वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 46
From जैनकोष
ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं ।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा ।।46।।
68. जीव की अध्यवसानादिरूपता का निश्चय से अभाव―ये सब अध्यवसान आदि भाव जीव हैं ऐसा यह सब व्यवहार का प्रदर्शन कराया है, ऐसा जिनेंद्रदेवों के द्वारा वर्णित हुआ है । समय के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिये दृष्टि स्वभाव पर करनी होती है । न तो पुद्गल की रचना जीव है और न पुद्गल के निमित्त से होने वाली रचना जीव है, जो कारणसमयसार है सो जीव है । परमशुद्ध निश्चयदृष्टि में जो पारिणामिक भाव जाना गया उसे जीव कहते हैं । एकेंद्रिय, बस, रागद्वेष, मोह, शरीरादि जीव नहीं हैं । केवलज्ञान भी शुद्ध दृष्टि से जीव नहीं है क्योंकि केवलज्ञान ज्ञान की परिणति है । परिणति जीव है नहीं, अत: केवलज्ञान भी जीव नहीं हो सकता है । जीव अविनाशी है, केवलज्ञान प्रतिसमय नष्ट होता रहता है, और नया-नया पैदा होता रहता है । केवलज्ञान की यह विशेषता है कि उसकी परिणति उसी प्रकार की होती है, जिससे उसका प्रतिसमय बदलना मालूम नहीं पड़ता है । शुद्धता दो प्रकार की होती हैं―1-पर्याय की शुद्धता और 2-द्रव्य की शुद्धता । पर्याय की शुद्धता भगवान अरहंत, सिद्ध में है, द्रव्यरूप शुद्धत्व द्रव्य में सनातन है । समयसार दो प्रकार से है:―कारणरूप समयसार और कार्यरूप समयसार । कार्यरूप समयसार भगवान अरहंत, सिद्ध हैं । पर से भिन्नत्व और अपने से अभिन्नत्व को द्रव्यशुद्धि कहते हैं । द्रव्यशुद्धि जीव में अनादि से अनंत तक है । पर्यायशुद्धि जीव में किसी क्षण से होती है । जीव द्रव्यदृष्टि से शुद्ध है । उसको अध्यवसानादिरूप कहना व्यवहारनय का उपदेश है ।
69. पर्यायशुद्धि के लिये आलंब्य तत्त्व का विचार―पदार्थ अवक्तव्य है, जो कुछ है सो है । आत्मा को यदि सर्वथा अशुद्ध ही माने तो कभी शुद्ध नहीं हो सकता है । शुद्ध की दृष्टि करने से बनता है शुद्ध और अशुद्ध की दृष्टि करने से बनता है अशुद्ध―यह अध्यात्मशास्त्र का प्रथम सिद्धांत है । अब सोचिये एक मिथ्यादृष्टि जीव पर्याय में अशुद्ध है, राग-द्वेष को अपनाता है, अशुद्ध का अवलंबन किये हुए है । अब वह कौन से शुद्ध का अवलंबन करे कि वह सम्यग्दृष्टि हो सके? तर्क―अरहंत सिद्ध का अवलंबन करे । उत्तर―जीव पर का अवलंबन कर ही नहीं सकता । यह अध्यात्मशास्त्र का नियम है । जैसे आपने अरहंत भगवान का स्मरण किया, तो यह आपने अरहंत भगवान का अवलंबन नहीं किया, परंतु अरहंत भगवान के विषय में तुम्हारे मन में जो पर्याय उत्पन्न हुई है; उसका तुमने अवलंबन किया है । वास्तव में तुम दृश्यमान पदार्थों को नहीं जान रहे हो । एक भी चीज को तुम नहीं जानते । किसी भी परमाणु को तुम नहीं जान सकते । निश्चय से जानते हो उसे, जो तुम्हारे