वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 109
From जैनकोष
विक्रमैकरसस्तावज्जन: सर्वोपि वल्गति।
न श्रृणोत्यदयं यावत्कतांतहरिगर्जिमम्।।109।।
मरणकाल न आने तक प्राणियों की वल्गना― बड़ा बलवान् भी पुरुष हो, जिसके पराक्रम का ही एक प्रधान रूप हो, वीर पुरुष ऐसा मनुष्य भी तब तक ही उद्धत होकर दौड़ता है, कूदता है, स्वछंद होकर जो कुछ चाहे वह दुनिया पर ढाता है― कब तक? जब तक कि काल रूपी सिंह की गर्जन को यह नहीं सुनता है अर्थात् जब तक कल्पना में यह बात नहीं आती कि मेरी मौत आयेगी, तब तक यह पराक्रमी बलवान् पुरुष उद्धत होकर दौड़ता और कूदता है। जैसे सिंह की गर्जना का शब्द हिरन सुन ले तो हिरन की सिट्टी भूल जाती और मूर्ख सा होकर व्याकुल हो जाता है। ऐसे ही ये देह के बलवान, वैभव के समृद्धिशाली अन्य प्रकार से ऐश्वर्य के अधिकारी ये पुरुष भी तब तक ही गड़बड़ करते हैं जब तक कि काल का शब्द सुनने में न आये। लो यह मेरी मौत आ गयी, ऐसा चित्त में आता है तो सारे होशहवास उड़ जाते हैं।
मृत्यु का प्राणी पर प्रभाव― भैया ! अपने आपकी ही बात देख लो जब उपद्रव सिर पर आ जाता है, लड़ाई हो रही है, गोले बम चाहे जहाँ गिर पड़ते हैं, ऐसी स्थिति आसपास सुनने को मिल जाय तो ऐसी स्थिति में इसके होशहवास कैसे ढीले ढाले पड़ जाते हैं और जब सुख के दिन हैं, उपद्रव कुछ नहीं है और एक परिग्रह संचय या अन्य-अन्य धुन में मौज मानी जा रही है उस समय वैभव हो तो वैभव का घमंड, देह में बल हो तो बल का घमंड, जिसके आगे किसी दूसरे का कुछ भी ख्याल न किया जा सके, ऐसी उद्धता इस जीव में आ जाती है और जहाँ यह बात गुजरती है कठिन रोग हो जाय तो अथवा भयंकर उपद्रव हो तो किसी प्रकार चित्त में यह बात आती है कि लो अब तो मौत आने वाली है तो लो यह मौत ही आ गयी, ऐसा ख्याल होते ही यह सब अपने होश खो देता है।
संसारी प्राणियों के मरणभय की मुख्यता― अशरण भावना के इस प्रकरण में मुख्यता यह बताया जा रहा है कि जब इस जीव का तद्भवमरण होता है तो इसका कोई शरण नहीं, यद्यपि हमारी प्रत्येक घटना में भी कोई शरण नहीं है, चिंता करें तो अकेले चिंता करके रह जायें। कोई दूसरा भी पुरुष इस चिंता से बचाकर हमें हल्का भी कर सकता है क्या? कभी नहीं। हाँ यदि कोई मेरा बड़ा प्रेमी मित्र हो तो प्रेम में आकर वह अपनी एक चिंता खुद की बढ़ा लेगा पर दूसरे की घटाकर वह चिंता न बढ़ा पायेगा। प्रत्येक घटना में मैं अशरण हूँ, किंतु इस अशरण भावना में मरण-मरण की ही बात शुरू से अब तक चली आ रही है। इस जीव को सबसे अधिक भय है मरण का। धन आता हो, कोई कुटुंबीजन जाते हों ऐसी स्थिति आये तो धन का लूटना पसंद करेंगे और परिवार के बचाने का यत्न करेंगे और कहीं परिजनों की जान जाती हो और खुद की जान बच जाती हो तो प्राय: करके यह अपनी जान बचाने का यत्न करेगा।
मरणभय का एक दृष्टांत― बंदरियों को अपने बच्चे से बहुत बड़ा प्रेम होता है और सुनते हैं ऐसा कि बंदरिया का बच्चा मर भी जाय तो मरे हुए बच्चे को वह छाती से चिपकाये रहती है, इतना प्रेम होता है। किंतु देखा होगा, कोई चीज खाने की पड़ी हो तो अपने उस बच्चे के हाथ से हटाकर खुद खाने लगेगी बंदरिया और बड़े भय की स्थिति के समय की बात देखो तो कदाचित् पानी बहुत बढ़ जाये, नदी का किनारा हो तो अपने पैरों को अड़ाकर ऊँची उठ जायेगी बंदरिया। ज्यादा पानी आ जाये तो दो पैरों के बल खड़ी होकर अपने बच्चे की रक्षा करेगी और ज्यादा पानी आ जाये तो यह भी कर सकती है कि बच्चे को नीचे पटककर बच्चे पर खड़ी होकर अपनी जान बचाये।
ज्ञान का उपयोग ही एकमात्र शरण― जगत् के प्राणी सुख चाहते हैं, पर क्या चाहने-चाहने से सुख मिल जाता है? जिस योग्य उपादान हो, निमित्त हो, जब जैसी स्थिति में जो बात होने की हो उस प्रकार होती है। यह जगत् प्राणी मृत्यु से डरता है पर क्या डरने से मृत्यु टल जाती है? वह भी जब जिस प्रकार जिस ढंग से होना है होता है। यह प्राणी व्यर्थ ही भय करके अपने आपको विह्वल बनाये रहता है। सम्यग्ज्ञान में अद्भुत सामर्थ्य है। इस जीव को शांति उत्पन्न करने वाला यह एक ज्ञानप्रकाश है। जीवन का और धन है ही क्या? अभिन्न धन वास्तविक धन एक ज्ञान ही है। सच्चा ज्ञान जगे, भेदविज्ञान को प्रकट करता हुआ ज्ञान जगे तो अब वह ज्ञान भी इसका रक्षक बन सकता है, अन्य कोई जगत् में शरण नहीं हैं।