वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 50
From जैनकोष
जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो ।
ण वि रूवं ण सरीरं, ण वि संठाणं ण संहणणं ।।50।।
125. जीव के वर्णादि के अभाव के प्रसंग में वर्ण का अभाव का विवरण―जीव के न तो वर्ण है, न गंध है, न रस है, न स्पर्श है, न रूप, है, न शरीर है, न संस्थान है और न संहनन है । जीव के वर्ण नहीं है । रूप कहो, वर्ण, रंग, चाक्षुष कहो, एक ही बात है । ये दिखाई पड़ने वाले काले पीले नीले लाल सफेद रंग―ये सब रूप की पर्याय कहलाते हैं । मगर ये रूप गुण नहीं है । रूप गुण वह है, जिसे हम इन शब्दों में कह सकते हैं कि जो एक वही अनेक पर्यायों रूप परिणमता है वह गुण है । जैसे आम ने हरा रंग छोड़कर पीला पाया जो रूप याने अभी हरा था, वह अब पीला हो गया । जिस एक तत्त्व के लिये ‘जो वही’ शब्द लगा है उसे रूप गुण कहते हैं । जैसे किसी मनुष्य के बारे में कहा जाये, जो मनुष्य अभी बालक था वह अब जवान हो गया है । मनुष्य सामान्य घटता बढ़ता नहीं है परंतु उसकी अवस्थाओं में घटाबढ़ी होती है । मनुष्य का परिवर्तन माने मनुष्य का अभाव सो तो हुआ नहीं । मनुष्य सामान्य बदलता नहीं है, किंतु वह सब अवस्थाओं में रहता है । मनुष्य किसी एक अवस्थारूप नहीं रहता है । जैसे आम जब छोटा होता तो काला होता है । जरा बड़ा होने पर आम का रंग नीला पड़ जाता है । और बड़ा होने पर आम का रंग हरा हो जाता है । थोड़ा पकने पर पीला और पूर्ण पकने पर आम लाल हो जाता है । आम के सड़ने पर आम सफेद भी हो जाता है, । इस प्रकार आम में सभी रंग होते हैं । आम में ये रंग इस ढंग से होते हैं, जिस क्रम से आचार्यों ने इन पर्यायों का वर्णन किया है । आम में रूप गुण वही का वही है, परंतु उसकी पर्यायें ऐसी होती जा रही हैं ।
126. पर्यायव्यामोह की विचित्रता―जो कुछ दिखता है, वह सब पर्याय है । इनके आधारभूत शक्ति का नाम रूप गुण है । आत्मा में न रूप गुण है, न रूप गुण की पर्याय ही है । क्योंकि ये रूपादि गुण पुद᳭गल द्रव्य के परिणमन हैं । पुद᳭गल द्रव्य के परिणमन होने के कारण अनुभूति से भिन्न हैं । मैं आत्मा निज की अनुभूति रूप हूं । इसलिये जीव में रूप नहीं है । जीव का वर्ण कुछ नहीं है । मेरे में जब रूप गुण नहीं है, तो दुनिया मुझे जानती भी नहीं है । मेरा वह स्वभाव है, जिसे हम देखते हैं कि उन सबमें घुलमिल जाते हैं । सामान्य में एक व्यक्ति पकड़ा नहीं जा सकता । जैसा मैं एक चैतन्य आत्मा हूं । चैतन्य ही सर्वोच्च संपत्ति है । रुपया पैसा इनकी क्या कीमत है ? रुपया पैसा के उपयोग में आकर जीव को कुछ मिलना नहीं है ।
मैं किसी भी दिन दुनिया की तरफ से मर जाऊं सब झगड़ा मिट जाये । मैं मर नहीं सकता, मैं अमर हूं, अविनाशी हूं । दुनिया के विकल्पों को छोड़कर निर्विकल्प स्थिति को प्राप्त हो जाऊं तो फिर संसार के झगड़ों से छुटकारा मिल जाये । निर्विकल्प स्थिति सर्वोत्कृष्ट स्थिति है । मेरे वर्ण नहीं है । यह वर्ण पुद᳭गल का गुण और पुद᳭गल की पर्याय है । यह वर्ण जिस द्रव्य में है उससे बाहर नहीं जा सकता है । यह वर्ण शरीर से आत्मा में नहीं पहुंच सकता है । मैं वर्ण नहीं हूं । इतना मोह शरीर से जीव को है जिसका कोई ठिकाना ही नहीं । मोहियों का कैसा चित्त है कि ऐसे अशुचि शरीर पर पाउडर, लिपिस्टिक आदि लगाकर क्या करना चाहती है । यदि वह स्वांग अपने ही पति को दिखाना है तो पति तो दो ही घंटे घर पर रहता है । यदि यह सुंदरता दूसरों को दिखाने के लिए है तो फिर तुम्हारे हृदय में कितनी शुद्धता रही, यह तो आप ही स्वयं जानती होंगी । यह काम पाउडर लगाना, लिपिस्टिक लगाना किसी को नहीं करना चाहिए । यदि पुरुष यह शृंगार पसंद करता है, वह विषयलोलुपी है । इस शरीर को संयम में लगाना चाहिये । शरीर में उपयोग लगाना मोह की बड़ी तीव्रता का द्योतक है । यह वर्ण है तो शरीर का है, आत्मा का नहीं । शरीर मैं नहीं हूं । वर्ण मेरे नहीं पाया जाता ।