आत्मा में अर्थविकल्प हो रहा है । वास्तव में हमने क्या जाना है, इस अंतर की चीज को बताने के लिए उसका नाम बताना पड़ता है कि हमने इसरूप परिणत आत्मा को जाना । वह ज्ञेयाकार इस तरह का इस अद्भुत चीज को बताने के लिए कहा जाता है । जिस वस्तु का जो गुण होता है, उस गुण का परिणमन उसी वस्तु में होता है, अन्य वस्तु में दूसरी वस्तु के गुण का परिणमन नहीं हो सकता है । जिस वस्तु का जो गुण है, उस वस्तु की क्रिया उसी वस्तु में होती है―यह एक साधारण नियम है । भगवान् निश्चय से अपनी ही आत्मा को जानते हैं । व्यवहार में कहते हैं कि भगवान समस्त पदार्थों को जानते हैं, अतएव सर्वज्ञ हैं । वास्तव में उनका केवलज्ञान आत्मा को ही जानता है । उनकी आत्मा में संपूर्ण विश्व झलकता है । भगवान् विश्व के आकाररूप परिणत आत्मा को ही जानते हैं, इस बात को समझने के लिए कह दिया गया है कि भगवान् विश्व के ज्ञाता हैं । जैसे एक दर्पण है । उसके सामने अपने पीछे 5-7 लड़के खड़े हुए हैं जो दर्पण में प्रतिबिंबित हैं । हमारे पीछे खड़े हुए लड़के क्या कर रहे हैं, यह हम दर्पण में देखकर बता सकते हैं । परंतु हम केवल दर्पण को ही देख रहे हैं । हम किस प्रकार के परिणत दर्पण को देख रहे हैं, यह बात हम लड़कों की क्रियाओं का निर्देश कर बता रहे हैं । इसी प्रकार हम दृश्यमान पदार्थों को नहीं जान रहे हैं । निश्चय से हम ज्ञान का जो ज्ञेयाकार परिणमन है, उसको जान रहे हैं । केवलज्ञान की ऐसी योग्यता है कि उसका ज्ञेयाकार परिणमन विश्वरूप बना रहता है । परंतु निश्चयत: भगवान् विश्व को नहीं जानते हैं, विश्वरूप परिणत अपने आत्मा को जानते हैं । निश्चय से आत्मा पर को नहीं जानता है, आत्मा आत्मा को जानता है । कोई-कोई मनुष्य केवलज्ञान को जीव स्वीकार करता है, परंतु केवलज्ञान जीव नहीं है । केवलज्ञान ज्ञान का परिणमन है । अत: केवलज्ञान जीव नहीं हो सकता है ।
70. कारणपरमात्मतत्त्व के आश्रय से पर्यायविशुद्धि―अब प्रकृत तत्त्व पर आइए, प्रकृत यह चीज है कि शुद्ध का अवलंबन करने से शुद्ध परिणमन होता है और अशुद्ध का अवलंबन करने से अशुद्ध परिणमन होता है । दूसरे कोई पर का अवलंबन कर ही नहीं सकता है । सदा जीव अपना ही अवलंबन कर पाता है । जब यह जीव अपना ही अवलंबन करता है तो मलिन आत्मा किसका अवलंबन करे कि वह शुद्ध बन जाये? रागद्वेष आदि के अवलंबन से शुद्ध बन नहीं सकता है । करेगा अपना ही अवलंबन, दूसरे का कर नहीं सकता है । मलिन आत्मा में भी ऐसा कौन-सा तत्त्व है, जिससे आत्मा शुद्ध बन सके? अरहंत का विचाररूप जो ध्यान है, वह भी अशुद्ध भाव है । जीव अरहंत का अवलंबन कर ही नहीं सकता है । अरहंत का अवलंबनरूप पर्याय अशुद्ध है । शुभ भाव और अशुभ भाव दोनों अशुद्ध भाव हैं । जब मलिन आत्मा को चैतन्यरूप की खबर होती है―चैतन्यस्वभाव मलिन दशा में भी है । चैतन्य स्वभाव का अवलंबन