वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1082
From जैनकोष
मन: कृत्वाशु नि:संगं नि:शेषविषयच्युतम्।
मुनिभृंगै: समालीढं मुक्तेवदनपंकजम्।।1082।।
नि:संग व विषमच्युत मन वाले मुनियों की मुक्तिपात्रता―जिन मुनिरूपी भ्रमरों ने अपने मन को निष्परिग्रहता से समस्त विषयों से छुड़ा लिया है उन्होंने ही इस मुक्ति के वदन पंकज का आलिंगन किया, वे ही इस मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।‘दोय काज नहिं होय सयाने।, विषयकषाय और मोक्ष में जाने।।’मोक्ष और संसार के विषय कषाय ये दोनों बातें एक साथ नहीं बन सकती। मोक्ष नाम है केवल रह जाने का। आत्मा के साथ अन्य कोई दंद-फंद न रहे, शरीर कर्म विकार चिंता शोक आदिक जो लगे हुए हैं उन सबसे न्यारा यह आत्मा केवल रह जाय इसी के मायने हैं परमात्मपद। इसी परमात्मपद की भावना भानी चाहिए भगवान के दर्शन के समय। अकेला आत्मा ही आत्मा रह गया, इस कारण अनंत आनंद भोग रहे हो, ऐसी ही सुबुद्धि मेरी जगे कि मैं भी समस्त परपदार्थों का रागद्वेष मोह छोड दूँ और आपके समान मैं सबसे न्यारा अकेला आत्माराम रह जाऊँ। यह भावना भायी जाय तो समझो कि हमने दर्शन का लाभ पाया। जो मुनि योगीश्वर अपने मन को नि:संग विषयों से विमुख बनाते हैं वे ही मोक्ष का आनंद प्राप्त करते हैं।