वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1079
From जैनकोष
मन:शुद्धयैव शुद्धि: स्याद्देहिनां नात्र संशय:।
वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम्।।1079।।
मन:शुद्धि से वास्तविकी शुद्धि की सिद्धि―मन की शुद्धि से ही जीवों की शुद्धता मानी गयी है। जिनका मन तो पवित्र न हो, विषय कषायों में रत रहा करते हो, दूसरे जीवों के प्रति ईर्ष्या मात्सर्य द्वेष रखते हों वे चाहे शरीर से कितना ही सुंदर हों और बहुत बड़े सागरों के जल से भी नहाया गया हो तो भी उनके पवित्रता नहीं मानी गयी है और जिनका मन शुद्ध है वे चाहे शरीर से किसी अपवित्र स्थिति में भी हों, मलमूत्र का लपेट हो, किसी भी स्थिति में हों तब भी वे पवित्र होते हैं। आत्मा की पवित्रता आत्मा के शुद्ध आशय से बनती है। अशुद्ध आशय से तो आत्मा अपवित्र ही है। मन की शुद्धि न हो तो मात्र शरीर को क्षीण करना यह तो व्यर्थ बात है। मल पवित्र है नहीं और उपवास तपश्चरण आदिक से या अनेक कायक्लेशों से शरीर को सुखा रहे हैं तो वह व्यर्थ की बात है, यद्यपि वह भी व्यवहार साधन है पर किसलिए है, यह कायक्लेश किसलिए हैं ये सब बाह्य तप? इसका मतलब तो आना चाहिए, वह सब है आत्मा की पवित्रता। सो मन की शुद्धि ही जहाँ नहीं है वहाँ आत्मा पवित्र कैसे हो सकता है? स्वयंभूरमण समुद्र में दो प्रकार के मच्छ रहते हैं, एक महामत्स और एक तंदुलमत्स। महामत्स के तो हजार योजन को अवगाहना हे और तंदुलमत्स अत्यंत छोटा होता है जो महामत्स की आँख में भी घुसा रहे। तंदुलमत्स जब यह देख रहा है कि यह महामत्स अपना मुँह बायें है और हजारों मछलियाँउसके मुख में लोट रही हैं तो सोचता है यह कि इसकी जगह यदि मैं होता तो एक भी मछली बाहर न निकलने देता, सबको भख लेता। तो उसके ऐसा पाप का बंध होता हैकि वह सप्तम नरक में जाता है। हिंसा नहीं कर सकता मगर हिंसा का भाव हो गया तो उसे पाप बंध गया। जो कर्म बंधते वे अभाव के परिणाम का निमित्त पाकर बनते हैं। अब सोच लीजिए कि रातदिन परिग्रहों की तरफ चित्त जुटाये रहना, विषयसाधन पोजीशन की ओर चित्त लगा रहना बड़ा भारी पाप है और हम आप यह सब अपने आत्मप्रभु पर अन्याय कर रहे हैं। अपनी दृष्टि हो, आत्महित का भाव हो तो जीव को शांति का रास्ता मिल जायगा, मगर दुनिया में ही अपने को बड़ा बनाना या और-और तरहसे अपने को नामी बनाने की धुन हो तो वहाँशांति का मार्ग नहीं मिल सकता।