वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1064
From जैनकोष
अथ कैश्चिद्यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधय इयष्टावंगानि योगस्य स्थानानि।।1064।।
यमनियमनामक दो योगांगों का निर्देशन― ध्यान का योग से अधिक संबंध है। योग का अर्थ है अन्य जगह चित्त न ले जाकर जो मुख्य विषय आत्मतत्त्व है वहाँ ही उपयोग को छोड देना इसका नाम है योग लेकिन कुछ अन्य सिद्धांत वाले योग के 8 अंग यों बोलते हैं― यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। यम नाम हे यावत् जीव किसी त्याग के करने को। यद्यपि यम भी वास्तविक अंग है ध्यान सिद्धि के लिए आत्मलाभ के लिए, लेकिन जब केवल यम शब्द से बाहरी चीजों के त्याग की ही बात रह जाती है तो वह ध्यान का साधक नहीं है यावत् जीव भी किसी वस्तु का त्याग कर दे लेकिन भीतर में यथार्थ निर्णय न हो, आत्मध्यान का लक्ष्य न हो तो यावत् जीव बाह्य वस्तु का त्याग करने से भी बनता क्या है? और ज्ञान सही है, दृष्टि निर्मल है, लक्ष्य का पता पाड़लिया है तो यम उसके लिए साधक है क्योंकि बाह्य पदार्थ का संबंध रहेगा तो किसी न किसी प्रकार की चिंता ममता प्रीति कुछ न कुछ होगी अन्यथा बाह्य का संबंध ही क्यों रहता? इसलिए बाह्य वस्तुवों का यावत् जीवन त्याग करना यम है और यह आवश्यक है, पर मूल में तत्त्वज्ञान बहुत आवश्यक है। दूसरा अंग बतलाते हैं नियम। कुछ समय की मर्यादा लेकर बाह्य वस्तुवों का त्याग करना नियम कहलाता है। जैसे कुछ लोग नियम ले लेते हैं कि भोजन करने के बाद अब 12 घंटे का त्याग है अथवा 24 घंटे का त्याग है, या अन्य-अन्य प्रकार के जो मर्यादा रखकर त्याग किये जाते हैं उन्हें नियम कहते हैं। नियम भी अध्यात्मयोग में साधक कारण है लेकिन तत्त्वज्ञान जिसके हो उसे नियम भी लाभ पहुँचायेगा। और, जिसकी दृष्टि केवल ऊपरी ही है कि भोजन का त्याग कर देने से सुख मिलता, स्वर्ग मिलता है ऐसी बाहरी दृष्टि ही हो और अपने लक्ष्य का पता न हो कि हमें क्या करना है तो ये नियम भी मोक्षमार्ग में साधक नहीं बन पाते। साध्य का अवश्य पता होना चाहिए। मुझे क्या होना है, मैं आत्मा अपने आपके सत्त्व की ओरसे केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूँ। कर्म, शरीर, विकार, तरंग कुछ भी इसके स्वरूप में नहीं हैं। उपाधि पाकर ये सब परिणमन होते हैं, मुझे अपने सही स्वरूप में रहना है। जैसा में अपने सत्त्व के कारण से होऊँ वैसा ही रहता आता रहूँ। मुझे अन्य औपाधिक चीजों से, विभावों से, परिकरों से कोई प्रयोजन नहीं। यों एक सहज अंतस्तत्त्व की दृष्टि बने, मैं केवल ज्ञानमात्र ही रहना चाहता हूँ ऐसा लक्ष्य बने तो मेरे लिए यम भी साधक है और नियम भी साधक है।