किया तो उसकी शुद्ध पर्याय बन जाती है । सिद्धों के बारे में आप जो विचार कर रहे हैं, वह विचार शुभ है अत: अशुद्ध है । पर के संबंध में हुए निज विचार को ही जीव जान सकता है, विचारमात्र अशुद्ध है । इस मलिन अवस्था में भी चैतन्यस्वभाव अनादि अनंत शुद्ध है आत्मा द्रव्यदृष्टि से शुद्ध है, पर्यायदृष्टि से अशुद्ध है । द्रव्य और पर्याय के मुकाबले में जितने भी पर्याय ज्ञान हैं, सब अशुद्ध हैं, गुण मात्र शुद्ध हैं । जैसे ज्ञान की मत्यादि 5 पर्याय अशुद्ध हैं, परंतु ज्ञान सामान्य गुण है, अत: शुद्ध है । भेददृष्टि से गुण शुद्ध है, और अभेददृष्टि से स्वभाव शुद्ध है । ज्ञान के मति श्रुतादि 5 परिणमन अशुद्ध हैं । अशुद्ध माने पर्याय है । शुद्ध माने स्वभाव―यहाँ पर शुद्ध अशुद्ध का यह अर्थ लेना । विशेष, पर्यायें विनाशी है, जो विनाशीक है, वह जीव तत्त्व नहीं हैं । जो विनाशीक हैं, वह अशुद्ध है और जो अविनाशी है वह शुद्ध है । केवल शुद्ध चैतन्य स्वभाव के अवलंब से शुद्धता प्रकट होती है । यहाँ अशुद्ध का अर्थ ‘चल’ है और शुद्ध का अर्थ निश्चल है । इसी के अवलंबन से जीव शुद्ध होता है । जो शुद्ध को आश्रय करके जानता है, वह शुद्ध होता है और जो अशुद्ध को आश्रय करके जानता है, वह अशुद्ध होता है ।
राग-द्वेष, क्रोध, स्थावर त्रस, संसारी, मुक्त आदि जीव हैं―यह सब व्यवहार का कथन है । मुक्त ही यदि जीव होता, तो जिस समय जीव मुक्त नहीं हुआ था तो क्या उस समय वह जीव नहीं था ? यदि संसारी ही जीव होता तो मुक्त जीव जीव नहीं रहेगा?
71. निश्चयदृष्टि से ज्ञात तत्त्व के अवलंबन से द्रव्य में निर्मल पर्याय―शुद्ध द्रव्य के अवलंबन से तो जीव का कल्याण होना है, किंतु यदि कोई कहे कि हम तो निश्चय-निश्चय को मानेंगे, व्यवहार को हम नहीं मानते तो वह समझ ही नहीं सकता । किसी बात को व्यवहार से समझकर फिर निश्चयदृष्टि से कहो तो वह समझना तुम्हारा ठीक है । जीव न वीतराग है, न सराग है; जीव न सकषाय है और न अकषाय है; जीव न संसारी है और न मुक्त है; जीव न प्रमत्त है और न अप्रमत्त है, किंतु एक ज्ञायकस्वभाव और चैतन्यस्वभाव जीव है । बाकी पर्याय-रूप को जीव कहना यह सब व्यवहार का दर्शन है । मोटे रूप में ऐसा जानो कि शरीर मैं नहीं हूँ, क्योंकि शरीर नष्ट हो जाने वाली चीज है । मनुष्य मैं नहीं हूँ, देव मैं नहीं हूँ, नारकी मैं नहीं हूँ, क्योंकि ये सब पर्याय हैं । पर्यायमात्र नष्ट हो जाने वाली चीज है । राग मैं नहीं हूँ तथा वर्तमान ज्ञान, जो हो रहा है, वह भी मैं नहीं हूँ, क्योंकि ये चीजें सब मिट जायेगी, परंतु मैं नष्ट होने वाला नहीं हूं । मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ । जो-जो परिणमन मेरे में हो रहे हैं, वे सब मैं नहीं हूँ । सर्वत्र द्रव्य परिपूर्ण है, ऐसी बात द्रव्य-दृष्टि से समझ पाओगे । द्रव्य-दृष्टि का जो तत्त्व है, वह कारणसमयसार