वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 307
From जैनकोष
अपडिकमणं अपडिसरणं अपरिहारो अधारणा चेव ।
अणियत्तीय अणिंदाऽगरहाऽसोही अमयकुंभो ।।307।।
त्रिपदी―इन गाथावों का अर्थ जानने से पहिले साधारणतया पहले यह जानियेगा कि जीव के मोक्ष से पहिले तीन अवस्था होती है । जैसे एक अनियमरूप, धर्मप्रवृत्तिरहित याने रंच संयम न होना, अव्रतरूप प्रवृत्ति रहना, व्रत न होना । जब यह जीव और ऊपर उठता है तो उसके संयम और व्रतरूप प्रवृत्ति रहती है और फिर जब इससे और ऊपर उठता है तो संयम और व्रतरूप प्रवृत्ति भी नहीं रहती है, पर उस असंयम में और ऊपर के इस असंयम में बड़ा अंतर है । एक मोटेरूप से समझने के लिए बात कहीं है संयम की, वस्तुत: ऊपर अंत:संयम रहता है ।
त्रिपदी का विवरण―प्रकृत बात ले लो―पहिली दशा तो जीव की ऐसी रहती है कि वह अपने दोष पर पछतावा कुछ करता ही नहीं है । अज्ञानी पुरुष पापकार्यों में, व्यभिचारों में आसक्त होकर क्या कभी पछतावा भी करता है नहीं करता है । वह तो पापकार्यों में ही लगा रहता है । निकृष्ट दशा है पछतावा न करना । फिर जब इससे कुछ ऊपर विवेक की स्थिति आती है, तब दशा बनती है कि पछतावा भी करना । अपने गुरुवों को दोष सुनाना, अपने किए हुए दोषों पर पछतावा भी करना और जब वह और ऊपर उठता है और आत्मा में उनको अपना निरंतर दर्शन बना रहता है । ऐसी स्थिति में क्या पछतावा करता है ? फिर वहाँ पछतावा नहीं रहता है । पछतावा तो अत्यंत नीची दशा में नहीं रहता है या अत्यंत ऊपरी दशा में नहीं रहता है । ध्यान में आया ना ।
विषकुंभ और अमृतकुंभ का विचार―पछतावा न आना बतावो विष है कि अमृत है? निम्न दशा में पछतावा न आना तो विष है और जब अत्यंत ऊँची अवस्था में जो पछतावा नहीं आ रहा है, आत्मरस में तृप्ति है, वह पछतावा न आने की दशा तो अमृत है ना । आगम में दोनों बातें कही है । पछतावा न आना विष है और पछतावा न आना अमृत भी है । अध्यात्मयोग में जब बहुत गहराई में उतर जाते हैं और अपने आत्माराम के वैभव में तृप्त रहते हैं, वहां प्रवृतियां सब समाप्त हो जाती हैं । इन दोनों स्थितियों का मुकाबला रखकर यह प्रश्नोत्तर चल रहा है । जिज्ञासु के प्रश्न का तो यह भाव था कि प्रतिक्रमण न करना आदिक बातें तो विषकुंभ है । पर यहाँ आचार्यदेव बतलाते हैं कि प्रतिक्रमण करना विषकुंभ है, पछतावा करना विषकुंभ है, धारणा करना विषकुंभ है आदि ।
मध्यपद की सापेक्षता―जो जीव निम्न श्रेणी के हैं, अज्ञानदशा के हैं, उनको तो संयम न करना, संकल्प न करना, पछतावा न करना, किसी को गुरु न बनाना, गुरुवों से अपने दोष न कहना―ये सब विषकुंभ हैं और उनके लिए नियम करना अमृतकुंभ है। गुरु बनाना, गुरुवों से दोष कहना, अपनी निंदा करना―ये सब अमृतकुंभ हैं। पर जब ज्ञानी बनकर उत्कृष्ट अध्यात्मक की रति करने लगता हे तो उसके लिए प्रतिक्रमण करना, संकल्प करना, यह है विष और कुछ प्रवृत्ति न करना, ऐसे अप्रतिक्रमण आदिक यही हैं उसके लिए अमृत। अज्ञान और ज्ञान में स्वभावभेद है।
उपादनानुसार वृत्ति का एक उदाहरण―एक धोबी था । उसके एक गधा था, जिसके द्वारा वह अपनी आजीविका चलाता था । उसके घर में एक कुतिया थी, उसके तीन-चार पिल्ले हुए । वे पिल्ले जब महीने भर के हुए तो वह इन्हें खूब खिलाने लगा, कभी उन पिल्लों को हाथ से उठाए, कभी-कभी थोड़ा उचकाए और कभी छाती से लगाए, कभी मुंह से लगाये । पिल्ले कभी पंजा मारें, कभी ऊपर चढ़ें । बराबर में बंधे हुए गधे ने सोचा कि हम पर तो यह बोझा लादता है, हमारे ही द्वारा इसके घर का पालन-पोषण होता है फिर भी हमें यह यों नहीं खिलाता और ये पिल्ले जो कुछ काम नहीं आते, जो नोच रहे हैं, ऊपर चढ़ रहे हैं, इन्हें गोदी में खिलाता है । इसका क्या कारण है ? सोचते-सोचते ध्यान में यह आया कि यह पिल्लों से इसलिए प्यार करता है कि ये धोबी के पैरों को पंजा मारते हैं । अपन भी ऐसा करूं तो अपने को धोबी मालिक का प्यार मिलेगा । इतना सोचकर गधा जनाब उस कच्ची रस्सी को तोड़कर धोबी के पास आ गया । आगे के पैरों से तो गधे मार नहीं पाते, सो वह पीछे के दोनों पैरों से उस धोबी को मारने लगा । इस धोबी ने डंडा उठाकर 5-7 डंडे जमाये । खूब पिटकर गधा अपने स्थान पर आ गया और सोचने लगा कि क्या गलती हो गयी ? वही काम तो पिल्लों ने किया तो वे प्यार पा रहे हैं और वही काम मैंने किया सो डंडे लगे । सो भाई सबकी जुदी-जुदी योग्यता की बात है । पिल्लों जैसा काम गधा करे तो नहीं कर सकता है ।
अधिकारियों का निर्णय―यह बात जो कही जा रही है कि प्रतिक्रमण न करना, धारणा न करना आदि बातें अमृत हैं, पर किसके लिए अमृत है? जो ज्ञानबल से और शुभोपयोग की स्थिति से ऊंचा उठ रहा है उसके लिए अमृतकुंभ है, कहीं निष्कृष्ट पद में आने वाले के लिये अमृतकुंभ नहीं हैं । इस सबका अब अर्थ बतलाते हैं कि ये 8 चीजें जो कही गयी है, जिनके बारे में यह चर्चा चली है कि यह विष है या अमृत, उनका अर्थ सुनिये ।
प्रतिक्रमण का भाव―प्रतिक्रमण का अर्थ है―अपने किए हुए दोषों का निराकरण करना । अपने किए हुए दोषों का निराकरण होता है बड़ी तपस्या से, दंड ग्रहण करने से । तो बतलावो कि ऐसा प्रतिक्रमण करना अमृत है या विष? बतलावो अच्छा प्रतिक्रमण विष है या अमृत ? निकृष्ट दिशा वालों के लिए तो प्रतिक्रमण अमृत है और ऊंची स्थिति में ज्ञानवृत्ति के मुकाबले में उसके लिये यह द्रव्यप्रतिक्रमण विष है और इसमें निश्चयप्रतिक्रमणरूप प्रतिक्रमण अमृत है ।
देवपूजा के हेयोपादेय का निर्णय―यहां एह मोटी बात कहेंगे । भगवान की द्रव्यपूजा करना विष है कि अमृत है ? यह बात सामने है । तो जो निकृष्ट जन है, हमी सब लोग है, ऊँची स्थिति में नहीं हैं, अध्यात्मयोग में नहीं है उनके लिए यह कहा जायेगा कि पूजा करना अमृत है । अपने आत्मस्थ रहना यह ऊंची स्थिति नहीं है । सो निकृष्ट जनों की अपेक्षा पूजा करना अमृत है और निर्विकल्प उत्कृष्ट जनों की अपेक्षा पूजा करना विष है । जो निर्विकल्प स्थिति चाहते हैं अथवा स्वानुभव की स्थिति चाहते हैं उनको पूजा करने का विकल्प भी विष दिखता है । वे जानते हैं कि इससे भी ऊंची, ऊपर उठी हुई ज्ञानी आत्मा की अवस्था हुआ करती है । इसी तरह इन सब बातों को घटाना है ।
क्रमिक अवबोध―यह है मोक्षाधिकार का अंतिम वर्णन जिसके बाद मोक्षाधिकार समाप्त होगा । उसमें यह बतला रहे हैं कि बंधन से छूटना है तुम्हें तो उसका क्रमिक उपाय करते जाइए । पहिले तो साधारण ज्ञान कीजिये, जीव कितने है, संसारी कितने हैं, मुक्त किसे कहते हैं, इत्यादि साधारण ज्ञान चाहिए । इसके बाद फिर पर्याय का ज्ञान बढ़ाइए । गुणस्थान 14 हैं । जीव समास 14 हैं । मार्गणायें 14 हैं―उनके भेद प्रभेद है ताकि यह विदित हो कि जीव अमुक-अमुक स्थिति में रहते हैं । फिर और बढ़िये तो अब उन सब बातों को द्रव्य, गुण, पर्याय इन तीन शैलियों से ज्ञान करने लगिये । जो भी चीज ज्ञान में आए उसमें द्रव्य क्या है, गुण क्या है ? परिणमन क्या है, इस शैली से ज्ञान कीजिए । इस शैली से ज्ञान करने में प्रत्येक पदार्थ के अपने-अपने लक्षण जानने होंगे । जैसे जीव का लक्षण है चेतना, पुद्गल का लक्षण है मूर्तता―रूप, रस, गंध, स्पर्श होना और धर्मादिक का लक्षण है गतिहेतुत्व आदिक । प्रकृत में दो बातों पर चलना है । पुद्गल का लक्षण तो मूर्तिकता और जीव का लक्षण है चेतना । तो अपने-अपने लक्षण का ज्ञान करिये ।
प्रयोजनीय ज्ञान―इसके पश्चात् भेदविज्ञान करिये । जहाँ चेतना है वहां मैं हूँ, जहाँ चेतना नहीं है वहां मैं नहीं हूं । भेद ज्ञान करने के बाद जो छोड़ने योग्य है उसकी दृष्टि छोड़िये । जो ग्रहण करने योग्य है उसकी दृष्टि करिये । छोड़ने योग्य है अचेतन और अचेतन भाव । ग्रहण करने योग्य है यह चैतन्यस्वरूप । उसे ग्रहण करिये । ग्रहण कैसे करेंगे ? यह चेतनामात्र मैं हूं । चेतन का काम क्या है ? चेतना । मैं चेत रहा हूं, मैं चेतते हुए को चेत रहा है । चेतते हुए के लिए चेत रहा हूँ, चेतते हुए को चेतता हूँ, इस चेत रहे में ही चेतता हूं । इस तरह चेतने के उपाय द्वारा अपने आत्मा को ग्रहण करें । ऐसा जानने के बाद वह देख रहा है कि चेतने वाला कोई दूसरा नहीं है जिसको चेता जाये, वह तो एक चैतन्य भावमात्र है । तो उन सब विकल्पों का निषेध करके मैं चेतनमात्र हूं इस प्रकार अपने को पकड़ना है ।
आत्मग्रहण―फिर जब विशेष पकड़ में चला तो अपने को जानन द्वारा ग्रहण करता है । मैं जानता हूं, किसको जानता हूं ? इस जानते हुए को ही जानता हूं । काहे के द्वारा जानता हूं, इस जानते हुए के ही द्वारा जानता हूँ । किस लिए जानता हूं ? इस जानते हुए के लिए ही जानता हूँ । किसमें जानता हूं ? इस जानते हुए में जानता हूं । अरे किससे ऐसा प्रवर्तन निकालकर जान रहे हो, इस जानते हुए से ही जान रहा हूँ । फिर सोचा कि जानने वाला कोई दूसरा नहीं हैं, जिसको जान रहे हो वह जो जान रहा है वह पृथक् नहीं है और फिर किस लिए जान रहे हो, वहाँ जानना ही क्या हो रहा है? एक ज्ञानमात्र भाव है । इस तरह ज्ञानी ज्ञान गुण के द्वारा अपने को पकड़ रहा है ।
आत्मावभासन―इसी प्रकार उसने दर्शन गुण के द्वारा भी अपना प्रहण किया । मैं क्या करता हूँ देख रहा हूँ, इस देखते हुए को देख रहा हूँ, देखते हुए के द्वारा देख रहा हूँ, देखते हुए के लिए देख रहा हूँ, देखते हुए को देख रहा हूँ, देखते हुए में देख रहा हूँ, ओह वह दिखने वाला अन्य नहीं जिसको देखा जा रहा है । दिखाता भी क्या है? यह तो केवल दर्शन भाव मात्र है । इस तरह अपने अंतरभाव में घुसकर वह अपना प्रकाश पा रहा है । अपने आपको ग्रहण कर रहा है । ऐसी अध्यात्मसाधना करने वाले की कहानी है । कहीं ऐसा निषेध सुनकर कि प्रतिक्रमण आदिक करना विषकुंभ है तो निकृष्ट जीव उसे छोड़ न दे, यह ऊंचे अध्यात्मयोग में बढ़ने वाले पुरुष की कहानी है ।
द्रव्यप्रतिक्रमणादिकी उभयरूपता―इस मोक्षाधिकार में प्रारंभिक भावों को लेकर अंतिम चैतन्यमात्र भावरूप वर्णन करके अब आचार्यदेव यह बतला रहें है कि व्यवहार आधार सूत्रों में तो प्रतिक्रमण आलोचना निंदा आदि को अमृतकुंभ बताया है, शुद्धि के साधकतम बताया है किंतु उससे और उत्कृष्ट ज्ञानपद की दृष्टि में तो व्रत अव्रत दोनों से रहित अवस्था है वहां ये सब विषकुंभ माने जाते हैं । उन्हीं 8 चीजों का अब अर्थ कर रहे हैं । प्रतिक्रमण का अर्थ तो है लगे हुए दोषों का निराकरण करना । ये आठों की आठों बातें तीनों पदवियों में दिखती है । एक अज्ञानी अवस्था में और एक ज्ञानी होकर साधना अवस्था में और एकमात्र ज्ञानवृत्ति की अवस्था में तो प्रतिक्रमण का अभाव होना अज्ञान अवस्था में विषकुंभ है और ज्ञानी की साधना की अवस्था में प्रतिक्रमण करना अमृतकुंभ है किंतु इससे ऊपर ज्ञानवृत्ति की अवस्था में फिर भी प्रतिक्रमण से अलग रहना, गुरुवों के पीछे-पीछे फिरना, विकल्प करना―ये सब उस ज्ञानवृत्ति के मुकाबिले में विष हैं, विषकुंभ है याने हेय है ।
त्रिपुटी का व्यावहारिक उदाहरण―अच्छा रोटी बनाते हैं तो सिगड़ी लाना कोयला जलाना लकड़ी में फूँक मारना ये सब रसोई के लिये अच्छे काम हैं ना, अब रोटी बन चुकी पूरी, फिर लकड़ी ले आना, फूँक मारना, कोयला जलाना, आंसू बहाना वे बातें अच्छी है कि बुरी है ? ऐसे ही इन तीनों पदों में इन बातों को देखना है ।