127. आत्मा की गंध-रहितता का विचार―लोग कहा करते हैं, दूर बैठो । आपमें बड़ी दुर्गंध आती है । अरे, आत्मा में गंध है कहां, जो आपको दुर्गंध आने लगी । गंध आती है तो शरीर से आती है । गंध दो प्रकार की होती है सुगंध, दुर्गंध, ये दोनों गंध गुण की पर्याय है । गंध गुण वह है, जो दुर्गंध व सुगंध में रहे । जैसे कहा करते हैं कि यह फूल अभी अच्छी गंध दे रहा था, अब इससे खराब गंध आने लगी । जो अच्छा बुरा लगता वह गंध गुण नहीं है, पर्याय है । मेरे में गंध नहीं है । गंध शरीर की वस्तु है, वह आत्मा में नहीं आ सकती है । बल्कि एक परमाणु का गंध गुण दूसरे परमाणु में नहीं जाता है, फिर विजातीय आत्मा में कैसे पहुंच सकती है ? सैंट तेल में डाल दिया, परंतु सैंट की खूशबू तेल में नहीं पंहुचती है, सैन्ट की खुशबू सैन्ट में रहती है । सैन्ट के जो स्कंध हैं वे तेल में नहीं पहुंचते हैं । तेल अपनी गंध से गंध वाला है, सैन्ट की गंध वाला नहीं बन सकता है । सैन्ट की खुशबू से तेल की खुशबू तिरोहित हो गई यह भी हो सकता और सेन्ट को निमित्त पाकर तेल ने अपनी गंध का परिवर्तन कर लिया हो यह भी हो सकता । जैसे―जल में लाल रंग डालने से जल लाल नहीं हुआ । आपको पानी लाल दिखता है । क्या लाल रंग के निमित्त से पानी ने अपना रंग बदल दिया ? यह प्राय: नहीं होता, पानी स्वच्छ ही है । इसी प्रकार पुत्र की कौन-सी ऐसी चीज आत्मा में आई, जिससे आप इतने आकृष्ट हो जाते हैं कि मेरा जो कुछ है सो पुत्र ही है । इस चैतन्य परिणमन में पर का उपयोग मत करो । वह घड़ी धन्य है, जब कि यह आत्मा अत्यंत निर्विकल्प रहता है । उसी क्षण की प्रतिक्षा करो कि जिस समय सब विकल्प छूटकर आत्मा आत्मा का ही ध्यान करे । यह ध्यान ज्ञानमार्ग को दिखाता है । ज्ञान की स्थिरता इस अनुभव को उत्पन्न कर देती है । वह चैतन्य मात्र मेरे में रहो । मेरे में गंध नहीं है, गंध पुद्गल द्रव्य का परिणमन है । वह अनुभूति से भिन्न है, मैं अनुभूतिमात्र हूँ ।
128. आत्मा की रसरहितता का विचार―रस पाँच प्रकार का है खट्टा, मीठा, कडुआ, चरपरा, कषायला । मैं आत्मा अमूर्त हूँ । मैं इन पर्यायों रूप नहीं हूँ, और इन पर्यायों के स्रोतरूप रस गुण मैं नहीं हूँ । पर्याय प्रवाह कहलाती है । मैं उस पर्यायरूप नहीं हूँ । शुद्ध चैतन्य ज्ञान की भीतर की गोष्ठी में बैठा हुआ ज्ञानी जब ज्ञानमात्र स्वभाव में तन्मय होता है, उसे दुनिया नहीं जानती है, मगर वह परमानंदमय है । जिससे तीव्र राग हो, उस चीज का त्याग कर देना सबसे बड़ा बलिदान है । बलिदान के बिना कुछ नहीं होता है । आत्मा की स्वतंत्रता के लिये जो कुछ हमें रुचता, उसका त्याग करना चाहिये । आपसे मुझे कुछ मिलना है नहीं, मुझसे आपको कुछ मिलना है नहीं, क्योंकि एक द्रव्य के प्रदेश दूसरे द्रव्य में नहीं जाते हैं । आपको कुछ कुटुंब से भी नहीं मिलता है, फिर तुम क्यों मोह करते हो? जिसके घर में निधि गढ़ी हो, जब तक उसे पता नहीं है तब तक वह गरीब है । इसी प्रकार स्वभाव यही है, स्वभाव मिटाने से नहीं मिटता है, परंतु जिन्हें स्वभाव की खबर नहीं है, स्वभाव उनसे अत्यंत दूर है । हे अरहंत ! आपके दर्शन मुझमें ही मिलेंगे । हे सिद्धदेव ! तुम्हारे दर्शन भी मुझमें ही मिलेंगे । मेरे से बाहर तुम्हारे दर्शन नहीं मिल सकते हैं । जब मेरा भगवान और अरहंत सिद्ध भगवान एक आसन पर विराजे, लो दर्शन हो गये । मैं चैतन्य हूँ । ऐसा यह चैतन्य मात्र आत्मा मैं आत्मा हूँ । मेरे में कोई रस नहीं है, मैं रस से रहित हूँ । रस पुद᳭गल द्रव्य के परिणमन हैं । रस अनुभूति से भिन्न हैं, मैं अनुभूति मात्र हूँ । अत: मैं रस से भिन्न हूं ।
129. जीव के रूप, रस, गंध, स्पर्श का अभाव―जीव के स्पर्श भी नहीं है, स्पर्श जीव की कोई चीज नहीं है । स्पर्श की आठ पर्याय हैं―ठंडा, गर्म, रूखा, चिकना, कड़ा, नर्म और हल्का, भारी । यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि पदार्थ में एक गुण की एक पर्याय रहती है, फिर स्कंध में स्पर्श गुण की चार पर्यायें (ठंडा या गर्म, रूखा या चिकना, कड़ा या नर्म और हल्का भारी) कैसे आ गई? उत्तर―नर्म-कठोर और हल्का-भारी ये खास पर्यायें नहीं हैं, किंतु यह हमारी कल्पना है । अथवा ये स्कंध में होते हैं । यदि पुद्गल की पर्याय हैं तो अणु में भी होना चाहिए । परंतु परमाणु में दो पर्याय होती हैं―ठंडा या गर्म और रूखा या चिकना । वास्तविक बात यह है कि परमाणु में स्पर्श एक नहीं है और भेद करो तो उसका कोई नाम नहीं है । उसे स्पर्श इसलिए कहते हैं कि वह भी स्पर्शन इंद्रिय से जाना जाता है, यह भी स्पर्शन इंद्रिय से जाना जाता है । पुद᳭गल में ऐसे ये दो गुण हैं जिनमें एक का