वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1130
From जैनकोष
अयं मोहवशाज्जंतु: क्रुद्धयति द्वेष्टि रज्यति।
अर्थेष्वन्यस्वभावेषु तस्मान्मोहो जगज्जयी।।1130।।
सकारण मोह की जगज्जयिता का आख्यान:―यह प्राणी मोह के वश होकर अन्य पदार्थों में क्रोध करता हे, द्वेष करता है और राग करता है, इस कारण यह समझ लीजिए यह मोह इन तीन लोकों को जीतने वाला है। इस मोह का ऐसा प्रसार हे कि जंतुवों पर कि जो एकेंद्रिय जीव भी हैं जिनके संबंध में हम आप कुछ कल्पना नहीं कर सकते कि वे क्या विकल्प करते हैं किस तरह उनके अंतरंग में भावना बनी रहती है। वे देखने में लगता है कि पड़े हैं, खड़े हैं उन स्थावरों में भी मोह है और संज्ञा द्वारा पर्यायबुद्धिता उसमें बर्त रही है। जो उन्हें पर्याय प्राप्त हुई है उसमें ही अहं का अनुभवन करते रहते हैं। अब जितना उनका विकास है उस शैली से वे अनुभवन करते हैं, पर पर्यायबुद्धि से ग्रस्त वे भी हैं। यद्यपि एक इंद्रिय जीवों के मोह का वैसा प्रसार नहीं बन पाता जैसा संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों के बनता है और इसका प्रमाण भी यह हे कि एक इंद्रिय जीवों के मोहनीय कर्म का स्थितिबंध कम होता है। और संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों के मोहकर्म का स्थितिबंध अधिक होता है लेकिन एकेंद्रिय की अवस्था पतित है और जो जितने कम विकार में भी कमजोर है पर उसका विकार इस ढंग का कमजोर है कि उसके विरुद्ध अर्थात् कुछ उन्नति के लिए कुछ काम में भी नहीं कर सकते, इस ढंग का मोह है। वे अपने आहार, भय, मैथुन, परिग्रह चार संज्ञावों में डूबे हुए हैं, उनकी संज्ञा उनके भावों के अनुकूल हे, पर मोह का प्रसार उन एकेंद्रिय में भी है। अब दो इंद्रिय जीव से तो कुछ समझ में आ सकती है बात कि इसमें मोह है। ये लट, केचुवे, जोक, शंख वगैरह चलते रहते हैं, खाते रहते हैं और कुछ इनका काम नहीं है। आसक्ति उनकी इंद्रिय विषयों की बनी रहती है और कुछ पता नहीं, मन ही नहीं है, हित अहित का विवेक नहीं कर सकते। मन होने से मनुष्य हित अहित के विवेक में समर्थ हो जाते हैंमन का ऐसा प्रभाव है वह मन भी अपने भाव मन योग्यता रूप, पर मन न होने से विकल्प न हो, वासना न हो ऐसी बात नहीं बनती। यह जीवों के चार संज्ञावों के प्रभाव से वह अपने आपमें संक्लिष्ट दु:खी और मुग्ध बने रहते हैं। जो पर्याय मिली है उसी को आपारूप अनुभव कर रहे हैं ऐसे ही तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों में मोह का प्रसार बना हुआ है। संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों में तो कलात्मक ढंग से भी मोह का प्रसार चलने लगता है और वह खूब समझ में आता है पर मोह नाम प्रीति का नहीं है। दो पदार्थों में, विविध पदार्थों में उनकी स्वतंत्रता का भान नहोकर यह इसका अधिकारी है, मैं इसका अधिकारी हूँ, में इसे यों कर सकता, यों कर दूँगा आदिक एक दूसरे की परिणति कर देने का भान होना यह है मोह की बात। जो भिन्न-भिन्न पदार्थ है शरीर और आत्मा उनमें भेद न जान सकना, भेद न अनुभव सकना, शरीर से न्यारा जैसा स्वयं है ज्ञानस्वरूप उस रूप अपने आपको न समझ पाना, भान भी न होना यह है मोह का स्वरूप, मोह का प्रसार। तो संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों में तो नानारूपों में प्रसार मिलता है जो मन हित अहित का विवेक करके हित कार्य में लगने के लिए था उस मन को इन चार संज्ञावों के प्रबल बनाने में जुटा दिया है। मन न होता तो भी चार संज्ञावों से पीड़ित यह प्राणी रहता, पर मन होने से उन चार संज्ञावों में और प्रबलता आ सकी है। तो जगत के सभी प्राणी इस मोह की लीलावों से ग्रस्त हैं अतएव यह मोह सारे विश्व पर विजय कर रहा है। मोह क्या विजय कर रहा? सभी जीवों में मोह विकार ऐसी तीव्रता से और व्यापकता से चल रहा है, इसी को कहते हैं कि मोह को जगत ने जीत लिया।
