वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 324
From जैनकोष
जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं ।
जं जिणवरेहिं भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ।।324।।
किसी सूक्ष्म तत्त्व का अबोध होने पर भी प्रायोजकतत्त्व श्रद्धा व जिनवचन श्रद्धा से सम्यक्त्व की अवाधितता―जिसने अपने को बाहरी पदार्थों से अपना हित नहीं माना है, अपने स्वरूप से बाहर अपनी दृष्टि
जाय तो वह अपने अनर्थ के लिए ही है, ऐसा जिसने निर्णय कर रखा है और इस निर्णय के बल पर अपने आपके सहजज्ञानस्वभाव का अनुभव कर लिया है ऐसा कोई पुरुष किसी कठिन तत्त्व को न भी जान पाये तो भी उसका श्रद्धान रहता है कि जो जिनेंद्रदेव ने कहा है उस सबको मैं मानता हूँ, वह सब समीचीन है । तत्त्व का स्वरूप और नाना प्रकार के धर्मों का वर्णन एक बड़े विस्तार वाला विषय है । दर्शनशास्त्र में इसका इतना वर्णन किया गया है कि पढ़ते-पढ़ते जीवन भी व्यतीत हो जाए तो भी नई-नई बातें मिलेंगी । करणानुयोग में जो तत्त्वों का वर्णन है वह भी अनेक स्थलों में बहुत कठिन और सूक्ष्म है । यदि कोई जीव उन सब तत्त्वों को नहीं जान पाता तो क्या वह सम्यग्दर्शन नहीं पा सकता? उसी का उत्तर बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि बहुत कठिन तत्त्वों को भी नहीं जान पाये लेकिन वे जिनवचन में श्रद्धान् करते हैं कि प्रभु ने जो बताया है वह सब सत्य है । अब नरक और स्वर्ण को यहाँ किसने देखा? जैसे जा जाकर कुवा, बावड़ी आदि देख आते हैं इस तरह से स्वर्ग नरक भी देखे जाते हैं क्या? लेकिन जिनको वीतराग धर्म की अभिरुचि से अपने आपके स्वरूप की श्रद्धा हुई है, अटूट आनंद पाया है, जिनको उस तत्त्व में कोई विरोध नहीं जंचा है उनका यह सब निर्णय है कि जो जिनवचन में कहा गया है कैसा नरक है, कैसा स्वर्ग है, उनकी नाप, उनकी रचना आदि वह सब युक्तिसंगत है ।
प्रयोजनभूत जीवादिक सप्ततत्त्वों का श्रद्धान व जीव अजीव का निर्णय―जैसे विचार मैं रख रहा हूँ वैसा ही विचार दूसरे का मालूम पड़े और मूल सहित मालूम पड़े तो उस व्यक्ति में रुचि हो जाती है, श्रद्धा हो जाती है कि यह बिल्कुल साफ है और स्वहित चाहने वाला है । तो जब जिनेंद्र वचन में जो कुछ तत्त्व की बात कही गई है जीव, अजीव, आस्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा और मोक्ष, जब इन 7 तत्त्वों के संबंध में बुद्धि लगाते हैं तो यह वर्णन हमको यथार्थ जंचता है । बस इसकी श्रद्धा है । इसके बल पर सम्यक्त्व की बात कही जाती है । इस कारण छहढाला में यह कहा है कि जीवादि―प्रयोजनभूत तत्त्व, मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत जीवादिक 7 तत्त्व हैं । उनके बारे में उल्टी श्रद्धा हो तो मिथ्यादर्शन है और समीचीन श्रद्धा हो तो सम्यग्दर्शन है । जिसको अपना हित चाहिए उसको यह निर्णय करना होगा कि मैं जीव हूँ, इस देह से निराला, ज्ञानानंदरूप से रचा गया समस्त बाह्यपदार्थों के प्रवेश से रहित निरापद यह मैं जीव हूँ, पर इसके साथ कोई अजीव भी लगा हुआ है, तभी तो आज