है । कारणसमयसार के अवलंबन से जो कार्य बनता है, वह सब कार्यसमयसार है । जीवरूप से जो रागादि कहे गये हैं यह सब व्यवहारदर्शन है । क्योंकि यह जीव सब पर्यायों में गया है । जीव का पर्यायों से ही विशेष परिचय है, अत: उसे पर्याय की बात कहकर ही समझाया जा सकता है । अतएव साधारणतया बताया जाता है कि जीव संसारी है, मुक्त है, त्रस है, स्थावर, मनुष्य है, देव है आदि । यह सब व्यवहार का कथन है । व्यवहार निश्चय का ही कह सकते हैं या यों कहिये कि निश्चय की बात को व्यवहार द्वारा ही समझाया जा सकता है । जैसे हम मंदिर में देख रहे हैं, हरा रंग दिखाई दे रहा है । हम उसे देखकर जान सकते हैं कि मंदिर में बिजली जल रही है । इसी प्रकार जीव में राग है । जीव में राग कहने से ही तुम समझ जाओगे कि जीव में चेतना गुण अवश्य है । जैसे मंदिर में खूंटी पर माला टंगी दिखाई दे रही है । उसे देखकर ही हम समझ जायेंगे कि मंदिर में बिजली जल रही है । मोटे रूप में यह जानना कि शरीर मैं नहीं हूँ, राग मैं नहीं हूँ । मैं इसका पिता हूँ, मैं इसका मामा हूँ, मैं इसका भानजा हूँ आदि बातें तो सब कल्पना की चीज हैं । इन सब अहंकारों को दूर करना है और कारणसमयसार को समझना है । कारणसमयसार को समझकर उसकी ओर दृष्टि लगानी है । उसकी ओर दृष्टि लगाने से ही हमारा कल्याण होना है ।
72. आत्महित में आलंब्य तत्त्व―जिसका आलंबन करके हम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं, वह चीज जीव में अनादि से ही है । जीव को जब उस अनादि अनंत चीज का ज्ञान होता है, तभी सम्यक्त्व होता है । उसका आलंबन लिया समझो, सम्यक्त्व पैदा हो गया । उस अनादि अनंत चैतन्यस्वभाव के अवलंबन न लेने से सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न होता है । वह अपने अंदर अनादिकाल से मौजूद है और सदा तक बना रहेगा । जिसके आलंबन से सम्यक्त्व जगता है, उसे कारणसमयसार कहते हैं । उसका आलंबन लो या न लो, फिर भी वह चीज अनादिकाल से अपने अंदर है, और अंत तक बनी रहेगी । जिस तरह पत्थर में से जो मूर्ति निकालनी है, वह उसमें पहले से ही विद्यमान है । पत्थर में जो परमाणु स्कंध मूर्ति को ढके हुए हैं, चारों ओर लगे हैं उस मूर्ति को ज्यों की त्यों निकालने के लिए उन पत्थरों को हटाना पड़ता है । जो मूर्ति उस पत्थर में से प्रकट होगी, वह उसमें पहले से ही विद्यमान है । इसी तरह वह स्वभाव जो कि प्रकट होने पर भगवान कहलाता है, आत्मा में पहिले से ही विद्यमान हैं, किंतु उसके आवरक राग द्वेष आदि भाव हैं, उन्हें हटा देने पर स्वयं प्रकट हो जाता है । स्वभाव के समान पर्याय का होना सिद्ध अवस्था है । स्वभाव से विषम अवस्थाओं का होना संसार अवस्था है । हम चैतन्यस्वभाव का अवलंबन लें, तभी हम शुद्ध बन सकते हैं । चैतन्यस्वभाव के अवलंबन से ही सम्यक्त्व जागृत होता है । सत्संग, पूजा, भक्ति, ध्यान ये विकल्प साक्षात् धर्म नहीं हैं । जिसके आलंबन से धर्म होता है, सम्यक्त्व जगता है, वह हमारे में पहले से ही मौजूद है । चैतन्य स्वभाव ही जीव है, इस बात को लक्ष्य में लेकर ‘रागादि जीव है’ इस बात का खंडन किया गया है ।
