वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1025
From जैनकोष
उदधिरुदकपूरैरिंधनैश्चित्रभानुर्यदि कथमपि दैवात्तृप्तिमासादयेताम्।
न पुनरिह शरीरी कामभोगैर्विसंख्यैश्चिरतरमपि भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित्।।1025।।
कामभोगों से तृप्ति होने की असंभवता― लोग कहते हैं कि नदियों के मिलने से यह समुद्र तृप्त नहीं होता याने कितनी ही नदियाँ आती जायें, पर समुद्र यह नहीं कहता कि बस अब खूब नदियाँआ गई, अब मुझे न चाहिए। अरे चाहिए नहीं यह बात तो जाने दो, पर जितना जलप्रवाह आता जायगा, समुद्र तो उतना ही बढ़ता जायगा। तो नदियों से समुद्र कभी तृप्त नहीं हो सकता, ऐसा लोग कहते हैं। यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि मान लो कदाचित् नदियों से समुद्र तृप्त भी हो जाय, मगर नाना प्रकार के काम भोग आदिक के भोगने पर इस जीव को कभी तृप्ति हो ही नहीं सकती। अब तो कुछ ऐसी भी प्रथा चल उठी कि जिसे विरक्त होना है, दीक्षा लेना है तो उसकी ठाठ बनाई जाती है पहिले। उसके माता-पिता बनाये जाते हैं, जिससे वह दीक्षा लेने वाला यह अनुभव कर ले कि मैं बड़ा ठीक हूँ।फिर बाद में यह त्याग करे। अरे सहज रीति यह है कि जहाँ भाव हुआ, वहाँवैराग्य जगा वहाँ दीक्षा ले ली। खैर यहाँ हम इसकी समालोचना नहीं कर रहे, इसमें भी कोई गुण होगा लेकिन कोर्इ यह सोचे कि मुझे तो यह चीज छोड़नी है, चलो आज इसे खूब भोग लें क्योंकि इसे कल छोड़ना होगा तो यह त्याग की कोई विधि नहीं है। कल जो त्याग करना हैउसके त्याग का पहिले से अभ्यास बनावें, न कि खूब भोगने का संकल्प करें। काम भोग आदिक से यह जीव कभी तृप्त नहीं होता, जैसे ईंधन डालते जावो तो कहीं उससे अग्नि तृप्त तो नहीं हो सकती। वह तो और भी बढ़ती जायगी, मगर मान लो कदाचित् ईंधन से अग्नि तृप्त भी हो जाय, मगर काम भोग आदिक भोगने के जरिये से यह जीव तृप्त नहीं हो सकता। तो इससे फायदा क्या रहा? बल्कि आगामी काल में दु:ख उठाना पड़ता है। ऐसे काम से लाभ क्या इस जीव को? जैसे लोग कहने लगते ना, कि अरे जरा सी गम खावो तो सब आपत्तियों से बच लो और क्रोध किया तो दूसरा भी जवाब देगा, मारपीट होगी, गिरफ्तारी होगी, अस्पताल जाना होगा, अनेक विडंबनायें होगी। जरा सी गम खा लिया तो सब झंझट खतम। ऐसे ही यह समझ लो कि जरा विषयों से विरक्ति कर लो, अपना ही तो भाव है, अपने को ही समझना है, अपने में ही आना है, यह सब हमारे ही आधीन बात है, इन विषयों से मुख मोड़े और सारी विपत्तियाँ मेट लें।