वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1156
From जैनकोष
अशेषपरपर्यायैरन्यद्रव्यैविलक्षणम्।
निश्चिनोति यदात्मानं तदा साम्यं प्रसूयते।।1156।।
जब कोई योगी अपने आत्मा के विषय में निश्चय करता है कि यह में समस्त परपर्यायों से, परद्रव्यों से, औपाधिक तत्त्वों से भी विलक्षण यह मैं आत्मा हूँ इसके ही निश्चय ध्यान बनता है और अष्टकर्मों से मुक्त हो जाता है। जिस शरीर को निरखकर हम लोक में व्यवहार बनाते हैं और अन्य लोग भी जिस शरीर को देखकर वचनव्यवहार बनाते हैं वे सब परपर्यायें हैं, परद्रव्य हैं, औपाधिक भाव हैं, उनसे रहित यह मेरा आत्मा है। निश्चयदृष्टि से जैसा आत्मस्वरूप बनता है उसे ही कई लोगों ने अद्वैत ब्रह्म का रूप रखा है। तो एक दृष्टि तो भाव बनाई, पर व्यवहार का विरोध करने के लिए निमित्तनैमित्तिक विधान का भय नहीं करता। इस कारण कुछ ज्ञान की बात करके समतापरिणाम में ठहर नहीं पाता। समता का आलंबन ही सर्वोपरि पुरुषार्थ है। ऐसी शुद्ध भावना हो कि जिसमें रागद्वेष के पुट भीतर न आ सकें। जहाँऐसी समता प्राप्त होती है वहाँ ही निश्चयध्यान बनता है जिस ध्यान के प्रसाद से आत्मा अष्टकर्मों से मुक्त हो जाता है।