73. व्यवहारदर्शन में अध्यवसानादि को जीव कहने का वर्णन―जितने भी ये अध्यवसान आदिक भाव हैं वे सब जीव ऐसे भगवान सर्वज्ञदेव ने बताये हैं, सो इसे भूतार्थनय से नहीं बताया, किंतु अभूतार्थनय अथवा व्यवहार उसकी दृष्टि में यह मंतव्य है । कहते हैं कि व्यवहार से यह जीव नहीं है, निश्चय से यह जीव नहीं है, इसमें अंतर क्या आया? अंतर यह आया कि निश्चय से जीव वह कहलाता है जो जीव अपने स्वरूप से स्वयं अपने आपमें जो कुछ हो और जो किसी उपाधि के संसर्ग से ज्ञात आये वह जीव नहीं है । यह उपाधि के संसर्ग से आया, फिर व्यवहार से इसे बताना पड़ा । जैसे कोई संस्कृत भाषा नहीं जानता और संस्कृत में किसी ने आशीर्वाद दिया तो उस म्लेच्छ भाषावादी को म्लेच्छ भाषा में ही कहें तो उसकी समझ में आयेगा, यों ही व्यवहार परिणमन अवधि संसर्ग निमित्त भाव इन्हीं से जो अपरिचित परमार्थ उपादान शुद्धनय का विषयभूत परमस्वभाव, इनसे जो परिचित नहीं हैं उनको एकदम यह पद कह दिया जायेगा । उन्हें गति इंद्रिय आदिक व्यवहार जीव को बताकर यह जीव है चूंकि एक संबंध है ना मूल में, जीव संबंध न होता तो ये पर्यायें बन कैसे जातीं? जीव जब तक रहता है तब तक इस पर्याय में सजगता रहती है, हलन चलन रहती है । तो वह सब एक मूल जीव के रहने का ही तो प्रताप है और यही क्यों, जितने पदार्थ आज अजीव पुद्गल सामने दिख रहे हैं चौकी पत्थर चटाई आदिक वे सब भी जीव का संसर्ग न पाते तो इस सकल को न धारण कर सकते । यद्यपि उनमें आज जीव नहीं है लेकिन कभी तो था, सजीव तो था । तो इस तरह वे अध्यवसान आदिक भाव यद्यपि साक्षात् जीवतत्त्व नहीं हैं, चैतन्यशून्य हैं, किंतु एक संबंध पाकर ही ये हुए हैं, उसमें आये हैं परिणमन और फिर उस भव के संबंध से ये शरीरादिक परिणमन बने हैं इस कारण ये सब व्यवहार से जीव हैं । निश्चय से तो एक शुद्ध ज्ञानमात्र तत्त्व जीव है । व्यवहारनय भी व्यवहारनय से कार्यकारी है । जिस कारण व्यवहार में व्यवहार न माना जाये तो इसका अर्थ है कि चूंकि रह तो रहे हैं व्यवहार में और बात करें निश्चय एकांत की और यह कहा करें कि जीव तो शरीर से बिल्कुल जुदा है, शरीर के परिणमन से जीव का कुछ भी नहीं होता । अगर शरीर को मार डालें तो उसमें हिंसा काहे की, क्योंकि शरीर अजीव है, जड़ है, उसमें लाठी मारने से उसका कुछ बिगड़ता नहीं, जैसे कि पदार्थ ईंट, भींत, इन पर लाठी मारने से कुछ बिगड़ता नहीं, क्योंकि वे पुद्गल हैं, शरीर भी पुद्गल है । रहा जीव, वह शरीर से मारा है, उससे जीव को कुछ होता नहीं है । तो फिर व्यवहार में दया की प्रवृत्ति ही कुछ नहीं रही । दूसरे अगर यह बुद्धि