वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1275
From जैनकोष
एताभिरनिशं योगी क्रीडंनत्यंतनिर्भरम्।
सुखमात्मोत्थमत्यक्षमिहैवास्कंदति ध्रुवम्।।1275।।
मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ― इन चार भावनाओं से यह योगी सातिशय आत्मा से उत्पन्न हुए सुख की प्राप्ति करता है। विषय और कषाय की वासना में तो जीव को अशांति होती है। कदाचित् किसी भी विषय में खाने-पीने में, सुगंध लेने में, सुंदर रूप देखने में, राग रागिनी सुनने में किस ही प्रकार के विषय को कभी यह जीव सुख भी मानता है, लोक में सुख मानने की दशा में भी अशांति ही बर्त रही है। जैसे जिसका फोड़ा अच्छा हो जाय वह मरहम पट्टी क्यों करे? जिसका ज्वर शांत हो गया वह बहुत सी रज़ाई ओढ़कर पसीना क्यों लेगा? इसी प्रकार जिसके विशुद्ध आनंद है, शांति है वह विषयों की प्रवृत्ति क्यों करेगा? विषयों में तब लगता है जीव जब कोई वेदना हो। खाता कब है मनुष्य जब क्षुधा की वेदना होती है। तो खाने से पहिले भी दु:ख है कि नहीं। और खाते समय वहाँ भी अशांति है। अब क्या खा रहे हैं, अब क्या खायेंगे यों मन में सोच रहे हैं, ये सब अशांति के लक्षण हैं। और फिर खाने के लिए लोग स्वयं अनुभूति कर सकते हैं कि जिस समय बड़ी रुचि ये स्वादिष्ट भोजन खाते हैं तो फिर कहाँ अपने आत्माराम की सुध रहती कहाँ के भगवान, कहाँ का आत्मस्वरूप? तो क्या ये शांति के लक्षण है? तो विषयकषायों में जो प्रवृत्ति होती है वह अशांति से होती है। तो विषयकषाय की वासना से जीव को अशांति रहता है किंतु ये चार भावनाएँ जगें, सब जीवों में मित्रता का भाव हो, गुणी जनों को देखकर हृदय में अधिक हर्ष उत्पन्न हो, दु:खी जीवों को देखकर कारुण्य भाव जगे, उद्दंड, गुंडा आदि मनुष्यों को देखकर माध्यस्थ भाव जगे, उनमें राग अथवा द्वेष न करें, इन भावनाओं का बड़ा प्रताप है, इसके प्रसाद से योगीजन शुद्ध आत्मीय आनंद का अनुभव करते हैं। संसार के सब जीवों में से दो चार जीवों को तो अपना सर्वस्व मान लें और गैर के सब जीवों को ‘ये न्यारे हैं’ ऐसा गैर समझ लें, ऐसा अज्ञान इन सम्यग्दृष्टिजनों में नहीं बसा है। भले ही परिस्थितिवश करना यों पड़ता है कि घर के चार छ: जीवों की फिकर रखनी होती है, उनकी सेवा शुश्रूषा में धन का व्यय भी किया जाता है, इतना सब होने पर भी सम्यग्दृष्टि पुरुष इतना अनुदार नहीं है कि वह इनके लिए ही अपना जीवन समझे। समस्त प्राणियों का स्वरूप उसके निर्णय में है और उस स्वरूप की अपेक्षा सब जीव बराबर हैं। बने तो ऐसा हृदय की सब जीव एक समान हैं, देखो इसमें अद्भुत शांति और आनंद प्रकट होता कि नहीं। आखिर थोड़े समय का जीवन है, इन सबका वियोग अवश्य होगा। इनमें आसक्ति रखने का आखिर परिणाम क्या होगा? वियोग के समय में अधीर होना पड़ेगा। कितने ही लोग तो अपना जीवन भी खो देते हैं ऐसे तो काम न चलेगा, आत्मा का विशुद्ध आनंद तब बनता है जब सब जीवों को अपने समान शुद्ध ज्ञानस्वरूप में समझ लें। यह तो बंधनरहित होने की बात है कि अन्य किसी जीव में मोह ममता का बंधन न रहे। समस्त जीवों से मोह हटे, केवल अपने आपके स्वरूप में अपनी प्रतीति बनायें। यों देखो आनंद कितना विलक्षण अनुपम होता है? आत्मोद्धार की बहुत कुछ चिंतना करना चाहिए, अन्य सब बाहरी बातों की चिंतना करने से लाभ क्या? यहाँ की मोह ममता, ये सब चिंतनाएँ स्वप्नवत् हैं। जैसे स्वप्न में मिलता कुछ नहीं ऐसे ही मोह की नींद में कोई तत्त्व नहीं मिलता। दुर्लभ जिंदगी पाकर उसे यों ही पापों में गवाँ देना पड़ता है। तो उन सब संकटों के मिटाने का उपाय इस धर्मध्यान के प्रसंग में कह रहे हैं कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ― ये चार प्रकार की भावनाएँ हैं। इनके प्रसाद से एक अद्भुत शांति और आनंद की जागृति होती है।