वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1000
From जैनकोष
इदमक्षकुलं धत्ते मदोद्रेकं यथा यथा।
कक्षायदहन: पुंसां विसर्पति तथा तथा।।1000।।
इंद्रियों के मदोद्रेक के अनुसार कषायदहन का प्रसर्पण―यह इंद्रियों का समूह जैसे-जैसे अपना मद बढ़ाता रहता हे वैसे ही वैसे कषाय रूपी अग्नि भी बढ़ती रहती है। स्तुति में कहा हे ना कि ‘‘आतम के अहित विषय कषाय’’ हमारा अहित करने वाले ये विषय कषाय के भाव हैं। मनुष्यजन्म पाया है, तत्त्वज्ञान, योग्यता पाया है, तब ठीक-ठीक निर्णय करके अपने भीतर का मार्ग सही बनायें तो जीवन पाना सफल है। और यदि विषय कषायों में रहकर जीवन गुजारा तो भले ही कुछ धर्म की बातें कर रहे हैं, मगर वह तो देखा-देखी कुल परंपरा से अथवा लोगों के बीच रहने में कुछ बड़प्पन सा जाहिर होता है ऐसे कुछ आशयों में से वे धर्मपालन में लगे हैं। अरे यदि अपना सही निर्णय करके आत्मदया करते हुए भीतर में धर्मपालन की दिशा में बढ़े तो जन्म सफल होगा। तो इन इंद्रियविषयों पर विजय प्राप्त करने की बात सर्वप्रथम है। जो त्यागीजनों में यह रूढ़ि हे कि रस का त्याग करना, मीठा न खाना, गरिष्ठ न खाना, सादा भोजन करना, यह सब हित की दिशा का सूचक है। भला, बताओ कि सरस भोजन खाया तो इसके पास पूंजी क्या रही? खाया बीमार भी रहे, बादी भी बढ़ी, बाहर किया, पेट ज्यों का त्यों रीता रहा, इसे फायदा क्या पहुँचा? बिगाड़ देखो तो स्वास्थ्य बिगड़ा, विशेष धन की भी जरूरत नहीं, उसके लिए अधिक कमाना भी पडा और निरंतर का जो संस्कार बना रहता है चौबीसों घंटे, व्यक्त तो होता है वह भोजन करने के समय एक घंटे में, लेकिन स्वच्छंद होकर जो खूब खाने की मन में वासना वहाँकाम कर रही है तो यह वासना साबित करती हे कि इसके चौबीसों घंटे इसका संस्कार बना हुआ है। उससे कितना अनर्थ होता है, इंद्रिय कषायों से मिलता क्या है? हर एक विषय की बात सोच लो जो पुरुष काम वासना से पीड़ित है, मैथुन प्रसंग करता है, भला बताओ कि विषय भोग कर उनके हाथ रह क्या जाता है? कौन सा वैभव उनके पास रहता हे? बल्कि उसके बाद अपने को रीता असहाय सा अनुभव करता है। किस कषाय को भोगने से जीव को लाभ मिलता हे? खूब सोच लो चाहे नाक का विषय हो, चाहे आँख का विषय हो, चाहे कर्ण का विषय हो उन विषयों को भोगने के पश्चात् इस जीव को लाभ की बात क्या रहती है? कुछ भी नहीं। तो ऐसे अनर्थ व्यर्थ इंद्रिय विषयों को जीतने का मन में भाव भी न बनायें तो यह जीवन किस काम का? ये इंद्रिय विषय जैसे-जैसे मद के उद्वेग में आते हैं वैसे ही वैसे कषायरूपी अग्नि विस्तृत होती जाती है। और अग्नि बढ़ती है तो उसमें कितनी व्याकुलता होती है सो बात स्पष्ट ही बस जान जाते हैं।