करते कि इसमें बंध भी नहीं होता तो शरीर न्यारा, जीव न्यारा । अगर शरीर को मरने पर जीव को बंधे नहीं होता तो फिर मोक्ष किसका कराओगे? फिर मोक्ष का उपदेश करना भी व्यर्थ है । तो सभी तत्त्वों में बाधा आती है । यदि व्यवहारनय नहीं मानते और एकांत कर लेते हैं कि बस एक यही निश्चय एकांत है । बात यहाँ यों समझना है कि जो हम आप ये शरीर में दिख रहे हैं ये जीव हैं या नहीं? यह जो कुछ दिख रहा है, जिससे व्यवहार कर रहे हैं ऐसे मनुष्य पशु पक्षी जरूर ये सब जीव हैं या नहीं? तो उत्तर यह है कि व्यवहार से जीव हैं, और निश्चय से ये जीव नहीं हैं । निश्चय से तो शुद्ध ज्ञानस्वभाव है सो ही जीव है ।
74. व्यवहारदर्शन और निश्चयदर्शन का प्रयोजन―समस्त ये अध्यवसानादिक भाव जीव हैं ऐसा सिद्धांत शास्त्र में वर्णित है, सर्वज्ञदेव द्वारा प्रज्ञप्त है वह अभूतार्थनय का दर्शन है, व्यवहारनय का दर्शन है । यह बात यद्यपि अभूतार्थ है, अर्थात् स्वयं सहज नहीं हुआ अर्थ है तो भी संसर्ग एवं सांसर्गिकता रूप व्यवहार के आशय से तो ठीक है । यहाँ शुद्ध स्वरूप की दृष्टि है अत: वास्तव में ठीक नहीं है अर्थात् उक्त परपदार्थ व परभाव जीव नहीं हैं । फिर भी व्यवहार तीर्थप्रवृत्ति के लिये दिखाना न्याययुक्त है, क्योंकि यद्यपि व्यवहार में जो कहा गया वह अपरमार्थ है तथापि परमार्थ का प्रतिपादक अवश्य है । हाँ, यदि कोई परमार्थ की प्रतिपदकता रूप से व्यवहार का अर्थ न करे तो उसकी यह व्यवहार विमूढ़ता है । तथा जो व्यवहार को झूठ कहकर सर्वत्र भेद ही भेद देखे, जैसा कि परमार्थ दृष्टि में परभाव से भेद दिखा करता है, पर्याय दृष्टि में भी देखे तो उसकी यह निश्चयविमूढ़ता है । इस मान्यता में क्या अनर्थ हो सकता है सो देखो―इसने ऐसा देखा कि जीवस्थान जितने हैं अर्थात् त्रस स्थावर ये सब कोई जीव नहीं हैं । तब जीव का देह से संबंध न मानने पर त्रस और स्थावरों का राख धूल की तरह निःशंक उपमर्दन किया जायेगा, उससे किसी की हिंसा होगी नहीं, ऐसी स्वच्छंदता हो जावेगी । इससे अनर्थ क्या होगा―(1) परहित के लिये तो यह अनर्थ होगा कि परजीव उस उपमर्दनादि के निमित्त से संक्लेशसहित मरण करेगा और जो जितने विकासपद से मरण करेगा उससे नीचे के स्थान में जन्म लेगा, इस तरह वह मोक्षमार्ग से दूर होगा और नीच योनि, नीच कुल, नीच गति में जीवन रहने से दुःखी रहेगा । (2) खुद के लिये क्या अनर्थ होगा कि वह तो भेद ही भेद देख रहा और निःशंक प्रतिघात कर रहा है, और हिंसा भी न हो तो बंध का भी अभाव हो जायेगा । अब देखो मोक्ष तो बद्ध का हो तो होता, सो बद्ध ये हैं नहीं तो मोक्ष का उपाय क्यों किया जाये, लो इसी तरह मोक्ष का भी अभाव हो गया । लो, कल्याण मार्ग ही खतम हो गया है । सर्वथा भेददर्शी तो राग, द्वेष, मोह से जीव को सर्वथा भिन्न ही देख रहा, अब राग, द्वेष, मोह से मुक्त होने का उपाय ही क्यों