वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1060
From जैनकोष
अविद्योद्भूतरागादिगरव्यग्रीकृताशय:।
पतत्यनंतदु:खाग्निप्रदीप्ते जन्मदुर्गमे।।1060।।
अज्ञानजरागादिविष से व्यग्रीभूत जीव का जन्मदुर्गम में पतन― मोह से उत्पन्न हुए रागादिक रूप विष के विकार से व्याप्त चित्त होने से यह आत्मा दु:खरूपी अग्नि से जलता हुआ इस कठिन संसार में गिरता पड़ता चला आ रहा है। यह आत्मा स्वच्छ ज्ञानस्वरूप केवल जानन करता रहे ऐसी प्रकृति का तत्त्व है, लेकिन इसमें रागादिक का विष आ गया है, कुछ मतलब नहीं, अत्यंत भिन्न पदार्थ है चेतन हो अथवा अचेतन। किसी का सुख दु:ख पुण्य पाप आदि ज्ञान बाँटा नहीं जा सकता, किसी को दिया नहीं जा सकता। सबका आत्मा अत्यंत जुदा-जुदा है, दूसरा आत्मा भी जो कुछ भी प्यार दिखाता है वह भी अपने स्वार्थवश दिखाता है उनको आराम, उनका विषय, उनकी सुविधा देना चाहता है, इन विकारों से उपकृत होकर अथवा आगामी काल में भी ऐसी सुविधा का संबंध बना रहे इस-इस ख्याल से दूसरे जीव प्रीति दिखाते हैं। यह बात अपनी है ऐसी ही बात सबकी है, कुछ तत्त्व नहीं है लेकिन यह अज्ञानी प्राणी इन भिन्न विनश्वर पदार्थों में अपनी रति करता है, प्रीति जोड़ता है। इस प्रीति का कुफल आकुलता है उसे भी भोगता जाता और प्रीति भी नहीं छोड़ता। यह कितना गहन मोह बढ़ाया जा रहा है। भैया !सुखी होने का तो जरा ही उपाय है। कर विचार देखहु मनमाँही, मूदहु आँख कितहु कछु नाहीं। अरे जरा इन विकल्पों की आँखों को बंद कर लो और अंतर में देखो ये बाहरी संकट, कुछ भी रंग ढंग कुछ भी मेरे आत्मा में नहीं हैं। और है मेरे आत्मा में अनंत प्रभुता का भंडार। यह है स्वयं परमात्मतत्त्व। सुखी होने का तो जरा सा ही उपाय है। जिसमें एक सेकेंड भी नहीं लगता मगर ऐसा अज्ञान छाया है कि जिससे ऐसा राग विष पी लिया गया है कि यह चित्त व्यग्र हो जाता है, तड़फता है और तत्त्व कुछ नहीं है। भिन्न सब जीव हैं, सो उन रागादिक भावों का फल यह है कि अनंत सुख की ज्वालाओं में जलना पड़ता है, अपने आराम आनंद निराकुलता के ढंग से चलना सन्मार्ग बनाना यह सब अपने आधीन है। जितना परप्रीति, पर संबंध छोड़े, अपने एकत्वस्वरूप की ओर आयें उतना ही आनंद है, पवित्रता है, सब झंझटों से मुक्ति है। किसका क्या?