तो स्निग्ध या रूक्ष परिणमन में से एक समय एक परिणमन होता और दूसरे गुण का शीत, उष्ण में से शीत या उष्ण, इनमें से एक समय में कोई एक परिणमन होता । परंतु उन दोनों गुणों के उक्त विकास जाने जाते हैं स्पर्शन इंद्रिय के निमित्त से, इससे स्पर्श की वे पर्यायें कही गई हैं । जैसे आत्मा में दो गुण है―(1) ज्ञान, (2) दर्शन, किंतु दोनों चेतने का ही काम करते हैं, चेतना के विकास हैं । इससे एक चेतना में दोनों गर्भित हैं न, इसी तरह स्पर्श गुण में वे दोनों शक्ति गर्भित हैं । आत्मा में कोई प्रकार का स्पर्श नहीं है । यों आत्मा में वर्ण, रस, स्पर्श, गंध नहीं हैं । अर्थात् आत्मा में मूर्तिकपना ही नहीं है । आत्मा का सबको ज्ञान है । जिसमें दुख होता है, कल्पना होती है, वही आत्मा है । आत्मा अत्यंत समीप है, फिर भी नहीं जाना जाता है, इसमें मोह ही कारण है । मोहियों की तो यह हालत है कि ‘विद्यते बालक: कक्षे नगरे भवति घोषणा ।
130. निर्ममत्व का एक दृष्टांत―जिन जीवों ने ऐसा विश्वास कर लिया कि यह चैतन्य सद्भूत वस्तु मैं हूँ, यह मैं सब पदार्थों से जुदा हूँ । वे जीव निर्मोह हो जाते हैं, जिन्हें स्वतंत्र सत्ता का बोध हो जाता है, जो जीव सम्यग्ज्ञानी हैं स्वतंत्र सत्ता का जिन्हें विश्वास है उनके मन में तो विषाद का रंच भी नहीं आ पाता । एक कथानक है―एक निर्मोह नाम का राजा था । उसका पुत्र जंगल में चला जा रहा था । प्यास लगी, पानी पीने के लिये कुटी में गया । कुटी के अंदर बैठे हुए साधु पूछते हैं:―तुम कौन हो, किसके पुत्र हो? राजपुत्र ने कहा:―मैं राजकुमार हूँ, और मेरे पिता का नाम राजा निर्मोह है । साधु ने ‘निर्मोह’ सुनकर कहा, क्या तुम्हारे पिता निर्मोह हैं । राजपुत्र ने ‘हाँ’ कहा । साधु बोला, अच्छा मैं परीक्षा लेकर देखता हूँ कि तेरा राजा कैसा निर्मोह है? जो निर्मोह है, वह राज्य ही क्या कर सकता है? मैं जब तक न लौटूं कृपा करके इसी कुटी में विराजमान रहिये । राजगृह पर साधु गया । सबसे पहले उसे द्वार पर दासी मिली और कहने लगा―तू सुन चेरी स्वामि की बात सुनाऊं तोय, कुंवर विनाश्यों सिंहने आसन पड्यौ है मोहि । हे चेरी ! सुन, राजा के कुंवर को शेर ने मार दिया है, वह खून से लथ-पंथ जंगल में पड़ा है । यह सुनकर निर्मोह-चेरी कहती है कि―न मैं चेरी स्वाम की, न कोई मेरा स्वाम, प्रारब्ध की मेल यह, सुनो ऋषि अभिराम ।। मैं किसी की चेरी नहीं हूं और मेरा कोई स्वामी भी नहीं है । यह सब भाग्यवश होता है । चेरी का उत्तर सुनकर साधु बड़ा प्रभावित हुआ । अब साधु पुत्रवधू के पास जाकर कहता है किः―तू सुन चातुर सुंदरी अबला यौवनवान । देवीवाहन दल मत्यौ तुम्हरो श्री भगवान ।। हे सुंदरी ! देवीवाहन (शेर) ने तुम्हारे पति को खा लिया । तब बहू जवाब देती है―तपिया पूरव जन्म की क्या जानत हैं लोग । मिले कर्मवश आन हम अब विधि कीन वियोग ।। कि क्या जाने हमने पूर्व में क्या किया? हम सब कर्म के उदय से आकर मिल गये थे । अब कर्म के उदय से वियोग हो गया है । यह सुनकर साधु और अधिक आश्चर्य में पड़ गया । जिज्ञासापूर्वक और राजमाता से कहता है कि―रानी तुमको विपति अति सुत खायो मृगराज । हमने भोजन न कियो तिसी मृतक के काज ।। कि तेरे लड़के को सिंह ने खा लिया है और मैं बिना भोजन किये चला आया हूं, क्योंकि तुम्हें यह समाचार सुनाना था । अब राजमाता कहती है कि―एक वृक्ष डली घनी पंछी बैठे आय । यह पाटी पीरी भई चहु दिश उड़ उड़ जाय ।। जैसे एक वृक्ष है उसकी शाखाओं पर दूर-दूर से पक्षी आकर बैठते हैं । पौ फटने पर सब अपने वांछित स्थान को उड़ जाते हैं । इसी प्रकार एक कुटुंब में सब आकर मिल जाते हैं, आयु पूर्ण होने पर सब अपने कर्मोदय के अनुसार गति को प्राप्त कर लेते हैं । यह उत्तर सुनकर साधु में भी कुछ निर्मोहता की संचार हुआ । जिज्ञासापूर्वक वह आगे बढ़ता है और राजा के पास जाकर कहता है―राजा मुखते राम कहु पल पल जात घड़ी । सुत खायो मृगराज ने मेरे पास खड़ी । हे राजन् ! अपने मुख से ‘राम’ कहो । तेरे पुत्र को सिंह ने खा लिया है । राजा बड़े निर्ममत्वपूर्वक उत्तर देता है ― ‘तपिया तप को छांड़ियों इहा पलग नहीं सोग । वासा जगत सराय का सभी मुसाफिर लोग ।। हे तपस्विन् ! तू अपनी तपस्या को छोड़कर यहाँ भागता फिरा, यहाँ तो रंच भी शोक नहीं है । इस प्रकार परीक्षा लेने के लिये आया हुआ कुटिया का साधु स्वयं राजा के रंग में रंगकर चला गया ।
