वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 12
From जैनकोष
अपि तीर्येत बाहुभ्यामपारो मकरालय:।
न पुन: शक्यते वक्तुं मद्विधैर्योगिरंजकम्।।12।।
योगिरंजक तत्त्व के प्रतिपादन की कठिनता― योगी पुरुषों को कौनसी परिस्थिति रंजक होती है, उसका अर्थात् योगीजन किसमें रंजायमान रहा करते हैं, उस ज्ञानतत्त्व का वर्णन इस ग्रंथ में करना अभीष्ट है लेकिन उस योगरंजकवृत्ति को हम सरीखे अल्पबुद्धि जन कहने में समर्थ नहीं हो सकते। चाहे अपार समुद्र को भुजावों से तैर लिया जाये, यह संभव हो सकता है किंतु योगी पुरुषों का रंजक तो ज्ञानतत्त्व है, उसका वर्णन करने में हम जैसे लोग समर्थ नहीं हो सकते हैं। यह कह रहे हैं इस ग्रंथ के कर्ता शुभचंद्राचार्य।
ज्ञातांश की ही प्रतिपाद्यता―भगवान् अरहंत देव केवलज्ञानी के ज्ञान में जितना जो कुछ ज्ञात है अर्थात् सब ज्ञात है वह उनकी दिव्यध्वनि में प्रकट नहीं होता। उसका अनंतवां भाग तो दिव्यध्वनि में प्रकट हुआ उतना गणधरदेव झेल नहीं पाते। जितना गणधरदेव झेल पाते उतना अन्य आचार्य प्रतिपादन नहीं कर पाते। फिर सोचते जाइये जिस आचार्य का जो ज्ञान था, जितना था वह सब प्रतिपादन नहीं किया जा सका और अपने से ही अनुमान कर लो― ज्ञान धर्म के बारे में जितनी बातें आप समझ सकते हैं उतना सब कुछ आप वचनों से बता सकते हैं क्या? कोई-कोई भाई तो यह स्पष्ट कह देते हैं कि देखो हमने समझ तो सब लिया है पर हम मुख से कह नहीं सकते।
स्वसंविदित भाव के पूर्ण प्रतिपादन की अशक्यता पर एक लोकदृष्टांत― जैसे अपार रत्नाकर में रत्नों के ढेर पड़े हैं, ज्वारभाटा आने पर अर्थात् पानी के घट बढ़ जाने से, पानी के उथल-पुथल हो जाने पर रत्नों के ढेर उसमें प्रकट हो जायेंगे, उन रत्नों को आप देख सकते हैं पर गिन नहीं सकते हैं। रत्नों की बात दूर जाने दो, पानी के हट जाने के बाद रेत रह जाता है। रेत के मोटे-मोटे कण अथवा छोटे-छोटे पत्थर जैसे देहरादून की बरसाती नदियों में छोटे-छोटे पत्थर प्रकट होते हैं, आप उन सबको देख सकते हैं, पर गिन नहीं सकते। ऐसे ही जो एक अद्भुत महिमा वाला शरणभूत ज्ञानतत्त्व है, परमात्मतत्त्व का मर्म है उसका आप अनुभव तो कर सकते हैं, पर उसका प्रतिपादन नहीं कर सकते।
अनुभाव्यता और अप्रतिपाद्यता― जैसे जो कुछ आप खाते हैं बढ़िया सरस भोजन मिश्री, बर्फी वगैरह या अन्य कोई स्वादिष्ट व्यंजन, तो उसके बारे में आप पूरा अनुभव कर लेंगे, कुछ कसर नहीं रह सकती। मीठा है, स्वादिष्ट है, भला रुचने वाला है, यों सबका सब आप पूरा अनुभव कर लेंगे। वहाँ कसर न रहेगी, लेकिन जिसे अनुभव किया हैं उसे आपवैसा ही वचनों से बता दें क्या यह हो सकता है?वचनों से आप यही तो कहेंगे कि यह मीठा है, पर इसे समझ नहीं पायगा कोई जिसने कभी मीठा रस न चखा हो। ऐसे ही ज्ञान तत्त्व यह आत्मा का शुद्ध स्वभाव जिस रूप अपने को माना उसका प्रतिपादन कहा किया जा सकता है। भैया ! जिस दिन मान जायेंगे यथार्थ कि मैं तो यह हूँ, उस दिन से सब संकट दूर हो जायेंगे।
योगिरंजक तत्त्व की महत्ता व ग्रंथकर्ता की लघुता का वर्णन― जैसे अभी यह अज्ञ मनुष्य माना करते हैं ना कि मैं अमुक चंद हूँ, अमुक भक्त हूँ, अमुक प्रसाद हूँ, ऐसा ही अनुभव अपने बनाये रहते हैं ना, तब किसी ने प्रतिकूल बात कह दी तो पर में आत्मीयता की बात अपने अनुभव में होने से ‘‘मैं’’ यह हूँ, इसने मुझे यों कह दिया यों विचार आया कि लो दु:खी हो गये। अरे, ये सब व्यर्थ की बातें हैं, सब मायाजाल है, सदा रहने की नहीं हैं, न यह मेरा नाम है, न यह मेरी पोजीशन है, न ये सब वैभव समागम कुछ भी है। ऐसा यथार्थ अनुभव जब होगा कि मैं आत्मा तो मात्र एक जानन देखनहार अमूर्त तत्त्व हूँ, जिसका नाम भी नहीं है जिस दिन यह बात अनुभव में आ जायेगी, उस दिन से यह बात ध्रुव सत्य है कि सब संकट मिट जायेंगे। घर में रहते हुये भी संकट न आयेंगे। घर में ज्यादा दिन तो वह रहेगा ही क्या, उस स्थिति में वैसे भी संकट न आयेगा और बहुत ही शीघ्र व्यक्ति नि:संकट हो जायेगा। प्रभुता प्रकट हो जायेगी, उस तत्त्व का इस ग्रंथ में वर्णन है और जिन विधियों से वह तत्त्व अनुभव में आ सकता है उन सब विधियों का ढंग से वर्णन है। इस पर भी ग्रंथकर्ता आचार्य कह रहे हैं कि हम इसको कहने में क्या समर्थ हैं?