इतनी उल्टी परिणति हो रही है । किसी भी पदार्थ में जो उल्टा परिणमन होता है तो उससे उल्टी चीज साथ में लगी हो तब होती है । जैसे पानी ठंडा है, लेकिन जब कोई गर्म चीज साथ में लग जाय, जैसे आग पर बटलोही रख दी गई, तो झट पानी गर्म हो गया । तो जैसे ठंडे पानी को गर्म कलेजे लिए कोई उल्टी चीज साथ में होना चाहिए । ठीक ऐसी ही बात अपनी समझिये―जब मेरा स्वरूप जानने का है और आनंदमय रहने का है तब ऐसा न हो तो कारण क्या कि कोई मेरे स्वभाव से विपरीत चीज साथ में लग गई है । अब वह विपरीत असर क्या है कि मैं जीव हूं तो वह विरुद्ध चीज अजीव होना चाहिए । मैं अमूर्त हूं तो वह विरुद्ध चीज मूर्तिक होना चाहिए । ऐसे ही ये हैं कर्म । ज्ञानावरण आदिक 8 भेद वाले ये कर्म अजीव हैं और मूर्तिक हैं । तो जीव के साथ ये कर्म लगे हुए हैं बस ये अजीव हैं । अजीव तो शरीरादिक भी हैं, पर यहाँ 7 तत्त्वों के सबंध में कह रहे हैं तो चूँकि आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, इनके कथन में कर्म की बात आयगी तो यहाँ अजीव को देखना कर्म । यह मैं ज्ञानांदस्वरूप आत्मा हूँ और इसके साथ ये अज्ञान मूर्तिक कर्म लगे हुए हैं ।
सुदृष्टि की आस्रवबंधविषयक निर्णय―ये कर्म मेरे में, जीव में शुरू से नहीं पड़े हुए हैं अनादि से परंपरा से पड़े हैं, मगर जो कर्म जब बना उससे पहले वह कर्म न था। तो ये कर्म आये हुए हैं और ये आते हैं रागद्वेष भाव के कारण। इस मनुष्य को जरा-जरा सी बातों में रागद्वेष करना अनुकूल जंच रहा है, सामर्थ्य है इसमें। पशुओं पर, पक्षियों पर, गरीबों पर इसका बल प्रयोग भी हो जाता है, और इसको रागद्वेष करना बड़ा आसान जंच रहा है, लेकिन इसका कितना खोटा परिणाम है कि जन्ममरण का तांता लग जायेगा, आकुलता हो जायेगी, अनेक कर्म बंध जायेंगे। बड़े-बड़े महापुरुषों ने तीर्थंकर चक्रवर्ती जैसे बड़े समृद्धिशाली लोगों ने सब कुछ त्यागकर यह पसंद किया था कि मैं अपने इस ब्रह्मस्वरूप को देखूं और यहाँ ही तृप्त रहूं, अब किसे जानें, क्या करना, कहां बोलना, बाहर की सारी क्रियायें सारहीन हैं। वे अपने आपके स्वरूप में रमकर तृप्त रहते हैं। और यहाँ मुग्ध पुरुषों को रागद्वेष करना आसान सा जंच रहा है। जरा भी कंट्रोल नहीं है कि मैं थोड़ा रागद्वेष मोह कम तो करूं। क्यों स्वच्छंदता से ऐसे परपदार्थों में बहूं, इसके लिए इसकी बुद्धि नहीं जगती। मेरे ये रागद्वेष हो रहे हैं, ये ही कर्म के आस्रव के कारण हैं। इन भावों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बनती हैं, और इसी भाव की संक्लेश की तरतमता से, उन कर्मों में स्थिति बंध जाती है। यहाँ उन तत्त्वों का वर्णन किया जा रहा है कि जिनको ठीक-ठीक समझे बिना हम अपना हित नहीं कर सकते। एक क्षण के मोह की गलती में 70 कोड़ा कोड़ी सागर तक की स्थिति का कर्म बंध जाता है। एक सागर ही बहुत बड़ा है। जिसमें अनगिनते वर्ष समा जाते हैं, फिर 70 कोड़ा कोड़ी सागर कितना महान काल है ? इतने समय तक के लिए एक क्षण की गलती में कर्म बंध जाते हैं और जैसे 70 कोड़ा कोड़ी सागर का कर्म इस समय बाँध