वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1074
From जैनकोष
अतस्तदेव संरुध्य कुरु स्वाधीनमंजसा।
यदि छेत्तुं समुद्युक्तस्तवं कर्मनिगडं दृढ़म्।।1074।।
दृढ़ कर्मनिगड के छेदन के लिये मन:सरोधन का आदेश―हे आत्मन् ! यदि तू कर्मों की बेड़ी को छेदने के लिए उद्यमी हुआ है तो तू इस मन को ही समस्त विकल्पों से रोककर शीघ्र ही अपने वश में कर। मन को वश में किए बिना कर्मों की बेड़ी छेदी नहीं जा सकती। पुण्य हो अथवा पापहो दोनों ही प्रकार के कर्म बेड़ीरूप हैं। जैसे किसी को जेल हो जाय। वह चाहे सोने की बेड़ी पहिन ले और चाहे लोहे की और उसका कमर डंडा लगाकर कस देवे तो दु:ख और पराधीनता दोनों में एक जैसी है। दोनों ही बेड़ी पराधीनता के उत्पादक हैं पुण्य और पाप। जिनके पाप का उदय है वे दरिद्रता दीनता आदिक अनेक विकल्पों से दु:खी हैं, जिनके पुण्य का उदय है वे तृष्णावत दु:खी हैं। चीज मिली तो तृष्णा बढ़ी। जिनको जितना वैभव मिला हैवे उतनी ही अधिक तृष्णा कर सकते हैं। एक गरीब आदमी 10-20-50 रुपये की तृष्णा करेगा और एक करोड़पतिकरोड़ों के धन की तृष्णा करेगा। पुण्य का उदय तो तृष्णा कराने में सहायक होता है। कोई मनुष्य पाप के उदय में अपने को दीन हीन विचार कर दु:खी होता है तो कोई पुरुष पुण्य के उदय में दु:खी होता है। तो उसकी आधीनता उसके बंध-बंधे अपने को विचार-विचारकर दु:खी होते रहते हैं। हे आत्मन् ! पुण्य का उदय अथवा पाप का उदय दोनों ही बेड़ियाँ हैं। इनको छेदना चाहते हो तो सबका उपाय यह एक मन का विजय करना है, अत: मन को रोको और कर्मों की बेड़ियों का छेदन करो।