वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1068
From जैनकोष
यमादिषु कृताभ्यासो नि:संगो निर्ममो मुनि:।
रागादिक्लेशनिर्मुक्तं करोति स्ववशं मन:।।1068।।
यमादिक में कृताभ्यास योगियों के मन की स्ववशता व क्लेशनिर्मुक्तता― जिस योगी ने यम, नियम आदिक में अभ्यास किया है, परिग्रह और ममता से जो रहित हैं ऐसे योगी ही अपने मन को रागादिक से दूर कर अपने वश में करते हैं। यम नियम आदिक का ऐसा साधन है कि जिससे यम में रागादिक नहीं उठते और यम स्ववश बन जाता है, क्योंकि इन नियमों में परवस्तुवों का त्याग है और जहाँपरवस्तुवों में बाह्य वस्तुवों का त्याग कर दिया तो विकल्प उठने का आधार त्याग दिया। तो आधार त्याग देने पर यद्यपि यह नियम तो नहीं है कि विकल्प उठे नहीं। न भी चीज हो और विकल्प करे तो कर भी सकता है, मगर प्राय: ऐसा संबंध है कि जब उस आधार का परित्याग कर दिया, विषयों का त्याग कर दिया तो यह मन कब तक रागादिक करेगा? अंत में छोड़ेगा। जैसे घर का त्याग कर दिया। अब घर में कैसी स्थिति है, क्या आमदनी है, क्या परिस्थिति है, लोग किस तरह रह रहे हैं ये सब विकल्प फिर भी उठ सकते हैं, लेकिन जब घर त्याग दिया तो कितने दिन चलेंगे विकल्प? जो कर्म छूट गए तो बहुत दिन चलकर वे खतम हो जायेंगे। विकल्पों का आश्रय तो बाहरी पदार्थ हैं वे ही नोकर्म हैं। उन नोकर्मों को त्याग दिया तो ये विकल्प कब तक रहेंगे? ये तो मिट जायेंगे। और यदि रागविकल्प न छोड़े तो इतनी वेदना होगी कि उस पदवी को त्यागकर गृहस्थी में लग जायगा, पर परित्याग कर देने के बाद फैसला एक ही तरफ होगा। या तो वह फिर उस पदवी को छोड़कर घर में आयगा या अपने को निर्मल बनायेगा। बीच वाली बात कब तक निभेगी? तो यह यम और नियम के अभ्यास से लाभ तो है कि मन स्थिर हो जाता है, पर इसके साथ-साथ ज्ञानसाधना और तत्त्वज्ञान बने तो इसको मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है।