रागविजय में सकलविजय―श्री रामचंद्रजी का सेनापति कृतांतवक्र जब विरक्त होने लगा तो श्रीरामचंद्रजी से कहने लगा कि अब इस संसार में मेरा मन नहीं लगता, में जंगल में जाऊँगा और आत्मसाधना की दीक्षा लूँगा। तो रामचंद्रजी कहते हैं कि अरे तुम जंगल में वे क्लेश कैसे सह लोगे? भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मच्छर और जिस चाहे कुबुद्धि के द्वारा अपमान का होना और कोई सताये, कोर्इ प्राण भी हर ले, शस्त्रघात भी कर दे सारे दु:ख हैं जंगल में। तुम वहाँ के दु:ख कैसे सह सकोगे तो कृतांतवक्र कहता है कि हे रामचंद्रजी सबसे कठिन बात तो थी आपका स्नेह तजना। आपके प्रति इतना स्नेह था कि उसका छोड़ना सबसे कठिन काम था। जब हमारा वह स्नेह छूट गया राग प्रीति अब नहीं रही अर्थात् शुद्ध हृदय बन गया, केवल ज्ञाता द्रष्टा की स्थिति कर ली तो अब जंगल के वे क्लेश तो तुमने बताये हैं उनका छोड़ना कौनसी बड़ी बात है? तो सत्य समझो कि सबसे कठिन बात है मोह और राग का तजना।जैसे लोग खाने-पीने के संबंध में भी ऐसा ख्याल बनाते हैं कि चलो अब आलू छोड दें, मूली छोड़ दे, पर यह चित्त में नहीं लाते हैं कि करोड़ों मन आलुवों से भी अधिक पाप जिस चीज में है― बाजार की जलेबियाँ कई दिनों की सड़ी हंडी में जो बनायी जाती है, बाजार का दही, गोभी फूल, सड़ी भूसी चीजों के त्याग पर दृष्टि नहीं है। यात्रा कर लें आलू छोड दें, यद्यपि आलू भी अनंत काय वाला है, मगर उससे भी अधिक हिंसा तृप्त जीव की हिंसा है, उस पर दृष्टि नहीं है, ऐसे ही धर्मसाधना के लिए धर्म करते हैं चलो एक विधान थाप लें, निमंत्रण छाप लें, लोगों को बुला लें, यज्ञ होगा, अभिषेक होगा इस पर तो दृष्टि जाती है, पर इस पर दृष्टि नहीं जाती कि मोह और राग हमारा कितना कम पडा है। धर्म करनाहै तो यह उत्साह बनना चाहिए कि अब यह मोह नहीं करना है, यह दु:खदायी है, अब यह राग नहीं करना है, इसमें क्लेश ही क्लेश बनता है। धर्म करने के लिए यहाँ दृष्टि नहीं चलती। दृष्टि चलेगी उन ऊपरी क्रियावों में जिनमें कहो वे 7 दिन जितने दिन विधान में गुजरेंगे क्लेश में, गुस्सा में, झंझटों में गुजरेंगे। क्योंकि जब आमंत्रण दे दिया है, दस पाँच रिश्तेदार भी आ गए हैं, चार छ: लोग विधान में खड़े करवा दिये हैं, तो अब क्लेश के साधन पचासों आयेंगे। जिन भाइयों को खड़ा किया है वे भाई समय पर आयें अपने अहंकार से रहें, कोर्इ बात में कमी हो तो उस पर नाराज होते, तुम यों क्यों नहीं करते, ऐसा क्यों नहीं हुआ आदि। और जो पचासों लोग बाहर के आये हैं उनके खाने पीने की व्यवस्था करना, यों चित्त में कितने क्लेश मचा करते हैं। तो इतने-इतने क्लेशों में समय गुजार देंगे धर्म के नाम पर कुछ क्रियावों का बहाना लेकर, पर यह ध्यान न देंगे कि हमने मोह ममता में कितनी कमी की है। देखो― किसी दूसरे जीव की किसी क्रिया को निरखकर यदि क्रोध आता हे तो वहाँ ऐसा ज्ञान बनाना चाहिए कि यह तो इस बाह्य जीव का परिणमन है, इसका परिणमन इसमें है, इस जीव ने मेरे में कुछ नहीं किया। जो उसमें कषाय जगी है सो उसने अपना ही परिणमन किया। मुझे उस पर दृष्टि रखकर क्रोध करना योग्य नहीं है। विषयों में मेरी प्रीति न बने, शुद्ध आत्मतत्त्व पर ठहरे रहें ऐसी तैयारी करना है। यह तो दृष्टि में आता नहीं, किंतु बाहरी-बाहरी बातों में ही दृष्टि जाती है जिसके कारण बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़ते हैं। तत्त्वज्ञान जगेबिना आत्मा का उद्धार होना असंभव है, अतएव सब कुछ भी सर्वस्व समर्पित हो जाय, लेकिन तत्त्वज्ञान हमारा बने, दृष्टि निर्मल बनी रहे, अपने आपकी प्रभुता के दर्शन रहा करें, इससे बढ़कर उत्कृष्ट वैभव अन्य कुछ नहीं है।