वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1173
From जैनकोष
साम्यश्रीर्नातिनि:शंकं सतामपि हृदि स्थितिम्।
धत्ते सुनिश्चलध्यानसुधासंबंधवर्जिते।।1173।।
संत पुरुषों का हृदय यदि भली प्रकार निश्चलध्यानरूपी अमृत के संबंध से रहित हो तो उनमें समतारूपी लक्ष्मी नि:शंकता से अपनी स्थिति नहीं बना सकती। कितना ही उदारचित्त हो, अनेक गुण हों फिर भी जिनके चित्त में ध्यान साधना की बात नहीं है उनको समता नहीं जग सकती है। देखिये समता के अभ्यास के लिए जहाँऔर-और अनेक उपाय करते हैं वहाँ यह एक भी उपाय करें अथवा जैसे जाप सामायिक में प्रभुभजन, जाप स्तवन, तत्त्वचिंतन आदि किया करते हैं वहाँ कुछ ऐसा भी यत्न करें कि लो हमें न कुछ अच्छा सोचना है, न कुछ बुरा सोचना है। संसारी प्राणियों के बारे में न तो सोचना है और न भगवान के बारे में सोचना है। अपने मन को सोचने की ओरसे ऐसा शून्य बना दें उस काल में जो सहज बात होना चाहिए, जिसमें कोई त्रुटि संभव नहीं है वह अनुभव जगेगा। कुछ जानबूझकर विकल्प मचाकर तत्त्व की बात सोचने में त्रुटि हो सकती है। हम समझते हैं कि यह ठीक है, पर न भी हो ठीक ऐसा भी हो सकता है। प्रमाण के लिए सर्वत्र इतनी बात देख लें कि जो-जो भी धर्मसाधना का, संन्यास का, समाधि का आचरण करते हैं अथवा बतलाते हैं वे सभी के सभी बात ही बात में हटाये जाते हैं। सभी अपने-अपने मजहब को ठीक समझकर उसी के गुण गाते हैं पर उसमें अपनी त्रुटि नहीं समझ पाते। जो पुरुष अपने मन को शांत बनायेगा, अपने मन को रोके देगा, किसी का विचार न करेगा, ऐसे पुरुष के हृदय में जो एक अनुभव होना, जो एक अंतर्वृत्ति होगी, वह एक विलक्षण होगी। जान बूझकर विकल्प करके धर्म का वर्णन करेंगे तो वे सब भिन्न-भिन्न बातें हुई। मन को शांत करके कोई विकल्प न उठाकर अपने आपमें जो जानकारी बनती है सहज उसका अनुभव होने पर एक तो मार्ग दर्शन होता, आनंद का उपाय यही है और समतापरिणाम भी उसके जागृत होता है इस ही स्थिति में रहना सो कल्याण का मार्ग है। जहाँइष्ट अनिष्ट कोई भी विकल्प नहीं होते।तो यों चित्त को स्तब्ध करें, विषयों में जाने से रोके, किसी भी वस्तु का चिंतन न करें तो अपने आप आत्मा में विशुद्ध ज्ञानज्योति का अनुभव होता है।