आसननामक योगांगों का निर्देशन―तीसरा अंग है आसन।देखा होगा किसी पुरुष को किसी वस्तु से राग हो गया हो जिस वस्तु को पाना अपने आधीन नहीं है, विवशता हे तो ऐसी वस्तु पर जिसका चित्त डिग गया तो वह अस्थिर रहता है। एक जगह बैठ नहीं सकता। स्थिर आसन से बैठेगा क्या? एक जगह नहीं रह सकता। बल्कि बावलों की भाँति यहाँ से वहाँ यों डोलता रहता है तो जब किसी परवस्तु में राग विशेष हो तो वह विश्राम से बैठ भी नहीं सकता। तो यों ही समझिये कि जब तत्त्वज्ञान न हो यथार्थ वैराग्य न हो तो वह आसन भी स्थिरता से लगा नहीं सकता। स्थिर आसन लगाने से ध्यान को बड़ी मदद मिलती है और आसन में भी देख लो कितना अद्भुत प्रभाव है कि आसन से बैठने पर कुछ ऐसा शरीर का नियंत्रण रहता हे कि वहाँ चित्त में शुद्धि होने का बड़ा अवकाश है, और और ढंग से बैठे हों ध्यान के लिए तो उसमें इतनी स्थिरता का अवकाश नहीं मिलता, प्रयोग करके देख लो। आसन से बैठने पर और अन्य ढंगों से बैठने पर बड़ा अंतर आता है। जब पद्मासन से बैठते हैं शांत मुद्रा में तो उस काल में भीतर में कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि जिसके बाद से रागादिक विकारों को मलिन भावों को दूर करने का अवकाश मिलता है। यों ध्यान की साधना में आसन का भी महत्त्व है मगर जिसे तत्त्वज्ञान जगा हो, जिसने अपने लक्ष्य का पता पाड़ लिया हो मैं आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप सबसे न्यारा परिपूर्ण और दर्शन स्वभावी हूँ। मुझे केवल खालिस रहना है। मुझमें दूसरी चीज का संबंध न रहे यह लक्ष्य जिसका बन गया उसके लिए आत्मसाधनों में यह आसन भी साधक है। तत्त्वज्ञान बिना उन क्रियावों को कर लेने से जिनको तत्त्वज्ञानी किया करता है तत्त्वज्ञान न होने पर बाहरी क्रिया मात्र से सिद्धि न हो जायगी। मूल तत्त्व क्या है उस ध्यान के प्रसंग में इसका परिचय होना ही चाहिए। जैसे जाड़े के दिनों में कभी आप लोग आग से तापकर जाड़ा मिटाते हैं। यहाँ वहाँ से ईंधन बटोरा उसमें आग लगाया। उसे फूंका, आग जला ली हाथ पसारकर बैठ गये और ठंड मिटा लिया। इसी बात को बंदर भी देखते रहते हैं और वे बंदर दूसरे दिन यदि नकल करने लगें कि हमारी ही तरह के हाथ पैर तो इन मनुष्यों के भी हैं, ये तो जाड़ा मिटा लेते है हम क्यों न जाड़ा मिटा लें। सो इधर उधर से लकड़ियाँ बीनकर ईंधन जोड़ सकते है, जोड़ लिया जिस पर वे सोचने लगे कि ईंधन तो जोड़लिया ठंड तो मिटती नहीं। तो कोई बंदर यह राय देता है कि ईंधन तो बटोर लिया पर इसमें मूल चीज तो डाला ही नहीं। तो उस समय बहुत सा पटबीजना उड रही थी। उनको पकड़कर उस ईंधन में झोंकने लगे। इतना कर लेने के बाद भी ठंड न मिटी। तो कुछ बंदरों ने राय दी कि लाल चीज भी डाल दी मगर अभी फूंका तो नहीं है। सब बंदरों ने फूंका भी लेकिन अपनी ठंड न मिटा सके। कुछ बंदरों ने फिर राय दी कि अभी हाथ पैर पसारकर बैठे तो नहीं जैसे मनुष्य बैठे थे, ठंड कैसे मिटे? सो वे हाथ पैर पसारकर बैठ गए फिर भी वे अपनी ठंड न मिटा सके। अरे परिश्रम तो सारा कर डाला पर जो मूल तत्त्व हैं आग उसका परिचय नहीं है तो ठंड कैसे मिटे? इसी प्रकार