वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 210
From जैनकोष
जीवा वि दु जीवाणां उवयारं कुणदि सव्व-पच्चक्खं ।
तत्थ वि पहाण-हेऊ पुण्णं पावं च णियमेणं ।।210।।
जीवों का परस्पर उपकार व उस उपकार में पुण्य पाप की प्रधानहेतुता―जीव एक दूसरे का उपकार करता है इस बात को सभी लोग प्रत्यक्ष से जान रहे हैं, लेकिन वहाँ भी प्रधान कारण हैं पुण्य और पाप । यदि पिता पुत्र की पूछ करता है और पुत्र पिता की पूछ करता है तो वहाँ उनके पुण्योदय का फल है । शिष्य और गुरु का जो परस्पर का संबंध है, शिष्य गुरु का उपकार करता है और गुरु शिष्य का उपकार करता है, तो इन सबमें भी कारण पुण्य पाप है । सभी लोगों को प्रत्यक्ष हो रहा है कि जीव जीव का उपकार करता है । सूत्र जी में बताया है कि ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ यह जीव एक दूसरे का उपकार करता है । यहाँ भी उपकार का अर्थ भलाई नहीं है किंतु उन्हें किसी काम में लगाये रहना है, उनकी रुचि करना है अथवा उनके प्रतिकूल चलकर उन्हें विकल्प पैदा करना है । किसी भी प्रकार हो, जीव भी दूसरे जीव के भले बुरे होने में कारण हो जाया करते हैं । जैसे स्वामी सेवक को धन देकर उपकार करता है, सेवक स्वामी को कुछ हितोपदेश देकर उपकार करता है, सेवक स्वामी की कुछ सेवा करके स्वामी का उपकार करता है । आचार्य शिष्य को उपदेश देकर उपकार करता है तो शिष्य आचार्य के अनुकूल चलकर आचार्य को राजी रखता है तो इसी प्रकार पिता पुत्र का परस्पर उपकार, स्त्री पति का परस्पर उपकार, मित्र-मित्र का परस्पर उपकार पाया जाता है । उपकार भी होता है और इसके द्वारा एक दूसरे का अनुपकार भी होता है । कैसे-कैसे द्वेषभाव में आकर जीव दूसरों का बिगाड़ करता है, और दिखता भी हैकि इस राग और द्वेष के कारण एक जीव दूसरे जीव की परिणति कराता रहता है । कोई मित्र अपने मित्र का यदि विषय पदार्थों का संबंध बनाकर उपकार करता है तो कहा तो जाता है उपकार, मगर बनाया क्या गया? अपकार का समागम ।
पुण्य पापानुसार अन्य जीवों की सुख दुःख के साधनों में निमित्तता होने का वृत्त जानकर अपने भावों के सुधार की आवश्यकता―किसी कवि की दृष्टि में यह कथन युक्त ही है कि किसी का यदि विरोध करना है, किसी से बदला लेना है तो बजाय लड़ाई करने के तृष्णा का कोई ऐसा संयोग मिला दिया जाय तो यह उसका बहुत बड़ा बदला होगा । जैसे एक कहानी है कि किसी सेठ के पड़ोस में कोई एक बढ़ई रहता था । बढ़ई गरीब था, लेकिन जो भी दो तीन रुपये रोज कमाता उनसे खूब अच्छा-अच्छा खाता पीता था, और सेठ के यहाँ सीधासादा भोजन प्रतिदिन बनता था । सेठानी रोज-रोज कहा करती थी कि देखो अपना पड़ोसी बढ़ई गरीब होने पर भी कितना अच्छा-अच्छा खाता पीता और मौज में रहता है, पर आप सेठ होकर भी सीधा सादा खानपान रखते हैं । तो सेठ ने अपनी इस रोज-रोज की परेशानी को मिटाने के लिए क्या किया कि एक दिन शाम को बढ़ई के घर की आंगन में एक 99 रुपये की थैली फेंक दी । सुबह जब बढ़ई ने पाया तो बड़ा खुश हुआ । उस दिन बढ़ई ने 1) बचाकर थैली के 100) पूरे कर दिए, अब उसे तृष्णा बड़ी । शतपति से हजारपति बनने की इच्छा हुई । सो प्रतिदिन रूखा सूखा खाकर धन कमाने और जोड़ने के चक्कर में पड़ गया । तो देखिये―सेठ ने कैसा तृष्णा का संयोग मिलाकर बढ़ई को हैरानी में डाल दिया । लोक में बांधव मित्र लोग विषयकषायों के साधन जुटाकर कितना परेशानी में डाल रहे हैं । लेकिन उन्हें परेशानी में डालने वाले लोगों को ही ये मोही प्राणी अपना हितू समझते हैं । यहाँ बाह्यपदार्थों के विषयों में किसी को लगा देना, वही उसके लिए दुख का कारण है । ये ज्ञानी-संतजन इन कुटुंबीजनों से बढ़कर कुटुंबी है । ये रागद्वेष अज्ञान मोह को त्यागने का उपदेश करते हैं, शांति की विधि बताते हैं, जिससे रागद्वेष हटते हैं, ज्ञानप्रकाश मिलता है, और यह जीव अपने में शांति का अनुभव करता है । तो उपकार का अर्थ इस प्रकरण में भलाई न लेना किंतु कुछ भी काम
कर देना, किसी भी काम में लगा देना इतना ही परस्पर में जीवों का उपकार है । सो होता है यह सब, लेकिन इसमें प्रधान कारण अपने-अपने ही पुण्य पापकर्म हैं । पुण्योदय होगा तो कुटुंब के लोग भी पूछ करेंगे और यदि पुण्योदय नहीं है, पापकर्म का उदय है तो कुटुंब के लोग भी किनारा कर जायेंगे । इससे पुण्य पाप को अपने आधार पर जानकर अपने परिणाम अच्छे रखें ताकि पाप का बंध न हो और कभी इस परंपरा में ऐसा अवसर पायें कि धर्मध्यान बने, आत्मध्यान बने और कर्मबंधन से व सांसारिक दुःखों से सदा के लिए छुटकारा प्राप्त हो ।