131. निर्ममत्व ज्ञान से हितोपलब्धि―भैया ! यह सर्व समागम ऐसा ही है । यहाँ न तो यह समागम साथ रहना है और न यह इच्छुक ऐसा रहेगा । एक सेठ ने एक बड़ा मकान बनवाया । जब उद᳭घाटन के समय मकान देखने के लिये लोग आये तो उनसे उसने कहा यदि इस मकान में कोई कमी हो तो कहो । सभी ने बड़ी प्रशंसा की । किंतु एक व्यक्ति बोला―एक तो इसमें यह गलती है कि यह मकान सदा नहीं रहेगा । दूसरे इस मकान का बनवाने वाला भी सदा नहीं रहेगा । इसमें इंजीनियर क्या सुधारे ? यह तो जगत का परिणमन है, इन गलतियों को कोई सुधार नहीं सकता है । जैन सिद्धांत का इस तरह का भेद विज्ञान और पदार्थ का स्वरूप जो युक्ति से भी ठीक उतरे, कहीं नहीं है । भगवान् ने ऐसा कहा है, अत: मान लो ऐसा नहीं है । यदि किसी देश में कोई पक्ष न हो और उस जगह पदार्थ के उस स्वरूप का वर्णन किया जाये तो जो यह चाहते हैं, “ग्रंथ में लिखा है अत: हम नहीं मानते, आचार्यों ने ऐसा कहा है अत: हम ऐसा नहीं मानते”―ऐसे दिमाग वाले व्यक्ति भी द्रव्य-स्वरूप को समझकर मानने के लिये तैयार हो जायेंगे । ऐसा द्रव्य स्वरूप ऐसा है, युक्ति से सिद्ध कर लो, तुम्हारे दिमाग में उतरे तो मानो । श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य ने यही तो बात ग्रंथ के प्रारंभ में कही है । आत्मा वस्तु क्या है ? तुम्हें इस चीज को युक्ति व वैभव के साथ बताऊंगा, परंतु हमारी जोरावरी से मत मानना । प्रत्येक वस्तु अपने ही परिणमन से परिणमती हैं । यदि हम कहें कि ऐसे लोग ऐसे बन जायें, इसी में मेरा भला है यह तो मिथ्यात्व है । दूसरे सचमुच में करना है और―जीवों पर दया, तो वह जीव कहेगा, समझायेगा और कोई विषाद नहीं करेगा । तुम्हारी समझ में आये मानना, न समझ में आये न मानना । जो मैं कह रहा हूं, सो ठीक है यह मैं नहीं कहता । मगर जो बात ठीक है, यदि वह बात तुम्हारे चित्त में बैठ जाये तो अच्छा है । यदि मैं तुम्हें समझाने में चूक जाऊं तो आगे समझने की कोशिश करना । उचित शब्दरचना न बन पाई हो तो इसमें सिद्धांत का दोष नहीं है । जिस ज्ञान से निर्मोहिता बनती है, इसी में सारा सुख है । अत: प्रयत्न करके यही कोशिश करना कि मोह न हो । जैसे―यह तुम्हारा लड़का खड़ा है, यह तुम्हारे से अत्यंत जुदा है, यह बात श्रद्धा में ही आ जाये, बहुत बड़ी बात है ।
132. प्राकृतिक चर्याविभाग―देखो भैया ! पुरुषार्थ चार होते हैं―धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से भैया ! आजकल साक्षात् मोक्ष तो है नहीं, इसलिये मोक्ष के एवज में एक नई बात बता दें, वह अनेकों को बड़ी प्रिय लगेगी । वह है नींद । सो देखो ये चार काम है और 24 घन्टे के भाग 4 करो तो 6-6 घन्टे हुए । अब धर्म-अर्थ-काम और नींद―इन चार पुरुषार्थों के लिये बराबर समय दो । छह-छह घंटा तक प्रत्येक कार्य करो । पहिले छह घंटा धर्म, दूसरे छह घंटा अर्थ, तीसरे छह घंटा घर के, देश के, संबंधियों के काम तथा चौथे छह घंटा (रात्रि के 10 बजे से 4 बजे तक) नींद । यह तुम्हारी दिनचर्या उत्तम रहेगी । यह जिंदगी रहेगी नहीं मिट जायेगी । यह शरीर किराये का टट᳭टू है, इसे संयम में लगाओ ।
133. आत्मा का अरूपित्व―रूप माने भौतिकता या मूर्तिकता है, यहाँ रूप का अर्थ रंग नहीं है । आत्मा में मूर्तिकपना नहीं है । क्योंकि जो मूर्तिक होता है, वह पुद᳭गल है । पुद᳭गल से आत्मा भिन्न है । आत्मा में रूप नहीं है । शरीर भी आत्मा के नहीं है । शीर्यते इति शरीरम्―जो बरबाद हो जाये उसे शरीर कहते हैं । उर्दू में शरीर माने शरारती है । जब भीतर से राग मोह उठता है, तो लगता है शरीर बहुत अच्छा है । सारे शरीर में मुख सबसे अच्छा लगता है, परंतु शरीर के मुखभाग से जितना मैल बहता, उतना कहीं से नहीं बहता । उस मैल को निकालने के लिये दरवाजे भी बने हैं । आस्य माने जिससे लार बहे । लपन जो लप-2 करे, यह पूरा का पूरा शरीर अशुचि है । बढ़िया से बढ़िया भोजन करने के एक घन्टे बाद ही मलवायु निकलने लगता है । शरीर का चाहे जितना पोषण करो वह शरारत ही करता है । एक दिन वह आने ही वाला है कि जिस दिन शरीर छोड़कर चले जाना है । यह शरीर यहीं पड़ा रहा जायेगा, और आत्मा निकलकर चला जायेगा । जैसे औरों के शरीर जले, वैसे ही यह भी जलाया जायेगा । बिना जाने में ही इतनी आयु तो बीत गई, शेष दिन भी हाथ पर हाथ धरे हुए छोड़कर निकल जाते हैं । हे आत्मन् । अपना भी कुछ देखना है या पर के विकल्प में यों ही समय गंवाना है । एक पर का अणु भी काम में नहीं आता है ।