प्रतिसरण का भाव―दूसरा भाव बताते हैं प्रतिसरण । प्रतिसरण का अर्थ है सम्यक्त्व आदिक गुणों में अपने को प्रेरित करना । धर्मात्मा जनों में वात्सल्य करना, धर्म में उन्हें स्थिर करना सेवाएं करना, धर्मात्मावों के प्रति सेवा में ग्लानि न करना, जिन-वचनों में शंका न करना और अपने चारित्र संयम के द्वारा अथवा अन्य समारोह अतिशय प्रभावना के द्वारा धर्म की प्रभावना करना ये चीजें अच्छी है या बुरी है? तो प्राक् पदवी में तो साधारण जनों में तो अच्छी चीज है और सर्वथा ही अच्छी चीज हो तो तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बड़े-बड़े लोग इन व्यवहारवृत्तियों को तज कर मोक्ष में क्यों पहुंच गए? अब वहां ठलुवा क्यों बैठें ? तो मालूम होता है कि ये ही सब धर्म की प्रवृत्तियां अब उस पद के मुकाबले में विषकुंभ हो गई हैं । सो ज्ञानी पुरुष के एक विशुद्ध दृष्टि जगी रहती है ।
प्रतिहरण का भाव―तीसरा भाव है प्रतिहरण । मिथ्यात्व रागादिक दोष निवारण करना, सो है प्रतिहरण । न आ सके राग, यही तो कल्याण हैं । अगर राग आ रहा हो तो ऐसा विचार बनाएं कि किस क्षणिक पुरुष से राग किया जा रहा है ? स्वयं भी मिटने वाला, वह दूसरा भी मिटने वाला, तब तो वियोग होगा ही । राग करके अपने जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ क्यों खोया जा रहा है और इससे उसे लाभ क्या मिलेगा ? विवेकपूर्ण परिणमनों के द्वारा उस रागभाव को दूर करो, इसको प्रतिक्रमण कहते हैं । अब बतलावो कि प्रतिहरण करना अमृत है या विष है ? निकृष्ट दशा वालों के लिए तो अमृत है, किंतु ज्ञानवृत्ति का जिसने स्वाद लिया है, वह तो ज्ञानभाव ही रहना ठीक जानता है और ज्ञानमात्र रहने की वृत्ति करता है, उसके लिए तो प्रतिक्रमण विषकुंभ है ।
धारणा का भाव―चौथी चीज बतलाई जा रही है धारणा । अपना चित्त स्थिर करना, इसका नाम धारणा है । यह बड़ा विकट चित्तजाल है । थोड़ा चित्त को ढीला किया तो लंबे फिंक जाते हैं और थोड़ा दृढ़ करो तो स्वयं यह काबू में अपने में आ जाता है । जैसे ऊधमी घोड़े की लगाम ढीली करना खतरनाक है, इसी तरह इस मन की लगाम ढीली करना खतरनाक है । कोई सोचे कि थोड़ी देर ही तो राग किया जा रहा है तो पता नहीं कि उस थोड़ी देर में कैसी बुद्धि बन जाए राग से बढ़कर मोह में आ जावे और मोह महान अंधेरा है, इसलिए चित्त को स्थिर करना, यही धारणा है ।
धारण का उद्यमन―भैया ! चित्त स्थिर कैसे करना है ? बाह्य सब धर्मनिमित्तों का आश्रय करके पंच नमस्कार का ध्यान करना, पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का स्मरण करना । अहो, यह शुद्ध अवस्था तो अरहंत सिद्ध प्रभु की है―जहां सर्वज्ञता का असीम फैलाव है दोष का रंच नाम नहीं है, शुद्ध ज्ञानपुंज विकसित हुआ है । अहो, वैभव तो यही है । यह मैं हूं, मुझमें भी यह स्वभाव है, ऐसे उस स्वरूप के स्मरण से अपने स्वभाव की समता का चिंतन करके एकदम बना, अपने चित्त को स्थिर करना और उस प्रतिमा का दर्शन करके मुद्रा को निरखकर बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से निरखना, चलती-फिरती नजर से मुद्रा को देख लेने से वहां कुछ न मिलेगा । एकटकी लगाकर कैसी उनकी नासाग्र ध्यान की मुद्रा है और ऐसा देखते हुए यह भूल जाना कि यह पाषाण की मूर्ति है, बल्कि यह भाव में आ जाए कि ओह, ऐसी मुद्रा, न पलक गिरती है, न पलक उठती है, ऐसा प्रभु का स्वरूप है । उनको किसी प्रकार के राग से प्रयोजन नहीं, किसी बाह्य की ओर उनकी दृष्टि नहीं । वे तो अपने आपके आत्मा के उपयोगी रहकर आनंदरस से तृप्त हो रहे हैं, ऐसा ही प्रभु है । प्रतिमा का आश्रय लेकर अपनी विशुद्ध भावना बनाकर चित्त को स्थिर करना, इसका नाम है धारणा।
धारणा की हेयोपादेयता―अब यह बतलावो कि धारणा करना अमृत है या विष ? हम लोगों के लिए और जनसाधारण के लिए अमृत है । न करें चित्त को स्थिर तो क्या करें ? जो पाप में लगे है, उनके लिए धारणा अमृत है । मगर क्या सदा यह करता रहे ? नहीं । यह विकल्प भी भूलें, केवल ज्ञाता दृष्टामात्र परिणमन रहे, यही उत्कृष्ट अवस्था है । उस ज्ञाताद्रष्टा की स्थिति के मुकाबले यह हमारी धारणा विषकुंभ बताई गई है । देखिए, गरीब भी हो कोई और न बन सके लखपति जैसा लखपति, तो भी लखपति की सारी बातों को समझ तो ले । उससे क्या होगा ? यह गरीब चौकन्नासा न रहेगा, बेवकूफ न रहेगा भीतर में । जानकारी तो सब हो जाएगी । नहीं मिल पाती है ज्ञाताद्रष्टा की स्थिति तो कम से कम ज्ञाताद्रष्टा की स्थिति का जौहर तो जान ले कि वहाँ क्या आनंदरस भरा है? कम से कम चौकन्ना तो न रहेगा, अंधेरे में तो न रहेगा । प्रभुमूर्ति के चरणों से आगे दालान में सिर रगड़ने-रगड़ने का ही तो प्रोग्राम न रहेगा । अब कुछ आगे की बात तो समझ में आएगी । किसके लिए हम बंधन करते हैं, किसके लिए भक्ति करते है? वह चित्त में होगा । यह देखो कि ज्ञानवृत्ति के आगे धारणा विषकुंभ है ।
निवृत्ति का भाव―पांचवां परिणाम बतला रहे हैं निवृत्ति । निवृत्ति मायने हट जाना । बहिरंग जो विषयकषाय आदिक अपने मन में आने वाले विकल्प है, उन विकल्पों से हट जाना, इसका नाम निवृत्ति है । जैसे कोई पुरुष किसी के चक्कर में, राग में उलझ गया हो और किसी भी प्रकार उसका छुटकारा हो जाए, निवृत्ति हो जाए तो वह उस निवृत्ति में यद्यपि वह अकेला रह गया है, पर जितनी तृप्ति उसको निवृत्ति में मिलती है, उतनी तृप्ति प्रवृत्ति व संगति में नहीं मिलती । निवृत्त करना भी होगा अपने चित्त को विकल्पों से । विकल्प आएँ तो उन्हें ज्ञान द्वारा दूर किया जाए । विकल्प ही हमारा बैरी है । जैसे पलास के पेड़ में लाख लग जाए तो यह लाख उस पलास के पेड़ का बैरी है, उस सूक्ष्म को मूल से नष्ट कर देता है । इसी प्रकार इस मुझ आत्मा में यह विकल्पों की लाख लग गई है, ये विकल्प इस प्रभु को बरबाद करने के लिए उतारूं है, पर हे प्रभु ! तु इन बैरियों का यथार्थ स्वरूप जानकर इनसे दूर हटने का यत्न कर । इनमें फंसकर फंसता चला जाएगा ।
निवृत्ति का उपाय―जैसे कोई बुद्धिमान् पुरुष हो, उसे दुष्ट पुरुषों के द्वारा कुछ पीड़ा भी पहुंच जाये तो भी उनकी उपेक्षा करके अपने काम में लगते हैं, इसी प्रकार ये रागादिक, इनके द्वारा यह ‘मैं’ प्रभु सताया हुआ हूं, पर बुद्धिमानी इसमें है कि उन समस्त विकारों से हटकर अपने ज्ञानस्वरूप के जानने में लग जाए तो उसका उपाय सफल होगा। निवृत्ति इसी का नाम है। अब बतावो निवृत्ति अमृत है या विष? अमृतकुंभ है। पर यह चीज सदा रहनी चाहिए क्या? कभी ज्ञान के परमआनंद का अनुभव नहीं करना चाहिए क्या? इन रागादिकों के हटाने के श्रम में तो शुद्ध आनंद नहीं आ रहा है। रागादिक हो रहे हैं और ज्ञानबल से हम विकल्पों को हटाने का यत्न करते हैं। यही तो एक श्रम हैं, पुरुषार्थ है। ठीक है, परंतु उस श्रम में परमआनंद का अनुभव नहीं है। परमआनंद का अनुभव ज्ञानवृत्ति में है। उस ज्ञानवृत्ति के मुकाबले यह निवृत्ति विषकुंभ बतायी गयी है।
निंदाभाव―छठवां भाव है निंदा। अपने आपमें अपनी साक्षी लेकर दोषों को प्रकट करना, सो निंदा है। कभी एकांत में आप ही भगवान बन जाइए, आप ही भक्त बन जाइए, भक्त बनकर भगवान को गिड़गिड़ाइए और भगवान बनकर अपने दोषों को निश्छल कहकर अपने ही आत्मस्वरूप का आलंबन करने का यत्न कीजिए। इसी का नाम है निंदा, यह है अमृतकुंभ। आत्मसाक्षिपूर्वक आत्मनिंदा करने से बहुतसा बोझ हल्का हो जाता है। उसके समस्त दु:ख दूर हो जाते हैं, उसमें आगे दोष न करने के लिए प्रेरणा मिलती है। ऐसी अपने आपकी निंदा करना अमृत है या विष है? अमृतकुंभ है। इससे बहुत लाभ मिलता है, उत्कृष्ट स्थिति की ओर इसकी गति होती है, किंतु अपने आपकी इस तरह की निंदा करते रहना ही क्या अंतिम श्रेय है? अंतिम अर्थ है ज्ञाताद्रष्टा रहना। इस स्थिति के बिना आत्मनिंदा विषकुंभ हैं।
अज्ञानियों की प्रशंसापद्धति―भैया ! प्रत्येक मनुष्य अपनी प्रशंसा चाहता है, पर शायद यह मनुष्य अकेले में अपनी प्रशंसा न चाहता होगा, न करता होगा। जहां दो-चार पुरुष दिख गए, मिल गए, वहाँ अपनी प्रशंसा किया करता है। होगा भी कोई ऐसा मूर्ख जो अपनी इस बाहरी करतूत पर, अपनी कला करतूत पर भी एकांत में बड़ा संतोष और तृप्ति का अनुभव करता होगा और अपने को बड़ा मानता होगा। मैंने बहुत ठीक किया, हूं भी ऐसा कर्ता। किसी को धोखा दिया, छल किया और छल से कुछ पैसों का लाभ लूटा तो एकांत में कितनी खुशी हुई? देखो, मैंने कितना चकमा उसको दिया कि वह लुट गया और मैंने अपना पेटा भर लिया। ऐसे ही लोग है जो इस करतूत पर तृप्ति, संतोष और बड़प्पन मानते हैं। बिना टिकिट के लोग रेलगाड़ी में सफर कर रहे हैं, दो चार टिकिट चेकर भी रेल में हैं, पर कभी नीचे उतर जाये, और कभी अपना सीना फुलाए हुए टिकिट चेकर के पास से निकल जाये, कभी संडास में घुस जाये, इन्हीं करतूतों से टिकिट चेकर को छका दिया, धोखा दिया तो सोसायटी में आकर कैसी अपनी बड़ाई करते हैं कि मैंने अपनी कला से टिकिट चेकर को यों छकाया। तो अपनी प्रवृत्तियों पर भी यह जीव अपना बड़प्पन समझता है।
निंदाभाव के अमृतकुंभपने व विषकुंभपने का निर्णय―ऐसा ज्ञानीसंत बिरला ही है जो अपनी त्रुटियों पर अपने आपके प्रभु के समक्ष निंदा करता है । मैंने बड़ा बुरा किया । मेरा तो ज्ञानदर्शनमात्र ही स्वरूप है । मुझे तो मात्र जाननहार ही रहना था । किंतु अमुक, जीव पर मैंने राग का परिणाम किया, अमुक पर मैंने द्वेष परिणाम किया और और भी बड़ी पाप की बातें हो गयीं उन सबकी निंदा करना यह तो ऊँची चीज है, अमृतकुंभ है, किंतु ज्ञानवृत्ति के समक्ष यह निंदा का भाव भी विकल्प है और विषकुंभ कहा गया है ।
गर्हाभाव―7 वां परिणाम है गर्हा । गुरु की साक्षी में अपना दोष प्रकट करना सो गर्हा है, यह बड़ा ऊंचा तप है । अपने मुख से अपनी यथार्थ गल्ती । कोई बिरला ज्ञानी संत ही कह सकता है । मुझे परवाह नहीं, मुझे इस दुनिया में अपनी इज्जत नहीं रखनी है, पोजीशन नहीं बनानी। । अरे यह सारा झमेला मायामय है । यहाँ कोई किसी का अधिकारी नहीं है, कोई किसी की खबर ले सकने वाला नहीं है । सभी जीव अपने आप पाप के अनुसार सुख दुःख भोगते हैं । ऐसे इस असाधारण मायामय जगत में मुझे अपनी क्या नाक रखना है, ऐसा ज्ञानी पुरुष ही ऐसा साहस कर सकता है कि अपने गुरु की साक्षी में अपने दोषों को निश्छल होकर बालकों की तरह आगे पीछे क्या परिणाम होगा, कुछ ध्यान न लाकर अपना कर्तव्य जानकर प्रकट करता है जिसे कहते हैं गर्हा।
गर्हा से दोषशुद्धि―भैया ! गर्हा से दोषों की बड़ी शुद्धि होती है, गुणों में बड़ी प्रेरणा होती है, सारा बोझ हल्का हो जाता है । यह यहाँ धर्म का विशेषरूप से अंग माना गया है । बतलावो ऐसी गर्हा करना विषकुंभ है या अमृतकुंभ है ? तो साधना की दशा में तो अमृतकुंभ है किंतु ज्ञानवृत्ति रूप जो आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था है उस अवस्था के लिए तो उसके मुकाबले में यह गर्हारूप वृत्ति विषकुंभ कही गयी है । यहाँ यह देखना है कि हमारी किस स्थिति में जाने पर उत्कृष्टता मानी जायेगी, यह धार्मिक जो हमारी प्रवृत्ति का रूप है यह कृतकृत्यता का रूप नहीं है । जो लोग इन धर्मक्रियावों को करते हुए निहीत समझ लेते हैं, अपने को कृतकृत्य मान लेते हैं―आज लो पूजन कर लिया कृतकृत्य हो गया । जाप देकर कृतार्थ हो गए । अरे ये साधना की दशाएँ हैं, यह कृत्यार्थता की व्यवस्था नहीं है । कृतार्थ की अवस्था में तो ये सब वृत्तियां समर्पित हो जाती है ।
