भीतर की कंपनी को देख लो―मारे कल्पनाओं के सुख के बाद दुःख, दु:ख के बाद सुख―ऐसी कल्पनाएं उठा करती है । सो अपनी-अपनी कल्पना से सभी अपने आपमें क्लेश पा रहे हैं । वह कल्पना मिटे―ऐसा ज्ञानप्रकाश हो तो क्लेश मिटेंगे अन्यथा न धन के बहुत होने से क्लेश मिटते, न इस मायामयी जगत् में मायामयी इज्जत के होने से क्लेश मिटते । क्लेश मिटते हैं आत्मीय स्वाधीन अपूर्व पुरुषार्थ से । जो अपने स्वरूप का अज्ञान है वही महान् अपराध है । ऐसा अपराधी पुरुष निरंतर अनंत कर्मों को बांधता रहता है ।
सपराध व निरपराध की वर्तनायें―जो अपने आपके उस सहजस्वरूप को दृष्टि में लिए हुए है और जिसके यह दृढ़ प्रत्यय है कि मैं तो मात्र चैतन्यस्वरूप हूँ, वह कभी बंधन को प्राप्त न होगा । कदाचित् कुछ बंधन चलता रहता है तो वह ऊपरी बंधन है, अल्पबंधन है । बांधने के लिप बंधन नहीं है, किंतु बंधन रहता है । अपराधी पुरुष वह है जो अपने आपको निरंतर अशुद्ध रूप में ही मानता रहता है अर्थात् जैसा मैं नहीं हूँ, वैसा मानता रहता है । देखो, करना-धरना तो कोई बाहर में कर ही नहीं सकता, चाहे ज्ञानी पुरुष हो, चाहे अज्ञानी पुरुष हो, पर अपने ही प्रदेश में अपना अस्तित्त्व रखे हुए यह जीव जो अपने आपको अज्ञानरूप मान रहा है कि मैं रागी हूँ, द्वेषी हूँ, बड़ा हूँ, जो मैं सोचता है यह विवेक की बात है, यह करने की बात हैं―ऐसा अपने आपको औपाधिक नाना भावरूप जो मानता है वह अपराधी है । जो अपराधी है वह बंधता है और जो निरपराध है वह छूट जाता है ।
अपराध संकट―निरपराध वह है जो शुद्ध ज्ञान दर्शनमात्र, जानन प्रकाशमात्र अपने आपको भजता है, अपने आपकी सेवा करता है यह है निरपराधी । इस जीव पर बड़े संकट छाये हैं । वे संकट है विकल्पों के । जिससे आज संबंध माना है मान लो वह गुजर जाए या स्वयं गुजर जाए तो फिर क्या रहा? जितने काल समागम भी है, उतने काल भी सबकी खिचड़ी अलग-अलग पक रही है । यह नहीं जानता कि मुझ पर इसका राग है या इस पर मेरा राग है । सर्व जीव भिन्न है और अपने-अपने विकल्प के द्वारा अपने में द्वंद्व मचाए हुए है ।
मोहसंकट―भैया ! सबसे बड़ा संकट है जीव पर तो इस मोह का संकट है, जो मोह बिल्कुल व्यर्थ की चीज है । मोह कर लिया तो क्या नफा कर लिया और मोह न करते तो क्या टोटा रहता? पर ऐसी उमंग उठती है अंतर से, अज्ञान की प्रेरणा से कि यह अपने घर में रह नहीं सकता । परपदार्थों की ओर दृष्टि बनाए रहते हैं । सो जब तक मोह में अंतर न पड़ेगा, तब तक शांति की आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है । शांति चाहते हो तो क्रांति लाइए अपने आपमें मोक्षमार्ग में लगने की । दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते कि विषयकषायों में भी लगते रहें और शांति भी मिलती रहें । या तो भोग-भोग लो या विश्राम पा लो, शांति पा लो, मोक्षमार्ग पा लो ।