134. दौलत की फजूल मुहब्बत―कहते हैं कि दौलत के दो लात होती हैं । जिस समय वह आती है, पहली लात वह छाती में मारती है, जिसके कारण दौलत वाले को अहंकार हो जाता है, छाती तन जाती है । दूसरी लात जब वह जाती है तब कमर में जमाकर जाती है । जिसके कारण दूसरों के सामने नम जाना पड़ता है । इस दौलत की मुहब्बत का फल कटु होता है । एक सेठजी थे । उन्हें धन से मुहब्बत थी, लड़कों पर वे तनिक भी विश्वास नहीं करते थे । उन्हें चाबी भी न देते थे, लड़के बहुत समझाते पर वह न मानता । जब यमराज छाती पर चढ़ आ बैठा, तब सेठ को सुध आई और लड़कों को बुलाकर कहता हैं―बच्चों, लो चाबी । लड़के कहते हैं―पिताजी, चाबी अब हमें नहीं चाहिए, साथ लेते जाइये । दुनिया में कुछ भी कर लो मरने के समय किसी की नहीं चलती है । मरने के बाद की बात काम में नहीं आती है ।
135―जीव से देह का पार्थक्य―जीव का शरीर नहीं है । यह शरीर, जिसके कारण दुनियाँ भर से मोह करना पड़ता है यह शरीर मेरा नहीं है । इस शरीर से आत्मा इतना अलग है जैसे दूध से पानी । दूध दूध में है, पानी पानी में है । गर्म करने रख दो, दूध अलग रह जायेगा । पानी जल जायेगा । शरीर में आत्मा का वास है, परंतु शरीर शरीर में है और आत्मा आत्मा में है । आयुक्षय होने पर आत्मा शरीर का साथ छोड़कर निकल जाता है । इसी शरीर के मोह के कारण धन से मोह होता है और अन्य जीवों से मोह होता है । मोह से ही अन्याय न्याय का ख्याल नहीं रखी जाता है । कब तक चलेगी यह मायाचारिता, पोल तो एक दिन खुल ही जानी है । एक ग्वालिन थी । वह पाँच सेर दूध घर से लेकर चलती और रास्ते में नदी का उसमें पांच सेर पानी मिलाकर बाजार में दूध-बंधनी पर दूध बेच आती । महीने के अंत में उसे दूध के पैसे मिले । पैसे गठरी में बाँधकर चली । रास्ते में वही नदी पड़ी, इच्छा हुई नहा लिया जाये । गठरी किनारे पर रखी, कपड़े उतारे और नहाने लगी । उस गठरी को एक बंदर लेकर पेड़ पर चढ़ गया । उसके ऊपर उसने बहुत पत्थर फेंके, किंतु बंदर ने गठरी न छोड़ी । कुछ देर बाद बंदर ने पोटली खोली और डाल पर रख ली । उसमें से एक रुपया लेता नदी में फेंक देता और दूसरा सड़क पर । इस प्रकार बंदर खेल करने लगा । ग्वालिन यह देखकर कहती है कि हाय पानी का रुपया पानी में गया और दूध का रुपया सड़क पर पड़ा मिल गया ।
136. सृष्टि के विषय में भिन्न अभिमत―ये बाह्य पदार्थ है इनकी रखवाली करने वाला कौन है? जगत् में कोई सहाय्य नहीं है, अपनी दृष्टि ही सहाय्य है । कुछ तो जगत् के फंद में फंसकर मालूम भी पड़ गया, कुछ और मालूम पड़ जायेगा । वस्तु स्वरूप का ज्ञान ही मेरे लिये सहाय्य है । यह शरीर जीव का कुछ नहीं है । शरीर कैसे बना, किसने बनाया? इस संबंध में निमित्तनैमित्तिक भाव का प्राकृतिक नियम है । लोग कहते हैं कि यह चीज प्रकृति से उत्पन्न हुई परंतु क्या प्रकृति किसी को दिखती है ? सांख्यों में तो प्रकृति शब्द ही निश्चित है । और वे प्रकृति शब्द का कुछ अर्थ भी अनिश्चितरूप में मानते हैं । पुरुष (आत्मा) में होने वाले मोह को बताया कि यह प्रकृति से होता है, प्रकृति से एक महान् उत्पन्न होता है, सीधे शब्दों में वह ‘ज्ञान’ है । ज्ञान को भी वे पुरुष से उत्पन्न नहीं मानते । पुरुष को चैतन्यस्वरूप जरूर मानते हैं । जो मूल आचार्य हुए उन्होंने कोई भी धर्म बेईमानी से नहीं चलाया है । जानने के लिये अनेक दृष्टियां लगानी पड़ती हैं । बस यह सब दृष्टि लगाने में भूल है । इसी कारण सिद्धांत में भी भूल हो गई है । आत्मा में प्रकृति से समझ उत्पन्न हुई और समझ से अहंकार उत्पन्न हुआ और अहंकार से पाँच इंद्रियां―द्रव्येंद्रियां और कर्मेंद्रियाँ, शरीर के अवयव उत्पन्न हुए । इंद्रियों से पाँच भूत उत्पन्न हुए । वे मानते हैं कि गंध पृथ्वी की चीज है । अग्नि नेत्र की चीज है । शब्द का संबंध आकाश से है । जल का संबंध रसना से और स्पर्श का संबंध वायु से है । वे कहते हैं, यह सब प्रकृति की ही देन है । स्वभाव से जो चीजें उत्पन्न होती है, वह दुनिया को नहीं दिखती है ।