चरमविकास स्वैकरसता―पानी में नमक के बोरे डाल दो, जब तक नमक की बोरी घुलती नहीं है उस समय तक समझ लो कि द्विविधा अवस्था है, खूब सुख जाता है तो डली का पता नहीं रहता है वह समझलो कि सुख की एकरस अवस्था है । इसी तरह हमारा उपयोग डली के माफिक जुदा-जुदासा फिरता रहा वह हमारी द्विविधा की अवस्था है । जब यह उपयोग कुछ एक ओरसा नजर न आये, किस जगह पड़ा है, किस जगह लग रहा है, क्या कर रहा है, यह भी जब जहाँ रहता है तब ये समस्त ज्ञान मग्न हो जाते हैं, एकरस हो जाते हैं वह है ज्ञान वृत्ति की अवस्था । उसके मुकाबिले यह गर्हा का उपक्रम विषकुंभ कहा गया है ।
शुद्धि का भाव―अब 8 वां परिणाम है शुद्धि । दोष हो जाने पर प्रायश्चित ग्रहण करके अपनी विशुद्धि कर लेना इसका नाम शुद्धि है । कोई दोष हो गया, गुरू से निवेदन किया, गुरु ने जो दंड बताया उस दंड का पालन किया, ऐसी वृत्ति करने से परिणामों में निर्मलता होती है किए हुए दोषों का खेदरूप जो दुःख है, शल्य है वह दूर हो जाता है फिर मोक्षमार्ग में इसका वेग पूर्वक गमन होता है, ऐसी शुद्धि करना अमृतकुंभ है । लेकिन ज्ञानवृत्ति के समक्ष अध्यात्मयोग के मुकाबले यह शुद्धिकरण विषकुंभ बताया गया ।
शुभाष्टक―ये 8 प्रकार के विकल्प शुभोपयोग है । ये सब यद्यपि सविकल्प अवस्था में है, सराग चारित्र अवस्था में है । रागादिक विषयकषायों में परिणति हुई ना, इस शुभोपयोग के मुकाबले ये 8 प्रकार के धर्म के अंग अमृतकुंड नहीं है क्या ? है । तो भी निर्विकल्प अवस्था जो तीसरी भूमि है, जिस निर्विकल्प अवस्था में प्रतिक्रमण का अभाव है, प्रतिसरन, निंदा गर्हा आदि आठ तत्त्वों का अभाव है, ऐसे तृतीय उत्कृष्ट पद की अपेक्षा निहारें तो ये 8 विषकुंभ कहे गए है ।
तीन आत्मभूमियां―प्रथम भूमि है अज्ञानी जनों की, द्वितीय भूमि है साधक पुरुषों की ज्ञानी पुरुषों की और तृतीय भूमि है ज्ञानधनोपयोगी रहने वाले आत्मावों की । तो प्रतिक्रमण पहिली अवस्था में भी नहीं है और तृतीय अवस्था में भी नहीं है लेकिन पहिली अवस्था में प्रतिक्रमण न करना दोष है, विषकुंभ है और तृतीय अवस्था में प्रतिक्रमण न होना अमृतकुंभ है । कैसी है वह तृतीय अवस्था जहाँ राग, द्वेष, मोह, ख्याति पूजा, लाभ इनका अभाव हो गया, केवल शुद्ध ज्ञानज्योति के अनुभव में रहने से स्वाधीन, अनुपम, आत्मीय आनंद प्रकट हो रहा है, जहाँ किसी प्रकार के भोगों की इच्छा नहीं है, न देखे हुए भोगों का ख्याल है, न सुने हुए भोगों का ख्याल है, न अनुभव किए हुए भोगों का ख्याल है, ऐसे निदान शल्य से रहित वह तृतीय ज्ञानवृत्ति की अवस्था है । परद्रव्यों का जहाँ रंच आलंबन नहीं है ऐसी विभावपरिणामों से रहित वह तृतीय अवस्था है । जहाँ चिदानंद स्वरूप एकस्वभावी विशुद्ध आत्मा के आलंबन से भरी पूरी अवस्था है ऐसी निर्विकल्प शुद्धोपयोग रूप निश्चय प्रतिक्रमण की अवस्था है । जो ज्ञानीजनों के द्वारा ही आश्रित है ऐसे तृतीय भूमि की अपेक्षा वीतराग चारित्र में स्थित पुरुषों के लिए ये प्रतिक्रमण आदिक विषकुंभ हैं ।
मध्यपद की सापेक्षता―यहां स्थूल रूप से यह जान लेना कि प्रतिक्रमण न करना दो तरह का है । एक ज्ञानी जनों का अप्रतिक्रमण और एक अज्ञानीजनों का अप्रतिक्रमण । अज्ञानी जनों का अप्रतिक्रमण विषय कषाय के परिणमन रूप होता है, वह तो विषकुंभ है । और ज्ञानीजनों का अप्रतिक्रमण अर्थात् व्यवहार धर्म को पकड़ में न रहना किंतु स्वयं धर्मरूप हो जाना, शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व आचरणरूप रहना, सुरक्षित रहना यह निश्चयप्रतिक्रमण अमृतकुंभ है । नाम अनुप्रास में अमृतकुंभ में तार्तीय अतिक्रमण कह दिया है, पर इसका नाम है निश्चय प्रतिक्रमण । यह निश्चय प्रतिक्रमण अमृतकुंभ है । तो ऐसी भावना रखो कि सर्वविकल्पों से हटकर मेरी केवल ज्ञानवृत्ति हो ।
सुबोध के लिये नामांतर―तीन दशाएं होती हैं―अप्रतिक्रमण, प्रतिक्रमण ओर अप्रतिक्रमण । अच्छा यों न बोलो―यों कहो पहिला प्रतिक्रमण दूसरा व्यवहारप्रतिक्रमण और तीसरा निश्चयप्रतिक्रमण, यह भाषा मर्म समझने में शुद्ध रहेगी । ज्ञानीजनों के वर्णन में तो ज्ञानात्मक ढंग का वही वर्णन था अप्रतिक्रमण, प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण । पर सुबोध के लिए इस प्रकार रखिए अतिक्रमण, व्यवहारप्रतिक्रमण और निश्चयप्रतिक्रमण । अर्थ खुलासा बतायेंगे इसलिए इस अनुत्साह में न बैठें कि क्या कहा जा रहा है, यह तो ऊंची चर्चा है । चित्त देने से सब समझ में आता है और चित्त न देने से दाल रोटी बनाने की तरकीब भी समझ में नहीं आती ।
एक जिज्ञासा―अप्रतिक्रमण का अर्थ है अपने दोषों को दूर न करना कुछ कल्याण के लिए उत्साह न जगना, रागद्वेष में पगे रहना यही है अप्रतिक्रमण । और जब अज्ञान मिटता है, सम्यक्त्व जगता है तो यह जीव व्यवहारप्रतिक्रमण भी करता है । गुरुवों से निवेदन करना, जो दंड बताया जाए, उसको ग्रहण करना, यह है व्यवहार प्रतिक्रमण, पर निश्चयप्रतिक्रमण की दृष्टि नहीं है । आज यह बात समझ में आएगी । जैसे कि कुछ भाइयों को यह जिज्ञासा बन गयी कि जब निश्चय ज्ञानवृत्ति में पहुंच गया तो प्रतिक्रमण आदिक का उसे ख्याल नहीं है । विषकुंभ क्यों कहा जाता है ? आज उस विषय को स्पष्ट कर रहे हैं और बड़ी दिशा मिलेगी तुम्हें इसमें ।
शुद्धिसापेक्षता बिना शुभ की स्वकायकारिता―जिस जीव को अपने ज्ञानस्वभाव का परिचय नहीं और मोक्षमार्ग के लिए अंतर में परिणमन क्या होता है, इस बात का जिन्हें बोध नहीं है ऐसे ज्ञानीजन यदि व्यवहार प्रतिक्रमण भी करें, दोष लगें तो उसका प्रायश्चित्त करें, मूलगुणों का भी खूब पालन करें, तिस पर भी प्रतिक्रमण का और इन व्रत, संयमों का प्रयोजन तो मोक्षमार्ग में बढ़ने का था, किंतु वह तो एक सूत भी नहीं बढ़ सका, क्योंकि मोक्षमार्ग होता है अपने शुद्ध आत्मतत्त्व के श्रद्धान्, ज्ञान, आचरणरूप चलने से । व्यवहार में ये सब प्रतिक्रमण आदिक करें तो उससे किंचित् पुण्यलाभ होता हो, पर मोक्षमार्ग नही मिलता । सो प्रतिक्रमण के प्रयोजन का विपक्ष जो संसार-बंधन है, वह तो बना ही रहा, इसलिए अज्ञानीजनों का व्यवहार प्रतिक्रमण भी विषकुंभ है, यहाँ यह बताया गया है।
परमार्थापराध के विषकुंभता―भैया ! यही सब व्यवहारप्रतिक्रमण शुद्ध दृष्टि को लिए हुए पुरुषों में होता तो यह अमृतकुंभ है । इसी बात को अमृतचंद्रसूरि ने अपने आत्माध्यान में कहा है कि जो अज्ञानीजनों में पाये जाने वाले अप्रतिक्रमण आदिक है पापबुद्धि, कषायभाव उससे शुद्ध आत्मा की सिद्धि का अभाव है, चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व की दृष्टि उनके नहीं है, सो स्वयं ही अपराधी है । पहिले बताया था कि शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की दृष्टि नहीं रहना; सो सब अपराध है । अब यह लक्षण घटाते जाएँ, यह सब व्यवहारप्रवर्तन परमार्थदृष्टि से अपराध कहा गया है ।
कल्पना बिना क्लेश की अनुत्पत्ति―भैया ! जितना भी जीवों को क्लेश है; सब अपने-अपने अपराध के कारण क्लेश है । कोईसा भी क्लेश ऐसा बतावो कि खुद का अपराध न हो और क्लेश होता हो । मूल में यही अपराध है कि हम अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभावरूप अपने को लक्ष्य में नहीं ले रहे हैं । कोई पुरुष गाली देता है, एक नहीं वरन् 50 आदमी खड़े होकर एक स्वर से गाना बनाकर गालियां दे और यह पुरुष जिसको लक्ष्य मे लेकर गालियां दे रहें है, अपने को सबसे न्यारा शुद्ध ज्ञानस्वरूप अनुभव में ले रहा हो तो उसका क्या बिगाड़ किया उन पचासों पुरुषों ने ? क्यों दुःखी नहीं हुआ यह ? यह अपराध ही नहीं कर रहा है, जो अपराध करे सो दु:खी हो ।
डबल अपराध―अपराध तो खुद की कल्पना से ही होता है । अभी कल्पना में यह आए कि अमुक ने देखो ऐसा अनहोना काम किया, सो हमें उस काम से कष्ट हो रहा है, यह है उसका डबल अपराध । एक तो खुद के अपराध से दु:खी हो रहा है और दूसरे मान रहा है कि इसने यों किया है, इसलिए मुझे क्लेश हुआ । इसे कहते हैं भ्रम । रागद्वेष सिंगल अपराध है और भ्रम करना डबल अपराध है । यह जगत का प्राणी डबल अपराधी हो रहा है । अपने स्वरूप में रमता हुआ कोई पुरुष किसी भी दूसरे के यत्न से कभी भी दु:खी हो सकता हो तो अंदाज में लावो । जो दु:खी हुआ, वह अपने ज्ञान से चिगा और दुःखी हुआ ।
अज्ञानगति का वेग―किसी के घर इष्ट का वियोग हो गया हो और भले ही उससे अनुराग हो, आसक्ति हो तो वह पुरुष या महिलाएं मुश्किल से रात को सो पाते हैं और जब नींद खुलती है तो नींद के खुलते ही याद आती है और रोना शुरू होता है । पड़ौसी लोग सुनते हैं । पहिले जरा रोने की स्पीड हल्की होती है, थोड़ी देर बाद रोने की स्पीड तेज हो जाती है और ऐसी तेज हो जाती है कि सुनने वालो को भी रोना आ जाता है । यह क्या हो रहा है ? जैसे-जैसे अपने ज्ञान से दूर होकर बाहर में भटककर अज्ञान में लिप्त हो रहे हैं, वैसे ही वैसे ये क्लेश बढ़ रहे हैं, कोई दूसरा क्लेश देने नहीं आता है ।
वियुक्त और शिष्ट में हानि लाभ का योग―अच्छा भैया ! तुम्हीं बतावो कि दो भाई है, दो मित्र है, उनमें से एक मित्र मर गया दूसरा मित्र जिंदा है । अब यह बतलावो कि मरने वाला टोटे में रहा या जीने वाला टोटे में रहा ? यह निर्णय दो । मरने वाले को क्या परवाह है ? जिस जन्म में जाता है नया शरीर पाता है, नई-नई बातें, नया रंग, नया ढंग पाएगा । अब जो जिंदा बच गए है, वे रात्रि को सवा दस बजे तक रोवेंगे और सुबह 3।। बजे से रोवेंगे । दिन में जो मिलने वाले आऐंगे, तब रोवेंगे । जब भी स्मरण किया तभी रोवेंगे । उस मरने वाले को तो खबर ही नहीं रहती कि हमारा भाई कहां होगा, हमारे मित्रजन कहां होंगे ? यह कुछ उसको खबर नहीं रहती है । जो अपराध करता है, वही दुःखी होता है । अपराध यह है कि अपने स्वभाव की दृष्टि से चिगकर पर की ओर आकर्षण है।
हर्ष और विषाद में आकुलता―भैया ! हर्ष और विषाद दो चीजें मानी जाती हैं इस लोक में । विषाद में आकुलता होती है कि नहीं होती है और हर्ष में आकुलता है या अनाकुलता ? आकुलता बिना हर्ष भी नहीं किया जा सकता और विषाद भी आकुलता बिना नहीं किया जा सकता । यह प्रत्यक्ष देख लो । जैसे किसी बात पर तेज हँसी आ जाए तो सांस रुक जाती है, पेट भी दर्द करने लग जाता है, दु:ख हो जाता है । कोईसा भी काम बिना आकुलता के कोई कर सकता है क्या? खूब बढ़िया आराम के साधन मिले हैं, खूब रसीले भोजन करने का रोज-रोज समागम मिला है । क्या किसी को शांत मुद्रा के साथ भोजन करते हुए देखा है? आकुलता रंच न हो और कौर सटकता जाए तो यह हो सकता है क्या ? अरे, उसको तो सटकने की आकुलता, कौर उठाने की आकुलता है । वह गणित लगाता रहता है कि इस कौर के बाद किस कौर पर हाथ धरेंगे?