जीवन की सफलता―भैया ! यह जीवन बड़ा दुर्लभ जीवन है । इस जीवन में यदि अपने आपके शुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि न पा ली तो बहुतसा धन-वैभव भी पा लिया, परिवार, सोना, चांदी, इज्जत सब कुछ पा लिया तो क्या? ये सब इंद्रजाल है, मायास्वरूप है । जो इंद्रजाल में फंसता है वह संसार में भटकता है । अब जो मन हो सो कर लो । मोह में लगे रहने का फल है चिरकाल तक पशु, मनुष्य, कीड़े-मकौड़े, नारकी, पेड़-पौधे बन बनकर जन्म-मरण करिये । मोह न रहे, ज्ञान का शुद्ध प्रकाश हो, अपने आपकी वास्तविक श्रद्धा हो और उसी श्रद्धा सहित प्रभु के गुण की भक्ति हो तो समझ लीजिए कि हमारा जन्म सफल है और हम शांति के पात्र हैं, धर्म में लगेंगे । इसलिए ज्ञानबल द्वारा मोह को दूर करने का प्रयास कीजिएगा । बस यही मात्र श्री जिनेंद्रदेव का धर्म उपदेश है, जीवन मार्ग है ।
दोषनिवारिणी दृष्टि―इस प्रकरण में बात यह चल रही है कि जो जीव अपने सहज शुद्ध चैतन्यस्वभाव की दृष्टि रखता है, चैतन्यमात्र मैं हूँ और ऐसा ही जानने में उपयोगी रहता है, वह तो है निरपराध आत्मा और जो अपने स्वरूप में अपने को न लखकर बाह्यपरिणमनोंरूप अपने को तक रहा है कि मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक कुल का हूँ, अमुक पोजीशन का हूँ आदिक रूप से जो अपने को देखता है वह अपराधी है । जो अपराधी होता है वह कर्मों को बांधता है, जो निरपराध होता है वह कर्मों से नहीं बंधता । इस प्रकरण से शिक्षा यह मिलती है कि धर्म के लिए, संतोष के लिए, संकटों से छूटने के लिए अपना जो वास्तविक अपने अस्तित्त्व के कारण जैसा हूँ उसी रूप अपने को लखते रहे, इससे सर्व दोष दूर हो जायेंगे ।
शुद्धात्मोपासना का संकेत―भैया ! प्रकरण बड़े ध्यान से सुनने का है । बीच में यदि दो चार वाक्यों को अनसुना कर दिया तो उससे आगे की बात में कुछ विघ्न आ सकता है समझमें । बात क्या कही जा रही है कि जो अपने शुद्ध ज्ञानप्रकाशरूप में अपने को मानता है वह है बेकसूर । जो अपने को नेता, प्रमुख, कार्यकर्ता किसी भी रूप में समझता है, वह अपराध करता है । यह है बंध और अबंध के निर्णय का प्रकरण । इसलिए क्या करना चाहिए ? शुद्ध आत्मतत्त्व की उपासना में अपना प्रकाश करते रहना चाहिए ।
एक अध्यात्मजिज्ञासा―यह बात सुनकर एक जिज्ञासु बोला कि इस शुद्ध आत्मा की उपासना के प्रयास से क्या लाभ है? अरे ! शुद्ध तो होता है प्रतिक्रमण से, व्रतनियम से, संयम से, आलोचना से । अपने आपको अपने दोष पर पछतावा करना, गुरु के समक्ष अपनी त्रुटियों की निंदा करना आदिक उपायों से शुद्धि हुआ करती है । क्या शुद्ध आत्मा की उपासना करने का उपदेश लाभ देगा ? लाभ तो इस प्रतिक्रमण आदिक से व्रत संयम आदिक से है । इससे ही जीव निरपराध होता है, क्योंकि जो अपराधी पुरुष है और वह प्रतिक्रमण, आलोचना, पछतावा दंड ग्रहण नहीं करता तो उसका अपराध दूर नहीं हो सकता और उसके ऐसे अप्रतिक्रमण आदिक विषकुंभ है और प्रतिक्रमण करना, पछतावा करना, अपने दोष बखानना आदि ये सब अमृतकुंभ है, इससे सिद्धि होती है, फिर शुद्धआत्मा की उपासना करने के प्रयास से क्या लाभ होगा ?