धर्म धारण करने के लिए सारी बातें लोग प्राय: कर डालते हैं। दर्शन, ध्यान, जाप, स्वाध्याय, तपश्चरण, इंद्रिय-संयम, जीवदया, सब कुछ करने के बाद भी फिर जहाँ के तहाँ अपने को पाते हैं। वे ही विकल्प, वे ही क्लेश, वे ही झंझटऔर और बढ़ गए। क्या मामला हो गया? अरे मामला क्या हुआ? धर्म पालन करने का जो मूल आधार है अपने आपके स्वरूप का परिचय वह भर नहीं है बाकी सब हो गया है। तो ये जो योग के अंग हैं ये अध्यात्म अनुभव के साधक तो हैं बाहरी मगर जिसे यथार्थ निर्णय हो उस ज्ञानी को साधक है। तब मुख्य अंग क्या हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र।
प्राणायाम व प्रत्याहार नाम के योगांगों का निर्देशन― योग के अंगों में चौथा अंग बताया है प्राणायाम। प्राणायाम एक ऐसी क्रिया है नाक से हवा को ग्रहण करना और फिर पेट में उसे रोकना, थोड़ी देर बाद नाक से हवा फेंकना, इसका नाम है प्राणायाम। जो जितनी देर तक हवा को अपने उदर में रोक सके वह उतना प्राणायाम का अभ्यासी समझिये। इनका नाम है पूरक, कुंभक और रेचक। और, अनेक-अनेक विधियाँहैं। जैसे बायें नाक से हवा खींचना उदर में भरना और दाहिनी नाक से हवा निकालना, दाहिनी नाक से हवा खींचना, उदर में भरना और बाई नाक से हवा बाहर निकालना, दोनों नाकों से हवा खींचना, उदर में भरना और फिर दोनों नाकों से हवा बाहर निकालना। इन प्राणायामों से चित्त स्थिर होता है। तो प्राणायाम भी आत्मसाधना में एक बाह्य साधन है और तत्त्वज्ञान हो, हमें कहाँ जाना है, क्या करनाहै, कहाँदेखना है, इसका पता हो तो ये बाहरी साधन भी ठीक हैं, पर ये मुख्य अंग नहीं हैं। अध्यात्मयोगी के मुख्य अंग जो हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। 5 वां अंग बताया है प्रत्याहार। प्रत्याहार का अर्थ है कोई विग्रह ले लेना, परिग्रह ग्रहण करना। अमुक समय तक अमुक दिन तक हमारा इतनी बात का नियम है, यह प्रत्याहार है। जैसे कि पहिले समय में लो। नियम ले लेते थे कि हम अमुक ग्रंथ का स्वाध्याय शुरू कर रहे हैं, जब तक हम इसको समाप्त न कर लें तब तक हमारा अमुक वस्तु का त्याग है। तो ऐसे जो बाह्य विधान हैं वे मात्र एक साधारण साधन हैं। अध्यात्मयोग का मुख्य साधन तो आत्मनिर्णय है। आत्मदर्शन और आत्मा में चित्त को लीन करना ये हैं अध्यात्मयोग के मुख्य साधन। यह सब ध्यान की बात चल रही है। जो कल्याणार्थी जन हैं वे ध्यान की बात बहुत जानना चाहते हैं। कौनसे ऐसे उपाय हैं जिन विधियों से अपना ध्यान ठीक बना सके? ध्यान में तो सभी जीव रहा करते हैं। ध्यान बिना कौन जीव है? पर किसी के आर्त ध्यान है, किसी के रौद्रध्यान है। धर्मध्यान बने तो उसकी तारीफ है और शुक्लध्यान तो उसका फल है। तो उन खोटे ध्यानों से जीव को आकुलता रहती है। तो आकुलता दूर हुए बिना कोई ध्यान बने इसकी खोज में कल्याणार्थी जन रहते हैं। इस ग्रंथ में उस ही ध्यान की बात बड़े विस्तार से कही गई है और