भोगों को आकुलतामयता―भैया ! किसी भी प्रकार का हर्ष हो, देखा गया है कि आकुलता के बिना वह हर्ष नहीं होता । पंचेंद्रिय के विषयों के भोगों मे से कोईसा भी भोग आकुलता के बिना नहीं भोगा जा सकता है । पहिले आकुलता है, भोगते समय आकुलता है और भोगने के बाद आकुलता है । समस्त योग खेदमय है । खेदमय किसे कहते हैं कि पहिले खेद, वर्तमान में खेद, पीछे खेद । जब तक भी भोगों का संबंध मन से, वचन से, काय से है, तब तक उसके खेद ही खेद है । यह विषयकषायों की बात ।
शुभ और अशुभभाव में आकुलता का गर्भ―अब जरा व्यवहारिक प्रतिक्रमण पर आइए । वह था अशुभ भाव और यह है शुभ भाव, पर आकुलता बिना, क्षोभ बिना, तकलीफ बिना कोई किसी को गुरु बनाता है ? कोई अपने दोष किसी गुरु को बताता है ? गुरुजन जो प्रायश्चित्त कहेंगे । आकुलता बिना, क्षोभ बिना उस दंड को भी ग्रहण क्या कोई करते हैं ? अब यह बात दूसरी है कि इसकी आकुलता और किस्म की है और अज्ञानीजनों की आकुलता और किस्म की है । उस व्यवहारप्रतिक्रमण में लगने वाले पुरुष के तो निश्चयप्रतिक्रमण ज्ञान का ज्ञान में रम जाना है । इस प्रकार के प्रतिक्रमण का लक्ष्य हो, दृष्टि हो तो इस निश्चयप्रतिक्रमण की नजर के प्रसाद से व्यवहारप्रतिक्रमण अमृतकुंभ बनता है । नहीं तो जैसे घर का काम किया, वैसे ही लोकपूजा का काम किया । यदि आत्मा का लक्ष्य न समझ में आए तो फर्क थोड़ा है, पर मूल में फर्क नही है ।
परिणामों का परिणाम―एक कथानक है कि दो भैया थे, एक बड़ा और एक छोटा । बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा कि तुम पूजा कर आवो और मैं रसोई के जलाने के लिए जंगल से लकड़ी तोड़ लाऊं । छोटा गया पूजा में और बड़ा गया लकड़ी बीनने । लकड़ी बीनने वाला भाई सोच रहा है कि मैं कहा झंझटों में फंस गया, मेरा भाई तो भगवान के सामने आरती कर रहा होगा, खूब पूजा कर रहा होगा, भगवान की भक्ति में लीन हो रहा होगा । यह तो सोच रहा है लकड़ी बीनने वाला भाई और पूजा में खड़ा हुआ भाई सोच रहा है कि हमको यहाँ कहां ढकेल दिया । वह भाई तो जामुन के पेड़ पर चढ़ा होगा, जामुन खा रहा होगा, आम खा रहा होगा खूब मजा कर रहा होगा, फिल्मी गाने में मस्त हो रहा होगा, यह सोच रहा है पूजा वाला भाई ! अब भावों की ओर से बतावो कि पुण्यबंध किसके हो रहा है और पापबंध किसके हो रहा है ? पुण्यबंध को वहाँ लकड़ी बीनने वाले के हो रहा है ।
तार्तीय की भूमि―यहां इससे भी और ऊंची बात कही जा रही है कि ये जो व्यवहार प्रतिक्रमण आदिक नियम संकल्प आदिक है यदि शुद्ध दृष्टि सहित है तो यही बनता है अमृत और शुद्धदृष्टि बिना है तो जैसे अज्ञान दशा विषकुंभ है वैसे ही अब भी यह दशा विषकुंभ है क्योंकि अंतर में उसके मोक्ष में लगने की बात नहीं आ पाती है । आत्मा के सहजस्वरूप को बताने वाले जैन दर्शन का आप लोगों ने समागम पाया, श्रावक कुल पाया, जहाँ घर के बाहर में चलने में व्यापार में सर्वत्र अहिंसा का वातावरण रहता हो ऐसे कुल में जन्म पाया और जहाँ आत्मा के सहज सत्य स्वरूप पर पहुंचाने का निराला ढंग बताने वाला उपदेश पाया हो, ऐसे दुर्लभ समागम को प्राप्त कर इतना तो मन में उत्साह बनाओ कि ये बाहरी चीजें मायारूप है, ये धन वैभव जगजाल है, झंझट है, जड़ है, इनके लिए हम जिंदा नहीं है । ये तो चीजें जैसे आ जायें उसके ही अनुकूल व्यवस्था बना ले ।
अहित की अपेक्षा का संकेत―भैया ! हम अपने मन चाहे विकल्पों के द्वारा धन संचय न करें किंतु जो उदयानुसार आ गया उसके अनुसार हम अपनी व्यवस्था बनाकर उस चिंता से मुक्त हो जायें । यह दुर्लभ जीवन चिंता में ही यदि बिता दिया तो बेकार जीवन गया । किसी अन्य चिंता में जीवन बिताया तो व्यर्थ गया । ये कुछ नहीं है । बढ़िया कपड़े पहिनने को मिले तो क्या, न मिलें तो क्या ? पचासों कपड़े रख लिये तो क्या, और दो ही धोतियों से जिंदगी निकाल दिया तो क्या ? बल्कि बढ़िया कपड़े पहिनने से नुकसान है, अपनी साधना रखने में भी बढ़िया कपड़े हानिकारक है । राग के विकल्प, घमंड के विकल्प, क्षोभ के विकल्प और जरा-जरासी बातों में ऐंठ जाने की आदत बनाना ये उसकी एवज में आ जाएंगे । सो यहाँ तो गुजारा करना है ।
जीवन का सत् लक्ष्य―भैया ! काम तो यह है कि आत्मदृष्टि करके धर्मपालन करके सदा के लिए संकटों से छुट जाए, त्रस और स्थावरों में जन्म लेने और दु:ख भोगते रहने के संकटों से छूट जायें, उसके लिए हम आप पैदा हुए है । ऐसा अंतरंग में श्रद्धान रखो । जिनका विकल्प कर करके हम परेशान हो रहे हैं वे जीव एक भी मेरे कल्याण में, हित में, सुख में शांति में साथी न होंगे । अत: जीवन का ध्येय दुनिया की निगाह में अपनी पोजीशन रखना यह न होना चाहिए । पोजीशन बनाने से बनती भी नहीं है । उस पोजीशन न चाहने के भाव वाले पुरुष मैं ऐसा महत्त्व होता है कि स्वयं उसकी पोजीशन बनती चली जाती है । तो इस कथन का प्रयोजन यह है अपराध रहित होकर यदि व्रत, संयम, नियम, प्रतिक्रमण आदिक किए जाएं तो वे अमृत है, भले हैं और अपराध सहित इन व्यावहारिक अधर्मों को करते चले जाएं तो वे पूर्ववत् विषकुंभ हैं ।
निमित्तनैमित्तिकता―कर्म यह नहीं देखते हैं कि यह मंदिर में बैठा है इसलिए न लगो । अलंकार से कह रहें है परसोनीफिकेशन है । कोई कर्म कहने आता नहीं । कर्म यह नहीं देखते हैं कि यह आसन मारकर आंखें बंद करके माला फेर रहा है, इसको हम न बांधे । कर्मों का और अशुद्ध परिणामों का निमित्तनैमित्तिक संबंध है । किसी भी जगह हो, यदि परिणाम अशुद्ध है तो कर्म बंध जायेंगे । जिन्हें कर्मबंधन न चाहिए, संसार के संकट न चाहिएं उन्हें क्या करना है ? तो मोटे शब्दों में कहो कि रही सही ख्याल में आई हुई जो बातें उठती है उन्हें हम धूल में न मिला दें, मेरी कुछ इज्जत नहीं है, मुझे कोई लोग जानते ही नहीं हैं और जानते हैं कोई तो वे अपने में रम जाते हैं उसका लक्ष्य ही नहीं रखते हैं ।
महासंकट का मूल पर्यायबुद्धि―सो भैया ! एक यह निर्णय कर लो अपने जीवन को सुखी रखने के लिए कि हम दुःखी हैं तो अपन ही अपराध किया सो दु:खी है । प्रथम अपराध यह है कि हम शरीर को मान रहे हैं कि यह मैं हूं । इस अपराध की बुनियाद पर अब पचासों अपराध हो रहें हैं । नातेदारी मान लें―यह मेरा अमुक है, यह मेरा अमुक है और देखो तो गजब कि नातेदारी का क्या अर्थ है―न मायने नहीं है, मायने तुम्हारे नहीं है तुम्हारे इस बात का नाम है नातेदारी । तो अर्थ तो यह है और उसी शब्द द्वारा आकर्षण हो रहा है पर की ओर । यह मेरा कुछ है । सो प्रथम तो शरीर को माना कि यह मैं हूं, इस अपराध के बुनियाद पर विषय भोगने के अपराध, कषाय करने के अपराध पर को अपना मानने के अपराध ये सारे अपराध हो रहे हैं । इन सब अपराधों को मिटाना है एक साथ तो एक ही उपाय है―ज्ञानधन, आनंदमय एक आत्मस्वभाव में अपने ज्ञान को जगा दो तो सारे अपराध एक साथ विध्वस्त हो सकते हैं ।
संकटविनाश का उपाय―जमुना नदी में चोंच उठाए हुए कछुवे पर पानी में पचासों पक्षी एक साथ आक्रमण करें तो उन पचासों के आक्रमण को विफल कर देने का कछुवे के पास एक ही उपाय है ? पांच अंगुल नीचे ही अपनी चोंच पानी में कर ले तो क्या करेंगे सारे पक्षी । पानी से बाहर चोंच उठाना है तो पचासों पक्षी सताते हैं । पानी में चोंच डुबा ले तो कोई भी पक्षी उसे नहीं सता सकता है । इसी तरह ज्ञानसमुद्र में से हम, अपनी उपयोग चोंच को बाहर निकालते हैं तो पचासों सताने के निमित्त बन जाते हैं और केवल उस उपयोग को थोड़ा ही अंतर में डुबा लें, पर का ख्याल न रहे तो सारे आक्रमण विफल हो जायेंगे ।
संयमविषयक त्रिपदी―इस अप्रतिक्रमण आदिक के प्रकरण को जानने के लिए एक नया दृष्टांत लें―और वह दृष्टांत लें संयम का । संयम के संबंध में तीन स्थितियां हैं―अधर्म, व्यवहारसंयम और निश्चयसंयम । असंयम में संयम नहीं है और निश्चयसंयम में व्यवहारसंयम नहीं है, इसलिए निश्चयसंयम का भी नाम असंयम रख लिया, तो असंयम, संयम और असंयम । पर निकृष्ट और उत्कृष्ट दोनों का असंयम नाम धरने में थोड़ा कुछ संशय भी हो सकता है इसलिए यह नाम रखो―असंयम, व्यवहारसंयम और निश्चयसंयम । जो अज्ञानी जनों में पाया जाने वाला असंयम है वह शुद्ध आत्मद्रव्य की दृष्टि नहीं करा पाता है इसलिए वह असंयम स्वयं अपराध है । सो विषकुंभ है ही, याने दया न पालना, व्रत न करना, 5 पापों में रत रहना, इंद्रियों के विषयों के भोगने में लीन रहना यह सब असंयम कहलाता है । तो यह सब असंयम विषकुंभ है, विष भरा घड़ा है । उसका तो विचार ही क्या करना है ? उसे तो सभी लोग स्पष्ट जानते हैं कि अज्ञानीजनों का असंयम विष है ।