137. प्रकृतिस्वरूप-―जैसे एक दर्पण है । उसके सामने कोई रंग बिरंगी चीज रख दी । रंग बिरंगी चीज से उसकी कोई चीज नहीं निकल रही है । रंगबिरंगे कागज की चीज है । अब दर्पण को देखो, दर्पण में रंगबिरंगे कागज में कागज का परिणमन दिख रहा है । दर्पण में जो फोटो उत्पन्न हुआ, वह प्रकृति से उत्पन्न हुआ । वह प्रकृति क्या कागज की प्रकृति से उत्पन्न हुई? नहीं । क्या वह दोनों की प्रकृति से उत्पन्न हुई? नहीं । यदि वह कागज और दर्पण की प्रकृति से उत्पन्न हुआ होता तो दोनों में एक ही बात होनी चाहिए थी । इसी तरह न केवल दर्पण के स्वभाव से वह उत्पन्न हुआ । वास्तव में निमित्त-नैमित्तिक संबंध का नाम प्रकृति है । ऐसी योग्यता वाला दर्पण हो और रंगबिरंगे कागज की अभिमुखता का निमित्त मिले, दर्पण इस रूप परिणम जाता है―इसका कारण निमित्तनैमित्तिक संबंध है । दर्पण का ही ऐसा स्वभाव है कि दर्पण ऐसे पदार्थ को अभिमुख पाये, इस रूप परिणम जाता है, इसका नाम प्रकृति है । निमित्त-नैमित्तिक संबंधपूर्वक जो कार्य होता है, उसे समझ लेना । अग्नि को निमित्त पाकर हाथ जल जाता है । क्यों जल जाता है, इसमें कोई क्यों चलती नहीं है । यदि कोई न समझे, हाथ पर आग रख दो, अपने आप समझ जायेगा कि क्यों जल जाता है? सूर्य का निमित्त पाकर ये पदार्थ प्रकाशरूप परिणत हो जाते हैं, ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है । शास्त्रों के शब्दों का निमित्त पाकर आत्मा में परिणमन हो जाता है । नियम, प्रकृति की बात और निमित्तनैमित्तिक संबंध एक ही बात है । यह चौकी इसके सामने प्रकाशपरिणत काष्ठ है । अत: यह काठ को निमित्त पाकर प्रकाशरूप परिणत हो रही है । दर्पण को निमित्त पाकर इस कमरे के पदार्थ प्रकाशरूप परिणत हो जाते हैं । जो ये किरणें दिख रही हैं―ये भी स्कंध हैं । सूर्य को निमित्त पाकर जो प्रकाशरूप परिणत हो रहे हैं, जगत् में जो भी निर्माण हो रहा है, वह सब निमित्त-नैमित्तिक संबंध से हो रहा है । इसी का नाम प्रकृति है ।
138. शरीरप्रसंग―जीव के कोई कारण पाकर कषाय भाव उत्पन्न हुए, उस उदित कषाय को निमित्त पाकर कर्मबंधन हो जाता है । और उस कर्मबंधन का नाम है, कार्माण शरीर । उसी कार्माण शरीर के साथ तैजस शरीर भी है । उस तैजस कार्माण शरीर में रहने वाला आत्मा जिन परमाणुओं को ग्रहण करता है, नाम कर्म के उदय को निमित्त पाकर यह ढांचा बन जाता है । यह शरीर निमित्तनैमित्तिक संबंध से उत्पन्न हुआ । यहाँ प्रकृति माने कर्म और निमित्तनैमित्तिक संबंध । इस प्रकृति से हमारा शरीर उत्पन्न हुआ । यह शरीर औदारिक वर्गणाओं का बना हुआ है । पंचेंद्रियों में नारकी और देव का शरीर वैक्रियक वर्गणाओं से बना है । मेरे शरीर के निर्माण में मा-बाप की कोई करतूत नहीं है, फिर अपने में यह भ्रम क्यों लगाये हो कि मेरे उत्पन्न करने वाले मेरे माता-पिता है । तुम्हारे शरीर के बनने में निमित्त रजोवीर्य है तथापि सारी विधि का तो अध्ययन कर लो । प्रथम तो भैया, शरीर न मिले तो अच्छा है । शरीर का बंधन टूट जाये, यही सबसे बड़ा काम है । मगर मोह में इस काम के लिये उत्साह ही नहीं जगता है । ऐसा प्रयत्न करो कि इस शरीर का बंधन छूट जाये । यह शरीर जीव का कुछ नहीं है । यह संस्थान तो जीव का कुछ हो ही नहीं सकता है ।
139. जीव में वर्णादि का अभाव―यह जीव चैतन्यशक्ति से व्याप्त है, सर्वस्वसार जिसका इतना ही है । जैसे व्यवहारीजन राजा को 5 राज्यों में फैला हुआ निरखते हैं, इसी प्रकार अज्ञानीजन जीव को रागद्वेषादिक विचार विकल्प वितर्क अनेकों में व्याप्त हुआ देखते हैं, किंतु ज्ञानी पुरुष इन सबसे हटकर केवल चैतन्यशक्तिमात्र जीव को निरखता है । जीव का सर्वस्व सार चैतन्यशक्ति में ही समा गया है । इससे बाहर जीव का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव नहीं है । तब फिर जितने भी अध्यवसान विकार, अनुभाग उदय आदिक कहे जाते हैं जिन्हें जीव माना जा रहा था वे सब पौद᳭गलिक हैं, इसी कारण यह निर्णय समझिये कि जीव के वर्ण नहीं है। वर्ण है तो यह शरीर के । शरीर पौद᳭गलिक है । पुद᳭गल में वर्ण होता, जीव में वर्ण नहीं होता । लोग वर्ण पर इस रूप पर अति मोहित होते हैं, किंतु रूप चीज क्या है ? सिवाय एक रूप को देख लेने भर का कोई भाव है । वह न छूने में आता, न सूंघने में आता, न रसने में आता । अन्य किसी उपयोग में आता ही नहीं