वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1073
From जैनकोष
चित्तप्रपंचजानेकविकारप्रतिबंधका:।
प्राप्नुवंति नरा नूनं मुक्तिकांताकरग्रहम्।।1073।।
विकारप्रतिबंधक पुरुषों के मुक्तिलाभ का निश्चय― कहते हैं कि चित्त केप्रसार से उत्पन्न हुए जो नाना प्रकार के विकार हैं उन विकारों को जो रोक देता है ऐसा पुरुष नियम से मुक्ति का पात्र होता है। जिसने मन मार लिया, वश कर लिया उसने मोक्षमार्ग की पात्रता प्राप्त कर ली, जिन जीवों की जो आखिरी चीज होती है उसका विषय उनके बहुत तीव्र होता है। दो इंद्रिय जीवों के जिह्वा है, आखिर उनके रसना की लंपटता बहुत रहती है। तीन इंद्रिय जीव चींटा चींटी आदि की तीसरी इंद्रिय है नाक तो उनके नाक का विषय तीव्र रहता है। वे किसी जगह मिठाई रखी हों तो ढूँढ़कर कहीं पहुँच जायेंगे। उनके आँख नहीं हैं फिर भी आँख वाला चाहे चूक जाय पर उनका निशाना नहीं चूकता। चार इंद्रिय जीवों के आँख का विषय तेज है, उन्हें बहुत दिखता है और इतना शीघ्र वे देखकर उड जाते हैं कि आप किसी भी मक्खी को पकड़ने के लिए हाथ करें तो उनके निकट से हाथ चला जाय और वे बचकर निकल जायें, इतना उनके आँख का विषय रहता है और जिनके 5 इंद्रियाँ हैं उनके कान का तीव्र विषय रहता है। पक्षी हैं और जीव हैं उनके कान का विषय तीव्र रहता है। और जिनके मन है, और मनों में भी जो श्रेष्ठ मन वाले हैं वे हुए मनुष्य। इनके मन का विषय बड़ा तीव्र रहता है। यह मनुष्य मन के मारे दु:खी है। उतना इंद्रिय विषय का दु:ख नहीं है मनुष्य को जितना मन का दु:ख है। अब मनों में मनों के दो विषय हैं― एक तो दुनिया में यश नामवरी कीर्ति की चाह और दूसरा है मनोज। सो मन के इन दो विकारों से यह मनुष्य परेशान है और यश नामवरी की तो अभिलाषा हो गयी कि सभी मनुष्य जरा-जरासी बातों में अपना अपमान महसूस करने लगते हैं। सम्मान की इच्छा न हो तो अपमान क्यों महसूस करें? जो लोग ऐसा कहते हैं कि हमारे नामवरी की चाह नहीं है, पर हमारे विरुद्ध जो कह दे वह हमें नहीं सहन होता। अरे हमारे विरुद्ध कोई कह दे तो हमें सहन नहीं होता इसी के मायने हैं कि सम्मान की इच्छा है। सम्मान की इच्छा हुए बिना अपमान सुहावना कैसे लगेगा। तो मन का विषय इन मनुष्यों के अतिप्रबल है। देवों के भी है, नारकियों के भी हैं और पशुपक्षियों के भी है पर यह मनुष्य मन के मारे बेहद दु:खी है अन्यथा बतलावो कि अब मनुष्य दु:खी है, खाने-पहिनने लायक चीज मिल जाती है पर धनी, भिखारी, मूर्ख, पंडित सभी के सभी मन के वश होकर दु:खी हैं। तो जिन्होंने मन मार लिया उन्होंने तो विश्व को जीत लिया है, वे मुक्ति के पात्र हो गए, और जिनका मन वश होता है वे ध्यान के पात्र होते हैं और आत्मध्यान द्वारा ही मुक्ति प्राप्त हुआ करती है।