नियचयसंयमशुन्यद्रव्यसंयम की विषकुंभता―जो द्रव्यरूप संयम है व्यवहारसंयम, जीवों की दया करना, लोगों का उपकार करना, अर्थात् बाह्यवस्तु के त्याग में लगना उपवास व्रत में लगना, यह जो व्यवहारसंयम है सो यह व्यवहारसंयम भी समस्त अपराध विष को दोषों को दूर करने में समर्थ है । इस कारण अमृतकुंभ है । भला है लेकिन असंयम और व्यवहारसंयम इन दोनों से विलक्षण जो निश्चयसंयम है उस तीसरी भूमि को जो नहीं देख पा रहे, नहीं छू पा रहे उनका वह व्यवहारसंयम अपना काम करने में समर्थ नहीं है । आत्मा को शांति की ओर ले जाने तक में समर्थ नहीं है, अत: निश्चयसंयमशून्य द्रव्यसंयम भी विषकुंभ है ।
स्वभावधारणा बिना विडंबनायें―देखा होगा भैया ! अनेक को कि व्रत, तप, आदि करते हुए भी गुस्सा भरी रहती है और जरासी बात में टेढ़े टाढ़े बोलने लगते हैं । उसका कारण क्या है उनका वह संयमपालन विधिवत् नहीं है, क्योंकि वहाँ निश्चय संयम की दृष्टि भी नहीं है । शांति कहां से हो ? पूजा भी करते, विधान भी करते । और कहीं कहते-कहते गुस्सा आ जाए किसी बात पर तो गुस्सा आ जाना कोई संयम की चीज है क्या ? जहाँ कषाय जगता हो, उसे तो अपन संयम नहीं कहते हैं । उसके तो विष भरा है, अपराध अंतर में भरा है, इसे अपराध कहो, विष कहो, दोष कहो, एक ही अर्थ है । जो आत्मा के शांतस्वभाव को, ज्ञानानंदस्वरूप को नहीं पहिचानते और मुझे रागद्वेष से दूर रहकर इस ज्ञानानंदस्वरूप में लगना है―ऐसी जिसकी बुद्धि नहीं है, दृष्टि नहीं है, वह व्यवहार में संयम का कठिन तप भी करता रहे तो भी अंतर में विषरूप है, परदृष्टिरूप है, उल्झनरूप है ।
स्वभावरति की स्वयं सिद्धिरूपता―सो जो इस तृतीय भूमि को नहीं देखता, शुद्ध ज्ञानवृत्ति को नहीं पहिचानता, ऐसा पुरुष अपने कार्यों के करने में असमर्थ है और उल्टा विपक्षरूप कार्य होता है, इसलिए वह व्यवहारसंयम विषकुंभ है, जो निश्चयसंयम का स्पर्श नहीं करता । वह व्यवहारसंयम चूँकि आत्मानुभव नहीं करा सकता, इस कारण वह भी दोष है । मगर निश्चयसंयम, निश्चयप्रतिक्रमण आदिक परिणामरूप तीसरी भूमि स्वयं शुद्ध आत्मा की सिद्धिरूप है और उन समस्त अपराधरूप विषदोषों को नष्ट करने में समर्थ सर्वंकष है, इसलिए वह तृतीय भूमि निश्चयवृत्ति स्वयं अमृतकुंभ है और उस निश्चयवृत्ति के कारण, उस ज्ञानानंदस्वभाव की उपासना के कारण यह व्यवहारसंयम, व्यवहारप्रतिक्रमण ये भी अमृतकुंभ कहलाते हैं । निश्चय का संबंध पाकर व्यवहारसंयम में भी सामर्थ्य है, सो द्रव्यसंयम भी अमृतकुंभ है और निश्चय का संबंध न रहे तो व्यवहार जैसे और है, वैसे धर्म का व्यवहार है ।
अपने प्रभु पर अन्याय―भैया ! यह बात इसमें सिद्ध की है कि यह जीव ज्ञानानंदमात्र रहने की परिणति से ही निरपराध होता है । जहां ज्ञानस्वभाव से चिगकर बाह्यपदार्थों को उपयोग में लेकर राग किया, द्वेष किया कि अपराध हो गया । अपने ही घर के बच्चों से कोई प्रेम से राग करे, उनको ही खिलाकर मस्त रहे और वह कहे कि हम अपना ही तो काम कर रहे हैं, किसी दूसरे को तो हम नहीं सता रहे हैं, हम तो बेकसूर होंगे । अरे ! तुम बेकसूर नहीं हो, तुम्हारा लड़का है कहां ? तुम तो भ्रम कर रहे हो कि यह हमारा है । बड़ा तीव्र भ्रम यह है कि जो ऐसी आत्मीयता जगती है कि आ गए मेरे बेटे, पोते । अभी दूसरे बालक की टांग टूट जाए तो खेद न होगा और अपने बच्चे का जरा किवाड़ में ही हाथ फँस जाए तो दया आ जाएगी । तो यह दया है क्या ? यह तो मोह है । दया तो उसे कहते हैं कि मोह बिना ज्ञानप्रकाश होकर भी करुणाभाव उत्पन्न हो । दया होती तो सब पर एकसी बरसती । जैसे घर के बच्चों पर, वैसे अन्य बच्चों पर और दया का तो यह बहाना करते और मोह को पुष्ट करते ।
अपने प्रभु पर सभ्य शब्दों में अन्याय―जैसे बहुत से लोग धर्म की बात कहते हैं और उनसे कहो कि तुम रिटायर हो, निवृत्त हो, अब तुम अपने ही ज्ञान-ध्यान में रहो, अब व्यापार छोड़ दो बहुत हो गया संतोष करो, अल्प आरंभ करो, अल्प परिग्रह करो, धर्मकार्य में लगो, कभी घर-द्वार छोड़कर दो चार महीने सत्संग में रहो । उत्तर क्या मिलता है कि हमारा मन तो बहुत करता है, पर छोटे बच्चे है, छोटे पोते हैं, उन पर दया आती है । हम चले जायेंगे तो इनकी रक्षा कैसे होगी ? सो भैया । दया नहीं आती है, दया का बहाना करते हैं और मोह को पुष्ट करते हैं । यदि तनिक अच्छे पढ़े-लिखे हुए मोही जीव तो कहते हैं कि साहब, चारित्रमोह का उदय है इसलिए घर में रहना पड़ता है । तृतीय भूमि जब तक नहीं दिखती है, रागद्वेषरहित शुद्ध ज्ञानस्वरूप अपना तत्त्व जब तक दृष्टि में नहीं आता है, तब उस आनंद का अनुभव नहीं हो पाता, तब तक बाहर में व्यवहारसंयम आदिक भी हों तो भी शांति नहीं मिलती है । शांति का संबंध ज्ञानवृत्ति से है, हाथ-पैर चलाने में नहीं है ।
वास्तविक स्वास्थ्य―जैसे किसी के 105 डिग्री बुखार हो और बुखार रह जाए 102 डिग्री तो बतलाता है कि अब हमारा स्वास्थ्य ठीक है । वस्तुत: ठीक नहीं है अभी 102 डिग्री बुखार है । इसी तरह जो पाप में मन, वचन, काय लगा रहे थे और उससे बढ़ी विह्वलता मच रही थी, क्लेश हो रहा था, सो अब कुछ विवेक जगा, सो पाप की प्रवृत्ति छोड़कर धर्मचर्चा, पूजा, भक्ति, दया, धर्म, वात्सल्य आदि प्रवृत्तियों में मन, वचन, काय को लगाया था । सो उस महाव्याधि के संबंधी अशुभोपयोग के मुकाबले ये हमारे सब कर्तव्य है, धर्म हैं, पर जहां वस्तुस्वरूप का विचार किया जाये तो यह भी अपराध है । वह महा अपराध है, यह अल्प अपराध है । ज्ञानी जीव के इस अपराध से भी ऊपर दृष्टि शुद्ध ज्ञानवृत्ति की रहती है । सो निश्चयसंयम का लक्ष्य हो तो व्यवहारसंयम अमृतकुंभ है । निश्चयसंयम का कुछ पता न हो, लक्ष्य ही न हो, बोध ही न हो तो यह व्यवहारसंयम भी असंयमवत् न सही पूरी तौर से न सही तो भी अपराधरूप है और इसलिये इस द्रव्यप्रतिक्रमण आदिक को विषकुंभ कहा है ।
अपराध की अशांत प्रकृति―भैया ! कब है यह द्रव्यप्रतिक्रमण विषकुंभ ? जबकि निश्चयप्रतिक्रमण की खबर न हो । इस कारण यही निश्चय करना कि निश्चयप्रतिक्रमण न हो तो व्यवहारप्रतिक्रमण भी अपराध ही है । भगवान तो ज्ञानस्वरूप है । जो भगवान को ज्ञानपुंज के रूप में नहीं निहारता और ऐसे हाथ पैर वाला है, ऐसे रूप रंग वाला है, ऐसा रहने चलने वाला है, अथवा ऐसे कपड़े पहिनने वाला है, ऐसा भेष भूषा करने वाला है, ऐसे शस्त्र आदि रखने वाला है । जो जिस रूप में, जो पुद्गलों में अपनी वासना रखता हो उस रूप तका करे और ज्ञानपुंज ज्योतिस्वरूप को भुला दे तो क्या उसने भगवान को पाया है? नहीं पाया है । तो क्या पाया है जैसे यहाँ पड़ौस के आदमियों को पहिचाना है इस ढंग से उन्हें पहिचाना है पर भगवान को नहीं जाना है । इस प्रकार ज्ञानवृत्तिरूप निश्चयसंयम, निश्चयप्रतिक्रमण आदिक इन पर लक्ष्य नहीं है, इन पर दृष्टि नहीं है, और स्वभाव से पराङ्मुख होकर बाह्य क्षेत्र में दृष्टि लगाकर यह जीव है, इसकी दया करना है? हिंसा नहीं करना है । देखो हमने सत्य बोलने का नियम लिया है, हम झूठ न बोलेंगे, सारी बातें करें पर ज्ञान स्वभाव का स्पर्श नहीं है तो जैसे असंयमीजन असंयम की प्रवृत्ति करते हैं और अपने आपमें स्वाधीन आनंद नहीं पाते हैं इसी प्रकार यह व्यवहारसंयम में लगा हुआ पुरुष भी व्यवहारधर्म में प्रवृत्ति करता हुआ भी निश्चयस्वरूप के दर्शन बिना, स्पर्श बिना वह भी किसी विह्वलता में पड़ा हुआ है ।
ज्ञानावगाह―भैया ! परम संतोष की दशा है तो इस अगाध ज्ञानसागर में अपने उपयोग को मग्न करने की दशा है । उसको लक्ष्य में लिए बिना जो धर्म के लिए मन वचन काय की प्रवृत्ति की जातीं है उसमें मंदकषाय तो अवश्य है, उन विषयभोगों की अपेक्षा, न वहाँ ऐसी विह्वलता है पर पर्दा कुछ भी बीच में पड़ा है तो दर्शन नहीं कर पाते हैं । कहते हैं लोग कि तिल की ओट पहाड़ है । इसका अर्थ यह है कि पहाड़ तो है 10-5 मील का लंबा चौड़ा और आंख है तिल के दाने के बराबर, जिस आंख के द्वारा इतना बड़ा पहाड़ नजर आता है उस आंख के सामने तिल का दाना यदि आ जाये तो वह पहाड़ नजर में नहीं आता है । या कोई छोटासा कागज का टुकड़ा ही ले लो, यदि उसे ही बांस के सामने कर दिया जाये तो ढक लेता है वह सारे पहाड़ को । एक तिल की ओट में सारा पहाड़ अवरुद्ध हो गया । इसी प्रकार एकमात्र उपाय सहज आत्मस्वभाव की दृष्टि बिना ये सारी प्रवृत्तियां अज्ञानमय बन गयी है ।
अज्ञान की गंध―भैया ! कितना ही कुछ करें आत्मसत्त्व के ज्ञान बिना उसका फल आत्मसंतोष नहीं मिलता है और कितना ही हैरान होकर बैठते हैं । हम तो दुनिया के लिए, समाज के लिए इतना काम करते हैं, इतनी व्यवस्था बनाते, इतना प्रबंध करते, लेकिन ये लोग ऐहसान मानने वाले नहीं है । अरे यह जीव का कौनसा विष फैल रहा है ? वही अज्ञान । तुम दूसरे के लिए कुछ कर रहे हो क्या ? जो तुम व्यवस्था करते हो, समाज का उपकार, देश का उपकार, वह किसके लिए करते हो ? दुनिया के लिए अच्छा कहलाऊँ, ज्ञानवान कहलाऊं, लोग मेरा उपकार मानें, लोक में मेरा महत्त्व हो । इस मिथ्या आशय की पुष्टि के लिये केवल विकल्प किया जा रहा है । अरे यह कितना अज्ञान भाव किया जा रहा है ?