तत्त्वज्ञता के विजय का आख्यान:― जिस प्राणी को मोह नहीं रहता और यह पक्का दृढ़ निर्णय रहता कि मेरे कोई दूसरा शरण नहीं है, मेरा कोई जिम्मेदार नहीं, प्रभु नहीं, कर्ता नहीं, अधिकारी नहीं, मालिक नहीं। मेरा जो कुछ हे मेरे से ही चलता है ऐसा जिसने अपने चित्त में दृढ़ निर्णय बना लिया है उस पुरुष को अपने आत्महितकी धुन बन जाती है और अंतरंग में ऐसी प्रेरणा रहती है, ऐसा साहस होता है, ऐसी बुद्धि बननी है कि सिवाय एक आत्मतत्त्व के निकट रहने के, इस ही के परिचय में बने रहने के और कुछ न बनूँ। कैसी स्थिति है इस तत्त्वज्ञानी की? और कुछ करना नहीं पड़ रहा है, विकल्प ही मच रहे हैं और उन विकल्पों का निमित्त पाकर योग परिस्पंद होना, उसका निमित्त पाकर शरीर की वायु का प्रवर्तन हुआ और उनका निमित्त पाकर आगे चलें, यों सब कुछ करना पड़ रहा है तथापि एक अपने आत्मतत्त्व के ज्ञान ध्यान और उसके समीप बसे रहने के अलावा यह तत्त्वज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता। जैसे किसी मित्र से बहुत-बहुत परेशानी जब सह ली जाती है तब उसका निर्णय बनता है, बस देख लिया। अब मुझे वहाँ रहने की जरूरत नहीं, मेरे को अब कोई आकर्षण नहीं। देख लिया, अब समझाये भी कोई, बहकाये भी कोई तो वह अंतर से यही आवाज देता है, बस देख लिया क्या होता है समझने से? समझ लिया, परख लिया, ऐसे ही इन बाह्य पदार्थों में लगे रहने से, विकल्प बसाये रहने से जो-जो बरबादियाँहुई वे मैं सब समझ गया। बाह्य पदार्थों की ओर आकर्षण बनाये रहने से जो कुछ मैंने अपने को बरबाद किया उसे में खूब ध्यान से समझ गया। अब कोई बहकाये भी अथवा अपने किसी प्रकरण के राग भरे दर्शन देकर हमें विचलित करना चाहे भी तो इस तत्त्वज्ञानी के यह अंतरंग आवाज होगी बस मैंने देख लिया। अब क्या होता है बहकाने से? समझ गया सब। जो ज्ञानी पुरुष अपने आपको परभावों से, परतत्त्वों से अशरण समझता है उसका कहीं कोई शरण नहीं, उसे आत्महित में प्रीति जगती है और एक आत्महित की ही धुन रही।
मोहजागरण में मूल अपराध का संकेत:― इसे मोह क्यों जगा? मूल में यह अपराध है अथवा इसी का ही नाम मोह है। मोह स्वयं अपराध है, जो अन्य स्वभाव है अर्थात् में चेतन हूँ मेरा चैतन्य से विलक्षण जो स्वभाव है अचेतन पदार्थों का अचेतन धर्म में स्वभाव वाले पदार्थों में, अचेतन में इसने ‘यह में हूँ’ इस रूप से अनुभव किया अथवा यह मेरा हैइस रूप से अनुभव किया और जो एक ज्ञान की वृत्ति के अतिरिक्त जो कुछ बीतती हे, जो विभाव बनते हैं उनके प्रति भी तत्त्वज्ञानी की यह दृष्टि रहती हे कि ये सब भी अन्य स्वभाव हैं, मेरे ही सत्त्व के कारण मेरे ही स्वरूप से स्वरसत: ये विभाव नहीं जगे हैं। यद्यपि विभाव परिणमन मेरा ही बन रहा है पर मेरे स्वरस से नहीं बन रहा है यह औपाधिक भाव है। जिसको ज्ञान का सुल्झेरा हो गया हे वह तो तत्त्व निकालता हे, मेरा हित हो। ऐसी वह अपनी वृत्ति बनाता है। उसके लिए कभी उपादान की मुख्यता से अवगम करना होता है। मेरा परिणमन मेरे से ही उत्पन्न हुआ। इसमें किसी दूसरे का हाथ नहीं है अर्थात् कोई भी