वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1304
From जैनकोष
येन येन सुखासीना विदध्युनिश्चलं मन:।
तत्तदेव विधेयं स्यांमुनिभिर्बंधुरासनम्।।1304।।
जिस-जिस आसन से सुख रूप भी बैठे हुए मुनि अपने मन को चलित न कर सकें, बाह्यपदार्थों में अपना मन न फँसे, यों निश्चल बन सकें वे सभी सुंदर आसन मुनियों को स्वयं करना चाहिए। पद्मासन में यदि कठिनाई पड़ती हो तो उन आसनों में भी ध्यान नहीं बनता। इसका जिसे अभ्यास हो, घंटों बैठ सके और रंच कष्ट का अनुभव न हो तो वह आसन ध्यान के योग्य है, इस दृष्टि से सभी सुखासन हो जाते हैं। सुखपूर्वक जो आसन है, जिस आसन में आकुलता न हो वह आसन ध्यान के योग्य माना गया है।