आत्महित के लक्ष्य में क्षोभ का अभाव―यदि इस अज्ञान भाव को नहीं किया जाता और केवल यह परिणाम रहता कि मुझे अपने उपयोग को विषय कषायों के पाप में नहीं फंसाना है इसलिए दीनों का उपकार करके, दुखियों के दुःख दूर करके, धर्मात्मावों के बीच धर्म की चर्चा करके अपने क्षणों को, अपने परिणमन को सुरक्षित कर लें, खोटे परिणामों में न जाने दें, इस लाभ के लिए यदि मैं ये सब कार्य करता होता तो जिसके लिए करता वे औंधे भी चलते, हमें गाली भी देते, उलटे भी जाते, कहना भी न मानते तो भी उसे आत्मसंतोष होता कि मैंने अपने उपयोग को दूषित बात से बचा लिया, उसका तो लाभ लूटा ।
परमार्थस्वरूपपरिचय का महत्त्व―तो इस तृतीय भूमि से ही जीव निरपराध होता है, ज्ञाता दृष्टा रहने के साधकतम परिणामों से ही यह जीव निरपराध रहता है, उस उत्कृष्ट तृतीय अवस्था को पाने के लिए ही वह द्रव्यप्रतिक्रमण है । कोई आदमी अटारी पर कहने के तो लक्ष्य न रखे, 10-12 सीढ़ी है मान लो―दो चार सीढ़ियों पर चढ़े उतरे, यही करता रहे, भाव न बनाए कि मुझे ऊपर जाना है । लक्ष्य ही नहीं है जिस पुरुष का उसे आप भी फालतू और बेकार कहेंगे । दिमाग खराब है, व्यर्थ की चेष्टा कर रहा है, यों बोलेंगे, इसी तरह जिसके निश्चय संयम प्रतिक्रमण का लक्ष्य ही नहीं है, मुझे केवल जानन देखनहार रहना है, निज जो सहज ज्योतिस्वरूप पारिणामिक भाव है वह मेरी दृष्टि में रहे, बस जानता रहूं, सभी पदार्थ जानने में आएँ जैसे है तैसे, जैसे यथार्थ हैं तैसे जानने में आएँ!, ऐसी ज्ञाता द्रष्टा की वृत्ति रहने का जिसके लक्ष्य नहीं है वह झांझ बजावे, मंजीरा बजावे, नृत्य करे, पूजा करे, यज्ञ रच ले, विधान बना ले । सब जगह उसकी दृष्टि है इस पर्याय के ख्याति की ।
निश्चयवृत्ति से अंतर्बाह्यवृत्ति की सार्थकता―भैया ! पर्यायबुद्धि के यह भाव कहां है कि मुझे विषय कषायों से बचकर रहना है इसलिए यह कर रहा हूं । यदि यह भाव होता तो उसे अपनी वृत्ति पर संतोष होता । किंतु संतोष तो दूर रहो, अनुकूल व्यवस्था न बनी, लोग बढ़ाई न करें तो उसे मन में क्रोध आता है । सो यह निश्चय करो कि उस निश्चय प्रतिक्रमणरूप उत्कृष्ट अप्रतिक्रमण की प्राप्ति के लिए ही यह व्यवहारप्रतिक्रमण है, यह व्यवहार धर्म है । इससे यह मत मानो कि यह उपदेश द्रव्यप्रतिक्रमण आदिक को छुटाता है । छुटाता नहीं है, किंतु यह उपदेश है कि केवल व्यवहारप्रतिक्रमण आदिक से ही मुक्ति नहीं होती है, प्रतिक्रमण और निकृष्ट प्रतिक्रमण इनका जो विषय नहीं है ऐसा जो तृतीय अप्रतिक्रमण है, निश्चयप्रतिक्रमण निश्चयसंयम स्वभाव की उपासना, निर्विकल्प वृत्ति वीतराग स्वसम्वेदन शुद्ध आत्मा की सिद्धि ऐसे ही दुष्कर परिणाम अर्थात् जो कठिनता से बनता है पुरुषार्थ, वह परिणाम ही इस जीव का कुछ हित कर सकता है । इस निश्चयप्रतिक्रमण के बिना व्यवहारप्रतिक्रमण आदिक से मुक्ति नहीं हो सकती है, अत: उस निश्चय स्वभाव की ओर जाना चाहिए ।
निश्चयप्रतिक्रमण ही शुद्धता―प्रकरण यह चल रहा है कि अज्ञानीजनों की जो अप्रतिक्रमण आदि रूप दशा है वह तो विषकुंभ है ही किंतु भावप्रतिक्रमण के साथ होने वाला द्रव्यप्रतिक्रमण अमृतकुंभ है । वह द्रव्यप्रतिक्रमण भी यदि भावप्रतिक्रमण न हो तो विषकुंभ हो जाता है । प्रतिक्रमण का लक्षण बताया गया है कि पूर्वकृत जो शुभ और अशुभ भाव हैं, जिनका नाना विस्तार है उस शुभाशुभ भावों से अपने आपको हटा लेना सो प्रतिक्रमण है । यही है निश्चयप्रतिक्रमण का लक्षण ।
सकल विपदावों के विनाश का एक उपाय―भैया ! जगत् में विपत्तियां अनेक हैं । कितनी ही तरह की विपत्तियां हैं तो कम से कम इतना तो मान ही लो कि जितने ये मनुष्य है और जितने पशुपक्षी कीड़े मकौड़े, ये सब दृष्टिगत होते हैं उनकी जितनी संख्या है उससे हजार गुणी तो विपत्तियां मान ही लो―क्योंकि प्रत्येक मनुष्य का अपने में हजारों प्रकार की विपत्तियां महसूस करता है । दिन भर में कितने विकल्प विपत्तियां हो जाती है । बड़ा हो, छोटा हो, ज्ञानी हो, मूर्ख हो, सबके अंतर में मन में बिजली की तरह कितनी ही विपत्तियों की दौड़ हो जाती है । कितने ख्याल बनाए हुए है, धन का जुदा ख्याल, परिवार का जुदा ख्याल, शारीरिक स्वास्थ्य कमजोरी का जुदा ख्याल, कोई मेरी बात मानता है कोई नहीं मानता है उसका जुदा ख्याल, और अलग-अलग क्या बताया जा सकता है ? कितनी ही विपत्तियां तो ऐसी है कि जिनका न रूप है, न मुंह से कहा जा सकता है और अनुभव में आता है । इस तरह विपत्तियां तो अनेक है किंतु उन सब विपत्तियों के मेटने की तरकीब केवल एक है ।
सकल आधियों के व्यय की एक औषधि―भैया ! यह बड़ी अच्छी बात है कि जितनी विपत्तियां है, उतनी अगर मेटने की तरकीबें हों तो बहुत परेशानी हो । यह आत्मदेव की बड़ी करुणा है, प्रभु का बड़ा प्रसाद है कि संसार के समस्त संकटों के मिटाने की औषधि केवल एक है । क्या है वह एक औषधि जी तो चाहता होगा कि बोलें कि वह क्या एक औषधि है, क्योंकि बहुत बड़ी उत्सुकता होगी कि संकट मारे तो हम परेशान हो गए है और कोई त्यागी मुझे एक दवाई ऐसी बता रहे हैं कि सारे संकट दूर हो जाएं । ऐसा सुनकर किसको उमंग न आएगी कि वह है क्या एक दवा? मगर उस दवा को अभी बतायेंगे तो बहुत से लोग तो निराश हो जायेंगे कि अरे बड़ी उत्सुकता से तो सुन रहे थे कि यह एक ही दवा ऐसी बतावेंगे कि हमारे सारे संकट दूर हो जायेंगे । क्या-क्या संकट है ? मुन्ना बात नहीं मानता सो वह बात मान लेगा, भाई लड़ते हैं सो वे हाथ जोड़ने लगेंगे देवरानी, जेठानी अच्छी तरह नहीं बोलती सो वे हमारे लिए फूल बिछा देंगी―ऐसी कोई दवा बतावेंगे ।
अनात्मपरिहार व आत्मग्रहणरूप ज्ञानवृत्ति की सर्वौषधिरूपता―सुनते तो हो उत्सुकता से, किंतु साहस करके सुनो कि वह एक औषधि क्या है? बाहर से सबका ख्याल छोड़ो और इंद्रियों की संभाल करके, बंद करके अपने आपमें ऐसा अनुभव करो कि जो कुछ भाव बीत रहे हैं, मुझ पर जो कल्पनाएँ और विचार आ रहे हैं, इस आत्मभूमि में इन सबसे न्यारा एक चैतन्यमात्र हूं―ऐसी दृष्टि बना लें तो सब संकट दूर हो जायेंगे । आपको यह शंका हो रही होगी कि हमें तो अंदाज नहीं हो रहा है कि इस एक औषधि से हमारे वे सब संकट दूर हो जायेंगे । लोग तो न मानेंगे कि इस औषधि से तमाम कष्ट मिटेंगे । तो भाई हाथ जोड़ने न आवेंगे । अरे भैया ! क्या सोचते हो ? ऐसे मोक्ष की इस औषधि के सेवन से हमारे में किसी का विकल्प ही न रहेगा । फिर संकट क्या ? संकट तो एकमात्र विकल्पों का है । है किसी का यहाँ कुछ नहीं । विकल्प बना लिया है और ऐसी परिस्थितियां हो गयी है कि उनको सुलझाना कठिन हो गया है ।
भेदभावना व गंभीरता―भैया ! जब यह आत्मा इस शरीर से भी भिन्न है तो अन्य वैभव और पुत्रादिक का तो कहना ही क्या है? लोग उन्हें मान रहें अपना और वे है अपने नहीं । वे तो अपने परिणमन से विदा होंगे या आयेंगे या कुछ होंगे । उन पर अधिकार नहीं है और मान लिया कि मेरा अधिकार है, बस यही क्लेश है । कदाचित् आपको कोई प्राणी ऐसा भी मिल गया हो कि स्त्री, पुत्र या मित्र सदा आपके अनुकूल रहता हो, आपसे बहुत अनुराग करता हो तो भी धोखे में न रहिए, आसक्त मत होइए । जिंदगी भर भी कोई अनुराग करेगा और उस अनुराग में अपने की धन्य माने, अपना बड़प्पन माने, अपने को कृतार्थ माने तो यह उसकी भूल है । उसके वियोग के समय अपने को उतने क्लेश होंगे कि सारे वर्षों में जो सुख भोगा है, वह सब सुख अंतर्मुहूर्त में कभी इकट्ठा होकर बदला ले लेगा ।
अमृततत्त्व की उपादेयता―समस्त संकटों की केवल एक औषधि है―समस्त विभावों से विविक्त चैतन्यमात्र अपने को अनुभव करना । गप्प करने से, बातें करते से उसका आनंद नहीं आता । सो कर सके उसकी यह बात है, इसे गृहस्थ भी कर सकते हैं । न टिक सकें इस भाव पर, किंतु किसी क्षण इसकी झलक तो पा सकते हैं । अमृत की एक बूंद भी सुखप्रद होती है । वह अमृत जो सुखदायक है, वह जरूर कहीं से ढूँढकर उसको आत्मस्थ कर लो जहाँ से मिल जाए अमृत । बगीचे से मिल जाए तो वहाँ से तोड़ लो । किसी हलवाई के पास मिल जाए तो वहाँ से ले आवो । जहाँ से मिले अमृत तो जरूर एक बार पी लो, क्योंकि अमृत के पीने से अमर हो जावोगे । कभी भी न तो कोई संकट आएगा और न कभी मरेंगे । ऐसा अमृत जरूर थोड़ासा हथिया लो ।
अमृततत्त्व की खोज―ठीक है ना, अब चलो ढूंढने अमृत को । जहाँ तुम चलो वही हम चले और आनंद पाये । अच्छा चलो फिर सब लोग हलवाई के यहाँ । वहां पर भी दृष्टि पसारकर देखें तो एक भी हलवाई न मिलेगा, जिसके यहाँ कोईसी भी मिठाई में अमृत मिले कि जिसको खाने से और पीने से वह अमर हो जाएगा और संकट न आयेंगे । बल्कि चोरी-चोरी से खा लेंगे तो खूब खा लेंगे, क्योंकि चोरी का माल रहता है तो उसके खा लेने से खूब दस्त शुरू हो जायेंगे । हलवाइयों के भी वह अमृत न मिलेगा । अब चलो बगीचे में । कोई भी फल ऐसा नहीं है कि जिस फल खाने से यह अमर हो जाए और सब संकट मिट जायें ।
विनाशीक वस्तु के अमृतपने का अभाव―अरे भैया ! पहिले उस अमृत का भी तो विचार कर लें । हम जिसको खा लेंगे, फल हो या रससा हो तो जिसे हम खा लेंगे, वही चीज मर मिटी, मर जाएगी । दोनो के नीचे आकर तब फिर जो खुद मर जाए, यह हमें अमर कर देगा, वह कैसे हो सकेगा? तब तो खाने-पीने लायक चीज में तो अमृत न मिलेगा ।
अवियुक्ततत्त्व में अमृतपने की संभावना―अब देखने लायक कोई चीज ढूंढों । शायद किसी के देखने से अमर हो जाए, संकट मिट जाएँ । देखते भी जावो तो कोई ऐसी चीज न मिलेगी कि जिसके देखने से अमर हो जाएं, क्योंकि जो कुछ भी दृष्टिगोचर है, वे सब मर-मिटने वाले हैं । हम उनसे अमर होने की क्या आशा करें? तब एक निर्णय बना लो कि अब तो ऐसी चीज ढूंढों कि जो खुद न मरती हो और हमें शरण बन सकती हो? अब एक ही खोज रह गई । देखो अच्छा, जो अपने पास रहे और फिर कभी अपने से अलग न हो । ऐसी कोई चीज ढूंढों जिसके सेवन से यह आत्मा अमर हो सकेगा । मिला क्या खूब खोजने के बाद? किन्हीं के तो हृदय में समाधान हो गया होगा, किन्हीं के अर्द्ध समाधान हो गया होगा और कोई अब भी इस प्रतीक्षा में होंगे कि ये खोलकर कह क्यों नहीं देते? कौनसा वह अमृततत्त्व है, जिसके देखने से अमर हो जायेंगे? क्यों इतनी प्रतीक्षा दिलाकर परेशान करते है?
