वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1008
From जैनकोष
यथा यथा हषीकाणि स्ववशं यांति देहिनाम्।
तथा तथा स्फुरत्युच्चैर्हृदि विज्ञानभास्कर:।।1008।।
इंद्रियवशता के अनुसार विज्ञानभास्कर का उत्कृष्ट स्फुरण― प्राणियों की इंद्रियाँजैसे-जैसे शिथिल होती जाती हैं वैसे ही वैसे हृदय में यह ज्ञान सूर्य स्फुरायमान होता जाता है। बात थोड़ा-थोड़ा दोनों ओर से है। जैसे-जैसे यह ज्ञान विकसित होता है वैसे ही वैसे इंद्रियाँ वश होती जाती हैं। इनका विजय होता जाता हैं, विषयों का रमण दूर होता हे और जैसे-जैसे इंद्रियाँवश होती जाती हैं वैसे ही वैसे यह ज्ञानसूर्य स्फुरित होता है। यहाँकोई यह सोचे कि तब मुझे क्या करना चाहिए? ज्ञान पहिले करें या इंद्रिय विषयों के विजय की बात पहिले करें? इस सोच में क्यों पड़ गए?क्या इन दोनों में एक हल्की बात है और एक बड़ी बात है? जब दोनों में शांति है, विश्राम है, पवित्रता है तो मन में यों सोचें कि दोनों को एक साथ करें या पूर्वा पर करें? करने में तो आयगा पूर्वा पर, किंतु जो जहाँ से प्रारंभ होगा, जहाँ से आपकी बात बन सके, कर लीजिए? विषय विजय से प्रारंभ करें, करने दोनों ही हैं। यहाँ अंतिम बात हैज्ञानसूर्य का अभ्युदय। सकल मन का उत्पन्न होना, परमात्मत्व प्रकट होना, सदा के लिए संकट दूर होना, मेरा विकास कैसे हो उस दृष्टि से यह कहा जा रहा कि जैसे-जैसे इंद्रियाँ स्ववश होती जाती हैं वैसे ही वैसे हृदय में यह ज्ञानसूर्य बड़े उच्च रूप से प्रकाशमान होता है।