वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1132
From जैनकोष
असावेव भवोद्भूत दाववन्हि: शरीरिणाम्।
तथा दृढतरानंत कर्मबंधनिबंधनम्।।1132।।
मोह की अतिशयकर्मबंधकारणता:― यह मोह ही जीवों के संसार में उत्पन्न हुए जो दाहबन हैं, दावानल है, अतिशय दृढ़ अनंत कर्मों का कारण है। यह मोह अग्नि है। अग्नि तो बेचारी जलकर ईंधन को समाप्त करके स्वयं शांत हो जाती है और खुद मर जाती है, पर यह मोह अग्नि खुद नहीं मर पाती। अग्नि का अंतिम रूप क्या? अग्नि का अंतिम रूप है बुझ जाना, पर इस मोह में ऐसी बान है कि यह अपने आप कभी नहीं बुझ पाता। अग्नि को बुझाने के लिए जल भी न चाहिए, वह अपने आप बुझ जायगी, उसका आखिरी रूप है यह। वह तो बुझाते इसलिए हैं कि उस वस्तु में प्रीति है। वह मोह पर वस्तु की प्रीति करने से हो जाता है, पर अग्नि में तो यह बान हे कि जल जायगी, अपने आप झक मारकर बुझ जायेगी। मोह में यह आदत नहीं है, उसको बुझाने के लिए तत्त्वज्ञान जल चाहिए ही चाहिए। तो यह मोह तीव्र दावानल के समान है और यह अनंत कर्मबंध का कारण है, यही मोह है, बेहोशी है, आत्मा का परिचय ही नहीं। शांति किसे कहते हैं, उसका पथ क्याहै? मोह में जिसकी ज्ञानरूपी आग तंद्रित हो गयी है उसके एक तो अनंत कर्मों का बंधन तुरंत है ही। तो हम और आपको ये रागद्वेष मोह ही सता रहे हैं उनका ही दु:ख है। न किसी का कोई घर है, न किसी का वैभव है। यह देह तक तो है नहीं किसी का। आत्मा सबसे न्यारा है। कष्ट है तो इसमें मोह रागद्वेष की कल्पनाओं का है। सो यह निश्चय होना चाहिए कि ये मोह रागद्वेष मिटाये जाना ही चाहिए। दूसरा कोई शरण नहीं है, यह बिल्कुल निश्चित है। गृहस्थ जीवन में रहकर भी परम तृप्ति पा सकते है, यही आत्मा की दया है। इस दया को अपने आप पर करना चाहिए, यह ही धर्म का मार्ग है।