अमृत निज सहजस्वरूप―अच्छा सुनो―यह चीज जरा कठिन है, इसलिए देर में बोली जा रही है । वह अमृत है अपने आपका सहजस्वभाव । उसका पान होगा, पी लेना पड़ेगा ज्ञानदृष्टि से । उसके पीने में मुंह काम न देगा । वह आत्मा का सहजस्वरूप चैतन्यभाव ज्ञातादृष्टामात्र आकाशवत् निर्लेप समस्त परभावों से विविक्त अनादि अनंत अहेतुक सनातन स्वरसनिर्भर निरंजन टंकोत्कीर्णवत् निश्चल ज्ञायकस्वभाव उसकी दृष्टि होगी तो यह अमर भी होगा और सदा के लिए संकट भी मिटेंगे ।
अमृततत्त्व की उपेक्षा तरंग―भैया ! एक कहावत है―आढ़तियों के बीच की बात है । जैसे मान लो गल्ले के छोटे आढ़ती है, दूसरे की अनाज की गाड़ी बिकवा दें, सो कुछ मिल जाता है दूकानदारों से और कुछ मिल जाता है गाड़ी वाले से, क्योंकि बंधा होता है । एक बल्देवा नाम का आढ़तियां था । जब किसी समय भाव की खूब घटी-बढ़ी रहती है दूकानदार भी चिंतित रहता है और बेचने वाले भी चिंतित रहते हैं । सो भले ही चिंता में पड़े, किंतु कोई जब माल बेचने को गया तो वह तो बेचना ही है, कोई अपना माल वापिस ले जाता हो, ऐसा नहीं है । वह तो बिकना ही है । सो एक बार ग्राहक और दूकानदार में सौदा न पटा । सो गाड़ी वाले से बल्देवा बोला कि तुम थोड़ा गम खावो और दूकानदार से भी बोला कि तुम थोड़ा गम खावो, जरा नाश्ता कर लो । फिर बल्देवा एक भजन बोलता है―
‘‘लेवा मरे या देवा, बल्देवा करे कलेवा ।’’
अरे चाहे लेने वाला मरे, चाहे देने वाला मरे, बल्देवा तो ठाठ से कलेवा करेगा । हमें तो दोनों ही जगह से मिलना है । क्या परवाह है ? सो इस अमृततत्त्व को यदि पीलो तो जगत् के पदार्थ चाहे वहाँ जाएं? चाहे यहाँ जाएँ, क्या परवाह है? जब परविषयक विकल्प ही नहीं रहा और ज्ञानदृष्टि ही जग रही है, तब वहाँ चिंता का अवसर ही नहीं है । वहां क्या शंका करनी कि अमुक दुःख कैसे मिटेंगे?
अमृततत्त्व की प्राप्ति के लिए प्रेरणा―भैया ! यह है अपना ज्ञानस्वरूप अमृत तत्त्व । सबको छोड़कर और एकदम ज्ञानबल से अपने अंत:स्वरूप में घुसकर इस ध्रुव चैतन्यस्वभाव को अपना लें, यह मैं हूँ । ओह, इससे आज तक मिलन नहीं हुआ था, इसलिए दर-दर ठोकरें खानी पड़ी थी । इसका ही मिलन अपूर्व मिलन है । हिम्मत करनी पड़ती है, मोही और कायर पुरुषों से बात यह बनने की नहीं है, किंतु भैया । इसमें कमजोरी क्या ? घर के जितने सदस्य है उन सबका अपना-अपना भाग्य है । फिर अपने हित की बात को कमजोर करना कुछ विकल्प ही है, अपने मित्र और परिवारजनों का, उनका भी तो भाग्य है । और देखो भैया ! गजब की बात जिनका भाग्य बड़ा है उनकी तुम्हें नौकरी करनी पड़ती है । वे तो अपने घर में बैठे मौज कर रहे हैं, और उनकी चाकरी करने वाले आप पुण्यहीन है । आप से भी कहीं अधिक वे पुण्यवान् है, जिनकी आप चाकरी कर रहे हैं सो क्यों पुण्यहीन होकर पुण्यवानों की फिकर कर रहे हो ।
अबाध में बाधा की बनावट―कौनसी कमजोरी है कि जिससे अपने पंथ में नही उतरा जा रहा है और
इस अमृततत्त्व में उतरने पर निर्विकल्पदशा हो जायेगी । तब फिकर क्या है, दूसरे कुछ भी हों । दूसरों से दूसरे बँधे हुए तो नहीं है । उनमें से कोई गुजर गया तो जिस गति में जायेगा वहां दुःख यदि भोगेगा तो यहाँ का कौन उसे सहायता दे सकता है और इसी भव में उनके पाप का उदय आ जायेगा तो क्या तुम उन्हें कुछ सहायता दे सकोगे ? फिर कौनसी असलियत की बात है कि जिसके कारण अपने इस हित के मार्ग में नहीं उतरा जा सकता है । कोई बात किसी को न मिलेगी और व्यर्थ की बकवाद इतनी है कि अजी यह परेशानी है इसलिए हम कल्याण में आगे नहीं बढ़ सकते । और है रंच भी किसी को परेशानी नहीं ।
व्यर्थ की परेशानी―भैया ! जितने यहाँ बैठे है उन सबका ठेका लेकर हम कह रहे हैं कि किसी को रंच भी बाधा नहीं है । पर हमारी बात मानोगे थोड़े ही । ये तो वैसे ही कह रहे हैं । न हमें कोई बाधा है, न तुम्हें कोई बाधा है और हमारी बात हम क्या कहें, हम ही पूरे नहीं उतर रहे और जान रहे हैं कि कोई बाधा है ही नहीं । बताओ इससे बढ़कर और क्या होगा कि तुमने भक्ति से भोजन करा दिया, बाकी किसी भी समय कुछ फिकर ही नहीं । एक आध कपड़ा चाहिए तो मिल गया । बतावो हमें क्या परेशानी है ? मगर व्यर्थ की बकवाद की कमेटी के हम भी एक मेंबर है । पर ऐसा है कि कोई बकवास कमेटी का प्रेसीडेन्ट है, कोई मंत्रि है, कोई उपमंत्री है, पर हम एक जनरल मेंबर है । इतनी बात होगी मगर यह अब कितनी व्यर्थ के विकल्पों की परेशानी है ।
एक दवा के अनेक अनुमान―इन सब शुभ अशुभ परिणाम विशेषों से जो अपने को निवृत्त कर लेता है उसका ही नाम है प्रतिक्रमण । इसी प्रकार शेष सब 7 तत्त्वों की भी यही बात है । उपाय एक है । जो वर्तमान में विभाव हो रहे हैं उनसे न्यारा ज्ञानमात्र अपने को मान लें, बस इतनी सी औषधि है समस्त दु:खों के मिटाने की । फिर करने हैं सैकड़ों तरह के काम, पूजा, जाप, दान और कितनी ही बातें । पढ़ाना, अभ्यास करना आदि बहुत सी बातें है । अरे भाई क्या करें ? जो हठी बालक है उनकी आदत तो देखो कि दवा तो देना है सबको एक, मगर उन हठी बालकों की रुचि माफिक वह दवा किसी को बतासा में दे रहे हैं, किसी को मुनक्का में दे रहे हैं, कोई त्यागी हठी बालक मिल गया, अब शक्कर नहीं खाये बतासा नहीं खाये तो उसे मुनक्का में दे रहे हैं, दवा सबको एक ही दे रहे हैं मगर जुदा-जुदा ढंग से दे रहे हैं, उस दवा को पीना नहीं चाहता तो फुसलाकर, बहलाकर उस हठी बालक को भिन्न-भिन्न अनुपान के साथ दवा देता है । इटावा तो दवावों का घर ही है ।
सर्वसंकटहारी औषधि―सो ऐसी ही औषधि तो है हम सब लोगो की एक, कि वैभव से भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप पर अपनी दृष्टि रखना अर्थात् यह मैं हूँ और यह जो जगमग-जगमग रूप से जो अर्थ परिणमन हो रहा है उतना ही मेरा काम है । इतनी श्रद्धा होना और ऐसा ही उपयोग बनाना सो समस्त संकटों के मेटने की एक औषधि है ।
उन्नत होने को शिक्षा―इस प्रकरण में फिर से दृष्टि दीजिए । यह बात यहाँ कही है कि जो अज्ञानी जनों का निकृष्ट व्यवहार है वह और कुछ धर्ममार्ग में बढ़ने की धुनि में जो पापों का त्याग, इंद्रियों का संयम आदिरूप जो व्रत व्यवहार है वह और एक केवल ज्ञाता दृष्टा रहने में मग्न रहना एक यह पद―इन तीन पदों में से जहाँ मध्य के व्यवहार व्रत संयम को याने निश्चय शून्य व्यवहार संयम को भी जहाँ विष या हेय बताया है तो ऐसा जानकर यह दृष्टि न डालना कि वाह अच्छा रहा, अब यह व्रत भी हेय बता दिया हमारे मन माफिक कथन कर दिया, ठीक है । यों प्रमादी होने के लिए नहीं कहा जा रहा है, किंतु यह दृष्टि देना है कि ओह जहाँ द्रव्यरूप यह सारा व्यवहार संयम भी विष बताया गया वहाँ पाप की तो कहानी ही क्या है ? यह तो महा हलाहल विष है जिसके मौज में मस्त बन रहे हैं ।
प्रमाणवाद में सबकी संभाल―भैया ! जो निश्चय का आश्रय लेकर बहाना कर प्रमादी होकर अपनी यथातथा प्रवृत्ति कर रहें है, उनकी स्वच्छंदता को भी मेटा गया है इस कथन में और साथ ही यह उपदेश दिया है कि जो व्यवहार का पक्ष करके अपने द्रव्य के आलंबन में ही संतुष्ट हो रहे हैं, शुभ भावों में ही तृप्त हो रहे हैं, उनको वह आलंबन छुड़ाया गया है अर्थात् व्यवहार के आलंबन से जो यह मन अनेक प्रवृत्तियों में भ्रमण करता था, उसे इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मा में ही लगाया गया है । सो जब तक इस विज्ञानघन आत्मा की प्राप्ति न हो, तब तक हे मुमुक्ष जनों ! इस चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व के स्वरूप की जानकारी बनावो और हर प्रयत्न से एक निज आत्मतत्त्व में मग्न होने का उद्यम करो, मोह को ही सब कुछ मत मानों, वह मोह तो इस संसार में रूलाने वाली विपत्ति है ।
निचली वृत्ति का निषेध―यहाँ तीन पद बताए गए हैं―एक अप्रतिक्रमण, दूसरा उससे ऊँचा प्रतिक्रमण और तीसरा उससे भी ऊँचा उत्कृष्ट अप्रतिक्रमण । इसमें जब प्रतिक्रमण को ही विष बताया गया है तो नीचे दर्जे का जो अप्रतिक्रमण है, वह अमृत कैसे बन जाएगा? इसलिए हे मुमुक्षुजनों ! तुम नीची-नीची निगाह रखकर गिरकर प्रमाद मत करो, किंतु निष्प्रमाद होकर ऊपर-ऊपर और चढ़ो । प्रतिक्रमण को विष बताने का प्रयोजन यह मत ग्रहण करना कि अरे वह तो विष है, उसके नजदीक क्या जाना? इसके लिए उपदेश नहीं दिया गया है, किंतु इस प्रयोजन के लिए उपदेश दिया गया है कि जब यह द्रव्यप्रतिक्रमण भी विष बताया गया तो यह अप्रतिक्रमण तो महाविष समझिए । तब नीचे-नीचे मत गिरो, किंतु ऊपर-ऊपर चढ़ो । उस निश्चयप्रतिक्रमण के निकट पहुंचो, जो शुद्ध भावों वाला है ।
मोक्षमार्ग में प्रमाद का कारण कषाय का भार―अहा, निज ज्ञानस्वभाव का जिसे परिचय मिला है, वह प्रमादी भला कैसे हो सकता है आलसी नहीं हो सकता अर्थात् अपने को ज्ञातादृष्टा रखने में उद्यमी होगा वह नीचे नहीं गिर सकता है, क्योंकि जब कषायों का भार लदा हो तब तो आलस्य आएगा । ज्यादा बोझ जब हो जाता है तो आलस्य आने लगता है । जैसे कोई दफ्तर का काम है, लिखने का काम है, जब काम भारी हो जाता है तो आलस्य आता है कि नहीं? अजी देखेंगे, कर लेंगे फिर । जब गृहस्थी का बोझा होता है तो हैरानी अधिक हो जाती है, घर के लोग भी ढंग से बोलने वाले नहीं रहते हैं, ऊँट-पटांग व्यवहार करने लगते हैं । तब घर-गृहस्थी को संभालने में आलस्य आ जाता है या नहीं ? आ जाता है । क्या करें दिल गिर जाता है ।
प्रमाद से प्रमाद की वृद्धि―किसी लड़के का पाठ कई दिन का छूट जाए और कुछ दिन सबक तैयार न रख सके तो बीच में एक दो स्थल जब उसके छूट जाते हैं, तब उसे पढ़ने में आलस्य लगता है । वह कहता है कि पिताजी, इस साल तो रहने हो, अगले साल फिर स्कूल अटेंड करेंगे और थोड़ा पेटदर्द का बहाना, सिरदर्द का बहाना कर लेता है । दो ही तो ये बहाने है जिनका सही पता कोई नहीं लगा सकता है । अगर वह कहे कि बुखार है तो नब्ज देखकर जान जाएगा कि बुखार नहीं है, पर पेटदर्द और सिरदर्द को कोई नहीं जान पाता है । इसलिए वह अगले वर्ष स्कूल अटेंड करने को कहता है । इसी प्रकार जब धर्म में प्रमाद होता है तो प्रमाद का टाइम लंबा हो जाता है । सो जब कोई बोझ हो जाता है तो आलस्य आने लगता है । घर में कूड़ा-कचरा मामूली पड़ा हो तो उसे झाड़ने में कितना बढ़िया मन लगता है कूड़ा-कचरा बहुत फैल जाए तो उसे साफ करने में बहुत आलस्य आता है । यही होता कि अरे इसे रहने दो, फिर देखेंगे । जब बोझा लद जाता है तो आलस्य आया करता है ।
प्रमादपरिहार में कल्याण―भैया ! संसारी जीवों पर कितना बोझ लदा है, इसलिए मोक्षमार्ग में आलस्य आ रहा है । शुद्ध निर्मल परिणाम रखने को जी नहीं चाहता । हालांकि खोटे परिणाम करने से विपत्तियों पर विपत्तियां आ रही है । वे विपत्तियां तो इसे मंजूर हो जाती है, मगर निर्मलता के लिए उत्साह नहीं जगता, क्योंकि बहुत अधिक कषायों का बोझा लदा हुआ है । इस कारण हे मुमुक्षुजनों ! अपने ज्ञायकस्वरूप रस से निर्भर इस आत्मस्वभाव में निश्चित् होकर अर्थात् अपने उपयोग द्वारा अपने ही इस स्वभाव को जानकर, ज्ञानी बनकर, मुनि बनकर अर्थात् समझदार होकर क्यों न शीघ्र परमशुद्धता को प्राप्त करते हो और समस्त संकटों से छूटने का यत्न करते हो ?