लिया तो वह कर्म मान लीजिए 700 वर्ष कम उदय में न आयगा, लेकिन इसके बाद जब उसका उदय होना शुरू होगा तब से लेकर 700 वर्ष तक 70 कोड़ा कोड़ी सागर तक लगाकर उदय में आता है। अब ध्यान करना है कि हम आप संसारी जीव आज कितनी विपत्ति में फंसे हुए हैं। जैसे ये पतिंगे रूप के लोभी होकर दीपक पर गिर जाते हैं और मर जाते हैं इसी तरह ये संसारी जीव रागद्वेष करके अपना इतना अनर्थ कर डालते हैं और फिर भी रागद्वेष न करें यह बुद्धि नहीं जगती। भगवान की बात न सुहाये और भगवान की भक्ति करे तो उसे भक्ति कैसे कही जा सकती है ? भगवान का वचन है कि इस अपने आपमें सात तत्त्वों की बात का निखार बना लीजिए। कर्म बंध गए, अब जब उनका उदयकाल आता है तब इस जीव को क्रोध, मान, माया, लोभ, जन्ममरण आदि विचित्र बातें उत्पन्न होती रहती हैं। यह तो हुई संसार के जकड़ाव की चर्चा कि किस तरह हमारा संसार जकड़ाव बना हुआ है। अब सुनो मोक्ष की चर्चा।
सुदृष्टि का संवरनिर्जरा मोक्षविषयक निर्णय―कौनसा उपाय है वह कि जिस उपाय से हम इस बंधन से मुक्त हो जायें, सहज शाश्वत सत्य सुखी हो जायें । वह उपाय है संवर और निर्जरा । सम्वर कहते हैं कर्म के न आने को । अब कार्माण वर्गणा कर्मरूप न बनें इसको कहते हैं सम्वर । जब जीव रागद्वेष मोह का त्याग करता है तो जितने अंशों में रागद्वेष छोड़ दिया है उतने अंशों में संवर तत्त्व प्रकट होता है । एक बात सोचिए कि मेरा जीव यदि आनंदमय हो जाय तो इससे आगे आपको और क्या चाहिए ? मान लो दो चीजें मुकाबले में रखी हैं एक ओर तो यह धन बड़े, इज्जत बढ़े, परिवार बढ़े, बड़े-बड़े आराम के साधन हों और एक ओर यह बात आये कि मैं अपने ज्ञानानंदस्वरूप इस निज परमात्मतत्त्व का दर्शन करूँ और इसके ही निकट अपना ज्ञान रख करके तृप्त रहूं, यदि कोई कुछ ऐसी शंका करने लगे कि देखो यदि हम अपने इस ज्ञानानंदस्वरूप को जानकर वहीं तृप्त रहने का उद्यम करता हूँ तो हमारी दूकान खराब हो जायगी । घर के बाल बच्चे फिर बेकार से हो जायेंगे ? उन्हें पाले पोषेगा कौन ? और, हमारी इज्जत भी फिर कोई न करेगा । कौन हमें जानेगा ! तो यहाँ विचार करे कि यदि एक यह अपनी बात मिलती है कि मैं अपने ज्ञानानंदस्वरूप में बसकर विलीन हो जाता हूँ, तो यह तो सत्य आनंदमय हो गया । उसको अब बाहर में क्या पड़ी है ? चाहे जो बने, चाहे जो बिगड़े, कहीं कुछ हो ? जैसे लोग कहावत में कहते हैं कि लेवा मरे या देवा, बलदेवा करे कलेवा । कोई बलदेवा नाम का दलाल था, वह किसानों का अनाज बेचने की दलाली करता था । सो एक दिन किसी किसान के अनाज की दलाली की । तो जिसका अनाज बेचा उसने सोचा कि आज तो हमारा माल सस्ता चला गया, इस कारण वह बड़ा खेद मानने लगा, और जिसने ? वह अनाज खरीदा उसे यह ख्याल हुआ कि आज हमने तेज खरीद लिया । तो दोनों जगह अलग-अलग बैठे हुए दोनों व्यक्ति (अनाज बेचने वाला व खरीदने वाला) दुःखी होते रहे । अब बलदेवा तो साथ में नाश्ता रखे था, देर हो जाने से काफी भूख भी लग गई थी, सो अपना कलेवा निकाला और एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम से कलेवा करने लगा