वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1030
From जैनकोष
तत्कारकपारतंत्र्यमचिरांनश: सतृण्णान्वयै―
स्तैरेभिर्निरूपाधिसंयमभृतो बाधानिदानै: परै:।
शर्मभ्य: स्पृहयंति हंत विषयानाश्रित्य यद्देहिन―
स्तत्कुध्यत्फणिनायकाग्रदशनै: कंडूविनोद: स्फुटम्।।1030।।
पराधीन, विनाशीक विषयों की प्राप्ति के लिये धनसंचय करने की मूढ़ता का चित्रण―किसी को खाज उठी तो खुजाने के लिए उपाय क्या करे कि साँप के मुख में जो आगे के दाँत हैं उनसे वह अपनी खाज खुजावे। ऐसा कोर्इ करता तो नहीं, पर यदि करे, तो लोग उसे कितना मूर्ख कहेंगे? उसे तो महामूर्ख कहेंगे, क्योंकि मूर्ख तो दुनिया में बहुत मिलते हैं पर महामूर्ख नहीं मिलते। याने जो साँप के अगले दाँतों से अपने शरीर की खाज खुजाने लगे तो उन्हीं दाँतों में तो विष होता है। वह विष व्याप जायगा और वह मर जायगा। जैसे कोर्इ खाज खुजाने की इच्छा से साँप के अगले दाँतों से खाज खुजावे तो वह दु:ख का कारण है। ठीक इसी प्रकार विषयों का सेवन मृत्यु का कारण है, बुरी तरह से प्रति समय हम मर रहे हैं, आयु तो प्रति समय गल रही है, वही आवीचि मरण कहलाता है। अब वहाँ हम विषयों की रति में समय लगाते हैं तो इसके मायने हैं कि हम बुरी तरह मर रहे हैं। मरते तो सब हैं उस दृष्टि से, पर विषयों के सेवन करने वाले आकुलित होकर, विह्वल होकर, बेसुध होकर यथार्थप्रभुता के आनंद से अत्यंत दूर रहकर जीवन यापन कर रहे हैं वह एक बुरी तरह मरना ही तो हुआ और विषयसेवन के फल में अकालमृत्यु हुई तो उसे भी मृत्यु का ही कारण समझो। तो ये जगत के जीव इन सुखों को जो कि दु:ख के ही हेतुभूत हैं, रुचिपूर्वक भोग रहे हैं, इसका वर्णन आचार्यदेव कुछ खेद के साथ कर रहे हैं। ये सुख दु:खरूप हैं, क्योंकि इनमें पराधीनता है। जब कोई दूसरा जीव प्रसन्न हो, दूसरा जीव निकट हो तब सुख का अवकाश मिलता है। तो ये इंद्रियसुख पराधीन हैं और तत्काल नष्ट हो जाने वाले हैं। संताप के उत्पन्न करने वाले, ऐसे हैं ये इंद्रियसुख। फिर भी ये संसारी जीव कभी निर्ग्रंथ अवस्था भी धारण कर लें, संयम भी धारण कर लें, पर तृष्णा के साथ संबंध करते हुए उस सुख के लिए अनेक उपायों से धनोपार्जन करते हैं, अनेक उपायों से विषयों की इच्छा करते हैं तो उनकी यह इच्छा, यह चाह याने विषयसुख के लिए धन को जोड़ना अनेक बाधाओं का कारणभूत है। यह उनका प्रयत्न ऐसा हे कि जैसे कोई खाज खुजाने के लिए साँप के दाँतों से खुजाना चाहे। इसी तरह विषयसुखों का मौज लेने के लिए जो धन आदिक संपदाओं का संचय करता है उसका ऐसा ही उपाय है। याने उससे दु:ख होगा, उससे बरबादी होगी, उससे लाभ नहीं हो सकता। संतोष होना, धन की ओरदृष्टि भी न होना। पुण्योदय से जो मिल रहा है उसी में व्यवस्था बना लें। और, अधिक संपदा से हमें प्रयोजन क्या है? प्रयोजन है तत्त्वज्ञान और वैराग्य से, जिससे कि मेरा आत्मा साधनारूप रहे, संतुष्ट रहे, अपने प्रकाश में रहे और सत्यमार्ग पर रहे। प्रयोजन हमारा इतना है। धनसंचय का हमारा प्रयोजन नहीं है। बहुतसा धन बढ़ा लिया, लखपति, करोड़पति हो गए तो उससे क्या लाभ पा लिया? उससे जरा प्रश्न करते जाओ― भाई अधिक धन जोड़लिया, फिर क्या होगा? बूढ़े हो जायेंगे।...फिर क्या होगा?...फिर मर जायेंगे।...फिर क्या होगा? कोई शांतिप्रद उत्तर वह न दे सकेगा। जो धनिक हे उससे भविष्य की बात पूछो― फिर क्या होगा? तो यह धनसंचय जो दु:ख का ही कारण है उसे एक विषयसुख के लिए अपना रहा है तो उसकी ऐसी ही करतूत है जैसे खाज खुजाने के लिए कोई सोचे कि मैं सर्प के अगले दाँतों से खाज खुजाऊँ वह तो उसके लिए दु:ख का ही कारण है। जैसे अग्नि की पड़ी हुई डली को कोई अबोध बालक अपने हाथ से उठा लेता है तो वह उसके लिए दु:ख का ही कारण बनती है ऐसे ही ये मूर्ख प्राणी जो विषयसुखों को सेवने के लिए बहुत-बहुत धनसंचय करते हैं तो उनका यह यत्न अनेक दु:ख का ही कारण बनता है।
नि:शेषाभिमतेंद्रियार्थरचनासौंदर्यसंदानित:,प्रीतिप्रस्तुतलोभलंघितमना: को नाम निर्वेद्यताम्अस्माकं तु नितांतघोरनरकज्वालाकलाप: पुर:,