कषायों की असारता―भैया ! संसार में सार रखा क्या है ? कुछ शांत होकर, कुछ कषाय मंद करके विचार तो करो कि सार रखा किसमें है ? मूर्ख आदमियों में बसने से कुछ तत्त्व नहीं मिलता । यह बात सही है या नहीं । मूर्ख और मूढ़ दोनों का एक ही अर्थ है या नहीं ? आप लोग बोलिए । मूढ़ आदमियों में रहने से कुछ तत्त्व नहीं मिलता है । मूढ़ और मोही दोनों का एक ही अर्थ है ना, अब बोलो । मोही आदमियों में रहने से तत्त्व नहीं मिलता है । अब जरा आंखें पसार करके देखो कि सारे विश्व में मोही आदमी मिलेंगे या निर्मोही ? बिरला ही कोई निर्मोही संत हो । सो तुम्हारी अटक हो तो काम-काज छोड़कर, घरबार का अनुराग छोड़कर निर्मोही के पास अपने मन को लावो । निर्मोही तुम्हें वैसे ही न मिल जाएगा । जिनमें बस रहे हो, वे सब मोह पीड़ित है, वेदनाग्रस्त है । उनमें झुकने से, आकर्षण से आत्मा को तत्त्व क्या मिलेगा ? सो कषायों का बोझ हटा लो, हल्के हो जावोगे ।
भाररहित की सुरक्षा―भैया ! जो वजनदार पेड़ खड़े हुए हैं नदी के किनारे वे भी उखड़कर बह जाते हैं और जो हल्के छोटे-छोटे अंकुर होते हैं, छोटी-छोटी घास होती है वह लहराती रहती है । वह जड़ से उखड़ नहीं जाती । जो कषायों से लदे हुए जीव है वे इस संसारसमुद्र में बहते रहते हैं, उनकी कहीं स्थिति नही रह पाती है । किंतु जो कषायों के बोझ से हल्के है, भाररहित है वे अपने आपमें अडिग रहते हैं । इस आध्यात्मिक अपूर्व मर्म की बात सुनकर तुम नीचे-नीचे मत गिरो, ऊपर बढ़ते चलो । जो पुरुष अशुद्ध परिणामों के आश्रयभूत परपदार्थों को त्यागकर अपने आत्मद्रव्य में लीन होते हैं वे निरपराध और बंध का नास करने से अपने आपमें जो स्वरूप का प्रकाश उदित होता है उससे महान् बन जाता है, परिपूर्ण होता है । जो अपने को केवल ज्ञानमात्र देखता है वह कर्मों से छूटता है । जो अपने को रागीद्वेषी अनुभव करता है वह कर्मों से बंधता है ।
भगवंतों का निष्पक्ष उपदेश―जैसे कोई गुरु किसी शिष्य को ध्यान करने की बात सिखाये―बैठो भाई अच्छा आसन मारकर । देखो―कमर सीधी करके बैठो । गुरु सिखा रहा है ध्यान करने की विधि―अपनी आखें बंद करलो―सबका ख्याल छोड़ो, हमारा भी ख्याल छोड़ो, और अपने आप में निर्विकल्प होकर ज्ञानप्रकाश देखो । शिष्य यह कहे कि गुरु ज्ञान प्रकाश देखो । शिष्य यह कहें कि गुरु महाराज तुम तो, हमारे बड़े उपकारी हो, हम तुम्हारा ख्याल कैसे छोड़ दें? तो जो उपकारी गुरु है उसे ऐसा कहने में देर नहीं लगती, संकोच नहीं होता, उसका तो पहिले से ही निर्णय किया हुआ तरीका है कि अच्छा बैठो ध्यान में सबको भूल जावो, हमें भी भूल जावो, अपने शरीर को भी भूल जावो । चित्त में किसी को मत ध्यान में लावो और देखो अपने अंतर में अपना प्रकाश । इससे भी बढ़कर प्रभु का उपदेश है । भगवान यों कहता है भक्त से तुम इंद्रियों को संयत करके बिल्कुल निष्पक्ष होकर अपने आपमें अपने आपको देखो, हमें भी भूल जावो । तुम अपने निजस्वरूप को निहारो, ऐसा उपदेश है ना ।
भगवदाज्ञा की पालना―अब बताओ भैया कोई भगवान की मूर्ति के समक्ष खड़े होकर एक निगाह से मुद्रा को अपनी आंखों में भरकर आंखें बंद करके उसे भी भूलकर अपने आपको देखने में लग जाये तो उसने भगवान का हुक्म माना या भगवान का विरोध किया ? भगवान का हुक्म माना । तो जो सर्व परद्रव्यों से हटकर केवल अपने ज्ञानस्वभावी आत्मद्रव्य में ही अपना उपयोग लगाते हैं वे शुद्ध होते हुए बंधन से छूट जाते हैं । यह मोक्षाधिकार यहाँ संपूर्ण होने वाला है । इसके अंतिम उपसंहार रूप में यहाँ सब विधियों द्वारा जब यह जीव अपने को संभाल लेता है तब इसके बंध का छेद होता है । जहाँ राग का अभाव हुआ, बंध का विनाश हुआ तो यह अविनाशी मोक्षस्वरूप को प्राप्त करता है ।
व्यर्थ को अटके―भैया ! कितनी अटके हैं यहाँ संसार में जिनमें व्यर्थ ही अटककर यह आत्मा अपने इष्ट पद को, उत्कृष्ट पद को प्राप्त नहीं कर पाता । रोकता कोई नहीं है किंतु हम ही अपने विकल्प बनाकर उनमें अटकते हैं । कितनी अटके हैं यहां, और सारी व्यर्थ की अटके हैं । वैभव प्रकट जुदा है, फिर भी कैसी उसकी अटक है । पता नही कल क्या होगा ? खुद भी रहेंगे या न रहेंगे । धन वैभव भी किसी के पास रहता है नहीं । किसी के पास किसी तरह से मिटेगा, किसी के पास किसी तरह मिटेगा । विवेकी हुआ तो दान देकर मिटा देगा । मोही हुआ तो जोड़ जोड़कर धरेगा और लूटने वाले लूट ले जायेंगे या खुद मर जायें तो यों ही लुटा दिया । धन वैभव किसी के पास सदा रहा हो ऐसा कोई उदाहरण मिले तो बतलावो―राम का मिले, आदिनाथ का मिले, कृष्णजी का मिले, किसी का मिले तो हमें ले चलकर देखें तो कि ये नवाब साहब हैं जो शुरू से सदा रईस बने है, रहेंगे, लक्ष्मी भी रहेगी । एक भी कहीं कोई मिल जाये तो हमें दिखा दीजिए, अपने प्रेमियों को दिखा दीजिए कोई न मिलेगा ।
अविश्वास्य व विनश्वर की व्यर्थ प्रीति―भैया ! यह धन मिल गया है मुफ्त में और जायेगा भी मुफ्त में । मिला सो कुछ उसमें परिणाम की कढ़ाई नहीं जड़ाया और जायेगा सो भी तुमसे न्यारा होकर ही जायेगा । तब कर्तव्य तो यह है कि धन संपत्तिविषयक ममता परिणाम न रखकर और उस स्थिति के ज्ञाता द्रष्टा रहकर जो गृहस्थी में है सो वे भी काम करें और अपने अंतर में मुड़कर अपने अंतरात्मा का भी हित करें । और इस जमाने में तो और भी धनिकता की अस्थिरता है । आज का कल विश्वास नहीं । जिसके पास अभी धन नहीं है वह कहीं 6 महीने में ही कुछ बन जाये और जिसके पास धन है, कहो थोड़ा ही आलस्य रखने पर 6 महीने में ही सारा उसका धन विघट जाये । तो उस बाह्य के उपयोग में क्यों समय गुजारें ? अपने ही हित की प्रमुखता क्यों न रखें ?
वैभव की प्रकृति―चार चोर थे, सो कही से 2 लाख का धन चुराकर ले आए । अब रात्रि को तीन बजे एक ठिकाने में बैठ गए । उन्होंने सोचा कि धन तो पीछे बांट लेंगे । पहिले भूख लगी है सो कुछ बना खाकर भूख मिटाएँ । चोर कितना भी धन जोड़ लें तो भी खुश नहीं रहते हैं । मगर जो आदत हो गई उससे वे लाचार रहते हैं । जिंदगी भर दु:खी ही रहते हैं और अपना दुष्कर्म नहीं छोड़ते हैं । चारों चोरों ने सोचा कि दो जने शहर जावो और वहाँ से बढ़िया मिठाई वगैरह खूब ले आवो, खूब खालें तब धन का हिस्सा कर लेंगे । दो चोरों को भेजा । अभी तक तो तनिक अच्छे परिणाम रहे―बाद में बाजार गये हुए वे दोनों सोचते हैं क्यों जी, ऐसा करें ना कि मिठाई में विष मिला लें और उन दोनों को खिला देंगे । वे मर जायेंगे तो अपन दोनों को एक-एक लाख मिलेगा । लखपति बन जायेंगे । सो उन दोनों ने तो मिठाई में विष मिलाया, और यहाँ यह दोनों चोरों ने सोचा कि जैसे ही वे दोनों आएँ अपन दूर से ही गोली से उड़ा दें, वे मर जायेंगे तो एक-एक लाख अपने को मिलेंगे । सो वे तो विष मिलाकर लाए और ये बंदूक ताने बैठे । जैसे ही वे दोनों आए सूट कर दिया, गुजर गए । कहो अच्छा रहा, लाख-लाख अपन को मिलेंगे । जो भोजन मिष्टान्न वे दोनों लाये थे सो उठा लिया और प्रेम से खा ले खूब छककर फिर आनंद से हिस्सा बांट लेंगे यह सोचा, सो खूब छककर मिठाई खा ली, सो वे दोनों बेहोश हो गए, मर गए । सारा धन जहाँ का तहां पड़ा रहा ।
ज्ञान का शरण―भैया ! धन वैभव हाथ भी रहता तो भी शांति तो नहीं मिलती । शांति ज्ञानबल बिना तीन काल भी संभव नहीं है । इस कारण हमारा वास्तविक मित्र है तो सम्यग्ज्ञान मित्र है । अन्य की आशा तजो । दूसरे को मित्र मानो तो जो सम्यग्ज्ञान में सहायक हो इस नाते से मानो और तरह से न मानो । यों तो अनंत जीव है जगत् में मलिन हैं, कर्मबंधन से दूषित हैं । किस किससे नेह लगावोगे ? क्यों व्यर्थ ही एक दो को ही अपना सर्वस्व मानकर अपना अमूल्य मन जो श्रुतज्ञान की सेवा करके अपना कल्याण कर सकता है ऐसे इस अमूल्य मन को मोही पुरुषों में सौंप रहे हो, सो कुछ तो विचार करो । उन सबके ज्ञाता दृष्टा रहो, अपने हित में प्रमाद मत करो ।
ज्ञान का अतुल विकास और मग्नता―देखो इस सम्यग्ज्ञान के बल से जिनका बंध मिट गया है उनके ऐसा अतुल प्रकाश उत्पन्न हुआ जो प्रकाश नित्य है, स्वभावत: अत्यंत प्रमुदित है, शुद्ध है, एक ज्ञान करने से ज्ञान ही रस से भरा हुआ जो आनंद का निधान है उसके कारण गंभीर है, धीर है, शांत है, निराकुल है । ऐसा स्वरूप होता है मुक्त जीवों का । जिनके द्रव्यकर्म, भावकर्म और शरीर तीनों प्रकार के बंधन हट गये हैं ऐसे पुरुषों का ऐसा निर्मल स्वरूप प्रकट हुआ है, अब वह स्वरूप विभाव कभी भी विचलित नहीं हो सकता । ऐसा अचल होकर उन सिद्ध प्रभु में वह ही प्रकट हुआ है । वह ज्योति वह ज्ञान बढ़ बढ़कर ज्वलित होकर इस अपने आपकी महिमा में समा गया है।
सर्वोच्च देश―इस तरह इस आत्मा की रंगभूमि में बहुत समय से नाटक चल रहा था, कभी यह आस्रव के भेष में, पुण्य पाप के भेष में, बंध के भेष में अपना नृत्य दिखा रहा था, अपने को परिणमा रहा था । तो अब जब ज्ञान उदित हुआ तो संवर और निर्जरा के रूप में यह ज्ञान पात्र प्रकट हुआ और इसके परिणाम में अब यह मोक्ष के भेष में आ गया । अब देखो अशुद्ध भेष को बनाकर यह जीव शुद्ध भेष में आ गया, मुक्त हो गया, फिर भी ज्ञानी जीव की दृष्टि उस मोक्ष के स्वरूप को भी एक भेषरूप में देखती है । है वह शुद्ध भेष है, वह अविनाशी भेष, पर उस भेष से परे और अंत: स्थित इस सर्व विशुद्ध ज्ञानस्वरूप को देखने की दृष्टि वाला है ना ज्ञानी, सो अब वह इस मोक्ष भेष को यों देखता है कि लो यह मुक्ति का भेष है ।
निर्देश आत्मतत्त्व―इस ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा का और जरासी देर में ही मुक्ति के प्रति अंतर में और प्रवेश करके जब उनके सनातन ज्ञानस्वरूप को निहारा तो लो अब मोक्ष भेष भी निकल गया, पर इस मोक्ष भेष के निकलने के परिणाम में संसार की ओर न आएँ, किंतु अनादिअनंत अहेतुक सनातन ज्ञायकस्वरूप की ओर आएं । सो अब यह मोक्ष निष्क्रांत होता है और इसके बाद फिर सर्व विशुद्ध ज्ञान का प्रवेश होता है । यह सर्व विशुद्धज्ञान किसी भेष रूप नहीं है । मोक्ष तक तो भेष है पर इन सातों तत्त्वों के अंतर में व्यापक शुद्ध स्वरूप का कोई भेष नहीं है । सो अत्यंत उपादेयभूत मोक्षतत्त्व तक ले जाकर फिर उसके साधकतम उपाय में अर्थात् सर्वविशुद्ध चैतन्यस्वरूप में अब इस ज्ञानी के उपयोग का पुन: प्रवेश होता है ।
❀ समयसार प्रवचन बारहवां भाग समाप्त ❀