वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 107
From जैनकोष
यथा बालं तथा वृद्धं यथाढयं दुर्विधं तथा।
यथा शूरं तथा भीरुं साम्येन ग्रसतेंतक:।।107।।
अंतक की यमवर्तिता― यह मरण, आयुक्षय, यमराज देखो बड़ी समता से जिसे खा लेता है। जैसे बालक को ग्रसता है वैसे ही वृद्ध को ग्रसता है। कोई मृतकों की संख्या करे तो करीब-करीब यही बात दिखेगी कि मरने वालों में जितनी संख्या वृद्ध लोगों की है उतनी ही संख्या जवान और बालकों की भी है। सभी को यह यम समता से ग्रस लेता है। यह अलंकार में कह रहे हैं, कहीं यम नाम का कुछ रहता नहीं है। आयु के क्षय का नाम यम है। प्रकरण में यह बता रहे हैं कि यह मरण सब पर अचानक आ जाता है। यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि ये तो बच्चे हैं, ये तो 50 वर्ष जीवेंगे― यह दम भरकर कोई नहीं कह सकता कि किसकी कब अचानक मृत्यु हो जाय? जैसे यह यम अचानक ही बालक को ग्रस लेता है वैसे ही वृद्ध को ग्रस लेता है। इसके पक्षपात नहीं है कि बूढ़े को ग्रस ले और बालक को न ग्रसे। यह यमराज जैसे धनिक को ग्रस लेता है ऐसे ही दरिद्र को ग्रस लेता है। वहाँ यह पक्षपात नहीं है कि यह गरीब है इसे ग्रस लो और इस धनिक को न ग्रसे। यम में (मरण में) किसी प्रकार की विषमता नहीं। जैसे ही शूरवीर को ग्रसता है वैसे ही यह कायर को ग्रसता है। यों सभी मरते जा रहे हैं। जब सभी जीव एक इस पंचतत्व को, मरण को ही प्राप्त होते हैं तब इनमें से हम किसका शरण ढूँढ़ें? इस यमराज का नाम समवर्ती भी है। मरण मृत्यु यह श्मशान का राजा है। इसका नाम समवर्ती भी है परेतशट् भी है। ये मृत्यु सब प्राणियों में समान है।
स्वयं समता धारण की शिक्षा― यहाँ यह भी शिक्षा लेना कि ऐसे दुष्ट यम में तो समता बनी है और हम लोग जो इतने धर्म के प्रसंग में हैं, धर्म पालन के लिये यत्न करते हैं उनके समता न जगे, यह खेद की बात है। भीतर में हम आप सबके ऐसी श्रद्धा रहनी चाहिये कि जो उदारता का बीज बने, कुछ भी बिगड़ गया हो उसको झट क्षमा कर सकें। क्या है? संसार है, प्रवृत्तियाँ हैं और प्रथम तो यह बात है कि दूसरे लोग अपराध नहीं करते हैं। यह खुद कषायों से भरा हुआ है सो कल्पनायें बनाता है और अपने अपराध से अपने आपको दलित करता रहता है।
ज्ञान का आचरण― भैया ! ऐसा ज्ञान बसावो जो उदारता का बीज हो। कोई धन वैभव क्षीण हो गया, हो गया, पर चीज है। रहा तो रहा, न रहा तो न सही। दोनों स्थितियों में इस विभक्त चैतन्यस्वरूपमात्र आत्मा का कौनसा बिगाड़ है? उदारता बन सके ऐसा ज्ञानप्रकाश जगे। मोह, मूर्छा, पक्षपात, आसक्ति में कुछ भी हित नहीं है। अनुदार वृत्ति में अपना समय ही गमाया जा रहा है, ऐसा निर्णय रखिये और हे क्या? क्षमा कर दिया किसी को तो पुण्य ही बना। और इससे भी अधिक वैभव, यश, विश्राम के साधन, शांति के समागम और भी कई गुने प्राप्त होंगे। नम्रता वर्तो तो इससे भी अधिक लौकिक सम्मान मिलेगा और पारलौकिक सम्मान मिलेगा, क्यों व्यर्थ में यहाँ वहाँ की बातों में उपयोग डालकर अपने को बरबाद किया जाय? सदा साफ सीधी बात कहे तो इसे अपने दिमाग में कुछ चिंतन न करना पड़ेगा, स्पष्ट रहेगा। क्यों किसी पदार्थ की तृष्णा बनायें, तृष्णा से लाभ क्या है? केवल क्लेश ही प्राप्त होगा तृष्णा करने से। समता जैसे बने, उदारता जैसे जगे, ऐसा ज्ञान बनाने का अपने को यत्न करना चाहिये।