दूसरा पदार्थ परिणम कर इस मेरे मोहरूप नहीं बना। उपादान की मुख्यता से केवल अपने आपको ही स्रोत तककर अन्य सब पदार्थों की दृष्टि न रखकर एक ऐसी कैवल्य वर्तना बनाता है कि हो भी विभावपरिणमन तो कब तक होगा, किसके आधार से ठहरेगा, यों लाभ उठा लिया जाता है उपादान दृष्टि करके। तो कोई निमित्त की मुख्यता से भी वर्णन करके सोच करके आत्महित की ही बात निकालता है। ये क्रोधादिक भाव, ये सब अज्ञानमय भाव जड़ उपाधि का निमित्त पाकर हुए हैं, मेरे ये स्वरसत: नहीं उठे अतएव ये मेरे नहीं हैं। निश्चय दृष्टि से तो यह भी बात आयी थी कि ये मेरे परिणमन हैं। अभी ही सही, आगे न होगा पर दृष्टि में आया। और यहाँ यह दिख रहा है कि क्रोधादिक मेरे परिणमन ही नहीं हैं। मेरी चीज ही नहीं हैं यों समझियेगा। मेरा स्वरूप नहीं, मेरी शुद्ध वर्तना नहीं, ये आये हैं, औपाधिक हैं, विभाव हैं, यों सोचकर उन रागादिकों को अपना न मानने की उज्ज्वलता जगाई। जिसे ज्ञान का ठीक प्रकाश मिला हे वह तो सर्वदृष्टियों में अपने मूल आश्रय का दर्शन करने की वृत्ति जगती है, पर मोह का ऐसा नाच चल रहा है जगत के जीवों पर कि वे तत्त्व के निकट नहीं आ पाते। उन्हें फुरसत ही नहीं है अपने आपके विकल्पों से। तो मोह का एक ऐसा प्रसार समस्त जीवों पर चल रहा हैकि मोह ने मानो सारा जगत ही जीत लिया। अनंतानंत जीवों के समक्ष संख्या में आने वाले वहाँ के बिरले सम्यग्दृष्टिजन क्या अनुपात रखते हैं? यों समझ लीजिए न की तरह हैं। लोक में सब कुछ मिलना सुलभ है पर सम्यग्ज्ञान, अपने सहजस्वरूप का अनुभवन, यह ज्ञान सुलभ नहीं है। है सुगम तब भी प्रकट होगा, है स्वाधीन, लेकिन जब मोह के वश चल रहे हैं तो उस स्वरूपानुभव की न सुगमता रही और न स्वाधीनता रही अर्थात् जो बीत रही है उसका ही अनुभवन करते चले जा रहे हैं। यह मोह समस्त जगत पर विजयी बन रहा है, पर तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसे मोह पर भी विजय पा लेते हैं। तो इस नाते से ज्ञानी पुरुष जगतपति कहलाये अथवा नहीं?
मोहपरिवर्जन का अनुरोध― ये मोही प्राणी मोहवश ऐसे दीन बने चले जा रहे हैं कि अन्य स्वभाव वाले पदार्थों में ये आत्मारूप से अनुभवन रखते हैं और इस ही अपराध के कारण यह मोह इन पर हामी बना हुआ है। पत्थर का पनघट रस्सी से घिसने से 5-7 वर्ष में उसमें गड्ढे पड़जाते हैंरस्सी के खींचने की जगत।जब अभ्यास से पत्थर पर गड्ढे बन जाते हैं तो हम यदि अपने आत्मस्वरूप का अभ्यास बनाये रहें, सहज अपने आप बिना किसी उपाधि के, बिना अन्य संग के जो वृत्ति बनती हैवह हे सहजभाव। और जो सहज भाव रूप अपने आपको मान ले तो बस वही है शांति का मार्ग, कल्याण का पथ। यह मोह जीता जाय तब आत्मा का ध्यान बनेगा और जब आत्मा का ऐसा विशिष्ट ध्यान बनेगा तो उसको शांति का पथ एकदम मिल जायगा। इस मोह को जीतने का इस जिंदगी में काम पड़ा हुआ है। अगर जल्दी ही कुछ समय में यह मोह जीता जा सका तो फिर रागद्वेष के दूर करने का भी सिलसिला चलने लगेगा। मोक्ष मिलेगा विशुद्ध ध्यान से, आत्मध्यान से। आत्मध्यान तब बनेगा जब एक आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य भावों में पदार्थों में वांछा न जगे। मोह का दूर करना सबसे बड़ा काम अपन सबका पड़ा हुआ है और बातों में तत्त्व क्या रखा है? नामवरी, इज्जत, धन जुड़जाना, ये सब बातें यदि अन्याय करके दगा देकर बना लिया हैतो इसका इससे कुछ भला होने का नहीं है, इसका परिणाम अच्छा नहीं निकलने का। इस मोह को जीतने में ही अपना भला है।