होगा? सो भैया ! व्यवहार व परमार्थ को ठीक-ठीक समझो, एकांत दृष्टि में लाभ नहीं है, हानि है । अत: व्यवहार की बात व्यवहार में सत्य मानकर उसका विरोध न करके मध्यस्थ होकर परमार्थ दृष्टि का अवलंबन करके निस्तरंग तत्त्व का निस्तरंग अनुभव करो । भूतार्थदृष्टि से चैतन्य स्वभाव ही जीव है तथा राग, द्वेष, मोहादि अध्यवसानों को जीव कहना व्यवहार का दर्शन है । भूतार्थ माने स्वयं ही होने वाला तत्त्व । यह तत्त्व अनादि, अनंत, स्थायी होता है । रागादि भाव मलिन भाव हैं । रागादि अभूतार्थ हैं, रागादि अभूतार्थदृष्टि से कहे गये हैं । ये व्यवहार जीव हैं ।
75. अभूतार्थ होने पर भी व्यवहार के कहने का प्रयोजन―जैसे म्लेच्छ भाषा म्लेच्छों को परमार्थ समझाने के लिए बोली जाती है वैसे अपरमार्थ परमार्थ को बताने के लिये कहा जाता है । व्यवहार का दर्शन धर्म की प्रवृत्ति चलाने के लिये किया जाता है । यदि व्यवहार न हो तो एक बड़ा नुक्सान यह होता है कि धर्मप्रवृत्ति नष्ट हो जाती है । केवल निश्चय ही एकांत हो और व्यवहार बिल्कुल न मानो तो अर्थ यही हुआ कि शरीर से जीव अत्यंत न्यारा है तो जिस चाहे जीव की हिंसा करते रहो, किसी तरह का कोई भय नहीं रहेगा । शरीर को कुचलते जाओ, जीव तो न्यारा है ही, अत: जीव का क्या बिगाड़? करते जाओ हिंसा, पाप नहीं लगेगा । व्यवहार न मानने यह स्वच्छंद प्रवृत्ति उत्पन्न हो जायेगी । राख मिट्टी की तरह त्रसों को लोग कुचलेंगे व्यवहार न मानने से शरीर के हनन से जीवों की हिंसा न होने से बंध भी नहीं होगा । जब बंध नहीं हुआ तो मुक्त होने की क्या अवश्यकता है? अतएव मोक्ष का उपाय भी व्यर्थ है । जो व्यवहार जीव न माने, उसे मोक्ष के उपाय में भी नहीं लगना चाहिए । क्योंकि उसकी दृष्टि में शरीर के कुचलने से हिंसा नहीं होती हैं एवमेव अन्य पाप भी नहीं होते । क्योंकि वहाँ रागद्वेष जीव से न्यारा है फिर उससे छूटने की क्या जरूरत है? मोक्ष का उपाय न बनने से मोक्ष भी नहीं रहता । इस प्रकार जिन ग्रंथों में बताया गया कि त्रस जीव है स्थावर जीव है मुक्त जीव है संसारी जीव है―यह भी धर्म को चलाने के लिये कहा गया है । निश्चय का जीव तो ज्ञान के काम का है कि उसे समझो । व्यवहार न मानने से यह दोष आयेगा कि कोई ऐसी बुद्धि बनी रहे कि शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है तो शरीर को मानते जाओ, जीव उसकी दृष्टि में मरेगा ही नहीं । जीव न मरने से फिर हिंसा किसकी? जो व्यवहार को नहीं मानता उसको मोक्ष का उपाय भी नहीं बन सकता है । और फिर यह भी कठिन होगा कि अपने बारे में जीवपना कैसे स्वीकार किया जाये, ऐसा कि मैं चैतन्य मात्र जीव हूँ । प्रश्न―पर्यायों को जब जीव रूप से नहीं माना है, यहाँ स्वभाव को जीव रूप से माना है तब तो फिर त्रसादि जीव हैं, यह व्यवहार क्यों चला? इसका उत्तर आचार्य महाराज दृष्टांतपूर्वक कहते हैं:―