वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 326
From जैनकोष
सम्मत्त-गुण-पहाणो देविदं-णरिदं-बंदिओ होदि ।
चत्त-वओ वि य पावदि सग्ग-सुहं उत्तमं विविहं ।।326।।
जिस जीव में सम्यक्त्व जगा है, वह जीव चाहे व्रत धारण किए हुए न हो तो भी देवेंद्र, नरेंद्र के द्वारा वंदनीय है और नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुख को पा लेता है । सम्यग्दर्शन होने पर आयु मनुष्य की बंधेगी या देवायु की बंधेगी । मनुष्य व तिर्यंच के देवायु बंधेगी, देव व नारकी के मनुष्यायु बंधेगी सम्यक्त्व के होने पर । हाँ पहिले यदि कोई दूसरी आयु बँध गई है और बाद में सम्यग्दर्शन हुआ है तब तो उस गति में जाना होगा, मगर वहाँ भी कुछ अच्छे ही साधन मिलेंगे । अब अपनी बात देखिये―सम्यग्दर्शन होने पर मनुष्य को यदि आयु बँधेगी तो देव की ही बंधेगी । तो जो सम्यग्दृष्टि जीव है वह चाहे व्रती नहीं है तो भी उत्तमसुख को, स्वर्गादि के सुख को प्राप्त करता है ।
सम्यक्त्व में मूढ़ताओं का अभाव―सम्यग्दर्शन का निर्दोष होना यह एक बड़ी विभूति है । वहाँ कोई मूढ़ता नहीं रहती । जैसे कि लोग कहते हैं कि फलानी नदी में नहाओ, पाप घुल जायेंगे, अमुक पहाड़ से गिरो, पाप घुल जायेंगे, या अमुक देवीदेवताओं की मान्यता करो, तुम्हारा कल्याण होगा । इन किन्हीं भी मूढ़ताओं में ज्ञानी पुरुष नहीं फंसता । उसका तो यह स्पष्ट निर्णय है कि मेरे में जो होगा वह मेरे में मेरे से प्रकट होगा । कोई दूसरी बात दूसरी जगह से नहीं आती । 25 प्रकार के जो सम्यक्त्व के दोष हैं उनसे जो दूर है वह सम्यग्दृष्टि देवेंद्र और नरेंद्र के द्वारा वंदनीय होता है । अब मूढ़ताओं की बात देखो―दुनिया में धर्म के नाम पर कितनी तरह की मूढ़तायें हैं ? सूर्य को अर्ध देना―यद्यपि यह भी कुछ रहस्य रखता है । प्रथम चक्रवर्ती ने अपने महल की छत पर खड़े होकर सूर्यविमान में जो जिन चैत्यालय है दर्शन किया और उसको निरखकर उसने नमस्कार किया होगा । तब आचार्य ने उस उसके प्रथम चक्रवर्ती को मना किया―यद्यपि हे चक्री तुम ठीक करते हो । तुम सूर्यविमान में चैत्यालय के दर्शन करके नमस्कार करते हो, पर सारी दुनिया यह न समझ सकेगी । वह तो समझेगी कि यह जो चमक रहा है उसे अर्घ देते हैं । संभव है कि इसी बात की प्रथा चली हो । किंतु आज तो उस चैतन्यात्मक ज्ञानानंदस्वरूप परमात्मतत्त्व का नाम लेकर कोई सूर्य को अर्घ नहीं देता, किंतु चमक रहा जो विमान है उसे अर्घ चढ़ाते हैं । कोई पुरुष संक्रांति के समय में स्नान आदिक में धर्म मानते हैं, कोई गाय आदिक पशुओं को नमस्कार करते अथवा अनेक प्रकार के वृक्षों की पूजा करते, नदी, सागर आदिक में स्नान करते, कहीं फूलों का ढेर लगाते, ये सब बातें करते हुए धर्म मानते हैं । ये सब धर्म के संबंध की मूढ़तायें है । इन सब बातों का यदि कुछ विवेकपूर्वक विचार किया जाय तो किसी रहस्य की बात मिलेगी । उस रहस्य को न जानकर तो वे धार्मिक क्रियाकांड व्यर्थ हैं ।
मूलपरिचय को छोड़कर लोक की गतानुगतिकता―जैसे एक कथानक है कि एक बार कोई सज्जन पुरुष (साधु पुरुष) फूल लिए जा रहा था । तो मार्ग में एक जगह किसी कुत्ता आदिक की बीट पड़ी थी, तो उसने सोचा कि इस मार्ग से बहुत से पुरुष जाते हैं और सभी लोग इस बीट को देखकर नाक सिकोड़ेंगे, तो उस पुरुष ने उस बीट को उन फूलों से ढांक दिया । अब दूसरे लोगों ने देखा कि देखो इस साधु ने बड़े भक्तिभाव से इस जगह फूल चढ़ाया है, यहाँ कोई देव रहता होगा, सो उन लोगों ने भी उस जगह कुछ फूल लाकर चढ़ा दिए । अब क्या था ? वहाँ से जो निकले सो ही उसे देवता समझकर फूल चढ़ाये । वहाँ फूलों का बहुत बड़ा ढेर लग गया । जब बहुत बड़ा ढेर लग गया तो वहां के मुखिया (गाँव के प्रधान) के मन में आया कि जरा वहाँ चलकर देखना चाहिए कि कौन देव है, कैसा देव है ? उस जगह के सारे फूलों को उठाया तो नीचे मिला किसी कुत्ता आदिक का विष्टा । तो कुछ घटनायें ऐसी होती हैं कि जो होती तो है किसी भले के लिए मगर पीछे उसका रूप बदल जाता है । एक कथानक है कि किसी सेठ की लड़की का विवाह हो रहा था, सो उस समय उसके घर पली हुई बिल्ली घर के अंदर इधर उधर आती जाती थी । बिल्ली का इधर उधर आना जाना ऐसे मौके पर लोग असगुन मानते हैं सो सेठ ने अपने नौकर को बुलाकर एक टिपारे में उस बिल्ली को बंद करवा दिया । इस दृश्य को उसके लड़कों ने भी देखा । खैर, सेठ तो थोड़े दिनों में मर गया, जब उन लड़के में से किसी की लड़की की शादी होने लगी तो उस समय लड़कों को याद आया कि विवाह में मुहूर्त के समय पिताजी ने एक बिल्ली पकड़कर पिटारे के अंदर बंद कराया था, सो लड़कों ने उस समय यही कहा कि ठहरो, अभी एक दस्तूर बाकी रह गया है । देखो हमारे यहाँ का दस्तूर चला आया है कि विवाह के मुहूर्त के समय टिपारे के अंदर बिल्ली बंद की जाय, सो जब दो तीन घंटों में किसी तरह कोई बिल्ली पकड़कर लायी गई विवाह का निश्चित मुहूर्त भी निकल गया तब शादी हुई । अरे उस बिल्ली को पिटारे में बंद करने का प्रयोजन क्या था ? इस बात को वे भूल गए, इसलिए यह विडंबना बन गई । तो बहुतसी ऐसी लोकरूढ़ियां हैं जो कि मूल रहस्य को (मौलिक बात को) न समझे जाने से विडंबनारूप बन गई । ज्ञानी जीव इन किन्हीं भी मूढ़ता की बातों में नहीं आता है । तो सम्यक्त्व होना और सम्यक्त्व के योग्य अपना व्यवहार होना, और भीतर में उस स्वरूप का निश्चयस्वरूप रहना यह जीव के लिए कल्याणकारी चीज है ।
सम्यग्दृष्टि के संवेग, निर्वेद, निंदा, गर्हा व प्रशम गुण―सम्यक्त्व जिसके उत्पन्न हुआ है उस जीव के संवेगादिक 8 गुण उत्पन्न होते हैं―संवेग,- धर्म के साधनों में प्रेम होना, धर्मात्माजनों में अनुराग होना, धर्मप्रेम । निर्वेद अर्थात् संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य । सम्यग्दृष्टि जीव की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि उसे धर्मभाव में तो अनुराग जगता है और सांसारिक भोगों में वैराग्य उत्पन्न होता है । क्योंकि वह जानता है कि सारभूत बात है तो अपने ज्ञानस्वभाव का समझना और इस ज्ञानस्वभाव में अपना ज्ञान बनाये रहना, केवल यही सारभूत बात है । इसके अतिरिक्त जितनी भी अन्य बातें हैं वे सब विडंबनारूप हैं । अतएव उसका ज्ञानस्वभाव में प्रेम और बाकी बाह्यवस्तुओं से वैराग्य होता है । सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपमें अपनी निंदा किया करता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर भी जब तक आत्मकल्याण नहीं होता है रागद्वेष चल रहे हैं तो वहाँ वह अपनी निंदा करता है । मैं रागी हूँ, द्वेषी हूँ, मेरे में इतने अवगुण हैं, ये अवगुण मेरे दूर हो तब ही मैं योग्य कहला सकता हूँ । उसे अपने अपराध की अपने आपमें निंदा बनी रहती है । और समय-समय पर अपने गुरुजनों से अपने दोष को प्रकट करता है ज्ञानी दोषों का पछतावा करता है, हे प्रभो ! मुझसे यह अपराध हुआ, मेरे में अभी बहुत कमजोरी है, अपनी कमजोरी को, अपने अपराध को गुरुजनों के समक्ष कहता है । सम्यग्दृष्टि जीव में एक प्रशम गुण उत्पन्न होता है । कोई जीव कैसा ही कुछ कह दे या कैसा ही अपराध कर दे तो अपराध करने पर भी उससे बदला लेने का भाव नहीं होता । ज्ञानी जीव तो उसके प्रति शांतभाव ही रखता है । जैसे कि संसारीजन जरा सी भी प्रतिकूल बात होने पर, इतनी कमर कसकर तैयार हो जाते हैं उसका बिगाड़ करने कि लिए भी वह रात दिन बेचैन रहता है । पर सम्यग्दृष्टि जीव जानता है कि संसार में यह जीव न जाने कौन किस गति से आकर यहाँ पैदा हो गया, थोड़े ही दिनों में न जाने कौन किस गति को चला जायेगा । कोई जीव कैसा ही परिणमता है परिणमने दो, उसका परिणमन उसमें है, इन जीवों में हम किसे अपना विरोधी समझें ? क्यों व्यर्थ में किसी से बदला लेने का भाव करें ? यों ज्ञानी जीव किसी को अपना विरोधी नहीं समझता है ।