यह कहते हुए कि लेवा मरे या देवा, बलदेवा करे कलेवा । तो यह तो एक लौकिक बात बतायी है । यहाँ परमार्थ की बात समझना है कि इन बाह्यपदार्थों का परिणमन हमारे आधीन नहीं है कारणकुट और उपादान के अनुसार जिस पदार्थ का, जिस जीव का जैसा परिणमन होना है, होगा । उस पर हमारा अधिकार भी नहीं और उससे मेरा कुछ होता भी नहीं । इसलिए बाहर में कहीं कुछ हो सो हो । मैं स्वामी भी नहीं और न बाहरी पदार्थों से मेरे में कुछ प्रभाव आता है । तब मैं तो अपने इस ज्ञानानंदस्वरूप को ही निरखूं और उसमें ही बस करके तृप्त होऊँ । एक ही निर्णय है ज्ञानी पुरुष का । यहाँ बताया जा रहा है कि कर्मों का सम्वर किस उपाय से होता है, वह उपाय है रागद्वेष मोह का त्याग । धर्म ही यही है कि इस रागद्वेष मोह मलिन भावों का परिहार करें । अब शुद्धि के अनुसार सम्वर करता हुआ ज्ञानी इच्छा के अभाव से जो अपने विशुद्ध आत्मा में बढ़ रहा है वह उसका शुद्धोपयोग कर्मों की निर्जरा का कारण बन रहा है । नये कर्म तो आये नहीं और पुराने बँधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाय तो यही तो फल होगा कि किसी समय एक भी कर्म यहाँ न रहेंगे और मुक्ति प्राप्त होगी ।
संवरनिर्जरामोक्षस्वरूप का दृष्टांतपूर्वक प्रतिपादनोपसंहार―जैसे जिस नाव में छिद्र हो गया है, वह नाव किसी नदी या समुद्र में चल रही है तो उस नाव में छिद्र के द्वार से पानी आ रहा है । यह तो समझिये नाव में पानी का आस्रव और पानी उसमें आकर अगर ठहर गया है तो यह है नाव में पानी का बंध और यदि मल्लाह चतुर है तो उस नाव को डूबने से बचाने के लिए (मुक्ति देने के लिए) यह उपाय करता है कि सबसे पहिले तो उसके छिद्र को बंद करता है । उसे यह आकुलता नहीं होती कि इस पानी से नाव डूब जायगी, वह तो उस पानी को निकालने के बजाय उसमें नया पानी न आने देने का उपाय करता है । उस छिद्र को बंद कर दिया
तो यह हुआ पानी का सम्वर और सम्वर जब बन चुका तो कटोरा आदिक जो उनके योग्य उपकरण हैं उनसे पानी को उलीचता है । फल यह होता कि नाव में पानी नहीं रहता और पानी के संकट से नाव मुक्त हो जाती है । इसी प्रकार मिथ्यात्व रागद्वेष मोह विषयकषाय इन सब भावों के कारण कर्म आते हैं, यह है आस्रव, और जैसे यह क्रूरता, तीव्रता, कषाय बनी है उसके अनुसार ये कर्म यहाँ ठहर जाते हैं । यह है बंधन, और रागद्वेष मोह न करें, रागद्वेष मोह से निराले केवल ज्ञानानंदस्वरूप निज परमात्मतत्त्व का दर्शन करें तो इस उपाय से वे कर्म न आयेंगे, यह है संवर । और, इन्हीं कारणों से पहिले आये हुए कर्म झड़ते जायेंगे और इस उपाय से एकदम भी शेष कर्म झड़ जायेंगे, यह हुई निर्जरा । तो जहाँ संवर पूर्ण है और निर्जरा भी हो चुकी । तब वहाँ समस्त कर्मों से मुक्त होकर यह जीव भगवान होता है । तो इस प्रकार जिस जीव को सातों तत्त्वों के विषय में श्रद्धान है और वह एकदम किसी गहन तत्त्व को न जान पाये, पर उस सब कथन के बारे में वह ऐसा निर्णय रखता है कि जो प्रभु ने कहा है उस सबको में चाहता हूँ, अर्थात् वह सब समीचीन है । उसमें मुझे कुछ भी शंका नहीं है ।