वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1031
From जैनकोष
सोढव्य:कथमित्यसौ तु महती चिंता मन: कृंतति।।1031।।
मुग्ध प्राणियों के भविष्य में होने वाले नारकीयादि कठिन दु:ख होने की चिंता का खेदपूर्वक कथन―ये जगत के जीव किस स्थिति में हैं? तो देखिये ये जीव मनचाहे विषयों की रुचि से निरंतर बंधे हुए हैं। घर, स्त्री, पुत्रादिक के विषय साधनों में खाने पीने में बंधे हुए हैं और उन विषयों की प्रीति के चक्र में आये हुए हैं। लोभ से इनका मन अधीर हो गया, ऐसी इन जीवों की स्थिति है। तो अब इन जीवों में कौनसा जीव ऐसा है जो विषयों से उदासीन होने के लिए तत्पर हो रहा हो। आचार्य महाराज संसार के जीवों की स्थिति निरख रहे हैं कि निरख करके दु:ख मान रहे हैं। क्या दु:ख? ये संसारी जीव विषयसुखों में इतनी तीव्रता से लग रहे हैं कि इनसे विरक्त नहीं होते हैं। तो इन विषयों के अनुराग से इन्हें नरकादिक गतियों के दु:ख भोगने पड़ेंगे तो ये दु:ख कैसे भोगेंगे? देखो इन सब अज्ञानी जीवों ने आचार्य महाराज को दु:खी कर दिया। देखिये इन संसारी जीवों ने अज्ञानतावश अपने को भी दु:खी किया और दूसरों को भी दु:खी किया। ऐसे निर्ग्रंथ आचार्यदेव को भी इन अज्ञानी जीवों ने दु:खी कर डाला। अगर ये अज्ञानी जन उल्टे न चलते तो आचार्यदेव दु:ख क्यों मानते? तो खेद के साथ आचार्यदेव कह रहे हैं कि ये संसारी मोही प्राणी विषयों में ऐसा बेहतासा दौड़ रहे हैं तो इनको आगे नरक में जाना होगा। वहाँ के भयंकर दु:खों को ये कैसे सह सकेंगे? यहाँतो लोग विषयों में सुख मान रहे हैं। यहाँअगर विषयों के प्रतिकूल जरा भी बात आये तो उसमें दु:ख समझते हैं। और तो जाने दो, उनको अगर कोई त्याग संयम का उपदेश दे तो वहाँ से भी वे मुख मोड़लेते हैं। अरे क्या साधु के पास जाना? वह कहीं कोर्इ चीज छुड़वा देंगे। तो जरा-जरासी बातों में यहाँ क्लेश मानते हैं, विषयसुखों से विरक्त नहीं हो पाते हैं, तो ये जीव आगे जब नरकों में जन्म लेंगे तो ये असह्य दु:ख कैसे सहेंगे? तो इससे यह शिक्षा मिल रही है कि इन विषयसुखों का फल नरक आदिक दु:खों को सहन करना है इसलिए इनसे विराम लें और इनमें बेहताश होकर मत बढ़ो।
मीना मृत्युं प्रयाता रसनवशमिता दिंतन: स्पर्शरुद्धा,बद्धास्ते वारिबंधे ज्वलनमुपगता: पत्रिणश्चाक्षिदोषात्।