सम्यग्दृष्टि के भक्ति, दया, वात्सल्य गुण―ज्ञानी के देव, शास्त्र, गुरु के प्रति बड़ी उत्तम भक्ति रहती है । पूज्य हैं तो ये वीतराग सर्वज्ञदेव ही पूज्य हैं । यह धर्म जिसमें कि रागद्वेष मोह छोड़ने का उपदेश किया गया है यही धर्म उपादेय है, निर्ग्रंथ गुरु जिनके अंतरंग बहिरंग किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रहता है, ऐसे साधु पूज्य हैं । ज्ञानी पुरुष को उनके प्रति भक्ति जगती है, अपने प्रति और दूसरे जीवों के प्रति उसके दया का भाव उत्पन्न होता है । किसी भी तड़फते हुए पशु को देखकर जो यहाँ कुछ व्यग्रता होती है वह तब ही तो होती है जब यह भाव किया कि इस ही की तरह मैं भी तो जीव हूँ । तो जो लोग दूसरे जीवों के प्रति दया करते हैं उन्होंने पहिले अपने आत्मा को छू लिया है तभी तो दया होती है । तब दूसरे जीवों की दया करना भी धर्म है और अपने आपकी दया तो उत्तमधर्म है ही, अर्थात् अपने को विषयकषायों से मिथ्यात्व से अज्ञान से अलग हटाये रहना, यही है अपनी दया । तो सम्यग्दृष्टि जीव स्वदया और परदया की विशेषता रखता है, ज्ञानी जीव में वात्सल्य गुण है, धर्मात्मा जनों से निष्कपट प्रेम करता है । अभी विवेकपूर्वक देखा जाय तो गृहस्थजनों के उपकार जितना धर्मात्माजनों से हो सकते हैं उतना पुत्र, मित्र, कुटुंबीजन, रिश्तेदार आदि से नहीं हो सकते । मूढ़ पुरुषों के चित्त में धर्मात्मा के प्रति प्रीति न जगेगी, वह उन्हें गैर रूप से ही समझेगा । ये मेरे घर के नहीं हैं, ये तो गैर हैं । कभी धर्मी की भक्ति करते हैं तो रूढ़िवश उनका आदर किया जाता है । मेरे तो ये घर के लोग हैं और इन्हीं के बल पर मेरा जीवन है और इसके लिए मेरा सर्वस्व है, पर ज्ञानी जीव को जितना अधिक लगाव धर्मात्मा के प्रति होता है उतना अधिक लगाव कुटुंब के प्रति नहीं होता, और अनेक उदाहरण भी देख लीजिए―जहाँ कहीं ज्ञान वैराग्य की वार्ता मिल सकेगी वहाँ तो इसको शांति मिलेगी और जहाँ रागद्वेष मोह बढ़ाने वाली ही घटनायें और बातें मिलेगी वहाँ इस जीव को शांति न मिलेगी । तब स्वयं निर्णय कर लो कि धर्मात्मा जनों का संग मेरे लिए हितकारी है या कुटुंब आदिक का संग मेरे लिए हितकारी है । लाभ किससे मिलेगा ? तो ज्ञानी जीव तो धर्मात्मा जनों से ही वात्सल्य रखते हैं ।
सम्यग्दृष्टि के अंतःशांतिरूपता―अनेक गुणों से संपन्न वह सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपमें जब चाहे आनंद पाता रहता है । जब जरा गर्दन झुकायी देख लो, अपना देव अपने आपके अंदर है । जिस समय बाह्यदृष्टि को बंद करके अपने अंतरंग की दृष्टि से देखेंगे तो अपना भगवान, अपना वह कल्याणकारी देव अपने आपमें मिलेगा । जिसने अपने आपमें बसे हुए इस परमात्मदेव का दर्शन किया है वह पुरुष तो पवित्र है, और जो अपने आपके इस परमात्मदेव का परिचय नहीं कर सकता वह चाहे शरीर की कितनी ही शुद्धि करे या अन्य प्रकार की शुद्धि करे तो वह शुद्धि व सिद्धि नहीं है । चाहे अपवित्र हो, चाहे पवित्र हो, चाहे किसी स्थिति में हो, जो अपने परमात्मतत्त्व का स्मरण करता है वह बाहर में भी पवित्र है और अंतरंग में भी पवित्र है । शांति मिलेगी तो अपने आपके परमात्मस्वरूप के उपयोग में ही मिलेगी । बाहरी पदार्थों को चित्त में बसाने से शांति न मिलेगी ।
।। अनुप्रेक्षा प्रवचन षष्ठ भाग समाप्त ।।