वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1027
From जैनकोष
अतिसंकल्पिता: कामा: संभवंति यथा यथा।
तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्वं विसर्पति।।1027।।
संकल्पित काम की संभूति के अनुसार तृष्णा का विश्वपर्यंत विसर्पण― यह काम, यह भोग जिसका संकल्प किया, इच्छा की और उस इच्छा के अनुसार जैसे-जैसे भोग मिलते गए वैसे ही वैसे मनुष्यों की तृष्णा लोक पर्यंत फैल गई। जैसे-जैसे सुख मिलता है वैसे ही वैसे यह तृष्णा का प्रसार होता जाता है। अभी जंगल में रहने वाले ये भील लोग जिनको गुड़ भी बड़ी मुश्किल से खाने को मिल पाता है वे तो जब कभी राजा के विषय में चर्चा होने लगती तो कह उठते कि राजा तो रोज-रोज गुड खाता होगा। देखो राजा के लिए गुड़क्या चीज है? वह तो मामूली सी चीज है, पर उन भीलों की दृष्टि में वह गुड़ भी एक भली चीज है। उस राजा का फैलाव देखो कहाँ तक है? सभी इंद्रिय विषयों की यही बात हे और मन के विषय की भी यही बात है। भोग मिलते है, बात बनती है, फैलाव होता है, इसी फैलाव में जिंदगी खतम हो जाती है। यह मानव जीवन व्यर्थ चला जाता है। अरे ऐसे भी तो अनेक मुनि सिद्ध हुए हैं जिनको उनके वर्तमान काल में भी कोई न जानता हो या जिनका असर न हो, जिनकी अधिक पूजा न हो। और, उन्होंने अपने ज्ञानस्वरूप में ज्ञान को बसाया हो और सिद्ध हुए हों। तो क्या उनके कोर्इ कमी पड़गई? ये पंचेंद्रिय और मन के विषय जैसे-जैसे प्राप्त होते जाते हैं वैसे ही वैसे उनके तृष्णा का प्रसार होता है। उनकी तो बरबादी ही है। इससे इन विषयों की अभिलाषा न करें। अपने मन को वश में करें। बस इसमें ही आत्मा का सच्चा विवेक है?