वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1171
From जैनकोष
वाचस्पतिरपि ब्रूते यद्यजस्रं समाहित:।
बक्तुं तथापि शक्नोति न हि साम्यस्य वैभवम्।।1171।।
समतापरिणाम का कितना महत्त्व है? इस वैभव की बात को यदि वाचस्पति भी कहना चाहे तो कह नहीं सकता। वाचस्पति का अर्थ है वचनों का मानना। जिसका वचनों पर पूर्ण अधिकार है ऐसा वाचस्पति महेंद्र अथवा अन्य-अन्य महापुरुष ऋषि योगीश्वर भी समतापरिणाम के वैभव को वचनों से नहीं कह सकता। उसका अनुभव चाहे कर लें योगीजन पर उसको बता नहीं सकते। जैसे अनेक पकवान मिठाई होती हैं, उन्हें आप खाकर अनुभव तो कर लेंगे कि इसमें कैसा स्वाद है, क्या रस है, पर आपसे पूछें कि बतावो तो सही कि कैसा स्वाद है तो आप बता न सकेंगे। अच्छा इतना तो पता ही हे कि अरहर की दाल और मूंग की दाल के स्वाद में अंतर है। पर आप उनके स्वाद को वचनों से नहीं बता सकते। तो जब आप छोटी-छोटी बातों को अनुभव भी वचनों से नहीं बता सकते तो समता के अनुभव की बात तो दूर रही। इस ही समतापरिणाम के अनुभव से योगीजन संसारके संकटों का, कर्मों का छेदन करते हैं। इससे ही विशुद्ध ज्ञान बनता है और ध्यान के प्रताप से सदा के लिए यह अनंत आनंदमय बन जाता है। जो आनंद निज ब्रह्मस्वरूप के दर्शन में है वह आनंद विषयसाधनों में नहीं है। पर से स्नेह करके पर के आधीन बन करके कोई आनंद पा सकता है क्या? केवल कल्पना की मौज है। दु:खमयी जिंदगी से जीते जायें वह क्या जिंदगी है? किसी भी समय ऐसा तो अपने आत्मस्वरूप का ध्यान होना चाहिए कि यहाँ कोई दु:ख नहीं है, कोई चिंता नहीं है। चाहे बाहर में कुछ भी गुजरो। जहाँऐसा तत्त्वज्ञान जगा है वहाँ ऐसा समताभाव प्रकट होता है जिसके अनुभव से वह अनंत आनंद का अनुभव कर लेगा, पर वचनों से कोई कह नहीं सकता।