है । अनेक भोज्य पदार्थ खाये, चलो उससे भूख प्यास की बाधा मिटी, मगर किसी रूप के निरखने का जो एक व्यसन है उससे आत्मा को कौनसी शांति होती है ? फिर रूप है क्या ? कैसा ही रूप हो, कुछ भी वर्ण हो, वह एक मात्र है । उसमें सार तत्त्व कुछ नहीं है, फिर शरीर के रूप के संबंध की बात सुनो । वह तो स्पष्ट असार है । क्या है ? हाड़ मांस चाम आदिक एक पौद᳭गलिक पिंड पड़ा है उसमें उसका रूप है किसी भी प्रकार रहे । उसमें सार क्या है ? तो शरीर को निरखकर लोगों को सर्वप्रथम वर्ण दिखता है और उस वर्ण को देखकर फिर आसक्ति मोह व्यवहार आदिक बनाते हैं । वे सब व्यर्थ की चीजें हैं, और जीव इसमें व्याप नहीं रहा । जीव तो अपनी चैतन्यशक्ति में व्याप रहा है । इसको इस ढंग से भी निरख सकते हैं कि जैसे एक ही जगह में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य रहते हैं, पर यह तो बतलाओ कि धर्मद्रव्य, अधर्म और आकाश में व्याप रहा क्या ? यह तो झट समझ जायेंगे कि धर्मद्रव्य अधर्म में नहीं व्याप रहा, मगर आकाश में तो व्याप रहा ? नहीं । जैसे धर्मद्रव्य अधर्म में नहीं व्याप सकता इसी प्रकार धर्मद्रव्य आकाश में भी नहीं व्याप सकता । अच्छा । तो जीव आकाश में व्याप रहा होगा ? नहीं । जीव आकाश में नहीं व्यापता । तो जीव रागादिक भावों से तो व्याप रहा होगा ? नहीं । जीव रागादिक भावों से भी नहीं व्याप रहा । जीव तो अपने एक जीवत्व स्वरूप से व्याप रहा । तो जिसका सर्वस्वसार चैतन्यशक्ति है ऐसा यह जीव उतना ही है, यहाँ तक जिनको ज्ञान हो गया वे संसार से पार हो गए । समझ लीजिये । कुछ काल रहेंगे निर्वाण अवश्य पायेंगे । जिनको इतनी दृष्टि मिली कि मैं तो उतना मात्र हूं जिसका सर्वस्वसार चैतन्य शक्ति में ही व्याप रहा, इससे बाहर नहीं । ऐसे इस जीव में वर्ण की कथा करना यह विचित्र बात है । वहाँ वर्ण का क्या प्रसंग ? इसी प्रकार जीव में गंध कहां ? गंध में जीव नहीं व्याप रहा । जीव तो जीव से भिन्न है, रागादिक उन तक में भी नहीं व्याप रहा, अन्य की तो बात क्या कही जाये ! तो जीव में न वर्ण है, न रस है, न स्पर्श । ये सब पुद᳭गल में रहते हैं, पुद᳭गल के गुण हैं, पुद᳭गल गुण की पर्यायें हैं । इसी प्रकार जीव के मूर्तपना भी नहीं है । चारों के मेलमिलाप से समझा जा सकने वाला मूर्तपना भी जीव के नहीं है । जीव एक भावमात्र तत्त्व है, अन्यथा उसमें जानने देखने की क्रिया ही नहीं हो सकती । भावमात्र तत्त्व ही कोई जानन देखन का कार्य कर सकता है । मूर्त पदार्थ में तो जानन देखन का कार्य हो ही नहीं सकता ।
140. आत्महित में देहदृष्टि की महती अटक―जीव के शरीर नहीं । शरीर की अटक इतनी बड़ी भारी अटक है, जैसे घर में किवाड़ लगे हों तो वह बड़ी अटक है । घर में कैसे घुसा जाये? इसी प्रकार शरीर जीव है, यह मैं हूँ, इस प्रकार की जो दृष्टि है वह इतनी बड़ी भारी अटक है कि जीव अपने घर में प्रवेश नहीं कर सकता । शरीर को आत्मा मानना इस प्रकार अटक है जैसे घर के द्वार में किवाड़ लगे हों । इस आत्माराम के द्वार पर शरीर में आत्मबुद्धि के किवाड़ लगे हैं, विकल्प के किवाड़ लगे हैं, अब कैसे हम आत्मगृह में प्रवेश करें? शरीर मैं हूं―यह अटक सब अटकों में प्रधान अटक है । शरीर का अनुराग रखना मोह रखना यह महापाप है । यद्यपि जीवन रखने के लिए थोड़ी शारीरिक सेवा करनी होती है लेकिन । यह तो सके का अपना-अपना भाव बता सकता है कि धर्मसाधन के लिए हम जीना चाहते हैं या जीने के लिए हम इस शरीर को खिलाते पिलाते हैं, यह सब कोई अपने भावों से समझ सकता है, और यह बात वही समझ सकता है जिसे यह मालूम है कि धर्मसाधन कहते किसे हैं? कैसा है आत्मा का धर्म? चैतन्यस्वरूप, चित्स्वभावमात्र । उस चित्स्वभावमात्र अंतस्तत्त्व में उपयोग बसाने को धर्म कहते हैं । धर्म यही करना है, इसके लिए हम इस पर्याय में जी रहे हैं, ऐसे जीने के लिए हम शरीर की साधना बनाते हैं ऐसा जो भाव करे उसे तो कहेंगे कि हाँ वह सत्पथ पर है, पर अन्य में यह भाव ही नहीं है, खाना पीना, मस्त रहना, शरीर को तो पलंग पर ही डाले रहना, इससे काम न लेना । कहीं यह शरीर घुल न जाये, इस शरीर की अनेक लोग सेवायें करें, ऐसा भाव रखने वाले तो पापी हैं । उनमें धर्म का अंश नहीं है, क्योंकि शरीर की अटक आत्मदेव के दर्शन में इतनी कठिन बाधक है कि जैसे घर