अवगमन का उद्यम―यहाँ जिज्ञासु एक प्रश्न कर रहा है । प्रकरण जरा कठिन है और अध्यात्मयोग का बहुत उत्कृष्ट वर्णन में ले जाने वाला मिलेगा, पर भली बात समझनी तो तुम्हीं को पड़ेगी । कठिन है, कठिन है, ऐसा समझकर बाहर-बाहर बने रहने से अपनी चर्चा से दूर रहे; इससे तो जीवन में कभी भी पूरा नहीं पड़ सकता । कितना ही कठिन कुछ हो, बार-बार सुनने और समझने का प्रयास करना चाहिए । यद्यपि कठिन बात को समझने की शैली विद्याभ्यास है । क्रम से उन वस्तु का अवलोकन हैं, जो पढ़ने में अपना क्रम रखते हैं, उनको सुगम हैं, फिर भी स्वाध्याय के बल से जो कुछ श्रुतज्ञान किया है, प्राय: आप सब गृहस्थों को उस श्रुतज्ञान में भी ऐसी योग्यता होती है कि कठिन से कठिन विषय को फिर भी सरलता से समझा जा सकता है ।
जिज्ञासा का विवरण―बात यह सीधी चल रही है कि अभी आचार्यमहाराज ने यह उपदेश किया था कि भाई अपने आपको शुद्ध ज्ञानमात्र चैतन्यस्वरूप में अपना विश्वास जमावो । तुम हो कैसे ? इस बात को भुला दो, जो हो वह मिटता नहीं है । यद्यपि यह बात सत्य है तो भी निमित्त अथवा औपाधिक अन्य चीजों पर आप दृष्टि न दें और मात्र अपने केवल स्वरूप पर दृष्टि दें तो हित की आशा की जा सकती है । अत: अपने चैतन्यस्वरूप में दृष्टि दो तो निरपराध रहोगे, कर्मबंध न होगा, यह बात आचार्यदेव ने कही थी, तिस पर एक जिज्ञासु ने यहाँ प्रश्न उठाया कि संतों की उपासना करना गुरुवों के समक्ष संकल्प करना, व्रतनियम करना―इनसे सिद्धि होगी । शुद्ध आत्मा का ज्ञान करें तो मात्र उस दृष्टि से कोई लाभ नहीं है ।
पूर्वपक्ष की आगम से सिद्धि―शंकाकार अपने पक्ष को आगम से सिद्ध करता है । आचारसूत्रों में भी स्पष्ट यह बताया है कि प्रतिक्रमण न करना, प्रतिसरण न करना, प्रतिहरण न करना, निवृत्ति न करना, निंदा न करना, किसकी ? अपनी । अपने को शुद्ध न करना यह तो विष से भरा हुआ घड़ा है? और प्रतिक्रमण करना, परिहार करना, धारण करना, निवृत्ति करना, अपनी निंदा करना, गर्हा करना, शुद्धि करना यह अमृतकुंभ है । ग्रंथों में भी साफ-साफ बताया है, फिर भी व्यवहारधर्म की उपेक्षा करके उसकी कुछ इज्जत न रखकर तुम यहां यह बोल रहे हो कि शुद्ध आत्मा के स्वरूप की उपासना करो तो बंधन न होगा । यहाँ एक जिज्ञासु ने विषय उठाया है, उसका उत्तर देते हैं । इस उत्तर में दो गाथाएं एक साथ आ रही हैं ।