वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1043
From जैनकोष
ध्यानादेव गुणग्रामस्याशेषं स्फुटीभवेत्।
क्षीयते च तथानादिसंभवा कर्मसंतति:।।1043।।
ध्यान से ही गुणसमूह का प्राकट्य तथा अनादिसंभव कर्मसंतति का क्षय― आत्मा के ध्यान से ही समस्त गुण स्फुट विकसित होते हैं। है क्या? यही मात्र तो करना है कि यह आत्मा शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहे। जो भिन्न हैं, व्यर्थ हैं जिनका हमसे त्रिकाल में संबंध बन ही नहीं सकता ऐसे बाह्य पदार्थों में उपयोग भिड़ाने से, चित्त फँसाने से इस आत्मा का लाभ कुछ नहीं है। एक व्यर्थ का समय गुजारना है। विवेक में ही यह सामर्थ्य है कि आत्मा को शांति प्राप्त हो सकती है।अविवेक से तो आत्मा का पतन है, शल्य और चिंताओं में ही जीवन बिताना पड़ता है। यह मैं आत्मा समस्त परतत्त्वों से न्यारा केवल अपने ज्ञानस्वरूप मात्र हूँ इस प्रकार अपने को ज्ञानरूप हूँ, ज्ञानमात्र हूँ ऐसी बार-बार भावना करने से यह उपयोग ज्ञानमात्र रह जाता है और फिर वहाँ मैं जान रहा हूँ, अपने स्वरूप से जान रहा हूँ इतना भी विकल्प नहीं रहता। वह परिणति एक निर्विकल्प परिणति होती है। उसमें इतना सामर्थ्य है कि समग्र विकारों को यह दूर कर सकता है। ऐसे ही आत्मध्यान से समस्त गुण समस्त स्फुट प्रकट विकसित हो जाते हैं और इस ही आत्मध्यान से अनादि काल से उत्पन्न हुई कर्मों की संतति भी क्षीण हो जाती है। भैया ! अपने आपकी सम्हाल में वे सब काम हो जाते हैं जो कुछ होना चाहिए। न भी ज्ञान किया हो शास्त्र का बहुत ऊँचा, मुझमें क्या-क्या बन रहा है और ऊँचे गुणस्थान में चढ़कर क्या-क्या स्थिति बनती है, श्रेणियों के गुणस्थान में और ऊँचे बढ़कर कर्म कैसे-कैसे नष्ट होते हैं, कैसे उनकी निर्जरा होती है, कैसे वे बदल जाते हैं, यह सब न भी ज्ञात हो और एक सबसे विविक्त ज्ञानानंदमात्र अपने स्वरूप की सम्हाल बन जाय तो ये सब काम स्वयं अपने आपमें बनते चले जाते हैं जो कल्याण के लिए करना चाहिए। जो होना चाहिए वह सब होता चला जाता है एक अपने आपके स्वरूप की सम्हाल में, और अपने आपके स्वरूप की सम्हाल न की जाय और बाह्य में ये सारे बड़े ज्ञान भी बना लिए जायें गुणस्थानों की मार्गणावों की उन-उन पदवियों में कैसी-कैसी स्थितियाँ बनती हैं, कैसा संक्रमण, कैसा अंत:करण, कैसा उपशम, कैसी क्षयविधि ये सब खूब भी ज्ञात कर लिये जाय और स्वरूप की सम्हाल न की जाय तो उससे काम नहीं बनता। अपने आपके स्वरूप की सम्हाल होना एक बहुत बड़े पुरुषार्थ का काम है। इस ही आत्मा के ध्यान के प्रताप से गुण तो सब प्रकट हो जाते हैं और दोष विकार उपाधियाँ ये सबके सब ध्वस्त हो जाते हैं। यह पदार्थ का विशुद्ध स्वरूप है। जो पदार्थ में गुण है वह तो पूरा प्रकट हो जाय और दोष एक न रहे इस ही का नाम तो विशुद्धि हैं, स्वच्छता है।
शांति के उपाय की ही वक्तव्यता― हे आत्मन् ! तुझे क्या चाहिए? शांति ना। यदि विकल्प मेटकर विकार टूटकर आत्मा का आत्मा में ही उपयोग जम जाय, तू एक निश्चल स्थिर आत्मतत्त्व में मग्न हो जाय तो इसमें सारे संकट टल गए और रंच भी आकुलता नहीं रहती। ऐसी स्थिति बन जाय तो तुझे पसंद है ना? फिर घर का विकल्प या अन्य-अन्य संकल्प करने की वासना तो न रखेगा, उनका कुछ ख्याल तो न करेगा। तुझे तो आनंद चाहिए। सभी लोग अपना-अपना भाग्य लिए हुए हैं। हम किसी का विकल्प भी न करें तो भी वे अपनी भाग्य के अनुसार अपना जीवन बिता लेंगे। तू किसी का पालनहार नहीं है, तुझे शांति चाहिए तो ऐसा यत्न कर कि समस्त विकल्पों को तोड़करबड़े उत्साह से पूर्ण प्रयत्न के साथ अपने आपके स्वरूप में मग्न होने का अनुभव बने फिर कहीं कुछ भी हो उसकी वासना भी मत रखें। तेरा हित तेरी ही सम्हाल में है और ऐसे ही सबका हित उनका अपनी-अपनी सम्हाल में है। सभी जीव अनंत शक्तिमान हैं। कर्मों से आवृत होकर भी जिनको जितना क्षयोपशम प्राप्त है, जिनको जितना पुण्योदय प्राप्त है वे वहाँ अपने आपके बल से सुख प्राप्त कर लेते हैं। तू पर की चिंता को मूल में छोड दे। इस भ्रम को समाप्त कर कि मुझ पर कुछ जिम्मेदारी पड़ी हुई है बाहर की कुछ भी जिम्मेदारी हम पर नहीं है। न किसी अचेतन पदार्थ की सम्हाल करने की जरूरत है और न किसी चेतन पदार्थ की सम्हाल करने की। सब अपना स्वरूप लिए हैं। सबमें अपना-अपना उत्पाद व्यय ध्रौव्य चल रहा है। किसी का कोई स्वामी नहीं है। तू अपनी सम्हाल बना ले, अपने को निराकुल कर ले। अपने को अपने में खपा। यह ही भलाई का मार्ग है। अन्य कुछ भलाई का मार्ग नहीं है।