वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1081
From जैनकोष
पादपंकजसंलीनं तस्यैतद्भुवनत्रयम्।
यस्य चित्तं स्थिरीभूय स्व स्वरूपे लयं गतम्।।1081।।
स्थिरचित्त पुरुषों के चरण में भुवनत्रय की सलीनता― जिस मुनि का मन स्थिर होकर आत्मस्वरूप में लीन हो गया उस मुनि के चरणकमलों में ये तीन लोक भली प्रकार लीन हुए समझना चाहिए। सबसे बड़ा काम है यह आत्मा आत्मा में लीन हो जाय। यह आत्मा भागा फिर रहा है बाह्य पदार्थों में और भागने के लिए इसके पैर है ज्ञान विकल्प। विकल्पों से इतना जल्दी दौड़ जाता है यह आत्मा कि यहाँ से बंबई करीब एक हजार मील होगा, पर बंबई पहुँच जाने में इस मन को पाँच सेकेंड भी न लगेगा। मन की गति सबसे अधिक तेज मानी है, इतनी जल्दी बिजली भी नहीं पहुँच सकती है, हवा भी नहीं पहुँच सकती है, शब्द भी नहीं पहुँच सकते हैं, कुछ भी नहीं पहुँच सकता, और बंबई, रूस, अमेरिका आदि की बात जाने दो, सर्वारिसिद्धि की चर्चा जो जानते हों वे वहाँ भी एक चुटकी में पहुँच जाते हैं। मन की गति अत्यंत तीव्र है और मन की गति अबाध है, बीच में कितने ही पहाड़ वज्रपटल आते हैं पर वे इस मन को रोक सकते हैं क्या? वह मन क्या है? एक प्रकार का ज्ञान है। विषयों को बाह्यपदार्थों को आश्रय में लेकर उत्पन्न हुआ जो ज्ञान है उसी को ही मन कहते हैं। तो मन की गति अत्यंत तीव्र है। इस मन को रोककर जिन्होंने अपने आत्मा में स्थिर कर लिया है उन्होंने इन तीनों जगत को अपने आपमें लीन कर लिया है। सब चीजें मिल सकती हैं कि नहीं किसी को? दुनिया के जितने पदार्थ हैं वे सब मिल सकते हैं। किस उपाय से? उनकी चाह न रहे, लो सब मिल गए। अरे जब चाह रहेगी तो मिलेंगे नहीं और जब चाह ही नहीं रही तो समझो सब कुछ मिल गया। तो जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, समझो उसने विश्व का सकल साम्राज्य पा लिया। क्या जरूरत है? और भक्तजन भी, कल्याणार्थी महापुरुष भी उनके चरणकमलों का ध्यान करते हैं। जिन्होंने इस मन पर विजय प्राप्त कर लिया है। प्रकृति देख लो― आपका चित्त उनकी भक्ति में लगेगा जिन्हें आप यह समझें कि ये संसार की आशा नहीं रखते, सब आशाओं से दूर हैं, परिग्रहों से दूर हैं, किसी भी विषय की साधना नहीं चाहते। ऐसा आप जिनके बारे में समझते होंगे उनके प्रति आपका गुणानुवाद नियम से जगेगा और जिसे आप समझ ले कि यह तो क्रोधी है, अपनी वांछायें रखता है, पंचेंद्रिय के विषयों की आकांक्षायें रखता है, खाने पीने का अधिक लालची है ऐसे पुरुष के प्रति आपको गुणानुवाद नहीं जगता। तो जिन्होंने मन पर विजय किया उनके प्रति तो यह एक जगत है। जो इस जगत के ही माफिक विषयों में ही लीन हो उसमें क्या भक्ति जगेगी?