में प्रवेश करने को रोकने में किवाड़ बाधक है । मजबूत किवाड़े लगे हो तो भीतर ही नहीं जा सकते । इस तरह शरीर में अटक बन गयी हो, शरीर ही सब कुछ है, वह आत्माराम में प्रवेश नहीं कर सकता । यदि कोई धनिक है तो उसे यह समझना चाहिये कि अकिंचन बनने पर, अपने को ज्ञानमात्र मानने पर अपना पूरा पड़ेगा । तब फिर उस घर में मोह क्यों करना? शरीर में भी मोह न करना । यदि कोई गरीब हो तो उसे तो यह समझना चाहिये कि हमें तो एक सहज मौका सा भी मिल गया । एक बड़ा भार जो हमें हटाना पड़ता धन होने पर, उस धन से उपयोग हटाकर अपने को अकिंचन मानने की जो एक कसरत करनी पड़ती, मैं उस एक कसरत से बेच गया । एक सुगम वातावरण मिला हुआ है । अब थोड़ा शरीर की अटक और छोड़ दें । देखिये―आपका अभी सब कुछ भला हो जायेगा । अरे जो शरीर जल जाने वाला है, श्मशान में लोग जला डालेंगे अथवा कहीं फेंक देंगे, पक्षी चोंट जायेंगे उस शरीर का इतना तेज अनुराग कि जिसमें अपने व्रत का भी ध्यान न रहे । किसी भी प्रकार हो शरीर मौज में रहे ऐसी बुद्धि रखने से संसार बढ़ेगा । अगर संसार संकटों से बचना है तो इतना तो किया ही जाना चाहिये । यह शरीर मैं नहीं हूँ ।
141. निरपेक्षता में स्वावलंबन का प्रकाश―यह संस्थान मैं नहीं हूँ । जो शरीर का आकार बने, उस आकार को निरखकर हम समझते हैं कि हम बड़े बलिष्ट हैं, हम बड़े बलवान हैं, साहसी हैं, हम बहुत नामी हैं । अरे यह संस्थान क्या तेरा है? यह तो पौद्गलिक संस्थान है । तुम तो एक अमूर्त ज्ञानमात्र भाव हो । अपने उस ज्ञानमात्र को सम्हाल । जीव के संहनन भी नहीं, संहनन हड्डी की मजबूती को कहते हैं । अस्थि-रचना का नाम संहनन है । क्या मैं यह हड्डियाँ हूं? अरे इस हाड़ पिंजर में जो ममत्व रखे हुये हैं वे क्या इस जीवत्तत्व को पा लेंगे? जैसे एक भिखारी पुरुष जिसके पास धन नहीं है और वह भिखारी माने कि मैं तो धन की ममता से जुदा हूँ तो उसका यह मानना बेकार है, क्योंकि धन उसको मिल जाये और फिर उसे न अपनाये, उसे न रखे तो वहाँ परीक्षा हो सकेगी कि यह सचमुच में अकिंचन था । यों ही गरीबी की हालत में नौकर-चाकर नहीं मिलते हैं शरीर सेवा के लिए और वह गरीब माने कि मैं स्वाधीन हूँ तो उसका कहना यह झूठ हुआ । अरे उसे यदि कोई नौकर चाकर मिल भी जाये और वहाँ भी उससे सेवा न चाहे, और जाने कि मैं तो वही हूँ जो पहिले था, सेवा से ममत्व न रखे तो समझिये कि वह स्वावलंबी है । जब सब कुछ छोड़कर अपने को अकिंचन अनुभव करते हैं तो शरीर की इतनी ममता रखना कि यह शरीर भी हमारे ढोये नहीं चल सकता जिसके ढोने के लिये भी नौकर चाहिये, तब समझिये कि ऐसे आसक्त जीवन में धर्म की दृष्टि नहीं बन सकती । यह बात एक आत्मा के भले के नाते से कही जा रही है । अनावश्यक परतंत्रता से भाव को बिगाड़ देने वाली चीज है । आवश्यक सहयोग वह तो एक परस्पर का आदान प्रदान है, पर शरीर की इतनी आसक्ति कि जो कुछ है देवता मेरा सो शरीर है । भले ही हम प्रभु पूजा कर लें, किंतु चित्त में यह बात बसी कि शरीर ही मेरा देवता, न अरहंत, न सिद्ध, ऐसी तीव्र आसक्ति में विशुद्ध ज्ञान का अनुभवन आ सके ऐसी पात्रता आ सकती है क्या? इस जीवाजीवाधिकार में जीव के उस स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है कि जिसकी निगाह होने पर यह कृतार्थ हो जाये, उस चैतन्यशक्ति का दर्शन हो जो लोक में अब तक नहीं किया । बाह्य बातें तो अनेक बार मिली हैं । मैं अनादि अनंत अहेतुक असाधारण चैतन्यस्वभाव वाला एक अंतस्तत्त्व हूँ । इस मुझ अंतस्तत्त्व का चित्शक्ति से ही संबंध है, तन्यमपना है । उस चैतन्यशक्ति के सिवाय अन्य किन्हीं भावों में नहीं व्याप रहा । आकाश आदिक में क्या व्यापेगा?
142. बोलना और देखना राग बढ़ाने के खास कारण―सबसे अधिक विपत्ति इन्हीं दो खास कारणों से मिलती है । हे आत्मन् ! तू हैरान मत हो कि तुझे मालूम नहीं कि आँख और मुँह पर नियंत्रण के लिये दो ढक्कन लगे है । तुम इन दो ढक्कनों से आँख और मुंह को बंद कर डालो तो इन सब विपत्तियों से छूट जाओगे । बोलना और देखना जब मदद करते हैं तो और इंद्रियों के कारण भी अधिक नुक्सान पहुंचता है । कान, नाक में और सारे शरीर में ढक्कन नहीं हैं । सार से आंख और मुँह पर ढक्कन भी मिल गये हैं । लगाओ या न लगाओ तुम्हारी इच्छा है । यह शरीर मेरा कुछ नहीं लगता है ।