सारभूत बात इतनी बतायी है कि ध्यान की सफलता चाहते हो तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप आचरण करो और वह भी निश्चय से निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र रूप परिणमन करे। अपने आपके अमूर्त शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को जानना, उसका अनुभव करना और इस ही आत्मा में अपने चित्त को डुबोना यह करने योग्य बात है। ऐसा करने के लिए व्यवहार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का भी प्रयोग कर रहे हैं, पर मूल बात तो सब अपने आपके आत्मा में है।
धारणा, ध्यान, समाधि नाम के योगांगों का निर्देशन― हम आप में कोर्इ भी जीव दु:खी नहीं है, अपना ज्ञान ठीक बना लीजिए, उपयोग बदल लीजिए, सत्यस्वरूप समझ लीजिए। जब यह मैं शरीर से भी न्यारा केवल अपने ज्ञानानंद आदिक गुणोरूप हूँ, अन्य से इसका स्पर्श भी नहीं है, संबंध भी नहीं है तब इस परिपूर्ण चैतन्य ब्रह्म को दु:ख क्या रहा? दु:ख हम बनाते हैं। अपने स्वरूप में चित्त न जोड़कर बाहरी-बाहरी पदार्थों में ममता बनाते हैं और अपने को दु:खी करते रहते हैं। योग के अंग में लोगों ने छठवां अंग बताया है धारणा। किसी चीज की धारणा करना, उस ओरदृष्टि रखना, योग जोड़ना सो धारणा है। ठीक है, अपने आपके मोक्षमार्ग का सही लक्ष्य बनकर धारणा बनावे वह तो युक्त है, किंतु लक्ष्य का भाव न करके केवल विधियों की धारणा बनाने से तो मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती। 7 वां अंग है ध्यान। एक ओरचित्त को रोकना इसका नाम ध्यान है। इसके लिए लोग अनेक उपाय करते हैं। सामने कुछ देर भींत पर ओम् लिख लिया या एक भींत पर कोई गोल चिन्ह बना लिया, उस ही ओर टकटकी लगाकर देखते रहना, यों देखने का साक्षात् प्रभाव यह हो जाता है कि वहाँ चित्त जम जाता है, बाहरी जगहों में चित्त नहीं रहा, इतनी बात बन तो जाती है। उस शून्य को टकटकी लगाकर देखना चित्त को एक ओर रोकने का साधन मात्र है, मगर ऐसा लक्ष्य ढूँढ़ लें जिसकी ओर चित्त लगाने से एकाग्रता भी बने और तत्काल आत्मलाभ भी होता रहे। वह लक्ष्य है अपने आपमें यह परमज्योतिस्वरूप। 8 वां अंग बताया है समाधि। समाधि का मूल मर्म तो है रागद्वेष न करके समतापरिणाम रखना। मगर रूढ़ अर्थ यह हो गया कि नाक मुँह को बंद करके अथवा कहीं पृथ्वी के भीतर बैठकर ऊपर से मिट्टी वगैरह डाल दी, कहीं श्वास लेने को जगह न रहे ऐसी स्थिति में एक आध दिन बने रहे तो इसको लोग महत्त्व देने लगे हैं, और इसे समाधि कहने लगे हैं, पर यह समाधि तो प्राणायाम में ही शामिल हो गयी। समाधि तो रागद्वेष न करके समतापरिणाम रखने का नाम है, वह समाधि तत्त्वज्ञानी के प्रकट होती है। तो इस योग के अंग में बाह्य साधनपना तो है, पर तत्त्वज्ञान हो, लक्ष्य सही हो तो ये सब बाह्य साधन बनते हैं, इस तरह कुछ लोग योग के साधन 8 प्रकार के कहते हैं, कुछ लोग 6 प्रकार के ही साधन बताते हैं।